what mistake, we did.... ?' in Hindi Adventure Stories by Sharovan books and stories PDF | हम से क्या भूल हुई?

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हम से क्या भूल हुई?

हम से क्या भूल हुई ?
कहानी/ Sharovan 

***
     'शालीमार के लिये इतना ही इशारा काफी था। वह समझ गया कि धार्मिक चलन और आस्थाओं की जो सरहदें उसके चारों तरफ हैं, उनके मध्य खुली हवाओं में उसे रहने की इजाज़त नहीं है। दुनियां का हरेक धार्मिक चलन और विश्वास, इंसानियत के सबक और पाठ पढ़ाता है, पर जब इंसानियत का कर्तव्य और फर्ज़ मनुष्य के सामने आता है तो उसे निभाने के लिये उसके सामने धार्मिकता के कायदे और कानून क्यों बिदकने लगते हैं?'
***

   'अरे सुनो बेटी रिमझिम?
'?' -
रिमझिम को अचानक ही अपने नाम का संबोधन सुनाई पड़ा तो जल्दी­जल्दी से चलते हुये उसके पैर सहसा ही ठिठक गये। उसने चौंक कर पीछे देखा तो सामने की किताबों की दुकान पर बैठे हुये दीवान जी उसी की तरफ देख रहे थे। रिमझिम उन्हें देखकर अपने स्थान पर ठहर गई तो वे शीघ्रता से दुकान से नीचे उतरे और उसके पास आकर धीरे से बोले,
'मैं नहीं जानता हूं बेटी कि इस पत्र में क्या लिखा है और कैसा सन्देश है? तुम्हें शायद याद हो कि अक्सर एक साधू प्रवृत्ति का जवान सा युवक इस बाजार में घूमा करता था। वही तुम्हारे लिये यह पत्र दे गया है। मैंने यह पत्र तो ले लिया पर मन जरूर शंका से भर गया है। यही सोचता हूं कि उस भिक्षुक जैसे व्यक्ति को तुमसे क्या लेना–देना? वह तुमको क्योंकर जानेगा? फिर भी यदि इसमें कोई ऐसी–वैसी बात लिखी हो तो मुझे बताने में संकोच मत करना।तुम तो जानती ही हो कि मैं उम्र में तुम्हारे पिता जी से भी बड़ा हूं।'

कहते हुये दीवान जी ने अपनी बात समाप्त की और फिर तुरन्त ही एक लिफाफा रिमझिम को थमा दिया। रिमझिम ने एक आश्चर्य और संकोच के साथ दीवान जी से वह लिफाफा तो ले लिया पर साथ ही उसका मन अनेकों शंकाओं और चिन्ताओं का जमाव देखकर तरह­तरह के विचारों से भर गया। रिमझिम इस मार्ग से रोज़ ही निकलती थी। हांलाकि वह बस से अपने स्कूल आती थी लेकिन बस उसे जिस स्थान पर उतारती थी वहां से लगभग तीन सौ गज का फासला उसे पैदल ही तय करना पड़ता था। साथ ही दीवान जी की दुकान पर से समय–असमय जब भी उसे जरूरत होती थी वह अपनी खरीदारी भी कर लेती थी। दीवान जी स्कूल की किताबों और स्टेशनरी की दूकान चलाया करते थे। रिमझिम ने दीवान जी के द्वारा दिया गया पत्र चुपचाप अपने हाथ में पकड़ी हुई कोर्स की पुस्तक के बीच रखा और फिर मन में अनेकों शंकाओं को भरे हुये वह अपने स्कूल की तरफ बढ़ गई। दीवानपुर के लड़कियों के ईसाई मिशन स्कूल में उसे अध्यापिका की नौकरी मिली तो रायगढ़ में अपने घर को छोड़कर उसे यहां आना पड़ा था। हांलाकि यहां के मिशन स्कूल में उसे रहने और खाने के लिये मिशन के बोर्डिंग का पूरा सहयोग मिल रहा था परन्तु अपने परिवार के कड़े धार्मिक उसूलों व सिद्धांतों के कारण वह ईसाई मिशन बोर्डिग में नहीं ठहर सकती थी। वह जानती थी कि जीवन के लिये पैसा और नौकरी बहुत जरूरी थी पर इस पैसे के लिये अपने धार्मिक संस्कारों की बलि चढ़ाना उसके परिवार के किसी भी सदस्य को मंजूर नहीं था। एक हिन्दू परिवार ईसाई संगति में घुलमिल जायेऌ यह बात उसके परिवार में किसी को भी नागवार नहीं थी। इसीलिये उसके परिवार वालों ने उसका ठहरने और खाने का प्रबध अपने किसी नज़दीकी रिश्तेदार के यहां कर दिया था। सो रिमझिम प्रतिदिन बस लेती थी और फिर इस प्रकार से वह अपने स्कूल आती­जाती थी।तरह­तरह के विचारों और ख्यालों के साथ रिमझिम अपने स्कूल में आई। कॉमन रूम में जाकर उसने अपने लॉकर में अपना आवश्यक सामान रखा। घड़ी देखी,   
अभी कक्षा आरंभ होने में लगभग दस मिनट शेष थे। उसने अपने आस­पास देखा ्र कुछेक अन्य कक्षाओं की अध्यापिकायें बैठी हुई आपस में वही प्रति­दिन की बातें जैसे दोहरा रही थीं। रिमझिम ने अवसर का लाभ उठाया और पुस्तक में रखा हुआ लिफाफा एक बार फिर ऊपर­नीचे से देखा और तुरन्त ही खोल दिया। अन्दर रखा हुआ पत्र उसने निकाला। अंग्रेजी में लिखे हुये पत्र को देखते ही वह पहले से भी अधिक चौंक गई। एक भिखारी का पत्र . . .? और वह भी अंगे्रजी भाषा में? रिमझिम का आश्चर्य करना बहुत स्वभाविक ही था। रिमझिम ने पत्र को पढ़ना आरंभ किया;
 ‘रिमझिम,
अपना नाम पढ़ते ही रिमझिम के कान जैसे तुरन्त ठिठक गये। वह अनजान भिखारी सा दिखनेवाला युवक उसका नाम भी जानता है? सोचते ही उसकी जिज्ञासा पहले से और भी अधिक बढ़ गई। फिर उसने पत्र को पूरा पढ़ना आरंभ किया, जिसका हिन्दी में अनुवाद कुछ इस तरह से था....
'शायद आप मुझे अब तक तो भूल ही गई थीं. इसी कारण मुझे पहचान न सकीं। मेरी और आपकी ज़िन्दगी में जो हादसा अचानक से एक साथ हुआ, उसने आपको तो नये जीवन के नये­नये जो मार्ग दिये उन पर चलकर आपका जीवन शायद बहुत ही सहज हो गया है। लेकिन मुझे जो कुछ मिला वह आपने इतने दिनों तक देखते हुये भी पहचान न पाया। खैर! मेरी ज़िन्दगी में एक फर्ज़, एक कर्तव्य, सहसा ही आया और उसको मैंने बगैर किसी भी स्वार्थ के मानवता के नाते निभा भी दिया। आपने मुझसे दो दिन पहले कहा था कि,'गले में क्रॉस पहनते हो और यह भी नहीं जानते हो कि क्रॉस पहनकर लोग परमेश्वर और मनुष्य, दोनों ही की सेवा किया करते हैं। इतने हट्टे–कट्टे और युवा हो, भिक्षा मांगते हुये शर्म भी नहीं आती है तुम्हें? कैसा रक्त है तुम्हारे शरीर में, जिसे परिश्रम करने से शायद लाज आया करती है?'आपने मेरे खून पर तोहमत लगाया। उसमें दोष ढूंढ़ा? लेकिन यह नहीं सोचा कि उसी रक्त के बहने के निशान आपके बदन से शायद आज भी बरामद किये जा सकते हैं। मैंने जो कुछ भी आपके साथ किया उसका मुझे कोई भी मुआवजा नहीं चाहिये। मैंने तो केवल अपने बदन का थोड़ा सा रक्त देकर आपकी जान भर बचाई थी, पर सोचिये उस नाज़रत के साधू प्रवृत्त यीशु को जिसने अपने पवित्र रक्त को बहाकर सारे जहां के उद्धार के लिये हमेशा का मार्ग खोल दिया है। मेरी तो केवल एक दिली इच्छा भर थी कि जिस अनजान हिन्दू लड़की को मैंने अपना खून दिया, मेरे खून ने जिसे नया जीवन दिया और जिसको जीवन देने के लिये मैंने अपने मसीही संस्कारों की ख़ाक उड़ा दी और जिसकी मानवता के नाते सहायता कर देने भर से मेरी ज़िन्दगी का आयाम ही बदल गया, उससे केवल एक बार जीवन में भेंट करके पूछ तो लूं कि, 'आप कैसी हैं?' पर नसीब को देखिये कि वर्षों बाद आप अचानक से मिलीं भी तो आपने मुझे कुछ कहने का अवसर भी नहीं दिया। और इस अचानक से हुई भेंट में आपने जो भी मुझे दिया है उसे संभाल कर मैं अपने साथ लिये जा रहा हूं, केवल इस एक विश्वास के साथ कि इस शहर तो क्या जिस स्थान पर भी आपके कदम पड़ेंगे वहां पर आप मुझे फिर कभी भी नहीं देखेगीं। मेरी आपसे एक विनती है कि मेरे और आपके साथ जो कुछ भी हुआ है उसका ब्यान किसी से भी न करना, नहीं तो लोग महज धार्मिक संस्कारों को आड़े रख कर आपस में एक­दूसरे की सहायता करना बंद कर देगें। शायद अब तक आप अच्छी तरह से समझ चुकीं होंगी कि आपको यह पत्र लिखने वाला भिखारी सदृश्य मनुष्य कौन हो सकता है?'

पत्र पढ़ने के बाद रिमझिम की छाती पर अचानक से जैसे सांप लोट गया। उसे लगा कि सहारे के लिये उसने ज़रा सा पैर रखा ही था कि नीचे ज़मीन ही खिसक गई है। दिल में उसके धक् सी होकर रह गई। सोच कर ही वह रह गई कि यह उसने क्या कर डाला? क्या उसने सोचा था? क्या­क्या वह अब तक सोचती आई थी? कितने ही विचारों­भरी आस्थाओं की श्रृंखला को वह अब तक अपने मन के कोने में संवारकर रखती आई थी. एक इसी धारणा के साथ कि जब भी वह उस अनजान युवक से मिलेगी तो कुछ नहीं कर सकेगी तौभी कम से कम उसके चरणों में श्रृद्धा और आदर­सम्मान के दो पुप्प तो रख ही देगी। वह पुरूष जो अचानक से उसके जीवन में उसकी सांसों का कोई दूसरा जीवन­दूत बन कर आया था। यदि वह नहीं होता तो शायद वह आज इस संसार में होती भी नहीं? कितने निराश मन से थका­हारा, मजबूर होकर वह उसके शहर से गया होगा? कहां गया होगा? कहां हो सकता है वह?
वह अपरिचित, अनजान लेकिन अपना सा . . .!
   ...सोचते–सोचते रिमझिम की आंखों के पर्दे पर कई वर्षों पहले की वह दिल–दहला देने वाली घटना स्मरण हो आई कि जिसके सोचने ही मात्र से आज भी उसके कोमल बदन के रोंगटे खड़े हो जाया करते हैं......?

तब अक्टूबर माह की इक्कीस तारीख़ थी। शाम गहराने लगी थी और दिन भर का थका–मांदा सूर्य का गोला दूर वृक्षों के पीछे से अपनी लाली बिख़ेरने लगा था। पक्षियों के झुंड अपनी कतारों में तेजी से पंख फैलाये अपने नीड़ों की तरफ उड़े चले जाते थे। वह बस में बैठी हुई थी। साथ में उसके परिवार के सदस्यों के साथ उसके बहुत से रिश्तेदार भी बैठे हुये सफ़र कर रहे थे। सब ही को रात आने से पूर्व अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच जाना था. दूसरे दिन एक विवाह में उपस्थित होना था। रिमझिम बैठी हुई दिल्ली प्रेस से प्रकाशित होने वाली पाक्षिक पत्रिका ‘सरिता’ का नया अंक पढ़ रही थी। सबकी तरफ से अनजान और सुध­बुध खोये हुये जैसे वह पत्रिका पढ़ने में लीन हो चुकी थी। लेकिन उसे नहीं मालुम था कि पास की बगल में बैठा हुआ एक युवक उसको पत्रिका पढ़ते हुये काफी देर से निहार रहा है। कोई नहीं जानता था कि बैठे हुये उस अनजान और अपरिचित युवक का रिमझिम को बार­बार देखने का कारण उसका रूप­आकर्षण था या फिर पत्रिका में पढ़ते हुये किसी विशेष विषय का? तभी रिमझिम को अचानक से आभास हुआ कि वह युवक उसी को देख रहा है तो उसने भी उसकी तरफ देखा। बजाय इसके कि रिमझिम के अचानक से देखने पर वह युवक कुछ चौंकता, वह युवक स्वंय ही उससे बोला,
'आप यह पत्रिका पसंद करती हैं? यह तो धर्म­आडम्बर विरोधी पत्रिका है?
'ऐसी बातों से मुझे कोई भी सरोकार नहीं है। मैं तो केवल इसकी वस्तविकता से भरी हुई रोचक कहानियां ही पढ़ा करती हूँ.''
'अभी कौन सी कहानी पढ़ रही हैं?'
'‘कहानी का नाम है, ' मैं किसी का नहीं।’
जानती हैं इसके लिखने वाले लेखक का नाम क्या है?''
'शालीमार . . . और कौन होगा...! केवल एक ही तो ईसाई लेखक है, ऐसी कहानियां लिखने वाला.'
रिमझिम ने कहा तो वह बैठा हुआ युवक हल्के से मुस्कराकर रह गया। बाद में उस युवक ने अपनी बात समाप्त कर दी और वह मुंह घुमाकर जैसे ही बगल की खिड़की से बाहर देखने लगा तो रिमझिम उसके कंधे तक झूलते लंबे बालों को देखकर मन ही मन बड़बड़ाई,'मूर्ख. . .! लड़कियों की तरह लंबे बाल रखता है और बगैर बात के भी बात करना चाहता है।’कहते हुये वह फिर से पत्रिका पढ़ने लगी थी। उसके बाद क्या हुआ था? उसे केवल इतना ही मालुम हो सका था कि, जिस बस में वह यात्रा कर रही थी उसकी बड़ी ही घातक दुर्घटना हुई थी। तीन यात्रियों के साथ बस के ड्राइवर की भी मृत्यु घटनास्थल पर हो चुकी थी। बहुत से यात्रियों के साथ उसके अन्य पारिवारिक जनों को भी घातक और जानलेवा चोटें आईं थी। वह भी खून के बहने के कारण मरणासन्न् थी मगर उसकी जान बचाने के लिये बस में यात्रा करने वाले किसी ईसाई लेखक ने उसे अपना रक्त भी दिया था। रक्त देने से पूर्व उस युवक ने बाकायदा अपने लंबे बाल कटवाकर वैदिक रीति को पूरा किया था क्योंकि रिमझिम के पारिवारिक जनों ने स्पष्ट कह दिया था कि भले ही उनकी लड़की की जान चली जाये पर किसी गैर हिन्दू व्यक्ति का खून उनकी लड़की को नहीं चढ़ाया जायेगा, क्योंकि ऐसा करना उनके धार्मिक विश्वासों के विरूद्ध होगा। लेकिन उस लेखक युवक ने इंसानियत के नाते रिमझिम की जान बचाना अधिक उचित समझा था, बजाय इसके कि वह अपने या किसी अन्य के संस्कारों की कद्र करता। उस घटना के समय शायद यह भी एक संयोग ही था कि केवल उसी का रक्त रिमझिम के रक्त से मेल खा रहा था और इस घातक दुर्घटना में उसके खरोंच तक नहीं आई थी. जहां दुर्घटना हुई थी वह एक छोटा सा शहर था जिसमें केवल एक ही छोटा सा अस्पताल था। इस अस्पताल में भी रक्त को जमा करके रखने का कोई बड़ा प्रबंध नहीं था। उस युवक ने हांलाकि परिस्थिति की नजाकत को देखते हुये और रिमझिम की जान बचाने की ख़ातिर हिन्दू संस्कारों की रीतिरिवाजों और रस्मों को तो अवश्य ही पूरा किया था पर उसने यह बात अपने सच्चे दिल और आत्मा से की थी, इसमें अवश्य ही सन्देह था।रिमझिम को जब उपरोक्त सारी बातें बाद में स्वस्थ्य होने के पश्चात पता चलीं तो स्वत: ही एक आदर-श्रृद्धा और सम्मान की भावना उसके मन में उस अनजान युवक के प्रति आकर बस गई थी। और यह बहुत स्वभाविक भी था। जिस इंसान ने उसकी जान बचाई उसको नया जीवन दिया और जिसका खून उसके जिस्म में नई ज़िन्दगी के फव्वारों के समान उछालें मार रहा हो, उसको वह कैसे नज़रअंदाज कर सकती थी। किस प्रकार उसे अपने मानसपटल से साफ कर सकती थी। रिमझिम की भी यही मनो–इच्छा थी कि केवल एक बार उस युवक से उसकी भेंट भर हो जाये ताकि जो एहसान का बोझ वह अपने सिर पर उस युवक के प्रति लिये फिर रही है उसको वह कम से कम अपने दो कृतज्ञता से भरे शब्दों के द्वारा हल्का कर लेगी। उसके हाथों में वह आदर–मान के दो फूल तो अर्पित कर ही सकती है। रिमझिम को यह तो पता चल ही चुका था कि वह अनजान युवक एक लेखक है पर किस नाम से लिखता है? यह वह न जानती थी। और जब दो दिन पूर्व वह युवक उसे अचानक से मिला भी तो वह उसे पहचानना तो दूर, मनुष्यता के नाते उससे आदर के दो शब्द कहने के स्थान पर उसे बुरा–भला कह गई थी। इसकदर कि उसे एक नाकाम, आलसी भिखारी की संज्ञा दे भी चुकी थी . . .'

सोचते–सोचते रिमझिम की बड़ी–बड़ी काली आंखों से पश्चाताप के आंसू किसी बेदर्दी से फेंकी हुई माला के मोतियों के समान स्वत: ही टूट­टूटकर गिरने लगे। दिल के किसी कोने में छिपी हुई आदर और श्रृद्धा की भावनाओं पर जब पश्चाताप के शूल बिख़रे हुये कांच की किरचों के समान चुभने लगे तो वह फूट­फूटकर रोने लगी। वह क्या जानती थी कि जिस युवक के लंबे बालों को देखकर वह कभी बड़बड़ाई थी, वही उसकी जान बचाने का कारण भी बने थे। जिसकी शक्ल देखकर कभी उसने बुरा सा मुंह बनाया था, उसी की शक्ल को दुबारा देखकर एक बार फिर उसने उसका अपमान कर डाला था। ऐसा कि वह अब फिर कभी भी उसकी एक झलक भी नहीं देख सकेगी . . .।'

 ' मिस रिमझिम . . .मिस रिमझिम . . .?'
अचानक ही रिमझिम को अपने नाम का संबोधन सुनाई दिया तो उसके सोचते हुये विचारों की तन्द्रा टूट गई। उसने सिर उठाकर सामने देखा तो स्कूल की प्रधानाचार्या उसके सामने खड़ी हुई उसको बड़ी ही हैरत के साथ देख रही थीं। स्कूल कभी का शुरू हो चुका था। स्कूल आने के बाद जब रिमझिम स्कूल की सुबह की प्रार्थना में भी नहीं पहुंची और कक्षा में भी नज़र नहीं आई थी तो वे उसे ढूंढती हुई यहां तक आ गई थीं।
“क्या हुआ आपको? आपकी तबियत तो ठीक है न?'
प्राधानाचार्या ने उससे पूछा तो उसने शीघ्रता से अपनी पुस्तक उठाई, पत्र को उस पुस्तक में रखा और प्राधानाचार्या को संबोधित हुई,'
'मैं ठीक हूं। सॉरी . . .!' कहती हुई वह शीघ्रता से अपनी कक्षा में चली गई। प्रधानाचार्या भी उसको आश्चर्य के साथ केवल जाती हुई देखती रह गई.
***
दूसरी तरफ शालीमार जब अपने घर पहुंचा तो उसका बदला हुआ हुलिया और गंजा सिर देखकर उसकी मां के साथ उसका समूचा परिवार ही आश्चर्य किये बगैर न रह सका। सबसे पहले उसकी मां ने ही उसे टोका। वह बोली,' ये क्या हुआ तुझे? यह गंजा सिर और तमाम चोटों के निशान . . .? क्या कहीं झगड़ा आदि करके आया है?''
नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है।''
'फिर क्या हुआ?'
'?' -
शालीमार ने सोचा कि यदि उसने वास्तविकता बता दी तो सारे घर के साथ­साथ सारी मसीही बस्ती में भूचाल आ जायेगा। उसने झूठ का सहारा लिया। वह बोला कि,
'बटेश्वर गया था. एक दस्यु के बारे में कहानी लिखने के लिये। लेकिन पुलिस ने मेरे लंबे बाल देखकर मुझे भी बदमाश समझा। उहोंने मुझे मारा–पीटा और मेरे बाल भी काट दिये।''
'इसीलिये तो मैं कहती थी कि कायदे से रहा कर। इतनी अच्छी शक्ल है, पर बिना बात के बदमाशों की तरह भेष बनाये फिरता है। ऐसा ही रहा तो किसी दिन पुलिस तुझे भी गोली मार देगी।'
मां बकती हुई चली गई। फिर घर में चर्चा हुई सो तो हुई ही, लेकिन सारी मसीही बस्ती में भी यह बात जंगल में लगी आग के समान फैल गई। फिर वह दिन तो इसी तरह से व्यतीत हो गया। दूसरे दिन फिर अचानक से धमाका हो गया। शालीमार का झूठ चल नहीं सका था। दैनिक न्यूज पेपर में शालीमार की बस दुर्घटना के साथ–साथ उसी की बात और रक्त देने की सम्पूर्ण कहानी इस प्रकार के विषय के साथ प्रकाशित हुई थी;
:लड़की की जान बचाने की ख़ातिर ईसाई व्यक्ति का धर्मान्तरण।'फिर जब असली वास्तविकता का पता चला तो इस बार शालीमार को उसके परिवार के साथ­साथ मसीही बस्ती में रहने वाले तमाम लोगों ने भी आड़े हाथों ले डाला। जितने लोग थे उतनी ही बातें और समाधान थे। पास्टर जी आये तो उन्होंने उसे फिर से बपतिस्मा लेने की सलाह दी। मां ने उसे अलग बका सो अलग। उसके पिता ने तो उससे यहां तक कह दिया कि,
'इस लड़के ने तो दुबारा यीशु मसीह को सलीब पर ठोंक दिया है।'
तब शालीमार ने सबको समझाना चाहा। उन्हें वास्तविकता बताई और कहा कि उसने यह सब अपने मन और आत्मा से नहीं किया है। उस घायल लड़की की जान उसके रक्त के दिये जाने से ही बच सकती थी, इसलिये उसे ऐसा करना पड़ा था। वह अभी भी मसीही ही है और उसे कोई भी दोबारा बपतिस्मा लेने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह लड़की भी जान से चली जाती। और अगर वह इस प्रकार से मर जाती तो फिर वह कभी भी अपने आपको क्षमा भी नहीं कर सकता था। सदा एक अपराध­बोधता की भावना से ग्रस्त अपने आप में ही सुलगता रहता।लेकिन शालीमार के इस तरह से सफाई देने और समझाने से ना तो उसके पारिवारी जनों पर कुछ प्रभाव पड़ा और ना ही महल्ले के ईसाई लोगों पर। फिर धीरे­धीरे इन सारी बातों का असर कुछ ऐसा हुआ कि अपनी ही बस्ती के रहने वाले लोग उस पर कभी फब्तियां कसते, कोई उसे देखकर हंसता तो कोई उस पर दोषारोपण करने लगता। जब उसने किसी का कुछ भी कहना नहीं माना तो सबसे पहले उसका चर्च की सदस्यता से नाम काटा गया और बाद में उसे महल्ले के रहने वाले ईसाई लोगों के द्वारा ही विशेष कार्यक्रमों और समाज में ही नकारा जाने लगा। इतना तो हो ही रहा था साथ में उसके पिता को भी बातें सुनना पड़ती थीं। और फिर एक दिन उसके पिता ने उससे कह ही दिया। वे बोले,
   'अगर इस लड़के को हमारी या किसी की भी बात समझ में नहीं आती है तो वह अपना कोई भी ठिकाना देख ले। खुद भी चैन से रहो और हमें भी अपना बुढ़ापा शान्ति से काट लेने दो।'
शालीमार के लिये इतना ही इशारा काफी था। वह समझ गया कि धार्मिक चलन और आस्थाओं की जो सरहदें उसके चारों तरफ हैं, उनके मध्य खुली हवाओं में उसे रहने की इजाज़त नहीं है। दुनियां का हरेक धार्मिक चलन और विश्वास इंसानियत के सबक और पाठ पढ़ाता है, पर जब इंसानियत का कर्तव्य और फर्ज़ मनुष्य के सामने आता है तो उसे निभाने के लिये उसके सामने धार्मिकता के कायदे और कानून क्यों बिदकने लगते हैं? यह बात शालीमार की समझ में नहीं आ सकी थी। नहीं आ सकी तो उसने वह जगह और ठिकाना ही छोड़ देना अच्छा समझा, जहां पर रहते हुये मानवता के कफ़न हर रोज़ ही तैयार किये जाते हैं। वैसे भी एक लेखक और पत्रकार का दिल और दिमाग रखने के कारण शालीमार की आदत में यह बात मुख्य थी कि जिस स्थान पर लोग उसे पसन्द न करें, उसकी रूसवाइयां हों और उस पर अंगुलियां उठें, उस जगह और शहर को वह छोड़ देना ही उचित समझता था।तब एक दिन शालीमार अपना घर, अपना समाज और अपना शहर छोड़कर चलता बना। छोड़ने से पहले उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया। एक पत्रिका के लिये तो वह लिखता ही था। लेकिन जब एक दिन उसने अपने बारे में सारी बात अपने संपादक को बताई तो उसने शालीमार को अपने प्रकाशन में स्थायी नौकरी दे दी। उसे कुछ निर्धारित शहरों का स्थायी संवाददाता बना दिया। और तब इस प्रकार शालीमार का जीवन पड़ावों में व्यतीत होने लगा। भटियारों के समान वह कभी एक शहर में तो कभी दूसरे शहर में रातें काटने लगा। ठहरने को उसका घर धर्मशालायें और रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्म होते और खाने के लिये होटल और ढाबे। जहां भी उसकी शाम ढलती वहीं उसका ठिकाना होता. जो भी उसे मिल जाता, वही उसका भोजन होता। लेकिन फिर भी वह अपने काम में कभी­कभी इतना अधिक व्यस्त हो जाता था कि खुद उसको अपना भी ख्याल नहीं रहता। फलस्वरूप उसके बाल फिर से बढ़ने लगे। यूं भी लंबे बाल रखने का वह वैसे भी शौकीन था। पर अब व्यस्तता के कारण उसकी दाढ़ी और मूंछें भी बढ़ गई थीं। इस प्रकार कि उसका हुलिया किसी भी साधू और भिख़ारी से कम नहीं दिखता था। नौकरी की व्यस्तता और जीवन की नीरसता के आयामों से गुज़रती हुई अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी की खिड़कियों से वह जब भी बाहर अपने अतीत में झांककर देखता तो ऐसे में उसे यादों के पटल पर एक धूमिल सी तस्वीर रिमझिम की दिखाई देती। रिमझिम उसे याद आती तो इसका कारण यह नहीं था कि वह उसे याद ही करता था। उसकी तस्वीर और छवि उसकी आंखों के सामने आती तो उसका कारण केवल इतना ही था कि रिमझिम उसके लिये वह अनजान और अपरिचित लड़की थी कि जिसके कारण उसकी ज़िन्दगी के सफ़र का रूख ही बदल चुका था। ऐसा कि वह अब घर का रहा था और ना ही घाट का। उसका स्थान ना तो अपने मसीही सामाज में सुरक्षित बचा था और ना ही गैर­मसीही समाज में वह किसी सम्मान के लायक रहा था। तब भी उसके दिल में एक इच्छा बाकी थी कि वह लड़की जो उसके रक्तदान के कारण जीवन पा सकी और जिसके कारण उसे अपने मसीही संस्कारों की आहुति देनी पड़ी थी . . . वह उससे एक बार फिर से मिल तो ले . . . '

...और जब रिमझिम उसे मिली भी तो उस रूप में कि जिसकी उसने कभी तमन्ना भी नहीं की होगी। आस्थाओं के जलते हुये दिये यदि आंधी और तूफानों से बुझ जायें तो मनुष्य सब्र भी कर लेता है, परन्तु यही दीप यदि मन के अन्दर किसी की स्मृतियों की सांसों के प्रभाव से अपना दम तोड़ दें तो इंसान किस प्रकार तसल्ली कर सकता है, यह एक सोचने वाली बात है?

स्कूल की अंतिम घंटी ने शोर मचाकर जब स्कूल समाप्त होने की सूचना दे दी तो रिमझिम टूटे हुये मन के साथ मस्तिष्क पर ढेरों बोझ सा लादे हुये बाहर आई। बाहर आकर स्वतः ही उसकी नज़रें चारों तरफ जैसे अपनी किसी प्यारी खोई हुई वस्तु को तलाशने का एक असफल प्रयत्न करने लगीं। चलते हुये जब वह उस स्थान पर आई जहां पर दो दिन पहले उसने शालीमार को बैठे हुये देखा था तो उसके कदम अपने आप ही ठहर गये। इस स्थान पर दो दिन पहले ही तो शालीमार बैठा हुआ अपने डी. वी. डी. पर किसी पुरानी हिन्दी फिल्म का गीत बजा रहा था। गीत के बोल थे,
' हम से क्या भूल हुई जो यह सजा हमको मिली . .'

तब उसने शालीमार को न जाने क्या सोचकर टोक दिया था। परन्तु अब उसका मन कर रहा था कि वह इस गीत को सदा ही सुनती रहे। शालीमार ने जो कुछ भी किया और इसके बदलें में उसे जो भी मिला वह उसके अपनों का दान था, पर रिमझिम ने उसे जो दिया था वह उसकी तरफ से उसका वह प्रसाद था कि जिसके स्वाद को वह जीवन भर कभी भी भुला नहीं सकेगा.
- समाप्त.