भूमिका
(‘धुंआ’ – एक प्रतीकात्मक कथा)
कभी-कभी सबसे गहरी बातें सड़कों के शोर में नहीं, बल्कि किसी टपरी की चुप चाय में घुली होती हैं। ‘धुंआ’ ऐसी ही एक बातचीत की कहानी है—सीधी, साधारण, मगर भीतर तक झकझोर देने वाली।
यह कहानी दो नौजवानों की नहीं, दो दृष्टिकोणों की है—एक जो जीवन को बहादुरी से देखने का दावा करता है, और दूसरा जो डर को स्वीकारने में समझदारी देखता है। सदर बाज़ार की चाय टपरी पर सिगरेट के धुएं और शब्दों के बीच जो तर्क-वितर्क चलता है, वह दरअसल हमारे समय की उन सच्चाइयों को उजागर करता है जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
यह धुंआ केवल सिगरेट से नहीं उठता—यह उस असहायता, उस निराशा और उस विरोध का धुंआ है जो अंदर ही अंदर सुलगता रहता है। जिसे समाज बार-बार कुचलता है, फिर भी वह बुझता नहीं।
‘धुंआ’ कोई जवाब नहीं देता, सिर्फ एक सवाल छोड़ता है—कि सच में डर किससे लगना चाहिये...
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सुबह का वक्त था, धूप थोड़ी सी छन छन कर आ रही थी। सदर बाजार की चाय टपरी पर दो नौजवान बैठे थे आमने सामने। अंशुल सिगरेट जलाते हुए किशोर को देखता है जों। हल्की नीली जींस और सादा कुर्ता चमड़े की चप्पल पहने हुए कुल्हड़ पर फूंक मार रहा होता है।
अंशुल किशोर को सुनाते हुए कहता है "इंसान को डरना नहीं चाहिए हम बिल्कुल नहीं डरते डट कर सामना करते हैं,सामने कोई तुर्रम खान ही क्यों न हो...."
किशोर हल्का सा मुस्कुराता है गहरी सांस लेते हुए बिना किसी अतिरिक्त दबाव के सहज शब्दों में कहता है "वैसे डरने में कोई बुराई नहीं यदि हम समझदारी से काम ले.....हां लेकिन बेवजह छटपटाना शायद कायदे की बात नहीं"
अंशुल सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए किशोर से कहता है "तुम्हे किससे डर लगता है फ़िर, भूत प्रेत पिशाच या अंधेरे से या कंगाली से या गरीबी से कौनसे श्राप से तुम डरते हो "
किशोर हल्का सा मुस्कुरा कर कहता है, "कहो तो दो लाइन सुना दूं "
अंशुल: हां भला क्यों नहीं इरशाद इरशाद..
किशोर आधी चाय का कुल्हड़ टेबल पर रखते हुए कमर सीधी कर बुलंद आवाज़ में कविता पढ़ता है...
मैं डरता नहीं किसी भूत प्रेत न किसी श्राप से
मैं डरता नहीं ग़रीबी से न कंगाली के जाल से
यह सब तो बदले जा सकने वाले हालात है
यह सब तो चंद चूहों की करामात है
मैं डरता उस अभिनेता से हूँ
अंशुल हंसता है मगर मुरझाए हुए मन से इठलाते हुए किशोर की तरफ देखता है और एक मौन अलविदा कहते हुए किसी कटाक्ष को न पचा पाने के भाव से जो अनुभूति होती है उसी प्रकार अंशुल खुद से खीजने लगता है और सिगरेट का आखिरी कश लेता है और फिर उसे कुचल कर बाइक स्टार्ट कर चला जाता है, किशोर सिगरेट को देखता है जो कुचलने के बाद भी धधक रही थी हल्का धुंआ उठ रहा था तभी एक पास में ही खड़े सभ्य नागरिक ने गुटके का पीक थूका, सिगरेट बुझ गई धुंआ भी धुंधला सा गया,...
किशोर ने अपनी चाय देखी जो अब ठंडी हो चुकी थी और उस कुल्हड़ को मुंह लगाने का अब कोई अर्थ नहीं बचा ,
किशोर (धीरे से, अपने आप से): "वक़्त और चाय — दोनों बर्बाद हो चुके हैं। वापस नहीं आ सकते। लेकिन एक और चाय मंगाई जा सकती है…हाँ, इस बार ठंडी होने से पहले पीनी होगी…वरना ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा…"
थोड़ी देर बाद एक लड़का आता है एक सिगरेट जलाता है फिर कुचल कर चला जाता है.........फिर एक आता है ...चला जाता है.