Gaon,Khet,Khlihan Ka Aaina -Pustak -Rampur Ki Ramkahani in Hindi Book Reviews by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | गांव और खेत खलिहान का आइना -पुस्तक -रामपुर की रामकहानी

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गांव और खेत खलिहान का आइना -पुस्तक -रामपुर की रामकहानी


      अपनी आकाशवाणी की  सेवा से वर्ष 2013 में  निवृत्त होकर मैंने प्राय:  लेखन और वाचन के लिए अपना शेष जीवन समर्पित कर रखा है |

      लेकिन इस कार्य में भी बाधाओं का आना जाना लगा हुआ है | कभी निजी जीवन की समस्या तो कभी समाज परिवार की |मनुष्य जीवन ही  क्या जिसमें  अवरोध न आने पाए ! पौरुष यह होना चाहिए कि बावजूद इसके आपका संकल्प ना डगमगाने पाए |

        पिछले दिनों मैंने ढेर सारी पुस्तकें पढ़ीं और पढ़ने के बाद उनकी अच्छी या बुरी समीक्षाएं भी लिख डालीं |उनके लेखकों ने तो संतोष व्यक्त किया लेकिन आलोचक समाज ने उसे किन  दृष्टियों से देखा (या नहीं देखा ) मुझे नहीं पता |मैं उसकी परवाह भी नहीं किया करता हूँ |

         इन दिनों  मैंने अपने पुराने परिचित(हालांकि इधर कई दशक से संपर्क नहीं हो सका है) मित्र डा. अमरनाथ की आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई पुस्तक "रामपुर की रामकहानी"  पढ़ी है| पुस्तक लिखने की शैली अत्यंत प्रभावशाली है और उसे पढ़ते हुए मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने गाँव के खेत खलिहान ,   कउड़ा, चौपाल,मड़ई,पुआल के इर्द  गिर्द ही हूँ |ऐसा इसलिए भी स्वाभाविक था क्योंकि डा. अमरनाथ की तरह मेरी भी पृष्ठभूमि कमोबेस गाँव की ही रही है |जमींदार परिवार की पृष्ठभूमि के कारण बाग- बागीचा, खेत- खलिहान, घर- दुआर, हरवाह - सिरवाह,दुअरूहा आदि से वास्ता तो रहा ही खेत की जुताई ,सिंचाई,निराई - गुड़ाई, खाद - कीटनाशक से भी नजदीकी रिश्ता रखना पड़ा था | लगभग तीन साल मैंने भी अपने गाँव की खेती बारी कराई है और अब जीवन के अंतिम चरण में थक हार कर उसे अधिया- बटाई पर देने को विवश हो गया हूँ |

             हाँ, तो इस पुस्तक के कथानायक स्वयं लेखक हैं और इसकी पृष्ठभूमि /परिदृश्य उ. प्र. के  महराजगंज जिले में स्थित एक गाँव रामपुर  बुजुर्ग की है | गाँव उनकी रग- रग में अब भी बसा हुआ है बावजूद इसके कि अब  वे अपनी सेवा के चलते  अपने जीवन का उत्तरार्ध कोलकाता में बिता रहे हैं |दो पृष्ठों में पुस्तक की प्रस्तावना लेखक ने लिखी है और यह साफ कर दिया है कि यह कहानी सर्फ रामपुर की नहीं है बल्कि यह बदलते भारत और खासतौर से वैश्वीकरण के बाद हो रहे तीव्र विकास और उसकी दिशा की राम कहानी है |उन्होंने यह स्वीकार किया है कि " कभी मुझे यह विकास लगता है तो कभी बदलते भारत की व्यथा कथा |"उन्होंने एक ओर तो इसे अपनी आत्मकथा मानने से इनकार किया है-         (" फिलहाल ,यह प्रचलित अर्थ में मेरी आत्मकथा नहीं है ") तो वहीं तुरंत आगे चलकर  यह भी कह गए  हैं  कि " यह  सत्य कथा है |" एक पाठक के रुप में नपे तुले शब्दों में अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं सीधे और साफ शब्दों में यही कहूँगा कि यह एक अनोखे और प्रभावशाली ढंग से लिखी  गई एक आत्मकथा है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए |डा. अमरनाथ के पद्य लेखन की प्रतिभा को  तो नहीं जानता लेकिन सुगठित और निबंधात्मक शैली में लिखा गया उनका यह गद्य  लेखन एक  अद्वितीय उदाहरण है जिसे डा अमरनाथ ने प्रस्तुत किया है |मानो नदी का कलकल निनाद हो रहा हो और हम नदी के किनारे मंत्रमुग्ध भाव से उसे निहार रहे हैं |

       पुस्तक में कुल 23 अध्याय हैं -पुरनका टोला और सदानीरा,पटरी पर पढ़ाई, भउजी , मुल्ला की तावीज़,ममहार का मोह, कउड़ा ,कमली के विवाह (बियाह) में ड्रामा ,माई जब जिंदा लौट आईं, जड्डू पंडित का कुनबा,माई,बाऊ (बाबू) जी,कृषि - संस्कृति की समाधि,जाति  जाति में जाति , मरिकी बाभन,कान्हे आली(वाली),अथ  यज्ञोपवीत भोजन कथा ,सुर्ती  से दारू तक,ये जीभ मानती नहीं,इसका मैं क्या करू, ठेके  पर हरिनाम ,रामपुर का दाम्पत्य,गंवई कलम का तेवर,गाँव में ग्रंथालय?शर्मा जी पगला गए हैं, और चन्द बातें कलकत्ते (कोलकाता)  की |

वे यह मानते हैं कि " कोलकाता विश्वविद्यालय में अध्यापन मेरे जीवन का स्वर्णिम काल था " लेकिन पुस्तक में उस जीवन पर दृष्टिपात करने में जाने क्यों कोताही बरत  गए हैं |मेरी दृष्टि में बड़े शहरों के तीन पाँच से दूर , एक सीधे- सपाट,  गंवई जीवन में आकंठ डूबे रहने वाले पुरुष का बडहलगंज छोड़कर कोलकाता जैसे बड़े शहर में जाकर सफलता के झंडे गाड़ने की कहानी भी कम रोचक नहीं होगी | इसलिए उनको इस पर भी कुछ लिखना चाहिए |

      पुस्तक में जगह जगह अब लोक से लगभग लुप्तप्राय पारंपरिक संस्कार गीतों, फगुआ, कजरी,सोहर,झूमर,चौताल,जँतसार आदि ही  नहीं विवाहादि  में महिलाओं द्वारा गाई  जाने वाली गालियों (गारियों) ,मनुस्मृति, रामायण ,विश्राम सागर, राम कथा,निदा फ़ाज़ली के चन्द शेर , आलम का दुर्लभ छंद,नरोत्तम दास के छंद, निराला जी की कविता, घाघ की कहावतें,आल्हा आदि का भी रोचक प्रसंग आया है |

     चूंकि मैं भी गोरखपुर और गोरखपुर विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा हूँ और यूं कहूँ  कि घोषित हिंदीवाला ना होकर भी घोषित हिन्दी विद्वानों(यथा  पं. विद्यानिवास मिश्र, डा. भगवती प्रसाद सिंह,डा . रामचन्द्र तिवारी,डा.परमानन्द,डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि ) के सानिध्य  में लिखने पढ़नेऔर बैठने का मुझे भी सौभाग्य मिला है इसलिए इस पुस्तक में जगह जगह  आए उन सभी के प्रसंगों  ने मुझे किताब पढ़ते हुए अपनेपन का सुखद एहसास भी दिलाया  है|

" रामपुर का दाम्पत्य अध्याय " युवा मन का रोचक प्रतिबिंबन कर रहा है तो"जाति ,जाति  में जाति " अध्याय  वर्ण व्यवस्था के वर्तमान रुप को आईना दिखा रहा है |लेखक का यह कहना एकदम सही है कि "आज हमारे (हम सभी के )गांव  (अथवा शहर ) में दलित और सवर्ण का स्तर भेद समाप्त हो चुका है| सामाजिक हैसियत के निर्धारण का पैमाना सिर्फ़ आर्थिक है और इस पैमाने पर गाँव के सवर्ण कहीं नहीं टिकते | उनकी दशा आज पहले  के दलितों (या उससे भी बदतर ) जैसी हो चुकी है |"

    लेखक को मैं अपने हृदय से धन्यवाद देता हूँ |मुझ जैसे हिन्दी साहित्य के प्रेमी पाठक उनसे अभी और ज्यादा की उम्मीद लगाए बैठे हैं |