Disadvantages of being Mahamandleshwar in Hindi Short Stories by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | महामंडलेश्वर होने के नुकसान

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महामंडलेश्वर होने के नुकसान


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साहित्य, राजनीति, किन्नर अखाड़े, मोहल्ले और किसी भी क्षेत्र में आप यदि महा मंडलेश्वर बनते हैं तो फायदे कम और नुकसान ज्यादा हैं। प्रमुख होने के नाते, गद्दीनशीं होने के कारण आप ऐसे कमांडर हो जाते हैं जिसकी कोई सेना नहीं है। जहां अन्य सेनाएं अटैक करतीं हैं और कहना मानती हैं, वहीं इनके अनुयायियों की रक्षा खुद महामंडलेश्वर को करनी पड़ती है। भक्त लोग तो चुपचाप,  निष्क्रिय पड़े रहते हैं और यदा कदा जय घोष, वह भी मरे मन से करके इतिश्री कर लेते हैं। यहां हैड को इन्हें पालना पड़ता है। खुद की खीर, पूड़ी से अधिक इनकी रसमलाई और नॉन वेज तक का इंतजाम करना पड़ता है।
  यह ऐसा मतिभ्रम है कि व्यक्ति सोचता है कि इनके करम पर मेरी गद्दी और पदवी है जबकि भक्त, मातहत, विधायक और चमचे सोचते हैं इससे जितने अधिक लाभ निचोड़ सकते हो निचोड़ लो। फिर बचे हुए नींबु से बर्तन और रगड़ रगड़ कर चमकाते हैं वैसे ही इससे रुपए पैसे और ऐंठ लो। और महा व्यक्ति भी देता है पर कुछ अंश।उससे पूर्व वह भी अपनी इन्वेस्ट कवर कर चुका होता है।
अभी अभी किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर हॉट, सेक्सी हीरोइन ममता कुलकर्णी बनी।जिन्हे एक छोटी सी टेक्निकल फिक्र थी जेंडर की तो उसका समाधान एक करोड़ रुपए से हुआ। वह बन गई और किन्नरों ने भी बता दिया उनमें दिमाग तो स्वस्थ और घाघ राजनेता के बराबर ही है, कोई उन्हें किसी भी मामले में कम न समझे।
         हीरोइन को हक भी था क्योंकि वह सारे पाप कर्म आतंकी, गैंगस्टर, ड्रग्स, दुबई, मलेशिया और प्रेम प्रसंगों आदि सभी घाटों पर बैठकर आ गई थी तो अब तो वह महामंडलेश्वर की पदवी के वैसे भी लायक थी। कोशिश उसने पहले सामान्य अखाड़ों में की तो वहां एक से एक घाघ संत, साधु, एक एक अखाड़े के चार चार प्रमुख बैठे हुए थे और खुले दिल और मन से इनका वेलकम कर रहे थे। जी !!मना नहीं किए बल्कि इंतजार कर रहे थे कि कब ममता, एक बॉलीवुड सुंदरी उनके टेंट में आएं। संतों की माया और आँखें देख ममता की स्त्री ने वहां नहीं जाने का फैसला किया। वरना उसकी बहुत दुर्गति होती और ऊपर से उसे अधर्मी, नास्तिक न जाने क्या क्या कहकर निकाल बाहर करते।
तो किन्नर ही सही थे और पैसा बहुत था तो उन बेचारों को अच्छा पैसा मिला और इन्हें पदवी। वह सदियों से एक कोने में, घूरे से भी पीछे पड़े इंसान गदगद थे कि किसी ने उनकी भी कीमत पहचानी। सभी सहयोगी और जूनियर जो रोजमर्रा का काम, ध्यान, साधना और धर्म के रखवालों की हां में हां मिलाना करते रहे। नई महामंडलेश्वर उनके लिए बहुत से उपहार ब्यूटी प्रोडक्ट से लेकर आधुनिक वस्त्र और नई गाड़ियां भी लाई। पर जिसके इशारे पर हुआ, जो इन सभी अखाड़ों का भी प्रमुख महंत और उनके अनुयाई अन्य प्रमुख थे, जिन्हें हीरोइन, आश्वस्त करके फिर गच्चा दे आई थी तो वह तिलमिलाकर उसके खिलाफ थे। अब करे भी तो क्या ? कोई एक दो बाबा हो तो बात की जाए पर यहां तो बाबाओं की लंबी लाइन। उन्हें लगा लॉटरी लगी और योग साधना का फल अब मिलने ही जा रहा। तो यही उचित लगा कि पदवी छोड़ने में ही भलाई है। क्योंकि किन्नर अखाड़े भी आखिर बड़े बाबाओं के ही रहमोकर्म पर ही हैं।
 वैसे ही राजनीति के महंतो, चाहे कॉलोनी के हो या ग्राम प्रधान किस्म के या विधायक मंत्री तक सभी को अपने चमचों, लाव लश्कर के लिए सुविधाएं और माल दोनों जुटानी पड़ती हैं।
     सच्चाई यह है कि जो लाव लश्कर है वह फायदे में सदा रहता है। नेता और इस तरह के मठाधीश आते जाते रहते हैं। दिल्ली वाले सारे मठ ढह गए और चमचे अब बेकार हो गए। जो मठाधीशों के हुक्का भरने वाले और हल्ला छाप चेले थे, सब अनाथ हो इधर से उधर ठोकरें खा रहे। क्योंकि गुरु (सभी गुरुओं) ने इन चेले चपाटों की औकात और खाने पीने पिलाने की लालसा शुरुआत में ही पहचान ली थी कि यह किसी का सगा नहीं। आज मेरा सिक्का चल रहा तो मेरा हुक्का भर रहा, दारू ला लाकर पिला रहा। जमकर गुरु ने भी उससे खूब काम लिया किताबें मंगवाने से लेकर प्रेमिकाओं को घुमाने और छोड़ने जाने तक सारे कार्य इस निर्ममता से करवाए की शिष्य को पालतू जानवर बनाकर रख दिया। कोई बात नहीं, बना दो पर गुर तो सिखाओ जो सीखने आते हैं यह गुरुओं का धोबी, बावर्ची, चपरासी बनने। जिससे यह आज का शिष्य कल अपना भी दरबार लगाए और हिंदी जगत के खजाने में से अपने हिस्से की भी लूट खसोट कर ले। पर गुरु गुरु होता है।वो इनकी क्षुद्र इच्छाओं और खोटी नीयत को पहचानता है। तो एक ने भी नागर, जोशी, यादव, सिंह,  पांडे , त्रिपाठी, तिवारी किसी ने भी मुख्य और खास गुर नहीं सिखाए। या यूं कहें कि यह उस काबिल नहीं लगे। हां, दया करके, वर्षों कुत्ता घसीटी करवाई, फोटोकॉपी तक यह करवा कर लाते, दूसरे गुट की खबर देते रहते। गुरु जानता यह यहां की खबर वहां भी देता ही होगा, तो दरबार में जानकार वही बोलते जो वहां पहुंचाना चाहते।(कुत्ते बुरा मान सकते हैं। क्योंकि उनका मालिक एक ही होता है) इन लोगों, साहित्यिक चमचों के कई कई मालिक होते हैं। आज इनके दरबार में तो कल उनके और उनके यहां भी जाना नहीं भूलते। इतनी सेवा गांव में अपने बूढ़े माता पिता की नहीं की ।उनका कहना माना होता तो आज कहीं नौकरी पर आकर कुलीन घराने की कन्या से विवाह हो गया होता। अगर आपको लगता है यह अधिक हो गया कौन करता होगा यह सब?और क्या यह छोड़कर भाग नहीं जाते? तो रुकें, ठहरें, बता दूं यह सब करने वालों की लाइन लगी रहती मठाधीशों के यहां।आप हटो जगह लेने वाले चार और मौजूद। चमचे, सुरा, सुंदरी, निंदा पुराण सब कुछ परम आनंद की प्राप्ति कराने वाला।यह योग्यतम गुरु जानते कैसे अपने दरबार को किन किन (कु) रत्नों से सजाना है। फिर जो पट शिष्य होता उसकी तीन साल न्यूनतम की घिसाई के बाद उसे नौकरी में लगवा देता। कोशिश यह रहती कि शिष्य थोड़ा बहक सकता है तो नौकरी पूर्वोत्तर अथवा दक्षिण भारत में कहीं सुदूर कोने में।और बिल्कुल भरोसे का वफादार है तो दिल्ली में कहीं सांध्यकालीन कॉलेज, साहित्य अकादमी या किसी प्रकाशक के यहां लगवा देते। और इस तरह हिंदी जगत का भावी आलोचक, भावी कवि अपनी जड़ें दिल्ली की खुरदरी, निर्मम भावनाहीन सतह पर लगाने की कोशिश करता।जो अधिक ही चतुर और ज्ञानवान होता, पढ़ता अधिक उसे गुरु ठिकाने लगा देते।
पर गुरु यह सब आखिर में करते। कई बार अधीर शिष्य भेद सहित फरार हो जाता और दूसरे मठ में प्रकट होता। क्योंकि नए गुरु की थाली में घी अधिक दिखता।
तो उसे दूसरा गुरु भी ठगता बल्कि कहें एक धूर्त दूसरे धूर्त के सामने होता।फर्क इतना की एक घाट घाट का पानी पिए होता तो दूसरा अभी घाट पर आया ही होता।
 लेकिन लाख रुपए की बात की रंग जमाना, प्रभाव छोड़ना और महफिल लूट ले जाना, शिष्यों, अफसरों की फौज इक्कठी कर लेना, यह गुर कोई गुरु किसी को नहीं सिखाता। पागल थोड़ी है गुरु जो थाली, बटर, सोढा व्हिस्की, अवॉर्ड कमेटी में घुसना, साधना इन लल्लू पंजुओ को सिखाएगा? न, दूर दूर तक कतई नहीं। हर गुरु इसमें घाघ होता, अपने अनुभव से।क्योंकि उसके भी गुरु ने उसे सिखा बताकर, विश्वास किया तो वह आज उनसे भी बड़ा महंत हो गया। पूर्व गुरु गायब हो गए और नई शताब्दी में शिष्य ही महागुरु बन कर छा गया। तो ऐसी गलती वह अपने शिष्यों से भूलकर भी नहीं करता।
तो ऐसे अज्ञात कुल के ठगे, छले गए शिष्य इधर से उधर टक्कर मार रहे हैं। गुरु चक्रव्यूह में घुसा गए, इन्हीं की जिद थी, पर बाहर निकलने का रास्ता नहीं बताए। तो बस घूम रहे, भटक रहे, सिर पटक रहे पर रास्ता नहीं मिलना तो नहीं मिलना। गुरु अपना वक्त अच्छे से काटकर, भरपूर से भी बीस प्रतिशत अधिक जी कर अब ऊपर देवताओं और परम ज्ञानियों के मध्य अपना अड्डा जमाए हैं। और वहां भी पान, खैनी, सोम रस के साथ अप्सराओं की संगत कर रहे हैं। कभी कभी कोई शिष्य व्यथित होकर गुरुओं की याद में संस्मरण जैसे अपने दिल के घावों को उगाहड़कर रंजन हो जाता है। गुरु ऊपर से मुस्कराते हैं और कहते हैं, डटे रहो पर निकल नहीं पाओगे कभी।

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( डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक और मोटिवेशनल स्पीकर , 
कुछ किताबें और कुछ पुरस्कार
मो 7737407061)