एक बार की बात है “एक राजा था, जो अपने साम्राज्य के विशाल जंगल में शिकार पर निकला। जंगल की चुप्प और उसकी रहस्यमयी आवाजें हमेशा उसे आकर्षित करती थीं। एक दिन, जब वो अपने विश्वासपात्र शिकारी के साथ जंगल के गहरे हिस्से में गया, तो उसने एक अजीब सी हलचल सुनी। यह हलचल एक घने पेड़ के पास से आ रही थी,
राजा ने हलचल की और ध्यानकेंद्रित किया
राजा ने अपनी तलवार को और कसकर पकड़ा और धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ने लगा। हर कदम के साथ उसकी दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी, जैसे कुछ रहस्यमय होने वाला था।“
राजा की दृष्टि जैसे ही उस झाड़ी के पास पड़ी, उसकी आँखों के सामने एक अद्भुत दृश्य था। एक सुंदर ऋषि कन्या, उसकी आँखों में गहरी शांति और ज्ञान की झलक थी। वह पीले फूलों से सजी एक नदी के किनारे खड़ी थी, उसके आस-पास फूल और बांसुरी की ध्वनि गूंज रही थी। राजा ने धीरे से कदम बढ़ाए, लेकिन उसकी उपस्थिति से कन्या की आँखों में एक हलका सा कशिश दिखाई दिया, जैसे वह पहले से ही उसे जानती हो।
राजा ने साहस जुटाया और धीरे से कहा, ‘हे देवी, आप कौन हैं? यहाँ इस अकेली जगह पर क्या कर रही हैं?’”
कन्या ने अपनी आँखों में गहरी शांति के साथ देखा और कहा, ‘मैं वनमाला हूं, राजन। ऋषि कदंब की पुत्री। मेरे पिता श्री का आश्रम नदी पार है। आप जैसे महान योद्धा यहाँ इस घने जंगल में क्या खोज रहे हैं?’
राजा चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा, फिर कुछ पल सोचने के बाद उसने कहा, ‘मैं शिकार पर निकला था, लेकिन इस जंगल के रहस्यों में एक अलग ही आकर्षण है। और अब, आपकी उपस्थिति ने मेरी राह बदल दी है। क्या आप मुझे अपने पिता से मिलवाने की कृपा करेंगी?’
वनमाला की आँखों में एक चमक आई, जैसे उसने राजा के सवाल को समझ लिया हो, और फिर उसने कहा, ‘यहाँ से बहुत दूर एक रहस्यमय मार्ग है, राजन, लेकिन वह मार्ग केवल उन्हीं को दिखता है, जिनकी नीयत पवित्र होती है। यदि आप मेरे साथ आना चाहते हैं, तो ध्यान रखिए, रास्ता कठिन है, लेकिन ज्ञान की प्राप्ति भी कठिन ही होती है।’”“राजा की आँखों में एक दृढ़ विश्वास था, और उसकी आवाज़ में वो सम्मान था, जो केवल सच्चे दिल से निकलता है। उसने वनमाला की ओर देखा और कहा, ‘मैंने हमेशा अपने राज्यवासियों और प्रत्येक जन के लिए भला ही सोचा है, वनमाला। मेरे ह्रदय में कभी किसी से कोई बुराई नहीं रही, और मैं यही चाहता हूँ कि मेरा साम्राज्य शांति और समृद्धि से भरा हो। ऋषि कन्या, मुझे विश्वास है कि यह मार्ग अवश्य दिखाई देगा, और मैं उसे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग मानूंगा।’
वनमाला ने राजा की बातों को सुना, और फिर उसने नर्म सी मुस्कान के साथ कहा, ‘आपका विश्वास और नीयत पवित्र है, राजन। मैं आपको उस मार्ग तक ले चलूंगी, लेकिन याद रखिए, यह सिर्फ एक यात्रा नहीं होगी, यह एक आत्मिक यात्रा है। वह मार्ग बाहरी नहीं, बल्कि आपके भीतर के सच को तलाशने का होगा।‘
राजा ने सिर झुकाया, और कहा, ‘मैं तैयार हूं।’”
ऋषि कन्या वनमाला ने अपने चंदन से रचे हुए नंगे चरणों को सावधानी से उस पुराने लकड़ी के पूल पर रखा, जिसकी हर सीढ़ी एक अलग सदी की गाथा सुनाती थी। नदी का पानी मंद गति से बह रहा था, जैसे स्वयं समय उस क्षण को थामे हुए हो।
राजा ने उसकी निश्चल चाल और शांत भाव को देखा — और वो कुछ पल के लिए यह भी भूल गया कि वो एक शासक है। जैसे कोई साधारण मनुष्य बनकर चल रहा हो, अपनी आत्मा की खोज में।
पूल पार करते ही वनमाला ने हाथ से इशारा किया — ‘राजन, यही है वह वनखंड… जहां कोई भी बिना आत्म-ज्ञान के नहीं प्रवेश कर सकता।’
घना जंगल सामने था, पर वह कोई सामान्य जंगल नहीं था। हर पेड़, हर लता, जैसे किसी रहस्य की रक्षा कर रहे हों। वहां न पक्षियों की चहचहाहट थी, न ही हवा की सरसराहट — बस एक गहरा, मौन संगीत।
राजा ने वनमाला से पूछा — ‘क्या यह वही स्थान है, जहां आपके पिताश्री का आश्रम है?’
वनमाला की आंखों में अब एक अलग सी गहराई थी — जैसे उसने कोई ऐसा सत्य जान लिया हो जो शब्दों से परे है। उसने पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए कहा, “हाँ राजन, मेरे पिता श्री का आश्रम यहीं है। और मुझे यकीन है, मेरे पिता जी आपसे मिलकर अत्यंत प्रसन्न होंगे। आपका उनसे मिलने का औचित्य भी पूर्ण होगा। परंतु...”
उसकी आवाज़ अब धीमी हो गई, पर असर और भी गहरा हो गया,
“इससे आगे... आपको आपकी यात्रा अकेले करनी होगी, राजन। क्योंकि हर seeker को अन्ततः अपनी राह स्वयं ही तलाशनी होती है। यह मार्ग जितना बाहर है, उतना ही भीतर भी। और भीतर का मार्ग केवल आत्मा पहचान सकती है।“
राजा कुछ क्षण मौन रहा। उसकी आँखें वनमाला पर टिकी थीं — उसकी उपस्थिति एक संबल थी, पर वो जानता था, अब समय आ गया है अपने भीतर झाँकने का।
उसने धीरे से सिर झुकाया और कहा,
“यदि यह मेरा सत्य है... तो मैं उसका सामना करूंगा। चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो।“
वनमाला मुस्कराई, और धीरे-धीरे पीछे हट गई, घने पेड़ों में विलीन होती चली गई... और अब राजा के सामने था केवल मौन, जंगल और स्वयं का साथ।
“जंगल जो साँस लेता है”
राजा जैसे ही उस रहस्यमयी वनों में दाख़िल हुआ, वहाँ की हवा बदल गई। यह कोई साधारण जंगल नहीं था। यह जंगल साँस लेता था। हर पेड़ की फुनगी, हर लता, हर झाड़ी जैसे उसकी आँखें थीं। और अब सब उसी को देख रहे थे।
पहली परीक्षा शुरू हो चुकी थी।
पहला द्वार: भ्रम की घाटी
जंगल के बीचोंबीच एक घाटी आई। वहाँ हर दिशा एक जैसी दिखती थी। चारों तरफ आवाज़ें गूंज रही थीं—“यहाँ आओ... उधर चलो... यही मार्ग है…”
राजा भ्रमित होने लगा। पर तभी उसे अपनी माँ की आवाज़ याद आई—
“जिस रास्ते में डर लगे, वही रास्ता सही होता है।”
वो उस ओर चला जहाँ सबसे घना अंधकार था।
दूसरा द्वार: आत्मछाया
एक पुराना खंडहर। वहाँ अचानक सामने आया—एक दूसरा राजा। हूबहू उसकी तरह। वही चेहरे की बनावट, वही आवाज़, लेकिन आँखों में घमंड और क्रूरता।
उसने तलवार खींच ली—“मैं ही असली राजा हूँ! तू तो सिर्फ एक भ्रम है जो दया का मुखौटा पहनकर जंगल में आया है।”
एक भयंकर युद्ध शुरू हुआ—लेकिन तलवारों से नहीं, आत्मा की सच्चाई से।
राजा ने कहा—“मैं वो नहीं हूँ जो गुस्से में निर्णय लेता है, मैं वो हूँ जिसने खुद को जानने की यात्रा शुरू की है। तू मेरा बीता हुआ अंधेरा है।”
जैसे ही उसने यह कहा, दूसरा राजा धुएँ में बदल गया और हवा में विलीन हो गया।
तीसरा द्वार: अग्नि-सरोवर
अब सामने एक अग्नि से भरा सरोवर था, लेकिन वह आग जलाने के लिए नहीं, शुद्धि के लिए थी।
एक आवाज़ आई—
“जो सच में स्वयं को जानना चाहता है, उसे अपने पुराने स्वरूप को यहीं त्यागना होगा।”
राजा ने अपने मुकुट, तलवार, रत्नजड़ित अंगूठी—सब कुछ धीरे-धीरे सरोवर में डाल दिया।
जैसे ही उसका हाथ अग्नि को छूता है, सारी आग शीतल हो जाती है। और वह स्वयं को पहली बार बिना राजा, बिना शक्ति के—केवल एक साधक की तरह महसूस करता है।
और फिर…
सामने खुलता है एक दिव्य आश्रम। वहाँ ऋषि कदंब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, और उनके पीछे खड़ी थी… वनमाला, मुस्कुराती हुई।
ऋषि बोले—
“अब तुम केवल एक राजा नहीं रहे… अब तुम एक ज्ञानी हो… जो जान गया है कि सबसे बड़ा राज्य, आत्मा का राज्य होता है।”
राजा की दृष्टि जैसे ही ऋषि कदंब पर पड़ी
उन्हें अनुभूति हुई ये चेहरा कुछ जाना पहचाना है
राजा देख चौंक गया… वो
और कोई नहीं, अपितु स्वयं उसके पिता थे।
वो स्तब्ध रह गया। उसकी आँखों में वर्षों की अधूरी स्मृतियाँ दौड़ने लगीं।
वो पिता, जो एक युद्ध के बाद अचानक लापता हो गए थे, जिनके विषय में सबने मान लिया था कि वे अब जीवित नहीं… वो अब एक ऋषि के रूप में उसके समक्ष खड़े थे।
ऋषि कदंब—जो कभी साम्राज्य के सबसे साहसी योद्धा हुआ करते थे—अब संतत्व की शांति ओढ़े हुए, राजसी वैभव से दूर, तप में लीन एक साधु बन चुके थे।
राजा की आवाज़ काँप उठी—
“पिताश्री...? आप... आप यहाँ? इतने वर्षों से... आप जीवित थे?”
ऋषि कदंब की आँखों में प्रेम और तप का तेज एक साथ था। उन्होंने धीरे से कहा—
“हाँ पुत्र, मैं जीवित था… पर जो मैं था, वह मर चुका था उस दिन, जब मैंने क्रोध में अपना धर्म भूलकर तलवार उठाई थी। उस क्षण मैंने स्वयं को खो दिया और जंगल की शरण ली। यहाँ आकर मैंने सीखा कि असली विजय बाहर की नहीं, भीतर की होती है। और आज… तुमने वह मार्ग पूरा किया है जो मैंने अधूरा छोड़ा था।”
राजा की आँखों से आँसू बहने लगे।
वनमाला अब उनके बीच खड़ी थी, और बोली—
“राजन… आपका यह मिलन केवल रक्त का नहीं… यह आत्मा और सत्य का मिलन है।”
और तभी आकाश में एक प्रकाश फूटा।
जैसे ईश्वर स्वयं उस मिलन पर साक्षी बन गए हों।
ऋषि कदंब ने गहन स्वर में कहा —
“पुत्र… मैं नहीं चाहता था कि जो भूल मैंने अपने जीवन में की, उसका बोझ तुम उठाओ। इसीलिए मैं तुम्हें इस मार्ग पर लाया।“
“मैंने जब तलवार को न्याय से ऊपर रखा, तो मैं राजा रहा ही नहीं — मैं बस एक अहंकारी योद्धा बन गया। मेरे उसी क्रोध ने मेरे अपनों को मुझसे दूर कर दिया।“
“और फिर मैंने तय किया… कि मेरा पुत्र वो नहीं बनेगा जो मैंने बनकर पछताया।“
राजा की आँखें छलक उठीं।
“तो ये सब… वनमाला से मेरी भेंट, भ्रम की घाटी, आत्मछाया… ये सब आपने रचा था?”
ऋषि कदंब ने मुस्कराकर सिर हिलाया।
“नहीं पुत्र, राह तुम्हारी थी। मैंने सिर्फ द्वार खोले… पर पार तुमने स्वयं किया। और इसीलिए, अब तुम राजा नहीं… एक ज्ञानी हो। तुम्हारा हृदय अब निर्णय करेगा, तलवार नहीं।“
वनमाला धीरे से बोली —
“राजन… अब समय है निर्णय का। क्या आप इस ज्ञान को लेकर राज्य लौटेंगे?
या यहीं तपस्वी बनकर, एक नई राह चुनेंगे…?”
राजा की आँखों में अब तेज था, लेकिन वह तेज तलवार का नहीं… ज्ञान का था।
उसने गहरी सांस ली और अपने पिता की ओर देख कर बोला—
“पिताजी… आपने जो दिव्य ज्ञान मुझे दिया, वो केवल मेरे भीतर सीमित नहीं रह सकता। यह तो एक ज्योति है… जिसे समस्त राज्य में फैलना चाहिए।“
“मैं लौटूँगा… पर अब मैं वही राजा नहीं रहूँगा जो मैं पहले था।“
“मैं एक नया राजा बनूँगा।“
“एक ऐसा राजा जो तलवार से नहीं, विचार से शासन करेगा।
जिसके लिए प्रजा किले की दीवारों से नहीं, विश्वास के बंधन से जुड़ी होगी।
सिंहासन पर बैठकर नहीं, जनता के बीच खड़े होकर न्याय करेगा।“
ऋषि कदंब की आँखें भर आईं।
उन्होंने कहा—
“अब तुम राजा नहीं, राज-ऋषि हो… वही जो इस युग को चाहिए।“
ऋषि कदंब ने राजा की आंखों में गहराई से देखा और बोले—
“पुत्र… एक बात अब समय आ गया है बताने की।“
उन्होंने वनमाला की ओर देखा, फिर बोले—
“वह मेरी पुत्री नहीं है। जब वह बाल्य अवस्था में इस वन में आई थी, मैं उसका रक्षक बना, गुरु बना…
वनमाला एक अप्सरा है—और यक्षों की पुत्री भी । उसका जन्म स्वर्गलोक के उच्च कुल में हुआ था।
परंतु उसने तप और त्याग का मार्ग चुना, और इस धरती पर मानवों की पीड़ा को समझने आई।“
राजा चौंक गया… पर अब उसे उसकी आँखों में वही तेज़ दिखाई देने लगा जो किसी साधारण कन्या में नहीं हो सकता था।
ऋषि कदंब बोले—
“इस कार्य में तुम्हारा साथ देने के लिए ईश्वर ने ही उसे तुम्हारे पथ पर भेजा है।
उसे साथ ले जाओ। वह केवल सहचरी नहीं, तुम्हारी आत्मा की आवाज़ है।
वो तुम्हारी यात्रा को पूर्ण करेगी।“
वनमाला मुस्कराई, उसकी आँखों में अब कोई द्वंद नहीं था।
“राजन… अब मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।
ना किसी ऋषि की कन्या बनकर, ना किसी लोक की अप्सरा बनकर…
बस एक नारी बनकर… जो एक नये युग की साझी रचयिता होगी।“
राजा ने ऋषि कदंब के चरणों में झुकते हुए कहा—
“पिताजी… अब जब सत्य प्रकट हो चुका है, और मैं आपके मार्गदर्शन से अपने हृदय के उस सत्य को पहचान पाया हूँ,
तो क्या आप मेरे साथ चलेंगे?
आपके बिना वह राज्य अधूरा होगा… मेरे निर्णयों में आपका अनुभव चाहिए।
राज्य को केवल एक राजा नहीं, एक ऋषि भी चाहिए।“
ऋषि कदंब ने राजा के सिर पर हाथ रखा, उनके स्पर्श में आशीर्वाद से अधिक एक गूढ़ शांति थी। उन्होंने शांत स्वर में उत्तर दिया—
“नहीं पुत्र… मेरे तप का स्थान यही है, मेरा धर्म अब इसी वन में है।
लेकिन तुम अब केवल राजा नहीं हो… तपस्वी राजा हो।
तुम न्याय के लिए, करुणा के लिए, समता के लिए चल रहे हो।
तुमने एक अच्छा राजा बनने का संकल्प लिया है…
और मैंने, एक अच्छा राजा बनाने का।
अब हमारी यात्राएं भिन्न होकर भी जुड़ी रहेंगी।
मैं दूर रहकर भी सदैव तुम्हारे समीप रहूंगा…
हर उस निर्णय में, जो तुम सत्य से करोगे।“
राजा की आंखों से अश्रु बह निकले, पर उनमें पीड़ा नहीं थी—बल्कि वह आत्मबोध था।
उन्होंने पिता के चरणों को स्पर्श कर कहा—
“तब मैं चलता हूँ, पिताजी…
राज्य में अंधकार बहुत है, पर अब मेरे पास आपका दिया हुआ दीपक है।
और मेरे साथ वनमाला है—
जिसके साथ मिलकर हम एक ऐसा युग रचेंगे…
जिसे पीढ़ियाँ याद करेंगी।“