पुलिस रिपोर्ट"
पूरा डांग का क्षेत्र। भिंड से मुरैना के रास्ते हिचकोले खाती बस। यूं समझो कि चल रही थी, वरना तो डांग क्षेत्र में ऊँट की सवारी ही लग रही थी राहुल को। सड़कों की स्थिति का अंदाजा बस के झटकों से ही लग रहा था। वह मन ही मन सोच रहा था—मैं यहाँ क्यों आया? मुझे ही इतनी सनक चढ़ी थी डांग क्षेत्र घूमकर, समझकर कहानी लिखने की! लेकिन यह नहीं सोचा था कि हालत इतनी बदतर होगी।
ऊपर से उमस भरी गर्मी! पानी की बोतल साथ थी, तो बीच-बीच में घूंट भरकर हलक तर कर लेता, पर बेचैनी कम नहीं हो रही थी। कभी खुद को, तो कभी सरकार को कोसता।
तभी अचानक एक झटके से बस रुकी।
धड़-धड़ करते हुए तीन आदमी बस में चढ़े। बड़ी-बड़ी लाल आँखें, जैसे दहकते अंगारे। मोटी मूँछें। हाथों में थ्री-नॉट-थ्री राइफलें और कमर पर कारतूस की पेटी।
अवाक यात्रियों की भीड़ में से एक दहाड़ता हुआ बोला—
"किसी ने हिलने की कोशिश की तो भेजा उड़ा देंगे! भले आदमी की तरह जो पास में है, निकालो।"
एक उत्साही यात्री ने हिम्मत कर पूछ लिया— "कौन हो तुम लोग, और क्यों लूट रहे हो हमें?"
लाल आँखों वाले ने घूरकर देखा और दूसरे आदमी ने राइफल के बायोनेट से उसकी पीठ पर जोरदार प्रहार किया। यात्री दर्द से कराह उठा।
"अब समझ आया कि नहीं? और किसी को दिक्कत हो रही हो तो बता दो, उसी की भी खबर ले लेंगे!"
बस में सन्नाटा छा गया। सबने अपने पैसे और कीमती सामान निकाल दिए। दस-बारह यात्रियों से उन तीनों ने रुपया-पैसा लूट लिया और ड्राइवर से बोले—
"हां भइया, अब इस खटारा को ले जा!"
जैसे ही वे चले गए, ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। अंदर यात्रियों के बीच खुसर-फुसर शुरू हो गई।
"क्या ज़माना आ गया है!"
"चलो थाने, रिपोर्ट लिखवाते हैं!"
इतना सुनते ही ड्राइवर ने बस रोक दी और हाथ जोड़कर बोला—
"साहब, मैं रिपोर्ट नहीं लिखवा सकता।"
"क्यों? तो तुम भी मिले हुए हो उनसे?"
"नहीं साहब! ऐसा कुछ नहीं... पर मेरी बस का इस रूट पर परमिट नहीं है। मैं बिना परमिट गाड़ी चला रहा हूँ। थाने गया तो गाड़ी ज़ब्त हो जाएगी।"
यात्रियों ने कंडक्टर की ओर देखा। उसने भी हाथ जोड़ दिए। "साहब, मैं कंडक्टर नहीं हूँ। असली कंडक्टर ने ठेके पर रखा है मुझे। अपना खर्चा निकालकर उसे पैसे देता हूँ। थाने गया तो नौकरी चली जाएगी!"
अब सभी यात्री एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। आपस में परिचित थे, इसलिए विचार-विमर्श हुआ कि सबसे पढ़े-लिखे मास्टर जी ही रिपोर्ट लिखवाएँगे। पटवारी जी, ग्राम सेवक और बाकी लोग कम पढ़े-लिखे थे।
मास्टर जी घबरा गए। "अरे, मेरी नौकरी लेने पर तुले हो क्या? मैं तो खुद स्कूल से गैरहाजिर होकर निकला हूँ!"
पटवारी जी बोले— "क्या मास्साब, मेरी ही बलि चढ़ाओगे? मैं तो अभी कलेक्टर साहब के दौरे पर हूँ! मैं नहीं लिखवा सकता रिपोर्ट।"
एक-एक कर सबने बहाने बनाने शुरू कर दिए।
राहुल चुपचाप सब देख रहा था। उसे लग रहा था कि क्या गजब की लोकतांत्रिक व्यवस्था है हमारे देश की! सब किसी न किसी रूप में लुटे हुए हैं, लेकिन कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। उसने मन ही मन ठान लिया कि वह रिपोर्ट लिखवाएगा।
"मैं लिखवाऊँगा रिपोर्ट!" राहुल ने कहा।
इतना कहते ही बस में फिर से वही डाकू घुस आए। अब तो यात्रियों को लगा कि जान नहीं बचेगी।
"जिसके पास जितना भी रुपया-पैसा है, सब वापस निकालो! और कोई चालाकी मत करना, वरना खोपड़ी उड़ा दूँगा!"
लेकिन इस बार मामला उलट था। डाकुओं ने सभी यात्रियों को पूरी ईमानदारी से जितना लूटा था, उतना ही वापस कर दिया।
राहुल यह देखकर हैरान था। आखिर ऐसा क्यों किया उन्होंने? उसने हिम्मत करके पूछ लिया—
"अगर मेरी जान बख्श दें, तो एक बात पूछनी है।"
डाकू ने हँसते हुए कहा, "हां, पूछ ले! पेट में कौन सा दर्द हो रहा है तुझे?"
"पहले लूटा और फिर सब लौटा दिया... ऐसा क्यों?"
डाकू ठहाका मारकर हंसा। "अबे बावले, समझ में नहीं आया? लूटकर हम थाने गए थे। वहाँ थानेदार को हिस्सा देने लगे तो उसने जितना लूटा था, उसका दस गुना माँग लिया केस दर्ज न करने के लिए। अब तू ही बता—तुमसे पैसे लौटाने में ज्यादा फायदा था, या थानेदार को देने में? इसलिए सब वापस कर दिया!"
"अब चुपचाप अपने रास्ते निकल जाओ!" कहकर वे फिर गायब हो गए।
राहुल सोचता रहा—भ्रष्टाचार ने अपराधियों को भी पीछे छोड़ दिया है!