Dwaraavati - 86 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 86

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द्वारावती - 86


86                                            

समुद्र की साक्ष्य में गुल एक बड़ी शिला पर बैठी थी। रात्रि का अंतिम प्रहर चल रहा था। केवल तीन व्यक्ति थे उस क्षण तट पर। अन्यथा तट शून्य था। समुद्र पूर्ण चेतना से भरा था। तट तक लहरों को ले जाने का दायित्व पूरे उत्साह से निभा रहा था। कृष्ण पक्ष की पंचमी का चंद्र अपनी ज्योत्सना से तट की रेत को शीतलता दे रहा था। ज्योत्सना की किरणें उत्सव तथा केशव के मुख को कांतिवान कर रही थी तो गुल के मुख को ओजस्वी एवं ऊर्जावान बना रही थी। समुद्र से आता शित समीर मन को प्रसन्न कर रहा था। वातावरण को सुंदर बना रहा था। 
गुल शिला पर बैठी थी तो उत्सव- केशव रेत पर बैठे थे, गुल के समीप। जैसे शिष्य अपने गुरु के चरणों में बैठे हो। 
गुल शिला पर बैठना नहीं चाहती थी किंतु कुछ क्षण पूर्व जो हुआ उसने गुल को शिला पर बैठने के लिए विवश कर दिया। चलो उस क्षण में चलते हैं।
“गुल, यह स्थल एवं यह समय निर्धारित करने का कोई उचित कारण है क्या?”
“आप दोनों को प्रश्नों के उत्तर चाहिए, और वह भी मुझ से ही चाहिए। हैं ना?”
“हाँ।” 
“हाँ।”
“अर्थात् तुम दोनों ने मुझे गुरु बना दिया।”
“इस बात पर हमें कोइ संशय नहीं है।”
“तो गुरु की बात को गुरु की आज्ञा मानना होगा। गुरु के निर्णय पर संदेह नहीं किया करते।”
“जैसी आज्ञा, गुरु जी।”
“हमें हमारे प्रश्नों के उत्तर किसी भी अवस्था में मिलें, हमें स्वीकार है।”
“तो चलो मेरे साथ।”
गुल समुद्र की तरफ़ चलने लगी। दोनों उसका अनुसरण करने लगे। रात्रि के उस कालखंड की शांति में समुद्र की ध्वनि के साथ रेत पर चल रहे छः चरणों की ध्वनि घुल गई। 
समुद्र में महावेल चल रही थी। तरंगों की ध्वनि इसी कारण प्रचंड थी। चलते चलते गुल पानी के भीतर गई, रुक गई। उत्सव, केशव भी रुक गए। 
“गुल, तुम इस पानी में हमें उत्तर दोगी?”
“उससे तो रेत पर बैठना उचित रहेगा।”
“देखो, गुरु कौन है? आप या मैं?” 
“तुम।”
“तुम।”
“तो मैं जो कहती हूँ वही करो। गुरु की आज्ञा का पालन करो कोई संशय ना रखो।”
गुल के ओष्ठों ने स्मित किया। गुल ने समुद्र में डुबकी लगायी। स्नान किया। उत्सव केशव उसे देखते रहे। संकेतों से एक दूसरे को पूछते रहे कि गुल क्या करना चाहती है।गुल ने स्नान पूर्ण किया। देखा तो दोनों प्रतिमा की भाँति खड़े थे।
“तुम दोनों अभी भी खड़े क्यों हो?”
“गुरुजी, आपने तो कोई आज्ञा ही नहीं दी।”
“हम आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा में हैं।”
“अरे, शिष्यों। मैंने स्नान किया है तो आपको भी स्नान करना है ऐसा स्पष्ट शब्दों में बोलना पड़ेगा क्या?”
दोनों ने कुछ भी बोले बिना शीघ्र ही पानी में डुबकी लगा ली, स्नान करने लगे। गुल तट पर चली गई, दोनों समुद्र से बाहर आ गए।
गुल जहां खड़ी थी उस स्थान से कुछ अंतर पर एक शिला थी। उसे देखकर केशव समीप गया और बोला, “गुरुजी, आप इस शिला पर आसन ग्रहण करें।” गुल तथा उत्सव ने उस शिला को देखा। वह भी वहाँ आ गए। 
“इस शिला पर एक ही व्यक्ति बैठ सकता है।”
“और वह व्यक्ति है पंडित गुल। गुरुजी गुल। आइए, बैठिए।”
“और आप दोनों?”
“हम यहाँ रेत पर, गुरुजी के चरणों में बैठेंगे।”
“उत्सव, केशव। यह कैसा उपहास है? “
“हम तो गुरु को गुरूपद दे रहे हैं। “
“अरे? मैं तो वैसे ही स्वयं को गुरु गुरु बोल रही हूँ। मैं कोई गुरु बुरु कहाँ?”
“नहीं, गुल। जो मनुष्य के किसी भी संदेह का समाधान करे, प्रश्नों के उचित उत्तर दे उसे गुरु ही कहते हैं। अतः आप हमारे इस प्रयोजन के लिए, इस समय गुरु ही हैं। तो आप अपना आसन ग्रहण कर शिष्यों पर अनुग्रह करें।” उत्सव की इस बात ने गुल को विवश कर दिया। उसने गुरुपद ग्रहण कर लिया। दोनों रेत पर बैठ गए।
शिला पर बैठी गुल के वस्त्र भीगे थे। केश खुले थे। समुद्री समीर में केश तालबद्ध लहरा रहे थे। चंद्र की ज्योत्सना गुल के ललाट पर पड़ रही थी। जिससे प्रतीत हो रहा था कि जैसे गुल ने ललाट के मध्य में शुभ्र तिलक किया हो। मुख पर पड़ रहे चंद्र रश्मि वदन की आभा को निखार रहे थे। गुल की पीठ समुद्र की तरफ़ थी तो दृष्टि में द्वारिकाधीश का मंदिर। 
गुल ने सर्व प्रथम अपने गुरु महादेव भड़केश्वर को नमन किया। पश्चात द्वारिकाधीश को वंदन किया। मुड़कर समुद्र को प्रणाम किया। दोनों शिष्यों ने गुल का अनुकरण किया। गुल ने पद्मासन कर लिया, आँखें बंद कर ली। दोनों ने भी वही किया। दोनों ने अपनी समग्र इंद्रियों को गुल के शब्दों पर केंद्रित कर दिया। गुल ने कहना प्रारम्भ किया।
“हम हमारे प्रश्नों के उत्तर क्यों चाहते हैं? किसी निष्कर्ष पर आने के लिए? अथवा स्वयं को चतुर एवं बुद्धिमान सिद्ध करने के लिए? सम्भव सभी प्रयासों के पश्चात भी यदि हमें उत्तर नहीं मिलते तो हम उसे स्वयं का, हमारी बुद्धि का, हमारे ज्ञान का पराभव मानने लगते हैं। 
ऐसे दो चार प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलने पर हम परास्त हो जाते हैं। हमें हमारी बौधिक क्षमता पर संशय होने लगता है। यदि हम ऐसा कर रहे हैं तो यह स्वीकार कर लो कि प्रश्नों के जन्म के साथ ही हम परास्त हो गए हैं, उत्तर मिले या ना मिले।”
“तो क्या हमें उत्तरों को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिए?”
“केशव, प्रश्नों के उत्तर सरल होते हैं। हमें प्रयास करने ही चाहिए। निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। किंतु उस समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे प्रश्नों के उत्तरों का उद्देश्य क्या है? अंतिम लक्ष्य क्या है? क्या प्राप्त उत्तर हमारे उद्देश्य की दिशा में हमें अग्रसर कर रहे हैं? ऐसा तो नहीं कि उन उत्तरों से हम किसी अन्य दिशा की तरफ़ आकृष्ट हो जाएँ और हम हमारे लक्ष्य का विस्मरण कर दें अथवा लक्ष्य को ही बदल दें। यदि ऐसी स्थिति बनती है तो वह उत्तर हमारे लिए लाभप्रद नहीं है।”
“तो क्या हमें मन में जन्म ले रहे प्रश्नों का वध कर देना चाहिए।?”
“नहीं उत्सव। प्रश्नों का जन्म लेना अत्यंत सहज प्रक्रिया है। मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति के मन में भी प्रश्न जन्म लेते हैं। हम तो साधारण मनुष्य हैं। हमारे मन में जन्म ले रहे प्रश्नों को जन्म लेने से कौन रोक सकता है? उसे जन्म लेने दो। उसे प्रवाहित होने दो। हमें उसे मारना नहीं है। यहाँ हमें हमारी भूमिका निष्ठा से निभानी होगी। हमारी बुद्धि का प्रयोग करना है जो बुद्धि क्षमता की कसौटी भी है।”
“वह कैसे?”
“इस स्थिति में हमें चयन के सिद्धांत का प्रयोग करना होगा।”
“क्या है यह सिद्धांत?”
“सरल है। हमारा मन क्षण प्रतिक्षण अनगिनत विचार करता रहता है। इन विचारों में अनगिनत प्रश्न भी छिपे होते हैं और उत्तर भी। यदि मन के विचार करने की गति से, उत्पन्न सभी प्रश्नों की सूची बनाकर उसके उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे तो पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा। किंतु उत्तर नहीं मिल पाएँगे।”
“ऐसा क्यों?”
“क्यों कि विचार करने की मन की क्षमता असीमित है।। अतः इस स्थिति में हमें चयन के सिद्धांत का आश्रय लेना पड़ेगा। हमें उन प्रश्नों का चयन करना होगा जो हमारे लिए उपयुक्त हैं। जो उपयुक्त नहीं होते हैं ऐसे प्रश्नों की संख्या अधिकतम होती है। ऐसे प्रश्नों को त्याग दो। तभी शेष उपयुक्त प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।”
“बिना काम के कौन से विचार होते हैं? कुछ उदाहरण दो।”
गुल ने कुछ क्षण सभी दिशाओं में देखा, विचार किया और कहा।
“इस व्योम को देखो।” गुल ने गगन की तरफ़ संकेत किया, “सुंदर चंद्रमा विहार कर रहा है ! है ना?”
“हाँ, गुल।”
“हाँ, सुंदर है।”
“इस समय उसे देखकर आप दोनों के मन में कौन से प्रश्न जन्म लेते हैं ? आप मुझे बताएँगे। किंतु आप केवल एक ही प्रश्न मेरे सम्मुख रखेंगे जो आपके अनुसार सबसे महत्व रखता है।”
दोनों शशांक को देखने लगे। विचार करने लगे। कुछ क्षण पश्चात उत्सव बोला,“मेरे मन में जन्मे अनेक प्रश्नों में से एक प्रश्न जो मुझे हो रहा है वह है कि चंद्र की ज्योत्सना के कारण नभ में स्थित असंख्य तारों को मैं नहीं देख पाया। चंद्र को ऐसा अधिकार क्यों है?”
“केशव, तुम्हारे मन के प्रश्न को प्रकट करो।”
“धरती से चंद्रमा इस समय जिस अंतर पर है उस अंतर को यदि कुछ प्रतिशत घटाया अथवा बढ़ाया जाये तो उसका धरती पर प्रभाव क्या होगा?”
“और यदि ऐसा करें तो चंद्र की ज्योत्सना की कांति में क्या अंतर पड़ेगा?” उत्सव ने नए प्रश्न को रख दिया।
“ऐसे प्रश्न सहज है। केशव, तुम अवकाश विज्ञानी हो तो तुम्हारा प्रश्न भी उसी विषय से जुड़ा है। उत्सव का दृष्टिकोण भिन्न है, रुचि भिन्न है अतः उसका प्रश्न भी भिन्न है।” गुल एक क्षण रुकी, “किंतु यह बताओ कि क्या आपके मन में केवल यही एक प्रश्न ने जन्म लिया था?”
“नहीं, अनेकों प्रश्न जन्मे थे। किंतु तुमने कहा था कि केवल एक ही प्रश्न बताना है।”
“उन अनगिनत प्रश्नों में से यही प्रश्न क्यों? अन्य कोई प्रश्न भी बता सकते थे आप दोनों।”
“बाक़ी प्रश्नों को छोड़ दिया।”
“जो मुझे महत्वपूर्ण लगा वही प्रश्न को मैंने ….।”
“यह प्रश्न चुनने की समग्र प्रक्रिया ही चयन का सिद्धांत है।”
“ओह, गुल।” दोनों एक साथ बोल पड़े।
“अब इन दोनों प्रश्नों का क्या करना है, गुल?”
“उत्सव, तुम्हारा प्रश्न था कि चंद्र किरणों के कारण तारें वहाँ होते हुए भी हम तारों को देख नहीं सकते हैं। चंद्र को यह अधिकार किसने दिया? यह प्रश्न तुम्हें किस दिशा में ले जा रहा है? यह प्रश्न से तुम किस लक्ष्य को सिद्ध करना चाहते हो? यदि उत्तर मिल जाए तो तुम्हें क्या प्राप्त होगा?”
“ना दिशा, ना लक्ष्य। मुझे किसी भी बात का संज्ञान नहीं है। बस मन में प्रश्न जन्मा और पुछ लिया।”
“इसी कसौटी पर तुम भी अपने प्रश्न को परखो, केशव।”
“मेरे लिए भी यही है। ना दिशा, ना लक्ष्य।”
“तो इन प्रश्नों के साथ हमें क्या करना चाहिए? इसे पकड़े रखना चाहिए? या …?”
“उसे छोड़ देना चाहिए।” दोनों ने कहा।
कुछ क्षण तीनों मौन हो गए।