धर्म क्या है ?आस्था है ब्रह्मांड का अस्तित्व है धर्म जन्म के जीवन की दिशा दृष्टिकोण निर्धारण करने का मार्ग है या जन्म जीवन के सत्यार्थ बोध का सत्य है। धर्म ईश्वरीय सत्य का विज्ञान है या आचरण एव संस्कार निर्माण का पथ सिद्धांत है।सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक है कि धर्म वास्तव में है क्या है ?धर्म- (मानस में गोस्वामी जी ने कहा है धीरज धरम मित्र अरु नारी आपत काल परख इन चारी) गोस्वामी जी के इस चौपाई में धरम से पहले धीरज धैर्य को महत्वपूर्ण बताया गया है वास्तव मे धैर्य अवधारणा के धारण करने का आधार है धीरज आत्मीय चैतन्य सत्ता कीवह अवनी है जिस पर ही सत्यार्थ का बीजारोपण सम्भव है (धर्म इति धार्याति तस्य धर्म ) अर्थात जो धारण किया जा सके और जिस दृढ़ता से चला जा सके धर्म है ।ब्रह्मांड के समस्त चर चराचर स्वंय को सबल सुंदर बनने दिखने की कोशिश करते है धर्म प्राणि प्राण को निर्विकार निश्चल परमार्थ परोपकार जैसे धर्म पराक्रम के सुंदर आभूषणों से सुशोभित कर विशुद्ध आत्मीय सत्य का साक्षात्कार कराता है ।धर्म कर्तव्य एव दायित्वबोध कराता जन्म जीवन के उद्देश्यों कि स्पष्टता का परिभाषक है ।धर्म जन्म जीवन कि सकारात्मता के बोध एव एकात्म ब्रह्म ब्रह्मांड में जन्म जीवन महत्व कि दृष्टि दिशा दृष्टिकोण का निर्धारण करता है ।सनातन धर्म ग्रंथो के अनुसार धर्म धुंध एव भ्रम संसय को समाप्त कर ईश्वरीय सत्ता में परमात्मा के शाश्वत सत्य तथा आत्मा में परमात्मा के दर्शन का सत्यार्थ है जो प्रारब्ध एव कर्म योग को सयुक्त रूप मे धर्म की धुरी के रूप मे प्रस्तुत करता है ।प्रारब्ध तो कर्मजनित परिणाम है जिसका प्रत्यक्ष काया है काया के वर्तमान कर्म एव ज्ञान है जो धर्म कर्म आधारित जीवन मूल्य है निश्चित रूप से पूर्ण सत्य नही है धर्म आस्था की गहराई से जुड़ा वह बट बृक्ष है जिसकी छाया फल से वर्तमान का प्रारब्ध है तो युग पथ के भविष्य की दृष्टी दृष्टिकोण ।यहाँ एक उदाहरण विल्कुल सटीक है बालक प्रह्लाद ने अपनी माता को नारायण के प्रति समर्पित भाव से ही मन मे धारणा बना ली थी कि निश्चय ही माता सृष्टि के सर्वशक्तिमान को ही प्रतिदिन स्मरण करती हैं बालक प्रह्लाद ने सिर्फ माता को नारायण के प्रति आस्थावान होते देखा जिसका प्रभाव बालक प्रह्लाद के मन पर बहुत गहरा पड़ा और माता कि आराधना आस्था भाव ने बालक प्रह्लाद माता को पथप्रदर्शक मानकर स्वीकार किया परिणामस्वरूप उसके अंतर्मन की गहराई से आस्था के धर्म मर्म अस्तित्व की ऐसी दृढ़ता ने जन्म लिया कि उसे सर्वत्र नारायण का अस्तित्व दिखने लगा ।स्प्ष्ट है जब आत्मा कि गहराई या कहा जाय अंतर्मन से धैर्य के साथ सात्विक बोध से आस्था जन्म लेती है वह धर्म के मर्म एव ईश्वरीय सत्यार्थ का बोध कराती है।धर्म विकार रहित प्रवृत्ति का पोषण करता है अर्थात निर्विकार मन धर्म का धरातल है ।द्वेष दम्भ छल झूठ प्रपंच कपट विकार के पथ है जो तमस के उस भटकाव की तरफ ले जाते है जहाँ प्राणि को धर्म मिथ्या प्रतीत होने लगता है और सार्थकता सकारक्तमता नाकारकमत्का एव निरर्थकता में परिवर्तित होकर अहंकार को जन्म देती है जो प्राणि को दानवीय प्रवृत्ति की तरफ मोड़ देती है और तब वह पराक्रमी सबल सक्षम ज्ञानी होने के साथ साथ पथ भ्रष्ट हो जाता है ।सनातन में जितने भी देव दानव प्रकरण के कथाएं पुराणों में वर्णित है सबमे एक बात एक बात प्रमुख है सभी दानवों में ब्रह्मांड के परब्रह्म का भान था उन्होंने अपने कठोर तप से उसे प्रसन्न किया और आशीर्वाद या वरदान स्वरूप अपने अहंकार की संतुष्टि को मांगा और ब्रह्मांड के नियंता परब्रह्म परमेश्वर को ही चुनौती प्रस्तुत करते ।यहाँ यह बहुत स्प्ष्ट है कि ईश्वरीय सत्यार्थ का भान दानवीय प्रवृत्ति को भी होता है किंतु उनमें धर्म का ज्ञान नहीं होता अर्थात यह कहना कि ईश्वरीय सत्य कि धारणा धर्म है तो सत्य नहीं होगा।उदाहरण के लिए रावण प्रकांड पण्डित ज्ञानी भविष्य को जानने वाला एव शिव जी का अनन्य भक्त था।(उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती शिव बिरंचि पूजहि बहु भांति)लेकिन अहंकार के कारण उसमें धर्म मर्म आचरण का अभाव था जिसके कारण उसने माता सीता का हरण कर लिया और खर दूषण तृसरा के वध के बाद भी गोस्वामी जी के अनुसार (खर दूषण मो सम बलवन्ता मारि को सकही बिनु भगवन्ता)यह जातने हुए कि मर्यादापुरुषोत्तम राम नारायांश अवतार है अहंकार बस धर्म से विमुख रहा ।बहुत सनातन विद्वानों के द्वारा यह कहते हुए सुना गया है कि रावण यह जानते हुए कि राम स्वंय नारायण के अंशावतार है अतः उनके हाथों मरने से मोक्ष की प्राप्ति होगी जिससे सम्पूर्ण कुल का उद्धार होगा ।जो सत्य नहीं है रावण अधर्म के मार्ग को अपने अहंकार मद में चूर चल पड़ा था अतः उसका अंत निश्चित ही था। धर्म अस्तित्व को स्थाईत्व प्रदान करता है समापन नहीं धर्म का सम्बंध बुद्धि विवेक एव कर्मेन्द्रिय से है ज्ञान इंद्रियों का सम्बंध मन से होता है धर्म मनुष्य के लिए उसके जन्म जीवन कर्म कि दृष्टि दृष्टिकोण प्रदान करता है।सम्पूर्ण ब्रह्मांड में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसके पास सोचने समझने खोजने की क्षमता है अतः धर्म कि आवश्यकता भी मनुष्य को ही है ब्रह्मांड के शेष प्राणियों का सिर्फ एक ही धर्म है भोजन एव सुरक्षा ईश्वर ने अपनी सृष्टि में सभी प्राणियों को भोजन एव सुरक्षा कि सुविधा प्रदान की है तथा ब्रह्मांड के सभी प्राणियों के गुण ईश्वर ने मनुष्य को प्रदान कर रखी है ।मनुष्य प्राप्त अपनी ईश्वरीय क्षमताओ को अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में ही लगा देता है साथ ही साथ इंद्रियों के आकर्षण के अंधकार में भोग संस्कृति के आवरण ओढ़ लेता है जिसके कारण धर्म को वह अपनी सुविधानुसार परिभाषित करने लगता है जबकि धर्म ईश्वरीय रूपी पीलवान का वह अंकुश हैं जो उसे संतुलित एव नियंत्रित करता है ।धर्म मे पर पीड़ा कि अनुभूति स्वयं के अस्तित्व में समाहित कर दृष्टिगत करने का दृष्टिकोण देता है।अक्सर अधिकतर मनुष्यो द्वारा यह कहते सुना गया है जो ईश्वरीय दृष्टि मार्ग धर्म पर चलता है उसे बहुत कष्टो का सामना करना पड़ता है ।यहाँ भौतिक तौर पर उदाहरण के लिए स्प्ष्ट करना आवश्यक है कि कक्षा में जो विद्यार्थी मेहनत एव मन लगाकर पढ़ता है अंततः परीक्षा में सम्मिलित होने का अवसर उसे ही मिलता है और वह उत्तीर्ण करता है ।दूसरा उदाहरण मनुष्य प्रतिदिन सुनता है देखता है दशरथ नंदन राम मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम तब जाने माने गए जब मर्यादित आचरण प्रस्तुत करते हुए पिता कि आज्ञा मानककर चौदह वर्ष तक नंगे पैर वन वन भटके पत्नी वियोग में भटके प्राणियों के भय पीड़ा कि अनुभूति किया उनका शमन किया ।भगवान श्री कृष्ण ने तो पीड़ा के उत्कर्ष में कारागार में जन्म लिया छः भाईयों का निर्मम वध माता पिता कारगार में और बचपन दूसरी माता यशोदा की गोद आँचल में अतः स्प्ष्ट है कि धर्म धैर्य के गर्भ से जन्मा वह नैतिक मर्यादित मौलिक मूल्य है जो जन्म जीवन को उपयोगी महत्वपूर्ण एव सृष्टि कि दृष्टि के रूप में प्रसंगिग प्रमाणिकता प्रदान करने में सक्षम होता है।एक महात्मा के दो शिष्य थे एक महात्मा के दिखाए मार्ग पर धर्म मार्ग पर चलता दूसरा अपने गुरु कि शिक्षाओं को दर किनार कर जो इच्छा होती करता भोग विलास के संसाधन के लिए जो भी सम्भव होता करता एक दिन दोनों शिष्य अपने गुरु के पास अचानक एक साथ पहुंच गए गुरु दोनों को एक साथ देखकर आश्चर्य चकित होते हुए दोनों को आदर के साथ बैठाया बोले तुम दोनों ही हमारे शिष्य हो तुम दोनों अपने आने का प्रयोजन बताओ सबसे पहले वह शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं को दर किनार कर अपनी सुविधानुसार जो समझ मे आता करता उठा और गुरु के चरणों मे कीमती स्वर्ण मुद्राएं रखते हुए प्रणाम करता हुआ बोला गुरु जी अपने शिष्य की तुक्ष भेंट स्वीकार करे गुरु जी बोले ठीक है तुम बैठ जाओ और अपने आज्ञाकारी शिष्य जो धर्म मार्ग पर दृढ़ता से चलता से बोले तुम्हे भी कुछ कहना है शिष्य बोला गुरुजी क्या धर्म मार्ग पर चलने वालों को दुःख कष्टो में ही जीना और मरना होता है ? गुरुजी प्रिय शिष्य कि वेदना और धर्म पर उसकी दृढ़ता को दृष्टव्य बोले सुनो प्रिय शिष्य बेशर्म का बृक्ष बहुत जल्दी बढ़ता है जो ना तो फल देता है ना ही किसी काम या उपयोग में आता है और उसे उगाने या लगाने के लिए किसी को कोई श्रम नही करना पड़ता है जबकि फलदार छायादार तथा सुगंध बिखेरने वाले पुष्पों बृक्षों को उगाने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है इन बृक्षों को पशुओं से ऋतुओं से एव अन्य शत्रुओं से रक्षा करनी पड़ती है अतः तुम दृढ़ता से अपने मार्ग पर बिना विचलित हुए चलते जाओ और अपने उदण्ड शिष्य से बोले प्रिय हमे स्वर्ण मुद्राओं की क्या आवश्यकता तुम अपनी स्वर्ण मुद्राएं ले जाओ उदण्ड शिष्य सिर झुकाए चला तो गया किंतु उसके मन मे टिस थी।कुम्भ के परिपेक्ष्य में धर्म को देखा जाय तो सनातन धर्म ग्रंथो की कथाओं के अनुसार मोक्षदायिनी गंगा का पृथ्वी पर अवतरण राज सगर द्वारा अश्वमेध यज्ञ का संकल्प और सगर कि बढ़ती धर्म निष्ठा और प्रिय प्रजापालक कि छवि से देवताओं के राजा इंद्र भी भयभीत रहने लगे अतः सगर के अश्वमेध का घोड़ा इंद्र ने कपिल मुनि के आश्रम पर लाकर बांध दिया राजा सगर के साठ हजार पुत्रो ने अश्वमेध के घोड़े को कपिल मुनि के आश्रम में बंधा देखा तोधैर्य खो दिया धैर्य खोने के बाद धर्म मार्ग से विमुख हो गए परिणाम यह हुआ कि यह मालूम होते हुए कि कपिल मुनि को राजसत्ता से क्या लेना देना और उनके पिता के अश्वमेघ यज्ञ को क्यो रोकना चाहेंगे अतः सगर पुत्रो ने ध्यानमग्न कपिल मुनि को अपमानित कर उनका ध्यान भंग कर दिया ज्यो ही कपिल मुनि ने अपने नेत्र खोले सगर पुत्र भस्म हो गए सगर के अनुनय विनय पर पुत्रो के मोक्ष के लिए कपिल मुनि ने गंगा को पृथ्वी पर लाने और सगर पुत्रो के मोक्ष की बात बताई ।धर्म मित्र और नारी मानुष्य के लिए महत्वपूर्ण एव पथप्रदर्शक होते है मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम जो स्वंय धर्म के अधिष्ठाता परब्रह्म स्वरूप थे अपने मित्रों के साथ ही धर्म को रामराज्य के रूप मे स्थापित किया चौदह वर्ष के वनवास से लौटने के बाद निषाद राज सुग्रीव के सानिध्य में सिंघासन ग्रहण किया और मित्र और धर्म के सयुक्त स्वरूप को प्रस्तुत किया और राम राज्य की अवधारणा को मूर्तता प्रदान किया तो सुदामा मित्र की मित्रता के संदर्भ में भगवान श्री कृष्ण ने धर्म को प्रस्तुत किया तो अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण नर नारायण कि सयुक्तता ने धर्म कि स्थापना के लिए महाभारत का नेतृत्व किया क्योकि -(जब जब होई धरम के हानि बढही असुर अधम अभिमानी)भगवान राम ने भी सुग्रीव एव बानर मित्रों के साथ ही धर्म और मर्यादा का युद्ध लड़ा कलयुग में नर के लिए धर्म ही नारायण है जो भटकने पर उग्र उच्छिर्नखल होने पर धीरज धैर्य एव धर्म कि दृष्टि प्रदान करता हुआ उचित मार्गदर्शन करता है कलयुग में नारायण स्वंय धर्म आचरण में प्रतिष्टित होकर पल प्रहर किसी भी काल स्थिति परिस्थिति में पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करते हुए मानुष्य को उचित कर्तव्य दायित्व का बोध कराते है जिस पर धर्म आचरण युक्त निर्विकार मानुष्य चलता है और विषम एव विपरीत समय काल मे भी संयमित संतुलित रहते हुए बाधाओं को जीतता हुआ धर्म की जीवंत जागृत रखते हुए उसके महत्व को समझता है देखता है अनुभव अनुभूति करता है।धर्म ध्यान ज्ञान दान का मर्म मूर्त है किंतु दान लेने एव देने की पात्रता निर्धारित है सुपात्र को दान सुपात्र द्वारा दिया जाना चाहिए दान एव सेवा में अंतर है सेवा किसी भी अक्षम असहाय का सहयोग है जबकि दान ईश्वरीय कार्य मे सहभागिता है ।ईश्वर के दरबार मे यदि कोई ईश्वर की सेवा भक्ति करता है जैसे मंदिर तो उसे दान मांगने का हक नही है क्योकि वह स्वंय उस परमशक्ति परमात्मा का सेवक है जो जगत का पालन हार है उसे तो बिना मांगे पर्याप्त प्राप्त हो जाएगा जिससे भगवान की सेवा सतत होती रहेगी वहां परमात्मा की कृपा वर्षा होती है बहुत से सन्त ईश्वरीय सेवा के समानांतर जन सेवा के ईश्वरीय दायित्वों का भी निर्वहन करते है ऐसे सन्त महापुरुषों को सहयोग अवश्य करना चाहिए जिससे धर्म का संरक्षण संवर्धन अक्षय अक्षुण रहे ।यदि किसी व्यक्ति द्वारा असहाय लाचार कि सेवा सहयोग किया जाता है तो धर्म का सर्वश्रेष्ठ मर्म होगा।दान--दान कभी भी दानवी प्रवृति के अहंकारी दंभयुक्त नैतिक रूप से पतित नीच को नही दिया जाना चाहिए ऐसा करने से दानी के पराक्रम का ह्रास होता है और भय संसय में उसके अस्तित्व साम्राज्य का पतन होता है ।दान दरिद्र नारायण कि सेवा का सुगम मार्ग है लगभग युग विश्व ब्रह्मांड के सभी समाज के धर्मो में इस महत्वपूर्ण कार्य को सबसे ऊंचा स्थान दिया गया है यदि कोई व्यक्ति सक्षम है और अपने परिवार के भरण पोषण एव दायित्वों के निर्वाहन के बाद कुछ धन धर्म सेवा के कार्य मे लगाता है तो परब्रह्म द्वारा परिभाषित सर्वोत्तम धर्म है जो व्यक्ति के वर्तमान में उसके भविष्य एव जन्मों का संजय धन या यूं कहें पुण्य होता है।मनुष्यमृति के अनुसार यदि कोई मांसाहार करता है तो उसे जीव हत्या के पाप में दसान्स दण्ड मिलता है जो बहुत भयानक भयंकर एव वेदना के वर्चस्व के कराह में पश्चाताप करना होता है जबकि वह व्यक्ति प्रथम पापी होता है जो जीव का पालन पोषण करता है और कसाई के हाथों बेच कर उस धन से अपने परिवार का भरण पोषण करता है यहां यह स्प्ष्ट करना आवश्यक है पाप का भागी परिवार का वह मुखिया ही होता है जो जीव पालकर कसाई के हाथों बेंच देता है उसका परिवार नही क्योकि परिवार उसका दायित्व है परिवार का पालन पोषण कैसे करता है वह उसके लिये जिम्मेदार है एव उसके पाप पुण्य का अकेला भागी जैसे वाल्मीकि का उदाहरण आता है।सनातन ग्रंथो में यह भी प्रकरण वर्णित है कि यदि आपने किसी कुपात्र को दान दे दिया और उसने आपके दान का उपयोग स्वंय के भोग के लिए जैसे मदिरा पान पर स्त्री गमन या जुए आदि में अपव्यय करता है तो दान देने वाला ही प्रथम अधर्मी एव दण्ड का भागीदार होगा तथा सर्वप्रथम उसकी आय ही शैने शैने छिड़ होने लगती है वह स्वंय भी उसी कतार में खड़ा हो जाता है जिस कतार में खड़े पाखंडी धूर्त एव स्वांगि को उसने अपने पराक्रम पुरुषार्थ के आय से दान दिया था यह बहुत स्प्ष्ट मनुष्यमृति में वर्णित है अन्य ग्रंथो जैसे श्रीमद्भागवत पुराण आदि अतः सदैव दान कि योग्यता यदि ईश्वर ने दिया है तो सुपात्र को ही देने की कोशिश करे।वाल्मीकि रामायण में महंत और कुत्ता विवाद एव मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम के रामराज्य के न्याय को उद्धृत किया जाना आवश्यक है।धर्म धार है धारा है धार तीर तलवार की जिसमे किसी भी तरह की चूक या त्रुटि की गुंजाइश ही नही रहती है यदि जाने अनजाने में कोई त्रुटि हो गयी तो बहुत कष्टकारी होता है तीर लक्ष्य से भटक सकती है और तलवार की धार सब कुछ समाप्त कर देती है धर्म धारा इसलिए क्योकि यदि धर्म की गहराई के मर्म का ज्ञान है तो धर्म की धरा में जीवन प्रतिदिन आंनद की डुबकियां लगाती रहती है अपने उद्देश्य पथ को प्राप्त होती है यदि धर्म कि गहराई का मर्मज्ञ नही है तो धर्म की तेज धारा में ऐसा भटक जाएगा कि जन्म जीवन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।