सूर्यबाला जी कि कहानी -फरिश्ते सूर्यबाला जी कि कहानी फरिश्ते अपने शीर्षक से ही अपनी वास्तविकता को स्प्ष्ट रूप से परिलक्षित करती है ।फरिश्ते जैसा कहानी के शीर्षक से बहुत स्प्ष्ट है फरिश्ते का मतलब देवदूत जिसका तात्पर्य है कि सर्वशक्तिमान।आज से सात सौ वर्ष पूर्व फरिश्ते मतलब सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्ति या समाज अक्षम एव कमजोर के लिए ईश्वरीय शक्ति का साक्षात होता था जो वर्तमान में भी मौजूद है।सक्षम मानव समाज द्वारा कमजोर समाज के लोंगो को गुलाम बना कर रखना एव जानवरो कि तरह वर्ताव करना सोलहवीं सदी में गुलाम प्रथा का अंत अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने जीवन का त्याग करके किया गया भारत से गिरमिटिया मजदूरों से वर्तमान में बसे फीजी , मारिसस इसी अतीत के खूबसूरत वर्तमान है जो कहानी के अंतराष्ट्रीय मानव समाज के अतीत एवम वर्तमान को संदेश देती है।।फरिश्ते कहानी इसी वास्तविकता के भारतीय समाज के परिपेक्ष का प्रत्यक्ष सत्यार्थ प्रस्तुतिकरण है । वास्तव में सूर्यबाला जी ने सामाज के उसी सत्य विकृत स्वरूप को प्रस्तुत करने कि ईमानदार कोशिश की है जिसके अंतर्गत बुर्जुआ एव शासक दो समाज कि मानसिकता को यथार्थ कि पृष्ठभूमि पर प्रस्तुति सभ्य मानव समाज पर प्रहार है तो स्वतंत्र राष्ट्र समाज को सकारात्मक परिवर्तन को प्रेरित करती परिवर्तन का आवाहन करती हैं ।कहानी के मुख्य पात्र मटरूआ जिसे गुलाम पीढ़ी का बचपन है जिसे शिक्षा स्वास्थ पोषण कि आवश्यकता है कहानी का प्रारंभ ही यही से होता है।#बाबू साहब देवता समान आदमी है भईया जी मेरी माँ बतातीं है और माँ को बड़ी बीबी जी मैं तो कुन्नू बाबू#कुन्नू बाबू साहब का प्रिय चिराग नूर नजर लख्ते जिगर खानदान का वारिस भविष्य है बाबू साहब पुराने सांमजिक एव राजनीतिक व्यवस्था के सामंत या यूं कहें जमींदार है जिनके दायरे में आने वाली जनता के भाग्य प्रत्यक्ष भगवान है ।उनका रसूख रुतबा प्रत्यक्ष भगवान की तरह ही है जिसे जो बनाना चाहे करना चाहे कर सकते है उनके ऊपर कोई ईश्वर या भगवान नही है ।कुन्नू के साथ खेलने एव उसके बाल एव किशोर मन को प्रसन्न रखने के लिए ही कहानी का मुख्य पात्र मटेरू है ।जिसका काम सिर्फ इतना ही है कि वह स्वंय चाहे जितनी पीड़ा क्लेश अपमान को सहे बर्दास्त करे किंतु कुन्नू बाबू के मिजाज को सदा खुश रखे ।# वह तो भगवान का दिया फल फूल घी दूध पर पला शरीर है सो हट्टे कट्टे होंगे ही और मैं उनसे बड़ा होने पर पिद्दी लगूंगा।##अब उन्होंने कहा मतरुआ चल कबड्डी खेल तो मुझे कबड्डी खेलना चाहिए नही तो कहीं मैंने ना की और वे जिद्द में बिगड़ गए तो बस बच्चे ही ठहरे न कही हाथ कुहाथ लगा दे या फिर बूट ही निकाल कर दौड़ा ले।।#कभी कभी नौकरों की धुनाई कोड़ा चाबुक छड़ी जो भी हाथ मे या आस पास हुआ उठाकर ऐसा सोचकर रोये कांप जाए#चाहे सांप सीढ़ी का खेल हो या क्रिकेट उंसे कुन्नू बाबू को खुश रखने के लिए हारना ही होगा यहाँ दो बाल एव किशोर मन मतिष्क है जिनको जीवन के आरम्भ के साथ ही शासक एव बुर्जुआ के लिए यू कहे अघोषित प्रशिक्षण दिया जाता है तो अतिशयोक्ति नही होगा ।वास्तव में कुन्नू एव मटरूआ का बचपन ऐतिहासिक उस मानवीय समाज का प्रतिनिधित्व एव प्रतिबिंबित करता जो मानवीय समाज के उत्कर्ष में गुलामी प्रथा का सत्य है तो भारतीय परिपेक्ष में सामंती मानसिकता को स्प्ष्ट करता है ।आज भी कही न कही किसी न किसी रूप में भारत सहित वैश्विक मानवीय समाज मे विद्यमान है चाहे प्रबुद्ध समाज द्वारा मानव तस्करी हो या आर्थिक एव सामाजिक रूप से कमजोर का आज भी अप्रत्यक्ष व्यवसाय जिसके कारण जाने कितने ही लोग गुमनाम अंधेरों में पल पल दम तोड़ते रहते है ।देखा जाय तो इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हर जगह प्रतीत हो जाएंगे चाहे अभिजात्य वर्ग के भोग के लिए सामयिक तौर पर बेची जाने वाली बालिकाएं हो या आर्थिक संपन्नता के आकर्षण में तिल तिल मरती जिंदगियां जो सुदूर भय के वातावरण में सिर्फ दो जून कि रोटी के लिए पुरातन गुलामी प्रथा के आधुनिक संस्करण का सत्यार्थ है जो होते इंसान है लेकिन जीते जानवर जैसा ।उन्हें अपने आश्रयदाता के इशारे पर ही जीना मरना होता है ।कुन्नू एव मटरुआ के माध्यम से आदरणीया सूर्य बाला जी ने मानव समाज मे मानवीय मूल्यों के ह्रास एव सभ्य समाज के समक्ष प्रश्न खड़ा किया है जो सैकड़ो वर्ष पूर्व भी प्रसंगिग था एव आज भी किसी न किसी रूप में परिलक्षित सत्य है। बाबू साहब द्वारा हत्या का आरोप मटैरू के पिता को स्वीकार करने हेतु दबाव डालना एवं मटरूआ के बाबू द्वारा अपने सर बाबू साहब कि हत्या का आरोप स्वीकार करना एव फांसी सूली पर चढ़ जाना जिसके एवज में सिर्फ मटरुआ एव उसकी मां को दो वक्त की रोटी समाज समय वर्तमान के समक्ष बहुत से मूक प्रश्न करता है जिसका उत्तर समाधान समाज को खोजना ही होगा ।जामुन के लिए कुन्नू की जिद पर जामुन के पेड़ पर मटैरू का चढ़ना एव कुन्नू बाबू कि जिद्द एव सामंती मानसिकता के अंकुरित बाल किशोर का प्रदर्शन एव मटैरू को पेड़ से गिराना एव उसके पैर सदा के लिए खराब होने एव लंगड़ा कर चलना कुन्नू एव उनके परिवार के लिए हास्य व्यंग्य हास परिहाश होना वास्तव में मनाव समाज के कठोर एव मार्मिक पक्षो को ही वर्णित करता है ।मटरुआ का पैर टूटना उसकी मां उसके लिए दुःख दर्द का मार्मिक पक्ष कि अन्तर्वेदना है जिसे वह व्यक्त भी नही कर सकते है तो दूसरी तरफ कुन्नू एव उसके सामंती या यूं कहें शासक मानसिकता के परिवार के लिए हास परिहास एव मनोरंजन का साधन मटरुआ का बनाना इस कहानी का कठोर एव दानवीय पक्ष है जो सामाज में जीवन दाता एव भय भूख लाचारी विवशता का फरिश्ता है ।आदरणीया सूर्य बाला जी कि कहानी फरिश्ते अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल रहते हुए सभ्य मानवीय समाज को अतीत के परिपेक्ष्य के बदले स्वरूप को सकारत्मक संदेश तो दिया ही है साथ ही साथ वर्तमान विकसित विलासी एव भोग वाद के वैश्विक मानव समाज को मानवता एव मानव अधिकारों एव उसके दायित्व एव कर्तव्य बोध के लिए समाज को पुकारती ललकारती जागृति करती है।आदरणीय सूर्यबाला जी कि कहानी फरिश्ते है जो यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो साहित्यकार दर्पण का निर्माता को चरितार्थ करती है ।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश।।