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तेरे शहर में

तेरे शहर में

कहानी/शरोवन

***‘

नवरोश को जब अपने काम के सिलसिले में रत्नागिरि जाने का अवसर मिला तो उसे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि सारे शहर के लोग उसे शक्ल से ना जानकर उसके नाम से बख़ूबी जानते हैं, पर वहां पर जो उसे बहुत करीब से जानता था, उसके पास कहने के लिये शब्द ही नहीं थे।’

***

अचानक से आकाश में एक तिहाई चांद के बदन को जब एक आवारा लावारिस सी बदली ने आकर अपने अंक में छुपा लिया तो पल भर में सारा आलम मटमैली चांदनी के रंग में फीका पड़ गया। इस प्रकार कि बढ़ती हुई रात की निस्तब्धता में भी हल्के से भय की एक रेखा भी मन ही मन कांप गई। दूर नदी के जल की लहरें हल्की हवाओं की कंपन के कारण किसी बार­बार पलटती हुई मछली के समान चमक रही थीं और शहर की विद्युत बत्तियों का प्रकाश पानी के जल में मचलती हुई लहरों के साथ तरह­-तरह के रंगों की अबरी बना रहा था। ख़तरे के निशान को छूती हुई नदी के बाढ़ के पानी की धारायें जब भी अपने पूरे बल के साथ पुल की दीवारों पर टक्करें मारती थीं तो पुल की मुंडेर पर बैठे हुये नवरोश का शरीर भी हिल जाता था। पुल पर आती­जाती मोटर­गाडि़यों और मनुष्यों के भरपूर आवागमन का शोर था, परन्तु नवरोश को इन सारी बातों का कुछ भी ध्यान नहीं था। यूं भी मनुष्य जब अपने विचारों और सोचों में लीन हो जाता है तो उसे अपने आस-­पास की किसी भी बात का कुछ भी होश नहीं रहता है। यही हाल नवरोश का भी था। कल तक उसके सारे कार्यक्रम समाप्त हो गये थे और आने वाले कल की सुबह में उसे वापस लौटना भी था। मिलने­-जुलने वालों से भी उसे फुरसत मिल चुकी थी। लेकिन जब उसका मन होटल में नहीं लगा तो वह किसी को भी बताये बगैर चुपचाप बहुत शाम से ही यहां आकर बैठ गया था। और तब से बैठे­-बैठे बहुत कुछ सोचे जा रहा था। अतीत की बहुत सारी बीती हुई बातों को याद किये जा रहा था। वैसे उसे इन सारी बातों को फिर से दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं होती यदि इस शहर में तमाम लोगों की भीड़ में यदि अचानक से उसे उल्का नहीं मिलती . . .?

. . .बैठे हुये दूर क्षितिज के किनारों को देखते हुये, पीछे से आकर अचानक ही किन्हीं मुलायम हाथों और पतली हथेलियों ने नवरोश की आंखें बंदकर लीं तो वह सहज ही चौंका तो पर आश्चर्य नहीं कर सका। उसे समझते देर नहीं लगी कि किसी ने उससे खेल के साथ छेड़खानी की है। अब उसे बगैर हाथों को हटाये और बिना अपनी आंखें खोले हुये उसकी आंखें बंद करनेवाले का नाम बताना था, तभी उसकी जीत संभव थी। उसके नथुनों में नाख़ूनों पर नई लगी हुई लाली की खुशबू भर रही थी। नवरोश आंखें बंद करनेवाले को अपने स्पर्श से पहचानने की चेष्टा करते हुये अपने दोनों हाथों को उसकी हथेलियों को छूते हुये उसकी कोहनी की तरफ ले जाने लगा। छूते­-छूते ज्योंही उसके हाथ कोहनी से ऊपर बगलों तक जाने लगे तो फौरन ही उसकी आंखें बंद करनेवाले ने अपने हाथ पीछे खींच लिये और फिर जैसे चिढ़ते हुये कहा कि,

‘बदतमीज़! पहचानकर बताया तो गया नहीं, ऊपर से शैतानी करने लगे?’

‘?’

नवरोश ने अपनी आंखें मलते हुये देखा तो सामने उल्का खड़ी हुई मुस्करा रही थी। इतने दिनों तक एक ही कक्षा में साथ पढ़ते हुये उल्का की नवरोश के प्रति यह पहली शरारत थी। उसके पश्चात कब उन दोनों की कॉलेज की पढ़ाई समाप्त हुई और कितना शीघ्र ही वे दोनों उम्र के उस मोड़ पर पहुंच गये जहां पर आकर उन्हें यह महसूस होने लगा कि अब उन्हें एक दूसरे को यह बता देना चाहिये कि चाहत की यह लुका­छुपी बहुत दिनों तक नहीं चल सकेगी। वे दोनों मन ही मन सारी दुनियां से कहीं दूर अपना अलग घरौंदा बसाने के सपने देखने लगे हैं। दोनों के मध्य का यह समय और फासला इतनी जल्दी समाप्त हो गया कि किसी को कुछ एहसास ही नहीं हो सका। यदि कुछ महसूस हुआ भी तो केवल इतना ही कि वे दोनों आपस में एक­दूसरे को इसकदर चाहने लगे हैं कि उसका बयान शब्दों में नहीं कर सकते हैं। तब इन्हीं दिनों एक दिन नवरोश ने उल्का से अपने मन की बात कही। बड़े दिन की पच्चीस तारीख की रात को चर्च के अन्दर मोम बत्तियों को जलाने के पश्चात नवरोश उल्का का हाथ पकड़े हुये काफी दूर एकान्त में आ गया। जाड़े की ठंडी रात थी। चर्च विला की बस्ती के सारे मकानों में यीशु मसीह के जन्म के उपलक्ष्य में मोमबत्तियों का प्रकाश झिलमिला रहा था। आकाश में चन्दमा की गैर­मौजूदगी के बावजूद भी छोटी­छोटी तारिकायें सर्दी की इस रात के फैले हुये अंधकार को मिटाने का एक असफल प्रयत्न कर रही थीं। तभी नवरोश ने अपने मन की बात उल्का से कही। वह आकाश की ओर देखता हुआ बोला,

‘उल्का, यह पूरे के पूरे फैले हुये सौर्यमंडल को देख रही हो?’

‘हां।’

‘मैं जब भी रात की ख़ामोशी में इस आकाश की तरफ देखा करता हूं तो हमेशा ही मुझे कोई न कोई उल्का टूटती हुई नज़र आ जाती थी। और जब वह टूटती हुई नीचे धरती की तरफ गिरने लगती थी तो मैं यही मनाता था कि वह किसी भी तरह से मेरी झोली में आ जाये।’

‘हां। लेकिन कहना क्या चाहते हो तुम?’ उल्का ने बात की गहराई को समझते हुये भी रात के अंधकार में भी नवरोश की आंखों में एक संशय से झांकते हुये पूछा।

‘यही कि आकाश से उल्का टूटकर नीचे धरती पर आती तो है, लेकिन अफसोस यही है कि वह मेरी झोली में क्यों नहीं गिरती है?’

‘अच्छा। कहानियां लिखते-­लिखते मेरे लिये कोई ऐसी कहानी मत बना देना कि सारी जि़न्दगी उसे पढ़­-पढ़कर आंसू बहाते रहो। अगर तुम में हिम्मत है तो मेरे मामा­-पापा से खुद ही बात करो। नहीं तो अपने घर से किसी को मेरे घर भेजो।’

‘?’

उल्का की इस बात पर नवरोश की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। वह मुस्कराते हुये बोला,

‘मैंने दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन के संपादकीय विभाग में नौकरी के लिये आवेदन दिया है। वहां मुझे दो सप्ताह के पश्चात साक्षात्कार के लिये जाना है। मुझे पूरी आशा है कि यह नौकरी मुझे जरूर ही मिल जायेगी। नौकरी मिलते ही मैं अपनी मां को तुम्हारे घर जरूर भेजूंगा।’

नवरोश और उल्का की यह मुलाकात यहीं समाप्त हुई। बड़ा दिन चला गया। नया साल भी बहुत सी आशायें लाकर दिलों की धड़कनें बढ़ा गया। नवरोश को दिल्ली प्रेस में सह­-संपादक की नौकरी भी मिल गई। देखते­-देखते खुशियों के अंबार इसकदर एकत्रित हुये कि उस पर वक्त की चीलें जलस के कारण अपने पंजों को मजबूत करने लगीं। नवरोश की मां उल्का के घर उसके रिश्ते की बात करने जाती, उससे पहले ही अपनी नई नौकरी पर जाने से एक दिन पहले उल्का नवरोश के पास आई। अत्यन्त दुखी, खूब ख़ामोश और निराश, परेशान सी। नवरोश ने उल्का की यह दशा देखी तो वह एक दम से कुछ समझा तो नहीं, लेकिन उसका चेहरा अपने हाथ से ऊपर उठाते हुये उसकी आंखों में देखते हुये बोला,

‘क्यों? क्या हो गया तुम्हें अचानक से? तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों है?’

‘?’

उल्का ने कहा तो कुछ भी नहीं। वह चुपचाप अपना सिर नवरोश के सीने पर रखकर सिसकने लगी। तब नवरोश ने उल्का का चेहरा फिर से ऊपर उठाया। उसे गौर से देखा। उसकी आंखों में झलकते हुये ढेर सारे आंसुओं की बाढ़ को देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि उसकी सारी चाहतों पर पाबन्दी लग चुकी है। फिर भी अपना सन्देह मिटाने की गरज़ से उसने उल्का से पूछ ही लिया। वह बोला,

‘अब तुम कुछ बताओगी भी या फिर . . .?’

तब उल्का नवरोश की आंखों में झांकती हुई बोली,

‘मेरी किस्मत भी बड़ी अजीब है। सारी दुनियां में एक तुम ही रह गये थे, इसकदर प्यार करने के लिये?’

‘?’

नवरोश बोला तो कुछ नहीं, मगर वह उल्का को बड़ी गंभीरता से देखने लगा। तभी उल्का उससे दूर हटते हुये बोली,

‘मेरे मामा-­पापा ने मेरा रिश्ता रत्नागिरि में रहने वाले किसी इंजीनियर लड़के से तय कर दिया है।’

‘और तुमने भी यह रिश्ता मंजूर कर लिया?’ नवरोश ने गंभीरता से पूछा।

‘तो मैं क्या करती? अपने मां­-बाप से क्या बगावत करूं?’

‘नहीं। बगावत तो मुझे करनी चाहिये, अपने आपसे, जिसने बगैर आगा­-पीछा सोचे हुये उस लड़की से प्यार की आस की जो मेरे दिल की धड़कनों का बोझ भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उस लड़की के लिये जिसको शायद प्यार की झूठी कसमें खाने की आदत थी? एक ऐसी कमजोर मुहब्बतों के डर-डर के अपने कदम रखनेवाली उस लड़की के लिये जो ज़रा सी मौसमी हवाओं का झोंका खाते ही अपने प्यार का विश्वास बदल बैठी?’

नवरोश के स्वर बोझिल हुये तो उल्का जैसे तड़प गई। आंखों में आंसू भरे हुये ही वह जैसे खुद को संभालने की कोशिश करते हुये नवरोश से बोली,

‘तुम मुझसे शिकायत कर रहे हो? यह जानते हुये भी कि बेटियां तो अपने मां­-बाप की इज्ज़त हुआ करती हैं?’

‘हां। तुम ठीक ही कहती हो। मेरे प्यार का कफन तुम्हारे मामा­-पापा की इज्ज़त से बहुत हल्का है। शायद तुम्हारी आंखों में पिछले पांच सालों से अपनी तस्वीर को देखते­-देखते मैं यह सब भूल ही गया था?’

‘अब तुम मुझे खूब तो क्या, सारी उम्र दोष देते रहना। पर तुम क्या जानो कि मैं तुम्हें कितना चाहती हूं? किसकदर प्यार किया करती हूं? मैं तुम्हारी चाहतों की कोई दुश्मन तो नहीं हूं, पर जिस पृष्ठभूमि पर मेरी परवरिश हुई है, उसके उसूलों की दासी जरूर हूं। इस दासी की मजबूरियों पर कभी अगर गंभीरता से गौर करोगे तो हो सकता है कि तुम मुझे मॉफ भी कर दो।’

‘अच्छा। जीवन में कभी यदि मैं तुमको अचानक से मिल गया तो.. .?’

‘तुम्हारी तरफ देखूंगी जरूर।’

‘लेकिन पहचानोगी नहीं?’

‘?’

उल्का चुप रह गई। वह आगे कुछ भी नहीं कह सकी।

उल्का की इस बेबसी भरी चुप्पी पर नवरोश बड़ी देर तक कुछ भी नहीं बोला। काफी देर तक वे दोनों मूक ही खड़े रहे। बिल्कुल पत्थर के बुतों समान। बड़ी देर तक दोनों के मध्य ख़ामोशी एक तीसरे बजूद के समान अपना डेरा डाले रही। फिर काफी क्षणों के पश्चात नवरोश ने ही दोनों के मध्य छाई हुई चुप्पी को तोड़ा। वह बोला,

‘लोग कहा करते हैं कि टूटते हुये तारे या उल्का को देखना शुभ नहीं होता है। मैं कभी भी ऐसी बातों पर विश्वास नहीं किया करता था, पर आज विश्वास करना पड़ा है। शायद किस्मत ने हम दोनों का साथ यहीं तक लिखा था। आज के बाद मैं तुम्हारी दुनियां से कहीं बहुत दूर निकल जाऊंगा और कोशिश करूंगा कि कभी भी भूले से तुम्हारे सामने न आ सकूं, ताकि तुम मुझे देखकर अपने होनेवाले पति के महान प्यार का अपमान न कर सको।’

इसके पश्चात फिर दोनों कभी भी नहीं मिले। यहीं इसी जगह तक शायद दोनों को आना था और यहीं से सदा के लिये अलग भी हो जाना था। बाद में उल्का का विवाह धूमधाम से हो गया। उल्का ने ना तो अपने विवाह का कार्ड ही नवरोश को भेजा और ना ही वह खुद भी उसके विवाह में आया। उल्का विवाह के पश्चात अपने पति के घर चली गई। दूसरी तरफ नवरोश अपनी नौकरी के सिलसिले में अपने घर से बाहर निकला तो फिर कभी उसने मुड़ कर उस तरफ देखा भी नहीं। कभी एक बार लौटकर आया भी नहीं। और वह देखकर करता भी क्या। वापस आकर उसे अब करना भी क्या था? फिर उस शहर और स्थान से उसे अब सरोकार भी क्या हो सकता था, जहां पर समय की मौसमी हवा के एक ही झोंके से उसके प्यार-­भरे नींड़ के परखच्चे उड़ चुके थे। कितना बुरा उसके प्यार का हश्र हुआ था? सारे रास्ते एक आशा पर चलते हुये मंजिल के पास आकर ही उसके सारे सपनों पर आग बरस पड़ी थी। वह अपना दुख किससे और क्यों कहता?

उल्का शादी के पश्चात अपने घर चली गई तो नवरोश ने भी किसी तरह अपने आपको समझाया। अपनी नौकरी में दिल लगाने की कोशिश की। लिखता तो वह पहले ही से आ रहा था लेकिन अब उसकी लेखनी से उसके दिल के घाव रिस­-रिसकर टपकने लगे तो उसके लेखन में एक कशिश, एक अनकहा दर्द और तड़प भी शामिल हो गई। इस प्रकार कि उसके पाठक उसे एक मर्मस्पर्शी कथाकार के रूप में बखूबी जानने और पहचानने लगे। फिर अपने लेखन के सिलसिले में जब अपनी नई पुस्तक ‘काठ का कारीगर‘ के विमोचन के अवसर पर नवरोश को रत्नागिरि में आना हुआ तो वहां पर अन्य लोगों की भीड़ में वह उल्का को देखकर चौंका तो पर साथ ही प्रसन्नता भी हुई और दुख भी। प्रसन्नता इसलिये कि एक अरसे के पश्चात उसने उल्का को देखा था। उस लड़की को फिर से पाया था जिसके प्यार के एक मात्र तमाचे ने तमाम लोगों की भीड़ में उसे एक लेखक के रूप में सुप्रसिद्ध कर दिया था। और दुख इस कारण हुआ था कि उल्का ने उसे एक लेखक के तौर पर पहचाना तो था, लेकिन जिस नवरोश को वह खो चुकी थी उसे पहचानने की वह हॉमी नहीं भर सकी थी। कितनी अजीब बात थी कि उल्का के अपने शहर में नवरोश के न जाने कितने जानने वाले थे, मगर जो उसको बहुत करीब से जानता और पहचानता था वही उससे मीलों दूर था, और उसके पास इज़हार के लिये शब्द ही नहीं थे।

समाप्त।