"तुम ही हो मेरा जहाँ"
भाग 2: वो अजनबी एहसास
मंदिर की घंटियाँ गूँज रही थीं। भोर की हल्की ठंडक हवा में घुली हुई थी, और सूरज की पहली किरणें गाँव की पगडंडियों को धीरे-धीरे रोशन कर रही थीं। मंदिर के पास के पेड़ों पर बैठे पक्षी चहचहा रहे थे, मानो सुबह की पवित्रता को और भी मधुर बना रहे हों।
आवनी ने सिर पर ओढ़नी संभाली और आँखें मूंदकर भगवान के सामने हाथ जोड़ दिए। उसकी पलकों के पीछे कोई अनकही प्रार्थना थी, कोई ऐसा एहसास जो शब्दों में ढल नहीं पा रहा था। उसके चेहरे पर गहरी शांति थी, जैसे वह इस क्षण को पूरी आत्मा से महसूस कर रही हो।
अर्णव मंदिर के द्वार पर खड़ा था, और उसकी नज़रें अनायास ही आवनी पर टिक गई थीं। पहली बार, किसी अनजान से मिलकर उसके भीतर इतनी जिज्ञासा जगी थी। वह किसी कहानी की नायिका जैसी लग रही थी—गहरे विचारों में डूबी, मगर फिर भी अपनी दुनिया से जुड़ी हुई।
आवनी जब बाहर जाने लगी, तो अचानक उसका ध्यान गया कि उसकी डायरी उसके हाथ में नहीं थी। उसने जल्दी से अपने दुपट्टे और थैले में देखा, लेकिन वह नहीं मिली।
"क्या तुम इसे ढूंढ रही हो?"
आवनी ने चौककर सिर उठाया। अर्णव उसकी डायरी हाथ में लिए खड़ा था।
"तुम्हारी डायरी गिर गई थी," उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
आवनी ने झिझकते हुए डायरी थाम ली और धीरे से बोली,
"धन्यवाद।"
अर्णव को लगा कि बात यहीं खत्म हो जाएगी, लेकिन वह उसे यूँ ही जाने नहीं देना चाहता था। उसने हिम्मत जुटाकर कहा,
"क्या हम दोस्त बन सकते हैं?"
आवनी के कदम ठिठक गए। उसने इसकी उम्मीद नहीं की थी , उसने कुछ क्षणों तक तक अर्णव को देखा। कुछ सोचते हुए पूछा।
"शहर से आए हो?"
"हाँ, मगर यह गाँव मुझे अपनी ओर खींच रहा है। शायद यहाँ की सादगी, यहाँ की हवा... या शायद..." अर्णव ने हल्के से मुस्कुराकर कहा।
आवनी ने हल्की मुस्कान दी, मगर उसकी आँखों में संकोच था।
"गाँव में बाहरी लोगों पर जल्दी भरोसा नहीं किया जाता," उसने शांत स्वर में कहा।
अर्णव ने सिर हिलाया, मानो उसकी बात को समझ रहा हो।
"शायद, मगर भरोसा बनाने के लिए थोड़ा समय तो देना होगा, है ना?"
आवनी कुछ नहीं बोली। मंदिर की घंटियों की आवाज़ अब भी हवा में तैर रही थी। दोनों के बीच एक अनकहा मौन था, जिसमें बहुत कुछ कहा और सुना जा सकता था।
कुछ देर बाद, अर्णव ने फिर से बातचीत शुरू की।
"अच्छा, कम से कम इतना तो बता सकती हो कि तुम क्या लिखती हो?"
आवनी ने कुछ पल सोचा, फिर उसकी आँखों में हल्की चमक आई।
"सपनों की कहानियाँ... अधूरे रिश्तों की दास्तानें... और कभी-कभी, उन एहसासों की बातें जो शब्दों में नहीं बंधते।"
अर्णव मुस्कुराया।
"शायद मैं तुम्हारी कहानियों का कोई पात्र बन जाऊँ?"
आवनी ने पहली बार खुलकर हँसते हुए कहा,
"कौन जानता है?"
फिर वह मंदिर की सीढ़ियाँ उतरने लगी।
अर्णव वहीं खड़ा रहा, उसे जाते हुए देखता हुआ।
उसका मन एक अजीब सी अनुभूति से भर गया। ऐसा लगा जैसे यह मुलाकात महज़ एक संयोग नहीं थी। कुछ कहानियाँ अनजाने में ही लिखी जाती हैं और शायद यह भी एक ऐसी ही कहानी थी, जिसकी स्याही अभी सूखी नहीं थी।
(क्रमशः…)