Second address in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | दूसरा पता

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दूसरा पता

“हरीश त्रिपाठी का मकान क्या यही है?” दुमंज़िले उस मकान के मुख्य द्वार पर वही पता लिखा था जो कस्बापुर के हमारे सरकारी कालेज के दफ़्तर में हरीश के दूसरे पते के रूप में दर्ज रहा था। और मैं ने ठीक वहां पहुंच कर कौल- बेल बजा दी थी।

“जी हां, बताएं,” दरवाज़ा खोलने वाली महिला का स्वर रूखा रहा, “आप को उन से क्या काम है?”

“उन्हों ने मुझे यहां बुलाया था,” मैं ने गप हांकी।

नहीं कहा, मैं इस लिए आयी हूं क्यों कि मैं उन से प्रेम करती हूं और बिना छुट्टी लिए उन का कस्बापुर के कालेज से पूरे एक सप्ताह तक अनुपस्थित रहना मेरे लिए गहरी चिंता का विषय रहा था।

“कहां से बुलाया था? कब बुलाया था ?”  महिला ने हैरानी जतलाई, “वह तो इतवार से अस्पताल में पड़े हैं ।”

“क्या हुआ उन्हें?”  मैं लगभग चीख पड़ी।

“सीढ़ियों से नीचे उतरते समय वह अकस्मात फिसल गए और चोट खा गए….”

“चोट बहुत संगीन है क्या?”

“हां,पीठ की हड्डी चरक गयी है और वह उठने - बैठने से लाचार हैं।”

“क्या आप मुझे अस्पताल का पता दे सकेंगी?” मैं ने विनय की।

“कौन है,सरला?” एक वृद्धा हमारे पास चली आयीं । उन की आंखों पर लगा कीमती काला चश्मा उन की साधारण वेशभूषा के साथ मेल नहीं खा रहा था।

“मैं इरा तिवारी हूं ,मां जी,” मैं ने आत्मीयता प्रदर्शित की, ”कस्बापुर से हरीश जी का पता लेने आयी हूं । मैं उन के साथ पढ़ाती हूं,मां जी।”

“सरला अभी दस- पंद्रह मिनट तक स्वयं अस्पताल जाएगी,”वृद्धा ने गर्मजोशी दिखलाई,“ जब तक तुम अंदर बैठ क्यों नहीं लेती?”

“जी,मां जी,” मैं ने कृतज्ञता प्रकट की, “ धन्यवाद।”

सीढ़ियों के उस तंग अहाते से वृद्धा और सरला मुझे एक लंबे गलियारे में ले आयीं।

 

गलियारा पूर्णतः रिक्त था और एक प्रांगण में जा खुला।

प्रांगण में उस निचली मंज़िल के चारों दरवाज़े मुंह- बाए खड़े थे।

किसी भी दरवाज़े पर न तो कोई चिक पड़ी मिली और न ही कोई कपड़े का पर्दा।

मैं ने उन्हें बताया नहीं, कि हरीश के कस्बापुर के सरकारी मकान में कमरे तो क्या, मैं तो बरामदों तक में दबीज़ पर्दे लगाने का इरादा रखती हूं।

“तुम यहां बैठ लो,” वृध्दा मुझे एक कमरे में ले गयी। बैठक- नुमा उस कमरे  में केवल एक तख्तपोश और चार आराम कुर्सियां थीं।

“जी,” मैं ने अपने बैठने के लिए एक कुर्सी चुनी।

“मैं अस्पताल ले जाने के लिए खाना ले कर अभी आयी,” सरला ने वृद्धा की दिशा में अपनी आंखें तिरेरीं और रसोई- नुमा कमरे की ओर चल दी।

“मैं तुम्हें देख नहीं सकती,लेकिन तुम्हारी आवाज़ से लगता है तुम स्नेही हो,”सरला के जाते ही वृद्धा मेरे सामने पड़ रहे तख्तपोश पर आन बैठी ।

“आप की आंखों में कोई तकलीफ़ है क्या?” मैं ने कान खड़े कर लिए।

“तकलीफ़ ही समझो,” वृद्धा रोंआसी हो आयी।

“कब से देख नहीं सकतीं?”

“अब तो बहुत साल हो गए । अठारह हो गए । या शायद उन्नीस ही। एक आंख चोट खा गयी थी और दूसरी बहनापे में चली गई।”

मैं ने सुन रखा था यदि दसेक दिन के अंदर चोट खायी आंख पर आपरेशन होने से रह जाए तो दूसरी आंख भी ‘सिम्पैथैटिक औपथैलमाइटिस’ के कारण अपनी ज्योति खो बैठती है । मगर ऐसा प्रत्यक्ष देखने का अवसर मुझे पहली बार मिला था।

“ यह तो बहुत बुरा हुआ…” मैं सोच में पड़ गयी। उन के अंधेपन का मुझ से उल्लेख हरीश ने क्यों न कभी किया था?

“बुरा हुआ सरला के साथ,” वृद्धा की रुलाई छूट चली, “जो मेरा दुख काट रही है। वह लड़की नहीं,भगवान का कृपादान है। अपने प्रकोप को बराबर करने के लिए  भगवान ने उसे मेरे पास भेज दिया।”

“और घर के बाकी जन?” मैं ने उन्हें टोहा, “क्या वे आप के लिए कुछ नहीं करते?”

“           “बाकी लोग हैं ही कौन? एक हरीश है और दूसरे उस के बाबूजी है । और वे दोनों ठहरे आदमी लोग। अपनी अपनी पकड़ में गिरफ़्त। हरीश को अपने पढ़ने- पढ़ाने से फ़ुरसत नहीं मिलती और उस के बाबूजी को काम की आदत नहीं। ऊंंचे ज़मींदार परिवार से हैं….”

“आप अपनी सेवा के लिए अब बहू ले आइए,” मेरी सांस में सांस आयी मगर ऊपरी तौर पर मैंने उन्हें प्रलोभन दिया, “सरला जीजी की भी अब शादी हो जानी चाहिए। आप कहें तो मैं अपने ही कालेज में किसी के साथ बात चला कर देखूं?”

“उस बेचारी की शादी की उम्र अब निकल गयी। अब तो पिछले पंद्रह साल से उस की एक ही दिनचर्या रहा करती है– स्कूल में पढ़ाने के बाद सीधी घर पलटती है और हमारे खाने- पीने में जुट जाती है।आज भी स्कूल से अभी ही लौटी है….”

“कैसी चुहिया की बुद्धि पायी है?” जभी बाहर से एक तेज़ मर्दाना आवाज़ बैठक में पहुंची, “ रोका नहीं उसे ? वह तो अपनी हवस की मारी है । बाहर से कोई आया नहीं कि वह फुदक कर उस की बगल में जा बैठती है…..”

“मैं अभी आती हूं,” वृद्धा रोवनहार स्वर में बुदबुदाईं और तत्काल बैठक से बाहर  चली गईं ।

 

तेज़ आवाज़ कुछ पलों तक अपना आवेग किसी दूर के कमरे में उंडेल लेने के बाद जब मेरे निकट आई तो मधुर हो ली, “आप कहां से आयी हैं?”

आवाज़ एक वृद्ध की थी।उन का दिखाव- बनाव बहुत चटकीला था।नीली जींस के साथ उन्हों ने चटख लाल रंग की टी- शर्ट पहन रखी थी।

“मैं इरा तिवारी हूं। कस्बापुर में हरीश वाले कालेज में पढ़ाती हूं।”

“मुझे यकीन है,कस्बापुर के कालेज में हरीश ही नहीं, सभी तुम्हें बहुत चाहते होंगे,”  वृद्ध ने मेरे संग चुहल की।

क्या वह मदोन्मत्त रहे?

“यदि यह मेरी प्रशंसा है,तो मैं धन्यवाद देती हूं,” न चाहते हुए भी,उन्हें अपने पक्ष में रखने की खातिर,उन के संग मैं उन की चुहल में सम्मिलित हो ली ।

हम दोनों ने एक दूसरे की हंसी का पीछा किया।

“हैरत है,तुम जैसी लड़की अभी तक अविवाहित कैसे रह गयी?” उन्हों ने दूसरी चुटकी ली

मैं ने नहीं बताया,मुझे विवाह की उतावली तभी से है,जब से कस्बापुर में मेरी पक्की नौकरी लगी थी।

नहीं बताया मुझे नौकरी करते हुए छः वर्ष हो चले हैं और मेरी उतावली अब हड़बड़ी का रूप धारण कर रही है।

नहीं बताया अपनी उस हड़बड़ी में मैं नितांत अकेली हूं।

नहीं बताया, संभवतः मेरे पिता भी मेरे विवाह को लेकर कभी- कभार चिंतित हो उठते हों, किंतु मैं जानती हूं,हर बार मेरी सौतेली मां आगे बढ़ कर मेरे पांच सौतेले भाई-बहनों के स्कूलों और कालेजों के खर्चे विस्तार से बखानने लगती हैं और मेरे विवाह की बात फिर स्थगित हो जाती है।

“आश्चर्य मुझे भी है,” अपनी मुस्कराहट लिए-लिए मैं बैैठक से बाहर प्रांगण में चली आई।

प्रांगण में सरला एक कमरे में ताला लगाती मिलीं।

 

“आप का खाना रसोई में परोसा रखा है,बाबूजी,” बैठक की दिशा से पिता को प्रांगण में आते हुए देख कर सरला उन से बोली, “मैं अब अस्पताल जा रही हूं।”

“फिर मिलेंगें,” मैं ने भी वृद्ध से विदा ली।

“क्यों नही? क्यों नहीं?” वृद्ध लड़खड़ाए।

“ मां जी से भी विदा ले लूं?” मैं ने सरला से पूछा।

“वह सो रही हैं,” सरला ने प्रत्यक्ष झूठ बोल दिया।

“वह सो नहीं रहीं,” वृद्ध ने दांत निकाले, “ताले के पीछे दुबक गई है।”

“क्या आपने मां जी के कमरे में ताला लगाया?” सरला के साथ रिक्शे पर सवार होते ही मैं ने एक अंतरंग वार्तालाप की भूमिका बांधने का प्रयास किया।

“हां,” सरला अनिच्छा से बोली, “इस समय वह सोती हैं।”

“उन की देखभाल के लिए आप घर पर कोई नौकरानी क्यों नहीं रख लेतीं?”

“हम मज़े में हैं। हम अपने एकांत को बहुत महत्व देते हैं।”

“क्या इसीलिए आप दोनों बहन-भाई ने शादी नहीं की?”मैं आक्रामक हो चली।

सरला ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और एक संपर्क- वर्जित चुप्पी में चली गयीं । जिस का वहन उन्हों ने हरीश के अस्पताल के कमरे तक किया।

“खाना परोसूंगी?” हरीश के निकट पहुंचते ही सरला ने उस से प्रमाणित पुष्टि लेनी चाही।

हरीश ने चेहरे से अपनी किताब हटायी।

किताब में कविताएं संग्रहित थीं।

“ नहीं, ” हरीश ने उसे जाने का संकेत दिया, “अभी खाने की इच्छा नहीं ।”

“मैं डॉक्टर से मिलकर आती हूं,” सरला कमरे से निकल लीं।

“कविता पड़ने का अच्छा अवसर ढूंढा है,” मैं ने अपने चुलबुले स्वर का प्रयोग किया।

हरीश की कृत्रिम स्वागत मुस्कराहट का मैं ने बुरा न मनाया था।

“क्या घर के अंदर गयीं थीं?” हरीश गंभीर बने रहे।

“हां। मांजी से मिली। उन्हों ने बहुत स्नेह दिखाया।”

“मेरे पिता से मिलीं?”

“हां। वह भी बहुत स्नेही लगे, मगर आप की जीजी ने मुझे घास नहीं डाली। पानी तक नहीं पूछा।”

“उन्हों ने ज़रूर पी रखी होगी।”

“शायद, हां,” मुझे उत्तर देने में समय लगा।

हरीश अपने पिता के संदर्भ पर क्यों अटक रहे थे?

“वह ऐसा ही करते हैं। दोपहर में जो शुरू करते हैं तो फिर उस का टपका देर रात तक चलाते हैं ।”

“आप उन्हें रोकते नहीं?”

“नहीं। उन पर मेरा कोई ज़ोर नहीं। वह अपने एकतंत्र में रहते हैं। निरंकुश और निर्बाध।”

“क्या मांजी भी कुछ नहीं कहतीं?” मैं ने उन्हें उकसाया।

नहीं बताया कि मैं ने वृद्धा के विरुद्ध वृद्ध की तेज़ आवाज़ सुन रखी है।

नहीं बताया कि मैं जानती हूं, वृद्धा को वृद्ध के कोप से बचाने के लिए मैं सरला को उन्हें ताले में बंद करते हुए देख चुकी हूं।

“शुरू में मां बहुत झल्लाती थीं। एक दिन झल्लाहट में कह बैठीं, मुझ से यह सब देखा नहीं जाता। मेरे पिता उस समय मदिरा की झोंक में तो रहे ही। बस ताव में आ गए।और मां की आंख फोड़ डाली।”

“आंख फोड़ डाली?”

“मां की उस आंख में अपने हाथ की सुुलग रही सिगरेट कुछ ऐसे क्रम में चुभोयी कि आंख का कोया क्या,पपोटा क्या,बिरौनी क्या,भृकुटी क्या,पूरे का पूरा नेत्रकोटक ही चुचक गया।”

“मगर उस चश्मे की वजह से कोई जान नहीं पाता कि उन की आंख कैसी लगती है,” मैं ने सांत्वना प्रस्तुत की।

“वह धसकन और वह बिगाड़ आज भी उस मकान की हर फुसफुस में दम लेता है। वह संताप और वह दहल वहां की हर ईंट में मौजूद है।”

“यह सब बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है,किंतु,” यही वह अवसर है,यही वह अवसर है,मेरी छठी इंद्रिय सक्रिय हो उठी, “ आप को अपनी पीड़ा का एकांत समाप्त कर देना चाहिए। आप के संग एक संधित जीवन बिता कर मैं धन्य हो जाऊंगी।”

अस्पताल के कमरे में सरला के लौटने से पहले ही मैं हरीश से आश्वासन लेने में सफल हो गयी कि अपने स्वास्थ्य लाभ के तुरंत बाद वह मेरे पिता के सम्मुख अपना विवाह प्रस्ताव अवश्य रखेंगे।

मैं जानती हूं मेरे पिता भी मेरी भांति हरीश के इस दूसरे पते को तूल नहीं देंगे तथा अपना समर्थन सहर्ष प्रस्तुत कर देंगे।