सुनिए, मैं आजकल बहुत दुखी हूं। वजह ये नहीं कि मैं बीमार हूं — असल दुख ये है कि मैं बीमार नहीं हूं! जी हां, स्वस्थ होना आजकल एक सामाजिक कलंक जैसा हो गया है। बीमारियों का आईपीओ जारी है, और हम जैसे लोग उसमें निवेश नहीं कर पाए। आजकल वही लोग चर्चा में हैं जिनका एमआरआई तीन बार हो चुका हो, जिनके दवाइयों के बिल पर जीएसटी रिटर्न फाइल किया जा सकता हो।
अब तो बीमा एजेंट भी हमें देखकर मुंह फेर लेते हैं — कहते हैं,
"सर, आप प्रीमियम तो भरते हैं लेकिन क्लेम में ज़ीरो परफॉर्मेंस!"
रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त — सभी उन्हें ही पूछते हैं जो आईसीयू में कम से कम एक बार एडमिट हो चुके हों।
बीमारियों का बाज़ार गरम है! रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त, बीमा वाले — सभी तो उन्हें ही पूछते हैं जो बीमार हैं या दुआ करते हैं भगवान से कि उनकी बीमारी सलामत रहे, ताकि वे भी जब जी चाहे उनके हालचाल पूछने के बहाने दो कप चाय खुद गटक लें और दो टन सलाह सामने वाले को गटका दें!
लेकिन हम जैसे नादान, जो बीमार नहीं हो पाए, उन्हें कोई पूछता तक नहीं।
पहले जब लोग कहते थे — "तंदुरुस्ती हज़ार नियामत है", तब शायद नहीं जानते थे कि हज़ार नियामतों पर अब टैक्स भी लगता है। और आज के समय में तो तंदुरुस्ती खुद एक टैक्सेबल लग्ज़री हो गई है।
अब देखिए, पिछले हफ्ते ही मैं ऑफिस में बिल्कुल फिट-फाट पहुंचा तो सभी सहकर्मी ऐसे घूरने लगे जैसे मैंने उनके बच्चों की फीस नहीं भरी हो।
"सर, वायरल का बड़ा ज़ोर है आजकल... थोड़ा संभल के।"
"तुम्हें तो वायरल नहीं हुआ?"
"सर दर्द... बुखार... माइग्रेन... कुछ नहीं?"
"सर, बताइए न... क्या राज़ है आपकी इस तंदुरुस्ती का!"
ऐसा लगा जैसे मैं कोई अंतरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा हूं।
संपर्क में आने वाले हर आदमी ने हालचाल पूछने की बजाय शिकायत दर्ज करवाने पर तुला है –
"आप लकी हैं सर... कोविड में भी बच गए! तुम कैसे बच जाते हो हर बार?"
बीमार होना अब केवल शरीर की मजबूरी नहीं, यह तो अब एक सोशल स्टेटस है।
कॉलोनी में जिसका बीपी हाई — वो हाई-प्रोफाइल।
जिसे डायबिटीज है — वो 'मीठे' रिश्तों का शिकार समझा जाता है।
अब देखिए, मेरे पड़ोसी शर्मा जी को ही लीजिए।
पिछले महीने उन्हें माइल्ड हार्ट अटैक आया।
इलाज तो हुआ ही, साथ में रोज़ शाम को दस लोग हालचाल पूछने आने लगे –
बीमा क्लेम के साथ-साथ उन्हें सामाजिक क्लेम भी मिल गया।
और मैं?
मैं हर सुबह दौड़ता हूं, ग्रीन टी पीता हूं, हेल्थ चेकअप भी करवाता हूं, लेकिन कोई पूछता नहीं —
क्यों? क्योंकि मैं "टू फिट टू बी सोशलली रेलिवेंट!"
इसी दुख में बीमा एजेंट से बात की –
कहने लगा,
"सर, आप पॉलिसी तभी क्लेम कर सकते हैं जब कुछ हो। अभी आप सिर्फ 'होपलेस्ली हेल्दी' हैं!"
मैं बोला,
"कोई वेलनेस बोनस है?"
तो वो बोला,
"हां है, लेकिन आपको बीमार न होने की सज़ा के रूप में सिर्फ 5% का कैशबैक मिलेगा — वो भी अगले प्रीमियम पर!"
अब सोचिए, जब तक खांसें नहीं — लोग मानते ही नहीं कि आप इंसान हैं।
एक बार तो मैंने नकली छींक मारी ताकि मेरी बीवी भी बोले –
"किचन मत आइए, आराम करिए।"
मैंने एक दिन अपने पड़ोसी शर्मा जी से पूछ ही लिया—“आप रोज़-रोज़ इतने बीमार कैसे पड़ते हैं?”
वो बोले—“क्या करूँ गर्ग साहब, आजकल बीमार पड़ना मज़बूरी है। ऑफिस में ऐसा खूसट बॉस आया है कि ज़रा सा ठीक दिखो, तो फाइलों का ढेर सामने रख देता है!”
आप ज़रा से फिट-फाट दिखिए और किसी शादी-ब्याह में जाने की ग़लती कर बैठिए, तो होस्ट या रिश्तेदार आप पर इतना लाड़ बरसा देंगे कि कामों का बोझ लादने लगेगा। कोई बोलेगा—भुआ को रेलवे स्टेशन से पिकअप कर लो, कोई कहेगा—हलवाई के पास पकोड़े तलवाने में मदद करो, टेंट लगवाओ, झालर लटकवाओ, बैंड वाले को संभालो, घोड़ी वाले से बात करो... किसी न किसी को सँभालने की ज़िम्मेदारी सौंप ही देंगे!
और इस ‘तू फिट है’ के चक्कर में मैंने पिछले महीने अपनी तीन छुट्टियाँ गँवाईं, दो बार पड़ोसी के स्कूटर को धक्का मारा, और एक बार तो पड़ोसी के रिश्तेदार की गोदभराई में डीजे का पंडाल तक खुद लगाया।
एक बार तो हद ही हो गई।
हम किसी के घर उनकी बीमारी की हलचल पूछने क्या चले गए, उन्होंने कहा—“यार, तुम फिट हो, तो हमारी बेटी को हॉस्टल छोड़ आओ। रास्ते में तुम्हारे चाचा की दवा भी लेते आना। और लौटते में थोड़ी सब्ज़ी भी ले आना। क्या करें, शरीर बीमारी के बाद ऐसा टूट गया है कि बिस्तर से उठा नहीं जा रहा!”
मैं चुपचाप चला गया। लौटते समय मेरी पीठ में ऐसी नस खिंची कि खुद को बीमार डिक्लेयर करने का लाइसेंस मिल गया।
मैंने हारकर डॉक्टर के पास जाकर कहा—“कोई ऐसी बीमारी लिख दो, जिससे कम से कम पंद्रह दिन आराम मिल जाए।”
डॉक्टर बोला—“तुम्हें आराम चाहिए या बीमारी?”
मैंने कहा—“आराम चाहिए... बीमारी के बहाने।”
अब तो ऐसा समय आ गया है कि लोग ‘स्वस्थ’ रूपी धन को ऐसे छुपाकर रखते हैं कि किसी की नज़र न पड़ जाए। वैसे भी कहाँ कहा गया है—तंदुरुस्ती हज़ार नियामत है। लोग अब इस ‘धन’ को अपने शरीर में गाड़कर रखते हैं—कि बाहर दिख न जाए! कहीं नज़र लग गई तो? सरकार टैक्स न लगा दे! कहीं चोर लूट न ले जाएँ! पड़ोसी की काली नज़र लग गई तो?
‘मैं स्वस्थ हूँ’—यह कह देना खुद को सज़ा-ए-मजदूरी दिलाने जैसा है।
अब सोच रहा हूँ कि एक फर्जी मेडिकल रिपोर्ट बनवा ही लूँ, जिसमें लिखा हो—
“मरीज़ में काम करने की एलर्जी है। जब भी कोई किसी काम के लिए कहता है, इसके दिमाग़ में खून चढ़ जाता है और ज़ुबान लड़खड़ाने लगती है।”
कसम से कहूँ, आज की दुनिया में स्वस्थ रहना भी एक बीमारी है—जिसका इलाज है, बीमार बन जाना!
हे ईश्वर! यदि संभव हो, तो मुझे एक हल्की-फुल्की मोच ही दिलवा दो—ताकि मैं भी दो कप सिम्पैथी और चार चम्मच अटेंशन पी सकूँ!
—डॉ. मुकेश असीमित