भले ही कुछ अति प्रगतिशील लोगों की दृष्टि में धर्म और उससे जुड़ी कुछ मान्यताएं एक अंधविश्वास हैं, लेकिन उन पश्चिम सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता कई गुना अच्छी है जो धर्म की मान्यताओं पर टिकी है। इससे श्रेष्ठ मान्यताएं क्या होंगी कि हमारी सभ्यताओं में नव वर्ष का स्वागत मंदिर की घण्टियों से होता है, रात के अंधेरों में मदहोशी के कार्य-कलापों से नहीं। बरहाल ऐसी ही धार्मिक आस्थाओं से जुड़ा है भारत सहित पूरे हिंदू समुदाय द्वारा वर्ष में दो बार मनाया जाने वाला नवरात्रि का पावन पर्व।
नवरात्रि पर्व पूर्ण रूप से हिंदू आस्था के अनुसार माँ दुर्गा की नौ शक्तियों पर आधारित है। नवरात्र के हर दिन को अलग-अलग देवी को समर्पित करते हुए, उनकी आराधना की जाती है।
◆ नवरात्र का प्रारंभ माँ दुर्गा की प्रथम शक्ति माँ शैलपुत्री के स्वरूप से किया जाता है। मान्यता है कि हिमालय के यहां जन्म लेने के कारण इन्हें शैलपुत्री के नाम से जाना गया। चित्रों में दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल के साथ सुशोभित इन्हें सती नाम से भी पुकारा जाता है। माँ शैल पुत्री से जुड़ी कथा के अनुसार कहा जाता है कि एक बार जब राजन प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सभी देवताओं को निमंत्रण दिया लेकिन अपनी पुत्री सती और दामाद शिव शंकर को नहीं बुलाया। ऐसे में शिव के मना करने के बाद भी सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो उठीं और उनकी इच्छा के विपरीत वह यज्ञ में जा पहुंची। वहां पहुंचने पर सती की माता के अतिरिक्त सभी ने उनका तिरस्कार किया और भगवान शिव के प्रति भी अपमानजनक बातें कही, जिसे वह सह न सकीं और व्यथति होकर योगाग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। इस घटना से आहत भगवान शंकर ने अपना विध्वंस रूप दिखाया। कहा जाता है कि यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाई और उनका विवाह एक बार फिर भगवान शंकर से हुआ।
माँ शैल पुत्री का उपासना मंत्र इस प्रकार है।वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम् ।वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
‼️༺ ◆ ◆जय माँ शैल पुत्री ◆ ◆ ༻‼️
◆ नवदुर्गा के दूसरे स्वरूप में दुर्गा की द्वितीय शक्ति माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। ब्रह्मचारिणी अर्थार्त ब्रह्मा की शक्ति और तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली, माँ प्रतीक है संयम और संकल्प का। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है जिसमें मां के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में देवी कमण्डल धारण किए हुए हैं।माँ ब्रह्मचारिणी से जुड़ी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है। पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और कालांतर में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण ही इन्हें ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया। कहते हैं, वर्षों के खुले आकाश के नीचे कठिन उपवास के पश्चात देवी ने वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और बाद में भगवान शंकर की आराधना में उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। इसी कारण इन्हे अपर्णा के नाम से भी जाना गया। अंत: काल में उनकी यह तपस्या स्वयं शिव भगवान के साक्षात के साथ ही समाप्त हुई।
कथा का सार यही कहा जा सकता है कि कठिन से कठिन संघर्षों में भी व्यक्ति का मन विचलित नहीं होना चाहिए। माँ की उपासना इस मंत्र से की जा सकती है।दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
‼️༺ ◆जय माता ब्रह्मचारिणी ◆ ༻‼️
◆ देवी दुर्गा की तृतीय शक्ति माँ चंद्रघंटा के नाम से जानी जाती है। नवरात्र के तीसरे दिन आपदाओं और भय से मुक्ति के लिए देवी चंद्रघंटा की अर्चना की जाती है। मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र और युद्ध में इनके घंटे की टंकार से ही असुरों में भय उतपन्न हो जाने के कारण इन्हें देवी चंद्रघंटा कहा गया।ऐसी मान्यता है कि इनके पूजन से मन की शक्ति और वीरता की वृद्धि होती है। चित्रों में इनका स्वरूप शांत, एवं सौम्य और तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है। देवी चंद्रघंटा की कथा कुछ इस तरह बताई जाती है। देवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक चले युद्ध में असुरों के स्वामी महिषासुर और देवाताओं के स्वामी इंद्र के बीच संघर्ष में महिषासुर ने विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया। इस समस्या से निकलने का उपाय जानने के लिए सभी देवताओं ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आराधना की। उनकी व्यथा सुनकर त्रि देव बहुत क्रोधित हुए और उनके तेज से उतपन्न हुई ऊर्जा दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। उसी ऊर्जा से उतपन्न देवी को भगवान शंकर ने त्रिशूल, भगवान विष्णु ने चक्र और सभी देवी देवताओं ने उन्हें विभिन्न शस्त्र प्रदान किये। सभी अस्त्र-शस्त्र के सुसज्जित होकर देवी ने महिषासुर से युद्ध किया और महिषासुर का संहार किया।
संकट के समय एकता और सामूहिक शक्ति का संदेश देती इस देवी का उपासना मंत्र इस प्रकार से है।पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुत।।
‼️༺ ◆ जय माँ चंद्रघंटा ◆ ༻‼️
◆ देवी कुष्मांडा के नाम से चर्चित मां दुर्गा की चतुर्थ शक्ति का पूजन नवरात्रि में चौथे दिन किया जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से जाना जाता है। आठ भुजाएं होने के कारण इन्हें अष्टभुजा भी कहा जाता है। चित्रों में इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा एवं आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला को दर्शाया गया है।एक पौराणिक कथा के अनुसार जब सृष्टि में पूर्ण अंधकार ही था, तब इसी देवी ने अपने चमत्कार से ब्रह्मांड की रचना की थी। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में माना जाता है और कहा जाता है कि अपने दैदीप्यमान प्रकाश से इस देवी ने ही सृष्टि को प्रकाशमान किया था
आस्थाओं से हटकर इस घटना को सूर्य के अन्दर हो रही नाभिकीय प्रक्रिया के प्रतीकात्मक रूप में देखा जा सकता है। बरहाल कूष्मांडा (कुम्हड़ा) की बलि अति प्रिय होने के कारण कूष्मांडा नाम से जानी जाने वाली देवी के बारे में यह प्रबल मान्यता है कि इनकी पूजा से सभी बीमारियां दूर होती है।. . . शायद वर्तमान की आपदा कोरोना भी!
देवी कूष्मांडा की उपासना का मंत्र इस प्रकार से हैसुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।
‼️༺ ◆ जय माँ कूष्माण्डा ◆ ༻‼️
◆ देवी दुर्गा के पंचम स्वरूप में माँ स्कंदमाता की पूजा की जाती है। नवरात्र की सभी देवियों में वस्तुतः यही देवी अपनी प्रतिमाओं में माँ के स्वरूप में विराजमान हैं। श्री स्कंद (जिन्हें कुमार कार्तिकेय के नाम से जाना जाता है) की माता होने के कारण ही इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। इनकी प्रत्येक प्रतिमा में इन्हें सिंह-आसन पर आसीन तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथों में, दाहिनी ऊपरी भुजा में 'स्कन्द कुमार को गोद में लिए नजर आती हैं। इनकी प्रचलित कथा के अनुसार कुमार कार्तिकेय की रक्षा के लिए जब माता पार्वती क्रोधित होकर आदिशक्ति रूप में प्रगट हुईं तो इंद्र भय से कांपकर अपने प्राण बचाने के लिए देवी से क्षमा याचना करने लगे। और तब उन्होंने माता को मनाने के लिए उनकी इसी रूप में पूजा की। इसी कारण यह देवी अपने पांचवें स्वरूप में स्कंदमाता रूप से जानी गईं।
चेतना और ज्ञान की इस देवी के लिए कहा जाता है कि कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।
देवी स्कंदमाता की उपासना का मंत्र इस प्रकार है।सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
‼️༺ ◆ जय माँ स्कंदमाता ◆ ༻‼️
◆ मां दुर्गा की छठवीं शक्ति के स्वरूप में, नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। देवी कात्यायनी की चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है और इनका स्वरूप अत्यंत दिव्य एवं स्वर्ण आभा लिए हुए है। कात्यायनी वस्तुतः माँ पार्वती का ही दूसरा नाम है। माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा, इस संदर्भ में प्रचलित कथा कुछ इस तरह की बताई जाती है। कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती की उपासना करते हुए कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। कालांतर में जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ा, तब त्रि-देव भगवान (ब्रह्मा,विष्णु,महेश) ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। सर्वपथम महर्षि कात्यायन ने ही इनकी पूजा की, जिससे वह कात्यायनी कहलाईं।
काश कि पुत्र में ही अपना वंश खोजने वाला हमारा समाज, वर्तमान में भी 'देवी' को पुत्री रूप में पाने के लिये भी मन से, तपस्या या इच्छा करते।
देवी कात्यायनी का उपासना मंत्र इस प्रकार होता है।चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
‼️༺ ◆ जय माँ कात्यायनी ◆ ༻‼️
◆ माँ कालरात्रि के रूप में मां दुर्गा की सप्तम शक्ति को पूजा जाता है।नवरात्रि में महासप्तमी के दिन माता कालरात्रि की पूजा का विधान है। देवी कालरात्रि,काली,महाकाली,भद्रकाली,भैरवी और चामुंडा जैसे विनाशकारी रूपों का ही एक पर्याय है। हालांकि माँ का यह स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन वस्तुतः शुभ फल देने के कारण इन्हें शुभंकारी नाम से जाना जाता है। चित्रों में इस देवी के ब्रह्मांड के समान तीन नेत्र दिखाए जाते हैं, इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है और ये गर्दभ की सवारी करती हैं । बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है।माँ कालरात्रि की कथा कुछ इस तरह कही जाती है। कहते हैं दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवताओं ने शिव-पार्वती से उनके दुःख का निवारण करने का आग्रह किया। जिसके फलस्वरूप शिव भगवान कहने देवी पार्वती ने दुर्गा रूप धारण कर शुंभ-निशुंभ का वध किया, परन्तु जैसे ही उन्होंने रक्तबीज को मारा उसके शरीर के रक्त बिंदुओं से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए। ऐसा देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद जब उन्होंने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।देखा जाए तो विश्व में पैदा हुई 'कोरोना' की परिस्थितियों में क्या रक्तबीज इसका पर्याय नहीं था ? और इस रक्तबीज के प्रभाव को नष्ट करने के लिए मानव को स्वयं ही 'सोशल डिस्टेंसिंग' हथियार का प्रयोग नहीं करना पड़ा।
माँ कालरात्रि का उपासना मंत्र इस प्रकार है।एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरनमः
‼️༺ ◆ जय माँ कालरात्रि ◆ ༻‼️
◆मां दुर्गा की आठवीं शक्ति के रूप में आठवें दिन माँ महागौरी को पूजा जाता है। वस्तुतः अपने नाम के अनुरूप ही देवी महागौरी पूर्णतः गौर वर्ण हैं और इनकी उपमा शंख और चंद्र से दी जाती हैं। सभी आभूषण और वस्त्र सफेद होने के कारण इन्हें श्वेताम्बरधरा और इनका वाहन वृषभ होने के कारण इन्हें वृषारूढ़ा कहा जाता है। प्रचलित कथा के अनुसार पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए इस देवी ने कठोर तपस्या की थी, जिसके कारण इनका शरीर कांतिहीन एवं काला हो गया था। तत्पश्चात इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय और पूर्व की भांति गौर वर्ण का बना दिया, इसीलिए भी यह देवी महागौरी के नाम से जानी गईं।
देवी महागौरी की उपासना का मंत्र कुछ इस प्रकार है।श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोदया ।।
‼️༺ ◆ जय माँ गौरी ◆ ༻‼️
◆ नवरात्र के नवें दिन मां दुर्गा की नवीं शक्ति, देवी सिद्धिदात्री को नमन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह देवी सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। कहा जाता है कि इनकी कृपा के बाद संसार में याचक के लिए कुछ भी अगम्य नहीं रह जाता है। सिंह पर सवार माँ सिद्धिदात्री चित्रों में चार भुजाओं सहित कमल पुष्प पर आसीन होती हैं और इनके दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प को दर्शाया जाता है।माँ सिद्धिदात्री द्वारा दी जाने वाली जिन सिद्धियों का वर्णन किया जाता है, वह आठ सिद्धियां मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस प्रकार बताई जाती हैं। अणिमा,महिमा, गरिमा,लघिमा,प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व। नवरात्र पर्व की अंतिम देवी का उपासना मंत्र इस प्रकार है। या देवी सर्वभूतेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्रि के इस पर्व में #खेत्री (यानी जौ का बीजना) का बीजा जाना सर्वाधिक विशेष माना जाता है। इसके पीछे की धार्मिक मान्यता के अनुसार धरती पर सबसे पहली फसल यानी वनस्पति जौ ही उगाई गई थी, इसके प्रतीक रूप में ही नवरात्रों में 'खेत्री' को बीजा जाता है। यह भी माना जाता है कि अन्न भगवान ब्रह्मा का एक स्वरुप है और नवरात्रि के आखिरी दिन दुर्गा की पूजा में अन्न का भी विषेश महत्व होता है। माँ दुर्गा सभी का कल्याण करे, इसी कामना के साथ जय माता दी।
‼️༺ ◆ जय माँ दुर्गा ◆ ༻‼️
विरेंदर 'वीर' मेहता