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अपने शहर पर मुझे गर्व होता है। बेहद शांतिप्रिय, इतना की यहां के पुलिसवालों को खर्चा और मंथली टारगेट के लिए घरेलू पति पत्नी के झगड़े, ट्रैफिक के हेलमेट, सीट बेल्ट के चालान आदि से गुजारा करना पड़ता है।
....हमारे बुलंद आवाज और बहादुर स्वभाव के निडर अऊआ तक यह अनुभव से मुझे बता गए कि मुश्किल वक्त में कोई खड़ा नहीं होता। पानी सदाबहार यहां दो दिन में एक बार वह भी तीस मिनिट के लिए आता है। पीने का पानी बाल्टियों, स्टील की टंकियों और मटके में भरते उनकी उम्र बीती।और अब मेरे कंधों पर हैं। आज तक कोई भी विधायक, मंत्री यह समस्या हल नहीं कर पाया।
मेरा शहर बहुत दयालु है बीसलपुर का पानी अजमेर के लिए रवाना होता है पर बड़े नेताओं के इशारे पर जयपुर और उसके आगे तक बेरोकटोक पहुंचता है।पर यहां नहीं।
क्योंकि यहां के निवासी बहुत ही शांतिप्रिय हैं। वह दिल और दिमाग दोनों के साफ हैं।वह आपस में गलियों में ही लड़ने की किस्म के हैं। मुझे उनसे हमदर्दी है। सारा जीवन उनका यहीं और ऐसे ही बीतता है। कुछ कहो तो पहले ही माइंड सेट करके सुनते है कि टाइम पास करना है और कोई अमल नहीं करना है। ऐसे ही लोग राजनीतिक पार्टियों और अन्य चीजों में भीड़ जुटाने के काम आते हैं। साइलेंट, नो एक्सिस्टेनस।
मैं प्रारंभ में कोशिश करता था, साहित्यिक जो हूं, की जागृति आए, अपने हकों के लिए खड़े हो। पर कोई फायदा नहीं। पानी तीन दिन नहीं आए तो भी जलदाय विभाग को यहां के निवासी फोन तक नहीं करते। क्योंकि क्या पता वह बुरा मान जाए कि तीन दिन ही तो पानी नहीं आया है तो उसमें परेशानी की क्या बात है? हम अपने जरूरी कार्य नहीं करें?
मेरे शहर के लोग भोले इतने हैं कि आप चश्मा, बढ़िया कोट पेंट बूट के साथ दो कदम चलो वह आपको हाथ जोड़कर बार बार मुस्कुराएंगे की, "साहब, हमारा ख्याल रखना ।" एक बार तो मेरे ही साथ एक अनजान आदमी ने हाथ जोड़े तो मैंने मुड़कर उसके हाथ पकड़े और कहा, भाई मैं भी तुम्हारे जैसा ही सामान्य इंसान हूं। मत जोड़ो हाथ बल्कि हाथों को मुट्ठी बनाकर ऊपर उठाओ जोर से तो शहर के हालत बदलेंगे।
... पर इस रिटायर्ड और बेरोजगारों के शहर के लोग बहुत अच्छे हैं। आबोहवा बहुत अच्छी है, लोग अपना ख्याल खुद रखते हैं। जानते और समझते है कि कोई सरकार, हाकिम इनकी मदद को नहीं आएगा तो खुद ही इतनी सावधानी और न्यूनतम चीजों के साथ गुजारा कर लेते हैं कि कोई पंजाब, हरियाणा का आदमी हो तो बेहोश ही हो जाए।
कोई इनकी थाली की तीन रोटी में से दो रोटी छीन ले जाए तो यह संतोष से कहते हैं कि उसे ज्यादा जरूरत थी। तभी छीनी वरना वह तो बहुत अच्छा है। तभी फिर कोई आता है और बची हुई रोटी सब्जी भी आंख दिखाकर ले जाता है फिर भी यह आराम से बैठे रहते हैं और प्रभु को धन्यवाद देते हैं कि उसने जो किया वह अच्छा ही किया। कोई बात नहीं, काल रोटी खा लेव सी।
इतने देव तुल्य और भले नेक लोग हैं कि मेरा दम घुटता है। कुछ भी चिंगारी तो दूर एक किताब, एक पेज, अखबार से भी वास्ता नहीं।
निकलता हूं कचहरी रोड से जो छ महीने खुदी पड़ी। किसी ने भी विरोध नहीं किया।शहर सोया हुआ, सुस्त और राहु की स्थाई दशा में है। तीन चौथाई सोचते रहे कि जो वहां दुकानें कर रहे वह बोलेंगे, अपन तो बस दिन में दो बार निकलते हैं दफ्तर, कोर्ट और अस्पताल के लिए तो अपन धीरे धीरे खड्डों, धूल मिट्टी फांकते और गाड़ियों का सत्यानाश करवाते चले जाएंगे। क्या है? कोई दूसरा कर लेगा। इसी सोच से कोई नहीं करता शिकायत, वह भी आधी सदी हो गई मुझे देखते। बाकी जो वहीं उसी दो किमी लंबी सड़क के दोनों तरफ बरसों से दुकानें, मकान लिए बैठे हैं वह चुप है क्योंकि उन्हीं की पार्टी का नगर निगम और सरकार है, तो धर्म और निष्ठा की बात है कैसे बोलें ? एक दिन पार्टी कुछ लाभ देगी। वह क्या अज्ञात लाभ है वह एक को भी नहीं पता। और सामूहिक बाजार, कालोनियों में व्यक्तिगत लाभ कैसे मिलेगा? कोई नहीं सोचता।
बाकी जो दो चार बचे वह यह सोचकर चुप है कि हमारी पोल नहीं खुल जाए कहीं। तो राम भरोसे चलता है मेरा शहर।
शहर सुबह उठते हैं तो जागते ही ऊर्जा, फ्रेशनेस, नए विचार और काम लेकर दौड़ पड़ते हैं। यह ऐसा शहर है जो सुस्ती से उठता है और सोचता है आज का दिन कैसे काटा जाए? कोई नया विचार छोड़ो कुछ करने के लिए ही नहीं। कोई आइडिया, कोई विचार कोई उत्साह नहीं इसमें।पर इसे मरा हुआ नहीं कह सकते क्योंकि सांस लेता है, वोट भी देता है। आधे मंदिरों में और बाकी दरगाह शरीफ में शांति, सद्भाव और सुकून की दुआ मांगते है। इतना पीछे और ग्यारवीं सदी का शहर स्मार्ट शहर बना दिया गया है जबरदस्ती। ऐसा लगता है पगड़ी और मोच्डिए पहने किसी को रंगीन अमरीकी अंदाज की टीशर्ट और हॉफ शॉर्ट पहना दिया हो।
इन्हीं में से कोई जोर से बोलने वाला या आगे आकर एकाध बार लड़ लेता है तो वह पार्षद का चुनाव जीत जाता है। शहर का मिजाज फिर रंग दिखाता है और एक बार जीते हुए ही को वह अगली तीन चार टर्म के लिए बार बार भेजता रहता है।चाहे विधायक हो यह पार्षद वह उनके आगे हाथ जोड़े खड़ा दिख रहा है न, वही है मेरे शहर का मिजाज।
साहित्य और संस्कृति से ऐसे शहरों और लोगों का दूर दूर तक वास्ता नहीं होता। उंगलियों पर गिनने लायक लोकल कवि अधिक और कथाकार कम। वह भी सभी एक दूसरे की तारीफ करना धर्म समझते अपना। अपन खरी और सच्ची बात कह देते जिससे लिखने वाले का भला हो और वह गलतियां सुधारे तो वह अपने से ही दूरी बना लेता। शहर में प्रगतिशील, परिषद और कुछ खुद के लोग पर सभी में वहीं चंद नाम कॉमन। दोनों मुक्तहस्त से विचारधारा की परवाह किए बिना एक दूसरे के संग उठते बैठते और कोई विचारधारा जैसी फालतू की बात नहीं सोचते। भाईचारा, सौहाद्र यहां का स्थाई मूलमंत्र।
प्रेस यहां की सबसे बढ़कर।वह अग्रिम रूप से ही यह सोचकर कार्य करती की राष्ट्र स्तर पर किसी भी पार्टी की कोई भी विचारधारा हो, कुछ भी हलचल हो जाए इस शहर में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। यहां संपादकों और आम रिपोर्टरों का सभी दलों से भाईचारा, अपनापन, दुआ सलाम। पत्रकारिता, उसके मूल्य, सिद्धांत और आंखों में आँखें डालकर सवाल पूछने की परम्परा तो आई ही नहीं इस शहर में आजतक। नारद मुनि को पत्रकार यहीं माना जाता है। संभवतया देश का पहला शहर होगा जिसने महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधवराव सपरे, राजेंद्र माथुर, प्रभास जोशी, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर (भी पत्रकार थे), अभय छजलानी, चित्रा सुब्रह्मण्यम, सुरेंद्र प्रताप सिंह आदि का नाम भी नहीं सुना होगा।
रामराज सही अर्थों में देखना हो तो हमेशा से यहीं हैं। शिकायत, नाराजगी नहीं भले ही हजारों कमियां, हर दुर्दशा, सड़कों, चोरी लूटपाट की हो पर यह तो सब ऊपर वाले की करामात है।लोकतंत्र और उसके अधिकारो का तो नाम भी नहीं सुना।
इलाज यहां ऐसा होता है कि जिसकी किडनी फेल बताते हैं वह जयपुर जाकर दिखाता है तो दोनों सही। एक बीमारी के लिए जाते हैं तो दो और लगा देता है डॉक्टर अपने हाथ साफ करने के चक्कर में।ऐसे शहर के लोग दरअसल डॉक्टर्स के लिए गिनी पिग की तरह होते हैं।आप में से कईयों ने फिल्मों में देखा होगा कि किस तरह पिंजरे में कैद सफेद, काले चूहों पर विभिन्न दवाइयों और इंजेक्शन के प्रयोग करके उनपर कुछ घंटे बाद परिणाम देखें जाते हैं। फिर अधिकांश मर जाते हैं और उन्हें उठाकर बाहर फेंक दिया जाता है।देखने वालों के दिल में उन चूहे बिल्लियों के लिए हमदर्दी आती है। पर यहां के निवासियों की स्थिति इनसे भी बदतर हैं।यह डॉक्टरों को भगवान का अवतार मानते हैं और उसकी हर पैसे की डिमांड की ऑपरेशन के भी पैसे लूंगा, यह जांच वह जांच, घर पर दिखाओ मुझे, को यह बिना बहस के मानते हैं। बड़ा आदमी है, डॉक्टर है भले ही वह उसका विपरीत हो। तो वह इन पर हर तरह की नई और पुरानी एक्सपायरी दवाई का खुलकर प्रयोग करता है। हालत बिगड़े तो मरीज की ही गलती बताकर उसे भर्ती कर लेता है। अब तो और भी ज्यादा क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना कार्ड सभी के बन गए हैं। तो खर्चा निकालना है अस्पतालों और डॉक्टर को सरकारों से।कुछ अधिक होशियार (काइयां पढ़ें) हैं तो इस फ्री इलाज के अलावा भी बाहर की दवाई, जांच करवा देते हैं। कौन देखेगा कि पांच सौ निशुल्क दवाई की सूची में उसकी दवाई शामिल है या नहीं? तो भर्ती के बाद वह बिना सीनियर के निर्देशन में खुद ही इन गिनी पिग से मेरे शहर के भले और भोलेभाले लोगों का शरीर का अंग खोल लेता है। फिर अक्सर वहीं होता है कि कुछ निकलता नहीं, ऑपरेशन की विशेष और अधिक फीस डॉक्टर और बाकी स्टाफ को मिलती है और यह बच गया तो अंग से लाचार होकर घर वापस जहां कुछ वर्षों घिसटने के बाद ऊपर, ईश्वर की मर्जी, इतनी ही आयु थी, की बातों के साथ शांति। पर वह कभी मुंह से नहीं पूछता न ही उसके परिवार के पूछते की मेरी बीमारी क्या थी? ऑपरेशन किया तो ठीक हुआ इसका प्रमाण, जांच के साथ सुबूत क्या है? नहीं पूछता क्योंकि अपने को जन्म से ही दीन हीन माने हुए है। एक दो के पढ़ें लिखे प्रियजन ने एक नर्सिंग होम में, जहां महंगे इलाज के पैसे जेब से भर रहे थे, पूछा तो भगवान का स्वरूप डॉक्टर बेरुखी और बदतमीजी से बोला कि, " यह सब पूछना है तो मरीज को ले जाओ यहां से । मैं इलाज ही नहीं करता।" बेचारे लाचार बेटे ने पिता की हालत देखकर डॉक्टर से भरे वार्ड में पांव पर गिरकर माफी मांगी।
मेरा शहर महान है तभी इसे थर्ड डिविजन, पांच साल की एमबीबीएस आठ नौ, दस, बारह साल में पास किए डॉक्टर मिलते हैं। क्योंकि मेडिकल कॉलेज से जो टॉपर या फर्स्ट डिविजन होते है वह विदेश या एम्स चले जाते है। आधे से अधिक डॉक्टर्स के ही बच्चे होते हैं तो वह अपना खानदानी डॉक्टर हॉस्पिटल संभालते हैं। जो मीडियोकर बचे वह टियर टू के शहरों में। अब रह गए जिन्हें कहीं जगह, ठोर नहीं मिली, क्योंकि कुछ नहीं आता, वह हमारे शहर, जो कस्बे से एक दो इंच ही ऊपर है, में आ जाते हैं। वह भी बड़े गर्व से स्टेथेस्कोप अपने गले में लटकाए और सफेद कोर्ट पहने, की उन्हें खुद याद रहे कि वह डॉक्टर हैं। तो उनके भरोसे हमारा शहर चल रहा है और हमेशा चलता रहेगा । उन्हीं की मेहरबानी है कि आधी से अधिक घरों में शांति है क्योंकि दूसरा साथी, किसी भी वयस्क उम्र का भगवान को प्यारा हो चुका है। बाकी घरों में एक न एक बीमार है। प्रशासन ऐसे शहरों का कैसा होता है बताने की जरूरत नहीं।कभी अपनी मर्जी से कोई सकारात्मक एक्शन या कार्य नहीं करता। कोई कहेगा तो भी नहीं।
नई पीढ़ी के दस प्रतिशत बच्चे ही शहर से बाहर कामधाम के लिए जा पाते हैं बाकी नब्बे प्रतिशत यहीं कुछ काम अथवा घर का खा पीकर दुकानों पर गुटका खाते, चौराहों और गलियों में खाली बैठे मिल जाएंगे। लड़कियां कुछ समझदार हो चली है शहर की।उन्हें इन आवारा पर शरीफ, गुटका खाने वाला भीड़ का हिस्सा बना पर सीधे नौजवान में अपना कोई भविष्य नहीं दिखता तो वह बाहर कोशिश करती हैं और उन्हें एक मेहनती, जोश से भरा और अपने बूते खड़ा युवक मिल जाता है तो वह उसके संग प्रेम विवाह करके चली जाती हैं अपनी किस्मत के भरोसे। अक्सर यहां के सीधे सादे मां बाप, समाज और हंगामे के डर से उनका साथ, अपनी बेटी का साथ नहीं देते और उसे चले जाने के बाद सच में कभी घर में नहीं आने देते। कौन लोगों की निगाह में बुरा बने?और बेटी के दुख सुख से पल्ला झाड़ लेते हैं। सीधे लोग हैं। अपने में मस्त रहते हैं और कभी जोर से नहीं चिल्लाते न ही विरोध दर्ज करते हैं।
तो बस जिए जा रहे हैं बिना किसी उद्देश्यों, बिना आग, बिना
विचारधारा और बिना मंजिल के। प्रभु, अल्लाह की यही मर्जी है।चलो शाम के छ बज गए शाम की रोटी का समय हो गया है।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक और मोटिवेशनल स्पीकर
कुछ किताबें और देश विदेश से पुरस्कृत
संपर्क ; मो 7737407061राजस्थान )