Aloo Ke Paranthe in Hindi Moral Stories by Yogesh Kanava books and stories PDF | आलू के परोंठे

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आलू के परोंठे

आलू के परोंठे

मेरे हाथ आटे में सने थे, डोर बैल बार बार बज रही थी । मैने फंकी (हां मेरी बड़ी बेटी) को आवाज़ लगाई और दरवाज़े पर देखने के लिए कहा । वो अपने म्यूजिक में मस्त थी और उसे म्यूजिक सुनते समय कोई भी बोले तो बहुत बुरा लगता है । ख़ैर मेरी आवाज़ से वो चली गयी लेकिन दरवाज़े से ही आवाज़ लगाई मम्मी कोई आदमी आया है आपको ही पूछ रहा है आप ही देख लो । मैं आटे सने हाथों से ही दरवाज़े के पास चली गई दरवाज़े के पार झक सफेद बाल थोड़ी सी दाड़ी और अच्छा प्रेस किया सफेद कुर्ता पहने आदमी को देख मैं अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रही थी । यह कैसे संभव है । बाबू जी और मेरे घर एकदम असम्भव पिछले बाईस बरस से उन्होने मेरी शक़्ल तक नहीं देखी थी । यह तो बिल्कुल असम्भव है ,मैने अपनी आँखें एक बार मली और देखा बाबूजी ही सामने खड़े हैं ,ठीक बाईस बरस पहले एक ही बात बोली थी कि बस अपनी मरजी से शादी कर ही है तो मैं जीते जी तेरा मुंह नहीं देखूंगा । और सचमुच हुआ भी यही था पूरे बाइस बरस गुज़र गए थे एक दूसरे को देखे । मैं सबसे छोटी थी सो बाबूजी की सबसे लाडली बेटी भी थी । दीदी और भैया इस बात को लेकर मेरे से हमेशा नाराज़ होते थे कि बाबूजी केवल मेरी ही सुनते हैं और हम तीनों में लड़ाई हो जाती थी मैं बाबूजी से शिकायत लगाती तो उन दोनो की पिटाई हो जाती थी । तब बाबूजी कोई अड़तीस बरस के थे । अब रिटायर हो चुके थे लेकिन इनती जल्दी बुढापा दिखेगा विष्वास नहीं हो रहा था । वो बाबूजी जो एक दम फिट थे पूरे मौहल्ले में जिनकी फिटनैस की चर्चा थी और आन्टी लोग भी मजाक में ही सही बाबूजी की तरफ खूब ताकाझांकी करती थी और----- । तभी अचानक एक स्वर ने मुझे चौंका दिया ।
-बबली बेटा अन्दर आने के लिए नहीं कहोगी । इतनी नाराज हो मुझ से
मैं एकदम सकपका गई जलदी से दरवाज़ा खेला और -- और मैं आटे सने हाथों से ही बाबूजी के लिपट गई खूब रोई । बाबूजी ने मुझे पुचकारा और दुलारा ।
मेरी बेटी ने पूछा मम्मी कौन हैं ये - मैने कहा बेटा नानू है । प्रणाम करो इनको वो तपाक से बोली
- नहीं मैं नानू को प्रणाम नही कर सकती हूँ । नानू की लड़ाई आपसे और पापा से थी हम दोनो बहिनों से तो नहीं थी ना फिर आज तक नानू ने हमको याद क्यों नहीं किया ।
हमारा भी मन होता था नानू के घर जाने का कितनी बार आपसे मार खाई है मैने इस बात पर कि मुझे नानू के घर जाना है ।
मैं हर बार कहती और आप हर बार मुझे मारती क्यों मैने क्या बिगाड़ा था नानू आपका ?

इतना बोल वो पीछे मुड़ी तो बाबूजी डबडवाई आँखांे से और भर्राये गले से बोला सॉरी बेटा मैं ही गलत था । और उसके सामने उकड़ू बैठते से अपने कान पकड़ बोले अब माफ कर दो मेरी गुड़िया रानी । और फिर वो नानू के गले लग गई । दोनो बड़ी देर तक इसी तरह से रहे । मेरे बोलने पर फंकी नानू के लिए पानी लाई ।
फंकी पूरे बीस बरस की हो चुकी थी और उसके बाद डोली अठारह बरस की । फंकी और नानू की बातें सुनकर डोली भी अपने कमरे से बाहर आ गई । फंकी ने बताया कि हमारे नानू आज पहली बार हमारे घर आए हैं । तो डोली बहुत खुश थी । वो तीनो बातें करने में मषगूल हो गए और इधर मैं अपने ही ख्यालों में गुम सी
बाईस बरस पहले जब मैने एक निर्णय लिया कि मुझे तो केवल राकेश से ही शादी करनी है तो बाबूजी से साफ मना कर दिया था कि वो हमारी जात बिरादरी का नहीं है सो यह शादि नहीं हो सकती है लेकिन मैं ज़िद पर अड़ गई थी और बात यहाँ तक पहुँच गई कि मुझे कह दिया गया कि बाबूजी और राकेश में से किसी एक को चुनलो । मैने राकेश को चुना तो बाबूजी ने उसी समय कहा था मैं अपने जीते जी तेरी शक़्ल भी नहीं देखूंगा । बहुत कठोर निर्णय था उनका और सचमुच पूरे बाइस बरस तक उन्होने अपने निर्णय को ही जिया है लेकिन आज अचानक इस तरह से बाबूजी का आना समझ के बाहर था । तभी अचानक ही एक बार फिर से बाबूजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा खाना बना रही है ना ? अपने बाबूजी को आलू का परांठा नहीं खिलाएगी क्या ? तेरे को पता है ना मुझे आलू का परांठा बहुत पसन्द है ।

मेरी आँखों से आंसुओं की धार रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी । आटे में सने हाथ अब सूख चुके थे और परात में आटा भी थोड़ा सा पपड़ी दे गया था । मैने अपने आपको संभाला । आटा गूंथ लिया, आलू उलबने के लिए चढ़ा दिए । बाबूजी फंकी और डोली तीनों ही आपस में खेल रहे थे । मैने मौका देखकर राकेश को फोन कर दिया लेकिन वो नहीं आ सकते थे कोई बहुत ज़रूरी मीटिंग चल रही थी सो नहीं आए । फंकी मेरे पास आकर बोली नानू को आलू के परोंठे बहुत पसन्द है ना तो मैं बनाऊं आप बात करो नानू से । मैं बाबूजी के पास आ गई लेकिन कुछ भी नहीं बोल पाई बस गर्दन झुकाकर उनके पास बैठ गई । बाबूजी भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे बस मेरे सर पर हाथ फेरे जा रहे थे । तभी फंकी खाना लेकर आ गई । अच्छा तो मेरी गुड़िया इतनी बड़ी को गई कि अब नानू को खना बनाकर खिलाएगी । लाओ आज तो मैं जी भर कर खाऊंगा । वो ज़िद करती गई और बाबूजी को चार परांठे रख दिए तब बाबूजी ने कहा बेटा तुम भी तो खालो आज बाबूजी के हाथ से और बाबूजी ने अपने हाथ से पहला निवाला मुझे खिलाया । आज मैं फिर से सचमुच बिल्कुल छोटी सी बबली बन गई थी बाबूजी की । बचपन मे भी मैं इसी तरह से खाती थी । बरसों बाद आज बाबूजी के हाथ से निवाला खाकर ऐसा लगा मैने फिर से नया जन्म लिया है ।

खाना खाकर बाबूजी ने चलने की कही तब जाकर मैं बोल पाई - नही बाबूजी अभी तक बातें तो की ही नहीं अभी आप कैसे जा सकते हो । बाबूजी ने कहा इधर तेरे पड़ोस में ही मेरा बचपन का दोस्त गिरधारी भी रहता है उसके यहां भी जाना है । मै बोली वो सब ठीक है लेकिन अभी हम बातें करेंगें , और सच में हम लोगों ने जी भरकर बातें की , मम्मी का हाल जाना वो भी पापाप से वैसे मम्मी से तो मेरी बातचीत हर तीसरे चौथे दिन हो ही जाती है लेकिन पापा के मुंह से मममी की तारीफ सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे आज लगा कि पिता चाहे कितना नाराज हो जाए या कुछ भी हो पिता केवल पिता होता है जो नारियल की तरह से बाहर से तो बहुत सख्त दिखता है लेकिन भीतर से बहुत ही नरम , सरल और सहज होते है । घर चलाने के लिए उनको कितने सख़्त आवरण ओढने पड़ते हैं यह मैने आज जाना जब अपने बाबूजी को अपने ही सामने पिघलते देखा । बाबूजी अब और नहीं रुके बस उन्होने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला और चुपचाप फंकी के हाथ में थमा दिया ये तेरे नानू की ओर से । बाबूजी चले गए थे मैं अब भी उन्ही के ख्यालों में खोई सी थी तभी डोली ने कहा मम्मा नानू ने देखो हम दोनो के लिए अलग-अलग 15-15 लाख के चैक दिये हैं । मैं अवाक रह गई थी एक छोटी सी पर्ची भी थी साथ में जिसमें लिखा था बेटा तेरी शादी के लिए रखे थे पैसे , इतने बरसों मे ब्याज लग लग कर पूरे तीस लाख हो गए है । अब तू इन दोनो की शादि में इनको ज़रूर लगाना । मैं समझ नहीं पा रही थी मैं अवाक सी दौड़ी सड़क की तरफ, बाबूजी जा चुके थे ।

रात में दीदी का फोन आया था वैसे भी दीदी का फोन लगभग रोज़ाना आ ही जाता है । वो कह रही थी छोटी आज पता नहीं बाबूजी को क्या सूझा है मेरे घर अचानक ही आ गए और अभी थोड़ी देर पहले ही गए हैं । कभी भी खाना नहीं खाया था मेरे यहाँ लेकिन आज कह कर खाना बनवाया और खाना खा कर गए हैं । मैने भी दिन की पूरी घटना हू ब हू बताई दीदी को किस तरह से घर आए और मुझसे कह कर ही आलू के परोंठे बनवाए, परोंठें भी फंकी ने बनाए थे और जाते जाते दोनो लड़कियों के लिए चेक दे कर गए तो दीदी को भी विश्वास नहीं हुआ । अचानक ही दीदी बोली - छोटी कुछ तो गड़बड़ है , मैने फोन रखा ही था कि मम्मी का फोन आया ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी बस इतना ही कहा तेरे बाबूजी चले गए और मैं अवाक सी शून्य में घूरती हुई खड़ी रही मोबाइल हाथ में पकड़े । पूरे बाइस बरस के बाद आज पहली बार बाबूजी आए और वो भी ----- ।
मै आज उस घर में जा रही थी जिसमें अब मेरे बाबूजी नहीं थे । उनके जीते जी तो मै जा नहीं पाई , बाबूजी आज सामने नहीं होंगे लेकिन जाने से पहले मेरे घर आकर आलू के परोंठे खाना दो तीन मित्रों से मिलकर दीदी के धर भी जाकर खाना खाना ये सब क्या था । क्या बाबूजी को पता चल गया था अपनी आखिरी घड़ी का ।

(योगेश कानवा)
105/67 अहिंसा मार्ग
विजय पथ, मानसरोवर
जयपुर