भाग 5 – विश्वास का द्वार
आरव की आंखों के सामने विवेक खड़ा था। वही लड़का, जिसके साथ बचपन के सारे सपने जुड़े थे। वही, जिसने एक दिन उसे सबसे ज़रूरी वक्त पर छोड़ दिया था — बिना कोई कारण बताए, बिना पीछे मुड़े।
"तू… तू यहाँ कैसे?" आरव की आवाज़ कांप रही थी।
विवेक मुस्कराया, लेकिन उसकी मुस्कान में कोई गर्मी नहीं थी। "तुमने मुझे याद किया, इसलिए मैं आया। ये किताब सच्चाई को आकार देती है… और अब, तुम्हें मुझसे सामना करना है।"
नायरा धीरे से पीछे हट गई। "ये द्वार केवल तुम्हारे लिए है, आरव। तुम्हें तय करना होगा — क्या तुम विश्वास फिर से कर सकते हो?"
आरव के ज़हन में वो दिन घूम गया जब स्कूल में उसके साथ सबने मज़ाक उड़ाया था, और विवेक ने पीठ मोड़ ली थी। वो दर्द आज भी उसकी यादों में कैद था।
"तूने क्यों किया था ऐसा?" आरव ने चीखते हुए पूछा।
विवेक की आंखों में पछतावे की एक चमक उभरी। "मैं डर गया था। डर था कि अगर मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँ, तो लोग मुझे भी हँसी का पात्र बनाएँगे। और मैं कमज़ोर था… बहुत कमज़ोर।"
आरव का गुस्सा बह गया — जैसे कोई बोझ अचानक उतर गया हो।
"मैंने भी तुझसे उम्मीद की थी, विवेक। शायद ज़्यादा उम्मीद। पर अब मैं समझता हूँ… हर कोई परिपूर्ण नहीं होता।"
किताब की हवा में फिर एक झोंका उठा — पन्ना पलटा, और नए शब्द उभरे:
> "द्वार पार हुआ। विश्वास स्वीकार हुआ।
लेकिन अगले चरण में तुम्हें खुद से सवाल करना होगा —
'क्या तुम वह हो जो तुम दिखते हो?'"
नायरा वापस पास आई। "दूसरा द्वार पार हो गया है। लेकिन अब तीसरे द्वार पर तुमसे तुम्हारी असली पहचान पूछी जाएगी। और यह सबसे कठिन परीक्षा होगी।"
"क्यों?" आरव ने पूछा।
"क्योंकि बहुत से लोग पूरी ज़िंदगी खुद से भागते रहते हैं… और जब सवाल खुद पर आता है, तब सब कुछ खो बैठते हैं।"
आरव चुप हो गया। उसने किताब को देखा, जो अब चमकने लगी थी — जैसे उसमें कोई नया रहस्य खुलने वाला हो।
और तभी, किताब में एक नई आकृति उभरी — एक दर्पण, और उसमें आरव को खुद का अजनबी रूप दिखाई देने लगा…
आरव ने उस दर्पण में झांका जो किताब में उभरा था। लेकिन उसमें जो चेहरा था, वो उसका नहीं था — या शायद था भी, पर वैसा जैसा वो खुद को कभी देखने की हिम्मत नहीं करता था।
उस अजनबी रूप की आंखों में दर्द था, अकेलापन था, और… गुस्सा था।
"कौन हो तुम?" आरव ने कांपती आवाज़ में पूछा।
उस प्रतिबिंब ने कहा, "मैं वही हूँ जिसे तुमने छुपा रखा है। वो डर, वो शर्म, वो असफलताएँ जो तुमने कभी किसी से नहीं कही। मैं तुम्हारी परछाई हूँ — तुम्हारा सच।"
आरव पीछे हट गया। "नहीं! मैं ऐसा नहीं हूँ!"
"तो फिर ये किताब मुझे क्यों दिखा रही है?" परछाई बोली, "क्योंकि अगला द्वार खोलने के लिए, तुम्हें मुझे स्वीकारना होगा।"
नायरा धीरे से बोली, "ये अंतिम द्वार है — 'आत्मसाक्षात्कार का द्वार'। यहाँ कोई और तुम्हारी मदद नहीं कर सकता।"
आरव की आंखों में आंसू थे। उसने खुद से भागते-भागते थक गया था। अब वक़्त था रुकने का।
"हाँ," उसने कहा, "मैं डरता हूँ। मैं असफल हुआ हूँ। मैंने रिश्ते तोड़े हैं, गलतियाँ की हैं… पर अब मैं खुद से भागना नहीं चाहता।"
किताब की रोशनी तेज़ हो गई। दर्पण गायब हो गया।
> "स्वीकृति प्राप्त हुई। द्वार खुला। अब रहस्य का उजाला तुम्हारा इंतजार कर रहा है।"
---
[भाग 6 में जारी...]
Dear readers 🤗 🧿 आपको यह कहानी कैसी लगी अगर अच्छी लगी हो तो कॉमेंट बॉक्स में मैसेज करके जरूर बताना 📝🥰