यह सिगार दिख रहा है? यह तब तक जिंदा है जब तक इसमें नशा है,पागलपन है,जुनून है फिर यह ज़ालिम इंसान इस नशे को आग लगा देता है,आशा देता है हवा में तैरने की,धुआं बनने की और यह नादान उसमें जलता जलता राख हो जाता है,ऊपर देखता है तो दिखता है धुआं नहीं मेरा नशा था...जो मर गया। पंडत ने एक और सिगार फूंक दिया,उस राख की बददुआ से पंडत के होठ काले पड़ गए थे । "पंडत" बनारस के एक पुजारी परिवार मैं पला बढ़ा,उसका असली नाम देवराज भरद्वाज था मगर उसके दोस्त उसे "पंडत" बुलाते थे,उसके पिता सीधे सादे भोले भाले,दयालु इंसान थे जिन्होंने कभी हिंदू मुस्लिम को अलग नहीं देखा....सो हो पंडत था।,
उसने कभी कुछ खास सपने नहीं देखे,१९ साल की उम्र तक तो नहीं पर फिर उसने कुछ देखा...कुछ भयानक.. उसके पिता एक भैरव मंदिर में पुजारी थे... बनारस के RSS बौद्धिक प्रमुख के लड़के ने एक मुसलमान लड़की मुसलमानों के मोहल्ले में छेड़ दी...जनाब पिट के आ गए फिर हुआ आक्रोश! दरगाहे टूट रही थी..पंडत के घर एक बिलखती हुई "मुसलमान" लड़की...आधा ढका जिस्म लेके मौत की भीख मांगने आई...नहीं! आधा भी नहीं ढका था! उसका सीना लाल हो चुका था..कई जगहों से नीला भी..उसके कंधे खून से लथपथ थे...आंखों में डर खत्म हो गया था,योनि पे पसीना और खून साफ दिख रहा था...कपड़ा मर चुका था,पंडत को विश्वास नहीं हुआ कि इंसान कुछ ऐसा कर सकता है क्या? नहीं कर सकता! पंडत खुद को जुमले दे ही रहा था कि वह बोल पड़ी!"अरे मार दो मुझे कमबख्तो क्यों जिंदा छोड़ा है?!! हिजाब उतारने से डरती थी..अब जिस्म पर एक कपड़ा नहीं छोड़ा है तुम्हे तुम्हारे धर्म को बचाने के लिए हमेशा दरगाहे तोड़नी होती है?!! लड़कियों की इज्जत लेने से तुम्हारे मज़हब की इज्जत बढ़ती है?!!! यह ताबीज़ क्यों छोड़ा है बदन पर? फेंक दे निकाल कर तुम्हारा भगवान ही सच्चा लेले तेरी रूह की ठंडक मेरा अल्लाह नहीं आया मुझे बचाने तुम वहशियों से!!! " उसकी सांसो की गुर्राहट किसी योद्धा को गिराने के लिए काफी थी ।पंडत को तब एहसास हुआ कैसे इज्जत जान से बड़ी है....उसकी आखिरी इच्छा पूरी हुई...उसे मौत दे दी गई.. आक्रोशियो ने..जो "हिंदुत्व" को बचा रहे थे।उसे अपने धर्म के लोगो से नफरत होने ही लगी थी कि अगले दिन एक खबर आई...एक मुसलमान लड़के ने हिन्दू लड़की को फंसाया,बलात्कार किया और टुकड़ों में काट दिया...। पंडत के दिल की नफरत गुमराह हो रही थी,भाग रही थी कौन गलत?कौन सही? फिर क्या? ठान ली उसने,समाज सुधारना है..."कैसे सुधरोगे? नेता बनके?" पिता ने पूछा
"नहीं! पत्रकार बनके!"
फिर पंडत ने जर्नलिज्म का कोर्स किया और चल दिया जयपुर...एक अखबार चालू किया "लोकहित"नाम का
वहां उसे मोहन मिला। मोहन और पंडत एक सिक्के के दो पहलू थे।पंडत समाज को ऊपर उठाना चाहता था,मोहन समाज से ऊपर उठ चुका,जिंदगी जी रहा था और जीना सुख भी रहा था।मोहन यूं तो पंडत के अखबार में एक छोटे से कोने को अपनी कहानियों से काला करता मगर उसकी कहानियां ही थी जो पंडत के कच्चे यथार्थ को कम गालीया पड़वाती थी।
पंडत आजकल सुर्खियों में चल रहा था, हिंदुत्व विद्रोही! कांग्रेसी! RSS को,बजरंग दल को मूर्ख कहने वाला! मस्जिद तोड़कर मंदिर बनाने वालो को देशद्रोही कहने वाला! वो भी एक पंडित परिवार से? हो ही नहीं सकता यह कोई बहरूपिया है!!! पंडित चिल्लाते अखबार का मुंह दो घड़ी बंद करके अपने छाया पड़े होंठों से मुस्कुराता है और एक चाय की चुस्की लेता है मानो सिगारों की आस्तियों पर गंगाजल चढ़ा रहा हो।
"अयोध्या नहीं जाओगे पंडत?"मोहन ने पूछा "क्यों? क्या है अयोध्या में?"
"थारा बापू की सगाई छ। बेरो कोनी रामलला रो मंदिर छ? एक बार भी दर्शन कौन करया।"
"मंदिर,पूजा ये सब आत्मा को शांति देने के लिए बनी है। और जिस मंदिर को बनाने में जाने कितने शव धरती और गंगा को भेंट दे दिए गए है वहां कैसी शांति मिलेगी?" "और मदिरालय में मिलती है?"
"कम से कम मदिरा में कोई झूठा नहीं देखता,मदिरा पीने के बाद कोई ऊंच नीच नहीं रहती..कम से कम मदिरा शांति देती है चाहे शरीर को अंदर से खोखला करके ही दे। और शरीर तो नश्वर है मित्र।"
"तुम और तुम्हारा ज्ञान..मुझे भी जकड़ रखा है। आए दिन कोर्ट कचहरी के दर पर जूते घिसने पड़ते है..क्यों लिखते हो यह चीजें? नहीं होने वाला धर्म ,जाती,मर्द औरत का भेद..इन्हें आज़ादी मिल गई,अंग्रेज चले गए तो आपस में लड़ते रहेंगे..।"
"भगवान जाने!"
कहकर पंडत अपनी कलम का मुंह बंद करके जाने की तैयारी करता है।
"घर की याद नहीं आती?"
पंडत ऐसे सांस लेता है मानो बनारस की कुल्हड़ की चाय की खुशबू उसकी नाक गुदगुदा जाएगी..थोड़ी दूर सी रह गई,फेफड़े कुछ और बड़े होते तो आ जाती।
"घाटों की याद आती है"
"क्या है ऐसा घाटों में?"
"शांति!"
"वहां भी तो शव थे?"
"उनकी भस्म मै नफरत की बू नहीं थी।"
"हम्ममम"
मोहन ने आखिरी सिगार की राख देखते हुए कहा पंडत मदिरालय में बैठा,जीवन की गहराइयों में डूबा जा रहा था..जैसे नीचे एक सतह आजाएगी...मृत्यु आजाएगी..खैर मृत को कहा मृत्यु आती है? और जीवन में भी कहा मृत्यु आती है?तभी एक लड़की उम्र करीब २५ साल,बड़ी आंखे घने बाल,बड़े बड़े होंठ गोरा चिट्ठा मखमल सा बदन सफेद दांत,चर्बी से भरा सीना और कूल्हे,कमर हाथ और बाकी शरीर पतला जीभ को होठों पे फेरती हुई,जैसे किनारे को सागर तर करता है। सीना ऐसे मचल रहा था मानो पंछी नया नया उड़ना सीखा हो उसके पंख हो।बलखाती चाल,लहराते बाल कान के पीछे गुलाब।सीधे पंडत की गोद में आ बैठी एक कोहनी पंडत के कंधे पर एक हाथ की उंगली पंडत के घुंघराले बालों से गाल पर बहती जा रही थी।उसने अपनी हवा सी आवाज में बोला कि खाली ७५० लुंगी साहब,सब कुछ करूंगी सुबह से तन और जेब दोनों सूखी पड़ी है। पंडत का जीवन मानो फिर आधा आधा बट गया। एक जगह इज्ज़त जिंदगी से भी बड़ी थी और एक जगह जिंदगी के लिए इज्ज़त बिक जाती है...। जिंदगी और इज्जत की इसी कशमकश में पंडत खो गया कि उसके आंखों का एक मोती पंडत के कंधे पर आ पड़ा..। पंडत एकदम से जाग गया और पूछा "क्या मजबूरी है? तुम्हे पता नहीं इज्जत जिंदगी से बड़ी है?"
थोड़े मोती और बहाकर वह अपने इत्र से महके गले से जैसे तैसे सांस निकालकर बोली "अगर होती तो हम जैसों की जिंदगी कबकि खत्म हो जाती"
"लोग सारी उम्र निकाल देते है इज्जत बनाने में,और तुम?तुम हो कि इसे ऐसे ही गवा देती हो?"
"जो इज्ज़त कमाते है वही इज्ज़त लेने आते है हमारी! और खाक में मिल जाए ऐसी इज्ज़त अगर इतनी कमकर भी हमसे उधार लेनी पड़े,वो इज्ज़त कमाते है! हम इज्जत से कमाते है! कम से कम किसी मासूम की जान नहीं ली! कम से कम लोगों को नफ़रत करना नहीं सिखाया! हम नहीं हो तो ना जाने यह वैशी दरिंदे और लड़कियों का क्या हाल करदे!"
पंडत के विचारों ने एक बार फिर चुप्पी साध ली..जैसे उस दिन साधी थी...मदिरालय सिर्फ शांति नहीं देता...कई बार सिखाता भी है!
पंडत ने अपने कमरे में जा बिस्तर पर टांगे पसारली।इस आशा में की उसे या तो मौत आ जाएगी या कोई वरदान मिले जिससे वह फूंक मारे और नफरत खत्म हो जाए... आशाएं कहा पूरी होती है!
अगले दिन उसे फोन आया..घर से! उसकी उंगलियां अभी कलम के तार छेड़ ही रही थी..मन नहीं था छोड़ने का मगर मजबूरी थी!
"हा मां खा लिया खाना,ताला लगा के आया हूं और अखबारों पे मत ध्यान दिया करो हमें कुछ नहीं होगा!"
"देवू...!"पंडत के भाई सुभाष की आवाज थी...कांप रही थी! यूं मानो पुकार रही हो..कई बार एहसास होता है कि भावनाओं और शब्दों में कितना अंतर है! एक शब्द कितनी जोर से चिल्ला सकता है!
"क्या हुआ भाई? सब ठीक है??"
"बाबूजी......!" भाई रोने लगा..पंडत का हाथ अब ना कलम की चाह में था ना फोन पकड़ने की हिम्मत थी...।
पंडत चल पड़ा बनारस को मोहन के साथ।
"बहुत सुन है बनारस के बारे में आखिरकार दर्शन होंगे।"
"हमारे पिताजी मर गए है मोहन।"
"मृत्यु को दुख का कारण मानते हो?"
"बस करो...देखो ये नेता..कैसे गालीया दे रहा है हमें।बात चल रही है "censorship" लाने की बात चल रही है"
पंडत ने उंगलियों से अखबार जकड़कर बोला।
"लगता है अभी भी मुगलों का असर गया नहीं"
"कैसे?"
"ताजमहल बनाने वालो के हाथ काट दिए,सच बोलने वालो की ज़बान काटने वाले हैं !"
पहुंच गए बनारस! घाटों का बनारस! मस्ती का बनारस! पान का बनारस,जान का बनारस,रस का बनारस ,मोक्ष का बनारस,प्यार का बनारस।
क्रिया कर्म चालू हो गए...पंडत के बाल काट दिए गए।वही घुंघराले बाल जिनमें उस वैश्या ने उंगलियां फेरी थी।
मोहन घूमने निकल गया। आज़ादी की तलाश में।उसके जीवन का उद्देश्य ही यह था। आज़ादी!
"अस्सी घाट! शांति! पंडत सही कहता है! मन करता है यही बस जाऊ।पर मन का क्या है? कही भी लग जाता है।"
"कुछ ढूंढ रहे हो?"एक साधु ने मोहन से पूछा।लंबी सफेद दाढ़ी ऐसे चमक रही मानो खादी की साड़ी हो! शीतल आंखे।बर्फ सी शीतल!
"आज़ादी!"
"वोह तो हर जगह पहले से है।वो तो खालीपन है।बंधन भरे जाते है। आज़ादी तो वही रहती है।"
"कुछ कुछ समझा..।"
"इंसान आज़ाद पैदा होता है।उसे बंदिशे दी जाती है,सिखाई जाती है! उसे नियम दिए जाते है।और फिर डराया जाता है।नरक के नाम पर।और वो बंधता चला जाता है।"
"आप तो साधु है...आप विश्वास नहीं करते नरक-स्वर्ग में?"
"हम इससे पार चले गए है।बाधित वो है जो जीवन का मतलब ढूंढते ढूंढते जीवन खो देते है।बाधित वो है जो भगवान खोजते खोजते भगवान खो देते है। जीवन का बड़ा टेढ़ा नियम है।जिस चीज के पीछे भागोगे,नहीं मिलेगी जब भागना बंद करदोगे,इच्छा त्याग दोगे तब खुद चली आएगी।आज़ादी मत ढूंढ! आज़ाद होजा"
और वो इस तरह चले गए जैसे रात के बाद ओस।
"यह है मलइयो"पंडत ने मोहन को पकड़ाया
"ऐसा कुछ पहले कभी नहीं खाया!"मोहन ने एक चम्मच खाकर कहा।
"यहां हमारा बचपन बीता है मोहन।ये मिट्टी की खुशबू जो ओस की बूंदे पहने फिरती है।यही जन्नत है।"
तभी पंडत के घर से फोन आता है।
"भैया नेताजी आए है। आपसे मिलना चाहते है।"
"किसलिए आए है?"
"पता नहीं"
"आते है हम"
पंडत और मोहन घर पहुंचते है।देखते है कि भाजपा के वरिष्ठ पाखंडी(नेता) उनके सोफे पे अपनी डेढ़ इंसान जितनी तशरीफ रखे चाय गटक रहे है।
"क्या बात है नेताजी! आज हमारे यहां? सड़क बनाने का वादा करने आए है क्या घर में? अब एक कमरे से दूसरे कमरे तक रेल जायेगी! "
"पंडत जी! काहे गुस्सा रहे है? हम तो दो बात मोहब्बत की करने आए थे और आप है कि...। कहिए इनसे माताजी।देखिए ना अब घर आए मेहमान से कोई ऐसा बोलता है भला? "
"हा बेटा अतिथि है तुमसे मिलने आए है।ढंग से बात करो न।"
"मां को भी जुमले दे दिए नेताजी? चलिए बताइए क्या कहना है।"पंडत ने सामने कुर्सी डाल कर बैठते हुए पूछा।
"ज़रा personal बात है तो माजी और भैया को इधर उधर भेज देते तो...।"
पंडत ने सर हिलाया।माताजी कमरे में और भाई बाजार चले गए।
"कहिए"
"कविजी को भी भेज देते तो...।"
"मोहन यही रहेगा।"
"देखिए अब आपको पता है..। आप ज़रा ज्यादा ही बेबाक किस्म के युवा पत्रकार है और लोग आपको सम्मान भी खूब देते है।"
"गलियों को आप सम्मान कहते है तो सबसे ज्यादा सम्माननीय आप है महोदय।"
"आज चाहे जितना कह लीजिए।वो क्या है ना कि एक deal है।"
"मेरी ज़बान और कलम दोनों बिकाऊ नहीं है।"
"अरे यार इंसान भगवान ने बनाया ही कुछ ऐसे है! कान पीछे और मुंह आगे दे दिया। पहले बोलना है,सुनना बाद में।सुनिए तो सही।"
"कहिए।भगवान के नाम पे जनता को तो बना ही रहे है।हमे भी बना दीजिए।"
"हमे एक युवा नेता की आवश्यकता थी।और आप से अच्छा कौन हो सकता है! पंडत जी आप कब तक नेताओं के कपड़े उतरकर उनकी इज्जत लेते रहेंगे।अपनी मर्दानगी मैदान में आके दिखाए।"
"आपका कट चुका है,जनता का आप काट ही रहे है और अब लिंग परिवर्तन करने आपको मैं ही मिला? जाइए आप वादे कीजिए।वही आपको शोभा देता है।"
"सोचलो पंडत"
"दिमाग तो सारा आपके पास है।"
"ठीक है।राम राम!"
"जाइए आपकी बनाई हुई सड़कों पे से..जो कभी बनी ही नहीं।"
पंडत और मोहन मणिकर्णिका घाट पर टहल रहे थे।
"पंडत"
"हम्म"
"तुम जो करना चाह रहे हो,वो कर पाओगे?"
"पता नहीं।"
"तो क्यों कर रहे हो?"
"सुकून मिलता है।जलकर"
"जलने से सुकून तो मिलता है।चाहे जीवन खत्म ही क्यों न हो जाए।चाहे सिगार हो या परवाना।चाहे आशा हो या प्रेम।या मदिरा! सुकून तो देते है।चाहे जीवन खत्म करदे। अच्छा परवाने शमा से याद आया..प्यार किया है कभी?"
"बहुत किया! बस सुकून मार दिया और जुनून ले आया।"
"मतलब?"
"रहने दो!"
"अरे बताओ न शर्मा काहे रहे हो! परम मित्र है हम तुम्हारे!"
"कबसे?"
"जबसे तुम हमसे गले लगकर रोने लगे थे..।याद है शुरुआती दिन? वो घाव दुनिया ने दिए तब रोए अब तुम्हारी पर्सनल दुनिया की चोट भी बतादो।"
"बड़ा कमाना है तू!"
"सो तो हूं"
दोनों ने सुकून से ठहाका लगाया।
"तो बात है हमारे बनारस की...
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