अध्याय 1: सजनपुर का रहस्य
सजनपुर गाँव की हर रात अब मौत का संदेशा बन चुकी थी। पहले यह गाँव अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता था। नर्मदा नदी के किनारे बसे इस गाँव में हर मौसम में शांति और सौहार्द्र बना रहता था। लेकिन पिछले छह महीनों से गाँव की फिजा में अजीब बदलाव आ चुका था। सूरज ढलते ही अंधेरे में एक गहरी सन्नाटा छा जाता था।
लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि गाँव के बाहरी हिस्से में बने पुराने श्मशान में एक "नरपिशाच" का वास हो चुका है। पहली घटना छह महीने पहले हुई थी, जब गाँव का एक शिकारी, हरिराम, जंगल में गया और कभी वापस नहीं लौटा। उसके शरीर के टुकड़े नदी के किनारे बहते मिले। उसके बाद एक और युवक लापता हो गया। धीरे-धीरे, इस तरह की घटनाएँ बढ़ने लगीं।
श्मशान के आसपास रहने वाले लोगों ने कहा कि वे अक्सर रात में वहाँ से चीखें सुनते थे। "वह नरपिशाच अपनी अगली आत्मा की तलाश में रहता है। उसकी जलती आँखें देखना मौत को बुलावा देने जैसा है," गाँव के वृद्ध गंगाराम कहते थे।
बच्चे और महिलाएँ डर से काँपने लगे थे। यहाँ तक कि कुछ लोग अपना घर छोड़कर दूसरे गाँवों में चले गए थे। लेकिन वीर, गाँव का सबसे साहसी युवक, इन बातों पर विश्वास नहीं करता था। "यह सिर्फ अफवाह है। डर से लोग अपनी कल्पनाओं में खुद भूत बना लेते हैं," वह गाँववालों से कहता।
पर यह सब सिर्फ वीर की सोच थी। असलियत कुछ और थी।
अध्याय 2: वीर और उसकी चुनौती
वीर, अपनी बहादुरी और दृढ़ता के लिए गाँव में प्रसिद्ध था। उसकी प्रेमिका सौम्या गाँव के मंदिर के पुजारी की बेटी थी। सौम्या ने हमेशा वीर की साहसिक प्रवृत्ति की प्रशंसा की थी, लेकिन अब वह चिंतित थी।
"वीर, मैं नहीं चाहती कि तुम उस श्मशान के पास जाओ। वहाँ कुछ बहुत बुरा है। गाँव के लोग यूँ ही डर नहीं रहे," सौम्या ने कहा।
"सौम्या, मैं डरने वालों में से नहीं हूँ। अगर मैंने इस डर का सामना नहीं किया, तो ये नरपिशाच की कहानियाँ कभी खत्म नहीं होंगी।"
अगली रात गाँव का एक और आदमी लापता हो गया। इस बार गाँव में मातम छा गया। गंगाराम ने चौपाल पर इकट्ठे होकर कहा, "अब कोई इस गाँव में सुरक्षित नहीं है। नरपिशाच की भूख बढ़ रही है।"
वीर ने अब ठान लिया। "मैं इस डर को खत्म करूँगा।"
वृद्ध गंगाराम ने चेतावनी दी, "वीर, वह नरपिशाच तेरी जान ले लेगा।"
लेकिन वीर ने अपने साहस को हथियार बना लिया। "अगर मैं पीछे हटा, तो गाँव का भविष्य अंधकार में डूब जाएगा।"
उस रात वीर ने गाँववालों के मना करने के बावजूद श्मशान की ओर कदम बढ़ा दिए।
अध्याय 3: श्मशान का रहस्य
रात का समय था। आसमान में काले बादल थे, और चाँद की रोशनी मद्धम पड़ चुकी थी। वीर मशाल लेकर श्मशान के रास्ते पर चल पड़ा। रास्ता काँटों और सूखे पत्तों से भरा था। हर कदम पर वीर को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई उसकी निगरानी कर रहा हो।
श्मशान पहुँचते ही वीर को एक अजीब सर्द हवा महसूस हुई। ज़मीन पर हल्की-हल्की धुंध फैली हुई थी। वीर ने मशाल उठाई और चारों ओर देखा। श्मशान की हर कब्र से काला धुआँ निकल रहा था। तभी एक तीव्र चीख सुनाई दी।
"तू यहाँ क्यों आया है, मूर्ख इंसान?"
वीर ने देखा—अंधेरे से एक आकृति निकली। वह नरपिशाच था। उसकी आँखें जलते हुए अंगारों जैसी थीं। उसका शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र था, और उसकी नुकीली उँगलियाँ किसी शिकारी के पंजों जैसी थीं।
"तुझे मौत की सजा मिलेगी," नरपिशाच ने गुर्राया।
अध्याय 4: नरपिशाच का प्रकोप
नरपिशाच ने वीर पर झपट्टा मारा। उसकी गति इतनी तेज़ थी कि वीर को पीछे हटना पड़ा। लेकिन वीर ने मशाल को नरपिशाच की ओर फेंक दिया। आग की लपटें देखते ही नरपिशाच पीछे हट गया।
"आग मुझे रोक सकती है, पर खत्म नहीं कर सकती," नरपिशाच ने गुर्राते हुए कहा।
श्मशान की ज़मीन फटने लगी, और उसमें से सड़ी-गली आत्माएँ बाहर निकलने लगीं। वे नरपिशाच के प्रभाव में थीं और वीर को पकड़ने की कोशिश कर रही थीं। वीर ने अपनी जेब से ताबीज़ निकाला।
"यह ताबीज़ तेरा अंत कर देगा," वीर ने कहा। ताबीज़ की रोशनी से नरपिशाच तड़पने लगा। उसकी लाल आँखें मद्धम पड़ने लगीं।
अध्याय 5: शाप से मुक्ति
नरपिशाच की चीखें पूरी श्मशान में गूँज रही थीं। वीर के हाथ में ताबीज़ चमक रहा था। यह ताबीज़ गाँव के पुराने पुजारी ने उसे दिया था, जो कई साल पहले रहस्यमय तरीके से गाँव छोड़कर चला गया था।
"यह ताबीज़ मेरी आत्मा को भस्म कर देगा!" नरपिशाच ने चीखते हुए कहा। उसकी लाल आँखों में डर झलक रहा था। वह इंसानी रूप में बदलने लगा। उसकी हड्डियों के ढाँचे पर धीरे-धीरे मांस चढ़ने लगा। लेकिन उसके चेहरे पर पीड़ा और पछतावा साफ नजर आ रहा था।
"कौन हो तुम?" वीर ने पूछा।
"मैं इसी गाँव का पुराना पुजारी था," नरपिशाच ने कहा। "मेरे लालच और अहंकार ने मुझे शापित बना दिया। मैंने तंत्र-मंत्र की शक्ति पाने के लिए आत्माओं की बलि दी थी। परंतु एक दिन मेरे ही मंत्रों ने मुझे नरपिशाच बना दिया। मुझे सौ वर्षों तक आत्माओं को कैद करना पड़ा। लेकिन अब तुमने मुझे इस ताबीज़ के जरिए मुक्त कर दिया है।"
नरपिशाच की आत्मा धीरे-धीरे आकाश में विलीन होने लगी। वीर के सामने अब एक बूढ़ा इंसान खड़ा था, जिसका चेहरा शांत लग रहा था। उसने वीर की ओर झुककर धन्यवाद कहा और धीरे-धीरे अदृश्य हो गया।
श्मशान का काला धुआँ गायब हो गया, और आसमान साफ हो गया। चाँद की हल्की रोशनी चारों ओर फैल गई। वीर ने एक गहरी साँस ली।
अध्याय 6: आत्माओं का विद्रोह
लेकिन वीर को लगा कि कुछ अभी भी सही नहीं है। श्मशान की ज़मीन अब भी हिल रही थी। तभी कई सड़ी-गली आत्माएँ एक के बाद एक बाहर निकलने लगीं। ये आत्माएँ नरपिशाच के प्रभाव से अब आज़ाद थीं, लेकिन उनकी आत्मा को पूर्ण मुक्ति नहीं मिली थी। उनकी आँखों में गुस्सा और दर्द था।
"हमें नरक की यातना से बचाओ!" एक आत्मा ने वीर से कहा। उसकी आवाज़ रोष और पीड़ा से भरी हुई थी।
वीर समझ गया कि केवल नरपिशाच का अंत करना ही काफी नहीं था। इन आत्माओं को भी मुक्ति दिलाने के लिए कुछ और करना होगा।
"तुम सबको मुक्ति दिलाने के लिए मुझे क्या करना होगा?" वीर ने साहस से पूछा।
"वहाँ, श्मशान के बीचोंबीच एक प्राचीन बलिदान वेदी है," आत्मा ने कहा। "वहाँ पर पूजा करके आत्माओं को शांति दिलाई जा सकती है। लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले तुम्हें 'अंतिम रक्षक' से लड़ना होगा।"
वीर ने मशाल उठाई और श्मशान के बीचोंबीच चल पड़ा।
अध्याय 7: अंतिम रक्षक का प्रकट होना
श्मशान के बीचोंबीच वीर को एक काले पत्थर की वेदी दिखाई दी। उसके चारों ओर अजीब लकीरें और शापित प्रतीक बने हुए थे। तभी ज़मीन हिलने लगी, और एक भयानक आकृति प्रकट हुई।
यह "अंतिम रक्षक" था। उसका शरीर पत्थर का बना हुआ था, और उसकी आँखों से हरी रोशनी निकल रही थी। उसकी ऊँचाई दस फीट से भी ज्यादा थी। उसने हाथ में एक भाला पकड़ा हुआ था, जो किसी भी इंसान को छूते ही राख में बदल सकता था।
"तू यहाँ से जीवित नहीं जा सकता!" रक्षक गरजा। उसकी आवाज़ बिजली की गड़गड़ाहट जैसी थी।
वीर ने मशाल से उस पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन रक्षक ने मशाल को अपने भाले से काट दिया। वीर पीछे हट गया।
तभी वीर ने देखा कि ताबीज़ में हल्की रोशनी जलने लगी थी। उसे याद आया कि पुजारी ने कहा था, "ताबीज़ केवल आत्मा की शुद्धि से काम करेगा।" वीर ने अपनी आँखें बंद कीं और आत्माओं की मुक्ति के लिए प्रार्थना की।
रक्षक ने भाला उठाया और वीर पर हमला करने की कोशिश की। लेकिन ताबीज़ की रोशनी इतनी तीव्र हो गई कि रक्षक के शरीर में दरारें पड़ने लगीं।
"नहीं! मैं हार नहीं मान सकता!" रक्षक चीखा। लेकिन उसकी शक्ति धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। अंत में वह ज़मीन पर गिर पड़ा और पत्थर में बदल गया।
अध्याय 8: अंतिम मुक्ति
वीर ने वेदी के पास जाकर ताबीज़ रखा। ताबीज़ से एक उजली रोशनी निकली, जिसने पूरे श्मशान को घेर लिया। आत्माएँ एक-एक करके मुक्ति पाने लगीं। उनकी सड़ी-गली शक्लें अब शांत और सौम्य हो गईं।
"धन्यवाद, वीर। तुमने हमें शांति दिलाई," आत्माओं ने कहा।
श्मशान की गहराई से एक नई ऊर्जा निकल रही थी। वीर ने महसूस किया कि यह श्मशान अब शापमुक्त हो चुका था।
वह गाँव की ओर लौट पड़ा। गाँववालों ने वीर का स्वागत किया। उसकी बहादुरी की कहानियाँ हर घर में गूँजने लगीं।
सौम्या ने उसे गले लगाया। उसकी आँखों में गर्व और सुकून था।
उस दिन के बाद, सजनपुर फिर कभी डर के साए में नहीं रहा। वीर और सौम्या की कहानी साहस, प्रेम और बलिदान की मिसाल बन गई।