Gomti Tum Bahati Rahna in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | गोमती, तुम बहती रहना (आत्मकथा)

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गोमती, तुम बहती रहना (आत्मकथा)


                लखनऊ - ढेर सारे सपनों को सच करने वाला शहर | एक से एक गुणी कलाकारों,लेखकों ,शायरों ,राजनीतिज्ञों, शतरंजी चालों का शहर  | नवाबों की रईसी के तमाम किस्सों- कहानियों से अंटा पड़ा शहर |नाज़ुक मिजाजी भी यहाँ का दस्तूर है और सुंदरता ? अजी जनाब , उसके क्या कहने !

               लेकिन मैंने यह महसूस किया है कि अब यहाँ का समाज अपना मिजाज बदलता जा रहा है| ”पहले आप” का जुमला अब “पहले मैं” में तब्दील होता नजर आ रहा है |मैंने तो अपने बाईस  साल (वर्ष 2003 से 2025 तक) के प्रवास में ऐसा ही अनुभव किया है |वैसे आकाशवाणी में जब मैंने ज्वाइन किया तभी इसका सिग्नल आ चुका था |मुझे संगीत विभाग की जिम्मेदारी दी गई  तो मैंने देखा कि एक लंबे अरसे से अनेक कलाकारों को बुलाया नहीं जा रहा था | इसका कोई कारण समझ में नहीं आया |मैंने एक -एक कर पुराने गुणी कलाकारों से संपर्क साधना शुरू किया |आकाशवाणी की इस अनदेखी से केंद्र के वरिष्ठ कलाकार और सेवानिवृत्त संगीत संयोजक विनोद चटर्जी बेहद गुस्से में थे |उनका जन्म 8 जुलाई 1924 को सियालकोट में हुआ था |उन्होंने एच.एम.वी.,फिल्म डिवीजन और आकाशवाणी में वर्ष 1941 से संगीत संयोजन का काम करना शुरू कर दिया था | मुझे भेजे एक पत्र में उन्होंने लिखा-“I can understand that the reason of being ignored by the authorities under whom I have given satisfactory & honest services was my good nature ….. Now pardon me. Sir, I have no desire of continuing to the sad working condition prevailing at present.” इस पत्र को पाकर स्वाभाविक है मैं भावुक हो उठा |मैंने तुरंत उनसे उनके घर पर जाकर मुलाकात की और उनको आश्वासन  दिया कि मेरे कार्यकाल में उनको भरपूर सम्मान मिलेगा |आगे मैंने वैसा ही किया भी |सिर्फ़ उनको ही नहीं तमाम भुला दिए गए कलाकारों को आकाशवाणी लखनऊ की मुख्य धारा से जोड़ा |कुछ नाम इस प्रकार थे-एच. वसंत,उत्तम चटर्जी,केवल कुमार ,निर्मला कुमारी ,मनोहर स्वरूप,स्वपना रॉय ,कमाल खान ,मुक्ता चटर्जी,इकबाल अहमद सिद्दीकी,अग्निहोत्री बंधु,शोभित ..  आदि | विनोद दादा की मैंने लगभग दो घंटे की आर्काइवल रिकार्डिंग भी कराई जिसमें उन्होंने अपने जीवन के ढेर सारे अनछुए पहलुओं को बताया था |उनकी स्मृतियों को कुरेद -कुरेद कर सामने लाने का काम किया था ऊर्मिल कुमार थपलियाल ने |                                                                                                         आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि विनोद दादा अपनी जवानी में इतने खूबसूरत थे कि जब वे बंबई की फिल्मी दुनियाँ में संघर्षरत थे तो उनका मीना कुमारी से बहुत ही निकट का संबंध हो गया था और उनके अनुसार उसी दौर के उभरते सिने  कलाकार धर्मेन्द्र से मीना कुमारी की अंतरंगता उन्होंने ही कराई थी |यह रिकार्डिंग आज भी आकाशवाणी आर्काइव में सुरक्षित रखी है |विनोद दादा ने बेगम अख्तर के साथ बिताए दिनों के अपने अनुभव भी शेयर किये थे |

               इधर मैं लखनऊ में सैटिल हो रहा था उधर गोरखपुर में मेरे परिजन अपना जीवन यथावत जी रहे थे |बडे भाई प्रोफेसर एस.सी.त्रिपाठी,विश्वविद्यालय के बाटनी विभाग में हेड हो चुके थे |छोटे भाई इलाहाबाद बैंक की सिविल लाइंस ब्रांच में मैनेजर हो गए थे और अब वे मेरी जगह अम्मा- पिताजी के बेहद करीब हो चले थे | पिताजी ने अब कचहरी और यूनिवर्सिटी जाना लगभग बंद कर दिया था और अब वे घर पर ही आनंद मार्गी साधकों के साथ सत्संग और लेखन में सम्बद्ध हो गए थे |मेरी डायरी के अनुसार उनकी लिखी पहली पुस्तक “तंत्र की रहस्यमय कथाएं-थारु का कुंआ ”का 4 फरवरी 2005 को गोरखपुर के प्रेस क्लब में गोरक्ष पीठाधीश महंत श्री अवैद्य नाथ जी द्वारा विमोचन सम्पन्न हुआ था |उस समारोह की अध्यक्षता प्रोफेसर प्रभाशंकर  पांडे ने की थी और विशिष्ट अतिथि थे प्रोफेसर माता प्रसाद त्रिपाठी |उन दिनों प्रकाशक प्राय:पुस्तकों का प्रकाशन अपनी शर्तों पर करते थे इसलिए बहुत मुश्किल से बकशीपुर के एक प्रकाशक को  हैंडिल करना पड़ा और पुस्तक प्रकाशित हुई |इससे पिताजी बहुत प्रसन्न थे |

       लखनऊ केंद्र पर मेरी यह दूसरी पोस्टिंग थी |इस बार मुझे लंबी पारी खेलनी थी और मैंने  खेला भी |वर्ष 2003 से वर्ष 2013 तक नौकरी और निजी जीवन में अनेक उतार- चढ़ाव आते रहे  |मेरे ट्रांसफर भी हुए |लेकिन मैं येन- केन- प्रकारेण डटा  रहा | उन संघर्ष के दिनों को मैंने अपणी डायरी में कुछ इन शब्दों मे उतारा था-“

नाम हमारा पीके त्रिपाठी, पता है गोरख धाम |

शुरू कर रहे अपनी पारी,लेकर हरि का नाम |”

मैंने आगे लिखा-

“कभी हाशिए  पर है जीना,

कभी मर्सिया-मातम पढ़ना |

डरे को डर से क्या है डरना,

यहीं है जीना , यहीं है मरना |”

इस बार मैंने सोच लिया था कि रिटायरमेंट से पहले मैं अपने रेडियो कार्यक्रम निर्माण के सभी सपनों को पंख दे दूंगा जिससे वे उड़ान भर सकें जो मुझे आजीवन संतुष्टि दे सके |उतार -चढ़ाव के साथ मेरे उच्च अधिकारियों ने मेरा साथ भी दिया और आज मैं दावे के साथ कहना चाहूँगा कि मैंने  अपने सपनों को साकार भी कर लिया  | केंद्र निदेशक और अपर महानिदेशक के रुप में केंद्र पर अपनी सेवाएं देने वाले डा. गुलाब चन्द ने मुझे भरपूर हौसला दिया जिनका मैं आभारी  हूँ | कार्यालयीय प्रशासन संबंधी दायित्व निर्वाह करने में मुझे अनेक कठिनाइयाँ आईं जिनको हल करना आवश्यक था |विशेषरूप से अनुशासनहीन कर्मचारियों पर लगाम लगाने संबंधी | कार्यक्रम अधिकारी संगीत प्रशासन और केंद्र तथा ट्रांसमीटर के मुख्य सुरक्षा अधिकारी के रूप में मुझे कुछ बिगड़ैल वादक कलाकारों और सुरक्षा संतरियों के साथ पंगा  भी लेना पड़ा लेकिन अंत में सफलता मुझे मिल ही गई |                                                                                                                   एक टॉप ग्रेड के तबला वादक (पंडित मदन मोदन उपाध्याय ) अपने आप को पे स्केल के आधार पर केंद्र निदेशक से भी स्वघोषित बड़ा अधिकारी मानकर उपस्थिति पंजिका में हस्ताक्षर नहीं करते थे और जब मन करता था आते थे अथवा नहीं आते थे |मेमो देने पर लड़ाई झगड़ा करने पर पर उतर आते थे | उनके साथ कुछ और भी कलाकार ऐसा ही करने लगे | इसी तरह कुछ सुरक्षा संतरी भी महीनी - महीनों कार्यालय से गायब  रहते अथवा ड्यूटी पर शराब पीते थे |इनके साथ निपटना और भी मुश्किल था |लेकिन भगवान की कृपा  और सीनियर्स के सहयोग से सब ठीक रहा |उन टॉप ग्रेड के  तबला वादक  को  रिटायर होते समय लाखों रूपये की कटौती हुई क्योंकि उपस्थिति पंजिका में उनकी गैरहाजिरी दर्ज की जाती रही थी | ऐसा ही आर्थिक नुकसान कुछ सुरक्षा संतरियों को भी उठाना पड़ा |उपाध्याय और एक सुरक्षा संतरी ने तो ने मुझ पर प्रहार करने तक की कोशिश की थी |

        जीवन का ऐसा ही  रंग -ढंग होता है |कभी रक्ताभ तो कभी बासन्ती |आप अपने कर्तव्य पथ  पर निष्ठा और  समर्पण भाव से डटे रहेंगे तो इन अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों से कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है |जिगर मुरादाबादी  के अनुसार “जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं, वही दुनियाँ बदलते जा रहे हैं |” अपनी सेवाकाल से रिटायरमेंट तक मैंने अपने जीवन में ऐसे ही तूफ़ानों को झेला है और इन्हीं से गुजरते हुए अपनी कश्ती को पार लगाया है |

              रेडियो में बिताए दिनों की याद अभी भी जीवंत हो उठती है | संगीत धीरे- धीरे मेरे कार्य के साथ मेरे मन आँगन में भी उतरता जा रहा था |गीत संगीत में इतनी ताकत मैंने महसूस किये कि वे मेरे प्रेरक बनते चले गए |आज भी मैं अपनी तन्हाईयों में या खाली समय में कुछ न कुछ सुनता ही रहता  हूँ यह दूसरी बात है कि इसके लिए पत्नी की  गालियां भी खाता रहता हूँ |मैंने कुछ भक्ति गीत,देशभक्ति के गीत ,प्रेम और विरह के गीत  भी लिखे और उनको अपने सामने कम्पोज कराने के एक विशेष अनुभव से भी गुजरा |आप कल्पना कीजिए कि आपकी भावनाओं पर सवार होकर आपके मन को छूती लिखी गई कोई रचना जब संगीत के सुर,ताल,लय  और वाद्य पर तैरती हुई एक नए रूप में सामने आती हो तो आपको कैसा लगेगा ?आप झूम झूम उठेंगे |मेरे लिखे भजन –

“ हे  मनमोहन मुरली वाले,

आकर दरस दिखा जा रे|

मेरे आकुल- व्याकुल मन को

ज्ञान का मार्ग दिखा जा रे  ! ”

को ढेर सारे कलाकारों ने पसंद किया  था और उसे अपना अपना स्वर प्रदान किया |एक और भजन जिसे सराहना मिली थी उसके बोल थे –

“ मन मोरे  अब तो तजो कुसंग |

काम,क्रोध,मद,लोभ सभी मिल,

विरत  कियो सत्संग |”

संगीतकार केवल कुमार के आग्रह पर मैंने गोमती नदी की आरती भी लिखी जिसके बोल थे-

“ऊं जय गोमा मैया,प्यारी जय गोमा मैया,

धरती,वन और मन को मैया जीवन दान करो |”

एक और उल्लेखनीय गीत-

“ तार -तार हो रहा मनुज अब खतरे  में अस्तित्व है,

दिन पर दिन आवश्यक होता जाए विश्व बंधुत्व  है |”

इसी तरह सॉफ्टवेयर स्कीम में बनाए गए मेरे संगीतमय धारावाहिक “गदर के निशाँ “के टाइटिल सांग को सराहना मिली थी –

“करते अभी भी वे किस्सा बयां ,

अभी भी है जिंदा गदर के निशाँ !                                          इसी तरह नव वर्ष 2007 पर मैंने लिखा -                           “साल तो चला गया ,सवाल क्यों खड़ा  रहा ?                  गिना रहा उपलब्धियां,बवाल क्यों  बना रहा ?                   तप रहा जो माथा इंसानियत का आज तक,                    क्या बुखार उसका है आज, अब उतर रहा ?                     बो रहे हैं आम हम तो, बबूल क्यों निकल रहा ?”                 

       व्यस्तता के बावजूद अपने युवावस्था का प्रेम कभी- कभी  जब मन में उतर आता था तो  डायरी के पन्नों पर कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी लिख देता रहा -                                          “जब जब तेरी याद सताए,

रात गए तक नींद ना आए |

मेरी नींद उड़ाने वाले ,

जा तेरा काजल बह जाए |”

           इस तरह पाठकों , आकाशवाणी की थाप पर मेरा थिरकना जारी रहा | वर्ष दर वर्ष बीतते रहे  और अभी यह क्रम 31 अगस्त दो हजार तेरह  तक चलना था |जितनी  ऊर्जा गोरखपुर की मिट्टी से मैंने अर्जित की थी उसी के बल पर अवध की इस सरजमीं पर मैं अपनी प्रतिभा का विकास करता जा रहा था |              

           आकाशवाणी की सेवा के दौरान और उस कालखंड के अपने जीवन में आ रहे उतार चढ़ाव के लिए मैं इस बात को अच्छी तरह जानता था कि-

 “अभी इश्क़  के इम्तिहा और भी हैं,

सितारों से आगे जहां और भी है|

तू शाही  है परवाज़ है काम तेरा ,

तेरे  सामने आसमां  और भी हैं |”.. (अल्लामां इक़बाल )

(क्रमश:)