तुम पढ़ रहे हो, ना?
मुझे सुन रहे हो?
क्यूँ पढ़ रहे हो?
शायद तुम्हें जवाब चाहिए, शायद तुम्हें समझना है कि ये एहसास जो तुम्हारे अंदर घर कर गया है, ये सिर्फ़ तुम्हें ही नहीं घेर रहा।
शायद तुम जानना चाहते हो कि ये ख़ालीपन, ये घुटन, ये थकान… आख़िर ये है क्या?
तो सुनो।
मैं तुम्हें कुछ बताने वाली हूँ।
डिप्रेशन—एक लफ़्ज़, बस एक लफ़्ज़, लेकिन इसे जीना… मौत से भी बदतर।
ये ऐसा है जैसे अंदर कोई शोर मचा रहा हो, लेकिन बाहर सब कुछ ख़ामोश हो।
जैसे कोई तुम्हें पुकार रहा हो, लेकिन जब तुम जवाब दो, तो एहसास हो कि वो तो तुम्हारी ही आवाज़ थी।
जैसे एक कमरे में बंद हो, जिसकी खिड़कियाँ तक न हों, और साँस लेने के लिए हवा भी उधार मांगनी पड़े।
तुम समझ रहे हो ना?
या फिर ये भी तुम्हें बस एक ‘दुख भरी कहानी’ लग रही है?
अगर हाँ, तो छोड़ दो।
यह किताब तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन अगर तुम्हें लगा कि ‘हाँ, मैं भी तो ठीक ऐसा ही महसूस करता हूँ’,
तो चलो… बैठो मेरे पास।
मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ।
तुम और मैं—
बस हम दोनों।
एक मुकालमा… ख़ुद से, अपने आप से।
तुम अब भी यहाँ हो?
मतलब… तुम्हें वाक़ई समझना है?
तो अच्छा, चलो मैं तुम्हें वहाँ ले चलती हूँ—जहाँ यह सब शुरू हुआ था।
...कहाँ?
पता नहीं।
शायद किसी ख़ास दिन, किसी ख़ास लम्हे में।
या शायद यूँ ही, किसी ख़ाली शाम में, जब सब कुछ ठीक था… लेकिन फिर भी कुछ कमी सी थी।
तुमने कभी ऐसा महसूस किया है?
जैसे सब कुछ अपनी जगह पर है, लेकिन फिर भी कुछ ग़ायब सा है?
जैसे तुम हँस रहे हो, लेकिन वो हँसी तुम्हारी नहीं?
जैसे तुम्हारे पास लोग हैं, लेकिन फिर भी तन्हाई तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती?
यही था वो पहला एहसास।
एक अजीब सी कमी।
जिसका कोई नाम नहीं था, कोई शक्ल नहीं थी… बस थी।
शायद यही डिप्रेशन का पहला क़दम था।
धीरे-धीरे अंदर सरकता हुआ, बिना कोई आहट किए।
जैसे ठंडी हवा—जो दिखती नहीं, लेकिन धीरे-धीरे बदन में उतरती जाती है।
मैं उस वक़्त नहीं समझी थी।
सोचा था, शायद ये बस ‘मूड स्विंग’ होगा, शायद थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा।
लेकिन नहीं… वो एहसास आया और ठहर गया।
जैसे कोई अजनबी, जो घर के दरवाज़े पर दस्तक देकर अंदर घुस आया हो—बिना पूछे, बिना इजाज़त।
और फिर वो रुका ही रहा।
तुम समझ रहे हो ना?
या अभी भी नहीं?
अगर हाँ, तो रुको…
क्योंकि यह तो बस शुरुआत थी
कभी-कभी मुझे लगता है, डिप्रेशन किसी तूफ़ान की तरह नहीं आता।
वो कोई तेज़ बारिश नहीं होती, जो तुम्हें झट से भिगो दे।
वो तो बस धीरे-धीरे टपकता रहता है—एक ठंडी, बेआवाज़ बारिश की तरह।
तुम महसूस भी नहीं करते, और एक दिन देखते हो कि तुम पूरी तरह भीग चुके हो।
यही हुआ था मेरे साथ भी।
मैं पहले हँसती थी।
हाँ, वाक़ई।
लोग कहते थे कि मेरी हँसी सबसे अलग थी—जैसे कोई मौसीक़ी हो।
लेकिन फिर एक दिन मैंने नोटिस किया… मैं कब से हँसी ही नहीं थी।
अजीब बात है ना?
जब तक सब ठीक चलता है, तुम नोटिस नहीं करते।
लेकिन जिस दिन चीज़ें बदलती हैं, सबकुछ चुभने लगता है।
मेरी हँसी चुप हो गई थी।
और यह सबसे पहला इशारा था कि कुछ तो ग़लत था।
तुम्हारे साथ भी हुआ है ऐसा?
कभी तुम्हें भी महसूस हुआ है कि जो कभी तुम्हारी पहचान थी, वो कहीं खो गई है?
पहले मैं हर बात पर रिएक्ट करती थी।
ख़ुशी, ग़ुस्सा, नाराज़गी—हर एहसास मेरे अंदर ज़िंदा था।
फिर धीरे-धीरे सब कुछ सुन्न पड़ने लगा।
ख़ुशी महसूस नहीं होती थी।
ग़ुस्सा आता, लेकिन बुझ जाता।
कोई कुछ भी कहे, मुझे फ़र्क़ ही नहीं पड़ता था।
मैं ज़िंदा थी… लेकिन सिर्फ़ साँस ले रही थी।
और ये सबसे ख़तरनाक चीज़ थी।
क्योंकि जब तक इंसान रोता है, चिल्लाता है, लड़ता है—तब तक ठीक है।
लेकिन जिस दिन सब ख़ामोश हो जाए… उस दिन अंदर कुछ मर जाता है।
मैं मर रही थी।
नहीं, जिस्म से नहीं।
बस अंदर से।
और कोई इसे देख भी नहीं पा रहा था।
तुम्हें कभी ऐसा लगा है, जैसे तुम किसी कमरे में बंद हो?
एक ऐसा कमरा, जिसकी खिड़कियाँ नहीं, दरवाज़े नहीं… और सबसे ख़तरनाक बात—तुम्हें याद भी नहीं कि तुम यहाँ आए कैसे थे।
मैं भी ठीक उसी कमरे में थी।
बस अंदर।
पहले मैंने इसे नज़रअंदाज़ किया।
सोचा, शायद किसी दिन ये ख़ुद ही ठीक हो जाएगा।
शायद एक दिन मैं फिर से पहले जैसी बन जाऊँगी।
लेकिन दिन बीतते गए, और वो कमरा छोटा होता गया।
दीवारें सिमटने लगीं।
हवा भारी होती गई।
और एक दिन मैंने अपनी आँखों में झाँका…
कुछ ग़ायब था।
पहले मेरी आँखों में कोई चमक होती थी।
एक अजीब सी रौशनी—जैसे अंदर कोई चिराग़ जल रहा हो।
लेकिन अब… वहाँ सिर्फ़ धुंध थी।
मैं पहली बार डर गई थी।
डिप्रेशन की सबसे ख़तरनाक बात यही है ना?
वो तुम्हें धीरे-धीरे ख़त्म करता है।
तुम महसूस ही नहीं करते कि तुम ग़ायब हो रहे हो।
लेकिन जब एहसास होता है…
तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
किसी से कहो, तो कहते हैं—
"ज़्यादा मत सोचो, सब ठीक हो जाएगा।"
"बस बाहर जाया करो, लोगों से मिला करो, अच्छा महसूस करोगी।"
"तुम्हें तो कोई दिक़्क़त ही नहीं है, बस यूँ ही फ़ालतू उदास रहती हो।"
पर क्या वाक़ई सब ठीक हो जाता है?
क्या तुम कभी किसी से कह सकते हो कि तुम्हारे सीने में कोई भारी चीज़ रखी है, जो हर साँस के साथ और बोझिल होती जा रही है?
क्या तुम बता सकते हो कि तुम भीड़ में खड़े होकर भी तन्हा हो?
क्या तुम किसी को समझा सकते हो कि तुम ख़ुश नहीं हो… बिना किसी वजह के?
नहीं।
क्योंकि अगर तुम ऐसा कहोगे, तो लोग तुमसे कहेंगे—
"ज़िंदगी में तुम्हारे पास सब कुछ है, फिर ग़मज़दह क्यों हो?"
शायद उन्हें नहीं पता कि डिप्रेशन किसी के हालात से नहीं, किसी के अंदर से पैदा होता है।
तुम्हारी ज़िंदगी ठीक हो सकती है।
तुम्हारे पास लोग हो सकते हैं।
तुम हँस सकते हो, बात कर सकते हो, यहाँ तक कि किसी से कह सकते हो कि "मैं बिल्कुल ठीक हूँ।"
लेकिन फिर भी अंदर कुछ मर रहा होता है।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि मुझे क्या चाहिए।
क्या मुझे कोई चाहिए जो मेरी बातें सुने?
कोई जो मुझे बताए कि "हाँ, मैं समझ रहा हूँ, तुम अकेले नहीं हो"?
या फिर…
मुझे बस ख़ुद को मनाना था कि ये सब सिर्फ़ मेरा वहम है?
मैं उलझ चुकी थी।
बिल्कुल वैसे ही जैसे समुंदर में कोई अकेली कश्ती—
जिसका कोई किनारा नहीं, कोई मंज़िल नहीं…
बस लहरों के हवाले।
तुम्हें कभी ऐसा लगा है कि तुम्हारे अंदर दो आवाज़ें हैं?
एक जो कहती है—
"हाँ, तुम्हें दिक़्क़त है, तुम्हें मदद लेनी चाहिए।"
और दूसरी
"अरे, कुछ नहीं हुआ। बस नख़रे हैं तुम्हारे। हर कोई ग़मज़दह होता है, तुम कोई ख़ास नहीं हो।"
मेरे अंदर भी यही दो आवाज़ें लड़ रही थीं।
मैं ख़ुद को समझाने की कोशिश करती—"ये सिर्फ़ एक फेज़ है, निकल जाएगा।"
लेकिन अंदर से कोई फुसफुसाता—"अगर ये फेज़ ही है, तो इतना लंबा क्यों हो गया?"
किसी को डिप्रेशन का यक़ीन दिलाना मुश्किल है।
लेकिन ख़ुद को यक़ीन दिलाना और भी मुश्किल।
क्योंकि अगर तुम मान लेते हो कि तुम्हें वाक़ई कोई दिक़्क़त है…
तो फिर तुम्हें उससे लड़ना भी पड़ेगा।
और मैं लड़ना नहीं चाहती थी।
नहीं, इसलिए नहीं कि मैं हार मान रही थी।
बल्कि इसलिए कि मुझे अपनी लड़ाई समझ ही नहीं आ रही थी।
आख़िर मैं लड़ूँ तो किससे?
ख़ुद से?
या उस साए से जो हर वक़्त मेरा पीछा करता था?
या उन ख़यालों से जो रातों को मेरा दम घोंटते थे?
या फिर उस डर से, जो कहता था कि अगर मैंने किसी से कहा, तो कोई मानेगा भी नहीं?
मैं अब भी सोच रही थी—
"क्या मैं वाक़ई बीमार हूँ?"
"या बस मैं ही कमज़ोर हूँ?"
तुम्हें क्या लगता है?
अगर कोई तुम्हें थप्पड़ मारे, तो दर्द महसूस होगा।
अगर कोई धक्का दे, तो तुम गिर जाओगे।
अगर कोई चीख़े, तो तुम डर सकते हो।
लेकिन जब कोई भी तुम्हें मारे नहीं, धक्का न दे, चीखे नहीं… फिर भी तुम टूट रहे हो, गिर रहे हो, डर रहे हो—तो उसे क्या कहोगे?
मैं यही सोच रही थी।
मेरी जंग किससे थी?
कोई मुझे मार नहीं रहा था।
कोई मेरे ख़िलाफ़ साज़िश नहीं कर रहा था।
कोई मुझे ज़बरदस्ती परेशान करने की कोशिश नहीं कर रहा था।
फिर भी मैं परेशान थी।
जैसे कोई साया मुझसे लिपट गया हो।
जैसे मैं चल रही हूँ, लेकिन मेरे पैरों में किसी ने अनदेखी ज़ंजीर डाल दी हों।
डिप्रेशन की सबसे अजीब बात यही है।
यह तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है… पर तुम इसे देख भी नहीं सकते।
तुम किसी से लड़ नहीं सकते।
क्योंकि तुम्हारा दुश्मन कोई इंसान नहीं—
वो तुम ख़ुद हो।
हाँ।
मैं अपनी ही दुश्मन बन चुकी थी।
अब लड़ाई बाहर से नहीं, अंदर से थी।
जब कोई मुसीबत आए, तो इंसान के पास दो ही रास्ते होते हैं—
या तो वो उसका सामना करे… या फिर भाग जाए।
और मैंने भागने का रास्ता चुना।
नहीं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं कहीं चली गई थी।
मैं वहीं थी—वही घर, वही लोग, वही ज़िंदगी।
बस… मैं ख़ुद से भाग रही थी।
तुम समझ रहे हो ना?
जब कोई परेशानी बहुत बड़ी लगने लगे, तो इंसान उसे अनदेखा करने की कोशिश करता है।
उसे लगता है कि अगर वो अपनी आँखें बंद कर ले, तो शायद वो चीज़ ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ायब हो जाएगी।
मैंने भी यही किया।
मैंने ख़ुद को ज़बरदस्ती बिज़ी रखना शुरू कर दिया।
दिनभर कुछ न कुछ करती, ताकि सोचने का वक़्त ही न मिले।
सोशल मीडिया, किताबें, फ़िल्में, लोग—हर चीज़ में ख़ुद को डुबो दिया, बस यह साबित करने के लिए कि "मैं बिल्कुल ठीक हूँ।"
लेकिन क्या मैं वाक़ई ठीक थी?
नहीं।
रातें अब भी वही थीं—भारी, लंबी, अंधेरी।
सोचें अब भी वही थीं—बेहिसाब, बेकाबू, बेरहम।
वो साया अब भी वहीं था—बिल्कुल मेरे क़रीब।
मैं जितना भाग रही थी, वो उतना ही मेरे पास आ रहा था।
शायद इसलिए कि डिप्रेशन से भागा नहीं जा सकता।
क्योंकि वो बाहर नहीं, अंदर होता है।
भागने से कुछ नहीं बदला।
जो अंदर था, वो अंदर ही रहा।
बस अब वो और गहरा हो गया था।
अब मुझे समझ आ रहा था कि मुझे इससे भागना नहीं, इसे कबूल करना है।
लेकिन यह इतना आसान नहीं था।
क्योंकि अगर मैं मान लेती कि मुझे वाक़ई कोई मसला है, तो फिर मुझे इसके बारे में सोचना पड़ता।
अगर मैं मान लेती कि मैं ठीक नहीं हूँ, तो फिर मुझे यह भी मानना पड़ता कि मुझे मदद की ज़रूरत है।
और मदद माँगना…
सबसे मुश्किल चीज़ थी।
तुम्हें भी ऐसा लगता है ना?
हम सबको बचपन से सिखाया जाता है कि मज़बूत बनो, हिम्मत रखो, हर चीज़ का ख़ुद मुक़ाबला करो।
लेकिन कोई यह नहीं बताता कि कमज़ोर महसूस करना भी इंसानी फ़ितरत का हिस्सा है।
मुझे यह डर था कि अगर मैंने किसी से कहा कि "मैं ठीक नहीं हूँ,"
तो लोग क्या सोचेंगे?
क्या वो मुझे सीरियसली लेंगे?
या कहेंगे, "ओह, यह तो बस एक बहाना है, तवज्जो पाने के लिए।"
यह सोचकर ही मैं पीछे हट जाती थी।
किसी से कहने का हौसला मुझमें नहीं था।
लेकिन ख़ुद से छुपाने की ताक़त भी ख़त्म हो रही थी।
अब मेरे पास सिर्फ़ एक ही रास्ता बचा था—
ख़ुद से सच्चाई बयाँ करना।
पर क्या मैं इसके लिए तैयार थी?
आइने में ख़ुद को देखना इतना मुश्किल पहले कभी नहीं लगा था।
क्योंकि पहली बार मैं ख़ुद से झूठ नहीं बोल सकती थी।
मैंने पहली बार ख़ुद से कहा—
"हाँ, मैं ठीक नहीं हूँ।"
सिर्फ़ ये चार लफ़्ज़।
लेकिन जैसे किसी ने सीने पर कोई भारी पत्थर रख दिया हो।
क्यों?
क्योंकि इतने वक़्त से मैं यही साबित करने में लगी थी कि "नहीं, मैं ठीक हूँ।"
कि सब कुछ मेरे दिमाग़ का वहम है।
कि मैं बस थोड़ी उदास हूँ, थोड़ी परेशान, लेकिन कोई बड़ी बात नहीं।
पर आज, जब मैंने ख़ुद से कहा—"नहीं, समर। तुम उदास नहीं हो, तुम बिखर रही हो।"
तो जैसे अंदर कुछ टूट गया।
यह एक एतिराफ़ था।
और एतिराफ़ हमेशा दर्द देता है।
लेकिन सच को मान लेना ही पहला क़दम था।
ऐसा आप लोगों को भी करना चाहिए आप ख़ुदको समझे जो हो रहा है उसे एक्सेप्ट करें।
अब मुझे तय करना था—आगे क्या?
सच कबूल कर लेना आसान नहीं था।
लेकिन अब अगला सवाल मेरे सामने खड़ा था—
अब आगे क्या?
क्या मुझे किसी से कहना चाहिए?
क्या कोई समझेगा?
क्या मैं ख़ुद को समझा पाऊँगी?
मैंने सोचा—शायद ये सब किसी से कहने से हल्का महसूस करूँ।
शायद कोई मेरी हालत समझे।
शायद कोई पूछे कि "तुम इतनी तकलीफ़ में थी, बताया क्यों नहीं?"
लेकिन यह सब 'शायद' था।
क्योंकि हक़ीक़त यह थी कि डर अब भी था।
डर कि लोग इसे मामूली समझेंगे।
डर कि इसे सिर्फ़ एक 'फेज़' कहकर नज़रअंदाज़ कर देंगे।
डर कि शायद मैं ही इसे ज़्यादा महसूस कर रही हूँ।
मुझे अब भी यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं बीमार थी।
क्योंकि बीमार तो वो होते हैं जो बाहर से टूटते हैं।
मेरी तो तकलीफ़ अंदर थी।
तो क्या यह वाक़ई कोई बीमारी थी?
या बस मैं ही कमज़ोर थी?
अब मुझे यह जानना था।
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे 'डिप्रेशन' हो सकता है।
क्योंकि मैंने हमेशा यही सुना था—
"डिप्रेशन सिर्फ़ कमज़ोर लोगों को होता है।"
"जो लोग अपने मसले ख़ुद हल नहीं कर सकते, वही ऐसे बहाने बनाते हैं।"
"अगर तुम मज़बूत बनोगी, तो ये सब ख़त्म हो जाएगा।"
तो फिर…
मैं क्यों इससे बाहर नहीं आ पा रही थी?
मैंने गूगल किया—'डिप्रेशन की निशानियाँ'।
हर वक़्त थकान महसूस होना। ✔
बेवजह रोने का मन करना। ✔
नींद पूरी होने के बावजूद सुस्ती महसूस करना। ✔
अपने पसंदीदा कामों में दिलचस्पी ख़त्म हो जाना। ✔
लोगों से मिलने का मन न करना। ✔
अपने ही दिमाग़ से लड़ाई होना। ✔
सब कुछ मेरे साथ हो रहा था।
अब मेरे पास दो ही रास्ते थे—
या तो इसे मान लूँ, या फिर इसे नज़रअंदाज़ कर दूँ।
लेकिन मैं अब और भाग नहीं सकती थी।
अब मुझे अपनी हालत का नाम देना था।
और मैंने पहली बार ख़ुद से कहा—
"हाँ, समर। तुम्हें डिप्रेशन है।"
ये कहते ही जैसे कोई भारी बोझ उतर गया हो।
क्योंकि अब तक मैं एक अनजान दुश्मन से लड़ रही थी… और आज मैंने उसका नाम जान लिया था।
लेकिन क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ेगा?
अब आगे क्या करना था?
अब मुझे मालूम था कि मुझे डिप्रेशन है।
लेकिन सवाल यह था—अब क्या करूँ?
मुझे याद है, जब बचपन में मैं बीमार होती थी, तो अम्मी फ़ौरन डॉक्टर के पास ले जाती थीं।
छोटी-सी खाँसी भी होती, तो कोई न कोई दवा ज़रूर देतीं।
लेकिन अब?
अब जब मैं अंदर से बीमार थी, तो क्या मैं किसी से कह सकती थी—
"अम्मी, मुझे अंदर से कुछ टूटता महसूस हो रहा है। मुझे दवा चाहिए।"
क्या वो समझ पाएँगी?
या फिर वही कहेंगी—"बस दिल मज़बूत करो, सब ठीक हो जाएगा।"
क्योंकि यही तो होता आया था।
किसी को बताने का ख़्याल आया, लेकिन फिर वही डर—
अगर किसी ने मेरी बात को हल्के में लिया तो?
और सबसे बड़ा डर—
"अगर मैं ख़ुद को भी ठीक नहीं कर सकती, तो क्या मैं वाक़ई इतनी कमज़ोर हूँ?"
तो मैंने फिर वही किया जो हमेशा करती आई थी।
चुप रही।
ख़ुद को समझाया कि मैं ख़ुद इसे ठीक कर लूँगी।
क्योंकि मैं कमज़ोर नहीं दिखना चाहती थी।
लेकिन शायद मैं भूल गई थी कि मदद माँगना कमज़ोरी नहीं होती।
मैंने ख़ुद को समझाने की बहुत कोशिश की कि मैं मज़बूत हूँ।
कि मुझे किसी की मदद की ज़रूरत नहीं।
लेकिन…
जैसे-जैसे वक़्त गुज़र रहा था, एक चीज़ साफ़ होती जा रही थी—
मैं इसे अकेले नहीं झेल सकती।
शायद तुम समझ सकते हो कि मैं क्या कह रही हूँ।
कभी-कभी दर्द इतना गहरा हो जाता है कि उसे अकेले सहना नामुमकिन लगने लगता है।
मैं चाहती थी कि कोई मेरे अंदर झाँक सके…
बिना मेरे कहे समझ सके कि "समर, मैं जानता हूँ कि तुम तकलीफ़ में हो।"
लेकिन ऐसा नहीं होता ना?
लोग तुम्हारे लफ़्ज़ों को सुन सकते हैं, तुम्हारी आँखों को नहीं।
और मैं अब भी ख़ामोश थी।
पर अंदर एक हलचल थी।
मैं पहली बार सोचने लगी थी कि शायद मुझे किसी से बात करनी चाहिए।
क्योंकि ये जो एहसास था—
हर वक़्त अंदर गिरते जाने का, हर लम्हा घुटने का—
ये अब मुझसे सहा नहीं जा रहा था।
लेकिन सवाल वही था—
किससे कहूँ?
और कैसे कहूँ?
मैं किसी से बात करना चाहती थी।
पर किससे?
अम्मी?
नहीं…
वो पहले ही बहुत कुछ सह चुकी थीं।
मैं नहीं चाहती थी कि मेरी तकलीफ़ उन पर और बोझ डाल दे।
भाई?
उन्हें हमेशा मेरी फ़िक्र रहती थी।
अगर मैंने उन्हें बताया कि मैं अंदर ही अंदर टूट रही हूँ,
तो शायद वो और परेशान हो जाएँ।
दोस्त?
शायद… लेकिन क्या वो समझ पाएँगी?
या फिर वही कहेंगी—"अरे, ये सबके साथ होता है। तू बस थोड़ा पॉज़िटिव सोचा कर।"
पर क्या वाक़ई यह बस 'थोड़ा' था?
मुझे एक बात समझ आ रही थी—
सबसे मुश्किल बात सिर्फ़ तकलीफ़ को महसूस करना नहीं होता…
बल्कि उसे किसी और के सामने बयाँ करना होता है।
क्योंकि जैसे ही तुम इसे लफ़्ज़ों में ढालते हो,
वो और भी हक़ीक़त बन जाती है।
और शायद मैं अब भी इससे भाग रही थी।
तो क्या मैं फिर चुप रहूँगी?
या इस बार कोई और रास्ता ढूँढूँगी?
मुझे अब भी नहीं पता था कि किससे कहूँ।
लेकिन इतना समझ आ चुका था कि मुझे इसे बाहर निकालना होगा।
पर कैसे?
रोकर?
मैं पहले ही कितनी बार अकेले में रो चुकी थी।
पर क्या आँसू कभी तकलीफ़ को पूरा बहा ले जाते हैं?
नहीं।
वो बस भीगकर और भारी हो जाती है।
किसी से कहकर?
पर किससे?
जिसका जवाब अब भी मेरे पास नहीं था।
तो क्या मैं इसे ख़ुद में ही समेट लूँ?
जैसे बरसों से करता आई थी?
लेकिन शायद अब और नहीं।
क्योंकि यह जो तकलीफ़ थी, यह अब सिर्फ़ मेरे दिल में नहीं, मेरे लफ़्ज़ों में उतरना चाहती थी।
तो मैंने पहली बार लिखने का सोचा।
सिर्फ़ अपने लिए।
शायद अगर मैं इसे काग़ज़ पर उतार दूँ,
तो यह मेरे अंदर से थोड़ा कम हो जाए।
शायद नहीं…
लेकिन कोशिश तो कर सकती थी, है ना?
मैंने काग़ज़ उठाया।
क़लम हाथ में ली।
और ख़ामोशी से उसे ताकती रही।
क्या लिखूँ?
कहाँ से शुरू करूँ?
कैसे कहूँ कि मैं हर दिन एक बोझ की तरह उठती हूँ?
कि मेरे अंदर जैसे कुछ टूट चुका है, और मैं उसे जोड़ नहीं पा रही?
मेरी उंगलियाँ काँप रही थीं।
क्योंकि अब तक मैं अपनी तकलीफ़ को ख़ामोशी में जीती आई थी।
अब पहली बार उसे लफ़्ज़ देने जा रही थी।
और जैसे ही क़लम ने काग़ज़ को छुआ—
लफ़्ज़ अपने आप निकलने लगे।
"मुझे नहीं पता मैं कौन हूँ। मुझे नहीं पता कि मैं क्यों ऐसा महसूस कर रही हूँ। लेकिन मैं थक चुकी हूँ। मैं चुप नहीं रह सकती।"
फिर और लिखा…
हर वो एहसास जो बरसों से दिल में दबा था।
हर वो सवाल, जो मैंने कभी ख़ुद से भी नहीं पूछा था।
और लिखते-लिखते…
ऐसा लगा जैसे मैं थोड़ी हल्की हो गई हूँ।
शायद इसीलिए कहते हैं—
"कुछ बातें कहने के लिए नहीं, लिखने के लिए होती हैं।"
लेकिन क्या सिर्फ़ लिख देना काफ़ी था?
या अब भी कुछ अधूरा था?
मैंने अपनी तकलीफ़ लिख दी।
हर वो जज़्बात, जो दिल में दफ़्न थे, काग़ज़ पर बिखेर दिए।
और हाँ…
मैंने थोड़ा हल्का महसूस किया।
लेकिन बस थोड़ा।
क्योंकि जैसे ही मैंने काग़ज़ को बंद किया,
वही घुटन फिर लौट आई।
तो क्या सिर्फ़ लिख देना काफ़ी था?
क्या यह मेरी तकलीफ़ का हल हो सकता था?
शायद नहीं।
क्योंकि दर्द को लफ़्ज़ देने से वो कम नहीं होता,
बस थोड़ा बँट जाता है।
और मैं अब भी इसे अकेले ही बाँट रही थी।
फिर हल क्या था?
किसी से कहना?
पर अब भी वही डर—
"अगर किसी ने मेरी बात को हल्के में लिया तो?"
तो क्या फिर भी मुझे कोशिश करनी चाहिए?
क्योंकि यह जो एहसास था…
हर वक़्त अंदर गिरते जाने का, हर लम्हा घुटने का—
अब मुझसे सहा नहीं जा रहा था।
शायद मुझे पहली बार किसी से बात करनी पड़ेगी।
शायद… अब और चुप नहीं रहा जा सकता।
लेकिन क्या मैं हिम्मत जुटा पाऊँगी?
या फिर एक बार फिर ख़ुद को रोक लूँगी?
मैंने फ़ैसला कर लिया था—
मुझे किसी से बात करनी होगी।
पर यह कहना जितना आसान था, करना उतना ही मुश्किल।
क्योंकि जितनी बार मैं सोचती कि मुझे कुछ कहना है,
उतनी ही बार अंदर से एक आवाज़ उठती—
"अगर सामने वाले ने मेरी बात को मज़ाक़ में लिया तो?"
"अगर उसने कहा कि यह बस मेरे दिमाग़ का वहम है?"
"अगर उसने मुझे और कमज़ोर महसूस करा दिया?"
मैं फिर वही डर महसूस करने लगी।
क्योंकि यही तो होता आया था।
हम में से कितने लोग यह मानते हैं कि डिप्रेशन एक बीमारी है?
बुख़ार हो, तो लोग तुम्हें आराम करने को कहेंगे।
सर में दर्द हो, तो तुम्हें दवा लेने की सलाह देंगे।
लेकिन अगर दिल और दिमाग़ बीमार हो जाए,
तो लोग क्या कहते हैं?
"बस दिल मज़बूत करो। यह सब ख़्याली बातें हैं।"
क्या मेरे साथ भी यही होगा?
अगर हाँ, तो शायद यह मेरा आख़िरी हौसला भी तोड़ देगा।
तो फिर?
क्या मैं अब भी कहने की हिम्मत करूँ?
या फिर फिर से ख़ामोशी को अपना सहारा बना लूँ?
मैंने कई बार हिम्मत जुटाई।
पर हर बार कुछ मुझे रोक लेता था।
"अगर कोई समझ ना पाया तो?"
यह एक सवाल था, जो मेरे हौसले को तोड़ देता।
क्योंकि यही तो मैंने देखा था—
जब किसी ने कहा, "मुझे अच्छा नहीं लग रहा,"
तो जवाब मिला, "बस अल्लाह का शुक्र अदा करो, सब ठीक हो जाएगा।"
जब किसी ने कहा, "मैं बहुत अकेला महसूस करता हूँ,"
तो जवाब मिला, "यार, सबके साथ ऐसा होता है, तू ज़्यादा मत सोच।"
जब किसी ने कहा, "मुझे लगता है मैं अंदर ही अंदर ख़त्म हो रही हूँ,"
तो जवाब मिला, "बस दिल मज़बूत कर, यह सब दिमाग़ी बातें हैं।"
और मैं डर रही थी—
अगर मेरे साथ भी यही हुआ तो?
अगर किसी ने मेरी तकलीफ़ को नकार दिया,
तो शायद मैं फिर कभी इसे ज़ुबान पर ना ला पाऊँ।
क्योंकि जिस दर्द को समझा ना जाए, वो और गहरा हो जाता है।
तो क्या मैं अब भी कहूँ?
या फिर यह मान लूँ कि मेरी तकलीफ़ के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं?
मुझे अब भी यक़ीन नहीं था कि कोई मेरी बात समझेगा।
लेकिन मुझे कोशिश करनी थी।
अब सवाल यह था—
कौन?
अम्मी?
वो मेरा हर दर्द समझती थीं।
पर शायद यह नहीं समझ पाएँगी।
शायद वो यही कहेंगी, "बस अल्लाह से दुआ करो, सब ठीक हो जाएगा।"
और मैं फिर अकेली रह जाऊँगी।
भाई?
वो मुझे बेइंतिहा चाहते थे।
लेकिन क्या वो समझ पाएँगे कि मैं हर दिन एक लड़ाई लड़ रही हूँ?
या फिर वो यही कहेंगे, "तुझे क्या कमी है? तेरा दिमाग़ बहुत चलता है।"
कोई दोस्त?
पर कौन?
जो कहेगा, "बस किसी अच्छे काम में लग जा, तेरा दिल बहल जाएगा।"
या जो वाक़ई सुनेगा?
मुझे एक ऐसे शख़्स की तलाश थी, जो सिर्फ़ मेरी बात सुने—
बिना जज किए, बिना कोई मशविरा दिए।
पर क्या ऐसा कोई था?
या फिर मुझे अपनी तकलीफ़ को चुपचाप अकेले ही सहना होगा?
मैं सोच चुकी थी—
मुझे किसी से बात करनी होगी।
पर कौन?
कई नाम मेरे ज़हन में आए और चले गए।
फिर मुझे एक नाम याद आया—नेहा।
वो मेरी बचपन की दोस्त थी।
हम साथ बड़े हुए थे,
और मैंने हमेशा उसे एक ख़ामोश समझदार इंसान की तरह देखा था।
वो शायद जज नहीं करेगी।
शायद मेरी बात को हवा में नहीं उड़ाएगी।
शायद वो बस सुनेगी…
और सिर्फ़ सुने जाने की तो मुझे ज़रूरत थी।
मैंने उसे मैसेज किया—
"अगर तुम्हारे पास वक़्त हो, तो मुझसे मिल सकती हो?"
दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
क्या होगा अगर उसने मना कर दिया?
या फिर मुझे सीधा-सीधा कह दिया कि मैं बेवजह सोच रही हूँ?
लेकिन कुछ ही देर में उसका जवाब आया—
"बिलकुल, मैं आती हूँ।"
क्या मुझे सच में अब अपनी बात कह देनी चाहिए?
या फिर मुलाक़ात के वक़्त मेरे लफ़्ज़ एक बार फिर मेरी ज़ुबान पर आकर रुक जाएँगे?
नेहा का जवाब आया था— "बिलकुल, मैं आती हूँ।"
मैंने स्क्रीन को देर तक देखा। फिर फ़ोन रख दिया।
और उसी वक़्त मुझे एहसास हुआ— मैं यह नहीं कर सकती।
किसी से बात करने की हिम्मत जुटाना… फिर उम्मीद लगाना कि वो समझेगा… फिर डरना कि कहीं वो मेरी बात को हल्के में न ले ले…
मैं यह सब नहीं कर सकती।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मेरी आवाज़ कभी सुनी नहीं जाएगी। क्योंकि अब तक मैंने यह सोचा था कि मुझे "किसी एक" से बात करनी है। पर शायद मुझे "किसी एक" से नहीं, उन सब से बात करनी थी— जो मेरी तरह थे।
जो इसे पढ़ रहे हैं। जो मेरी तरह ख़ुद से मुकालमा कर रहे हैं।
मुझे एहसास हुआ कि शायद "किसी अपने" से कहने के बजाय, मुझे इस दर्द को लफ़्ज़ों में ढालकर उन तक पहुँचाना चाहिए, जो इसे वाक़ई समझ सकते हैं।
और इसीलिए मैंने लिखने का फ़ैसला किया।
अब मैं सिर्फ़ अपने लिए नहीं लिखूंगी— बल्कि हर उस इंसान के लिए जो इस एहसास से गुज़र रहा है। हर उस इंसान के लिए, जिसे अब तक कोई सुनने वाला नहीं मिला।
और अगर तुम इसे पढ़ रहे हो, तो जान लो— "तुम अकेले नहीं हो।"
जब मैंने पहली बार लिखा,
तो यह सिर्फ़ मेरा दर्द था।
जब मैंने दूसरी बार लिखा,
तो यह मेरी जद्दोजहद थी।
और अब, जब मैं लिख रही हूँ…
तो यह सिर्फ़ मेरी कहानी नहीं रही।
यह हर उस इंसान की कहानी है
जो मेरे लफ़्ज़ों में अपना अक्स देख रहा है।
जो यह पढ़कर सोच रहा है—
"यह तो मेरी ही बात है।"
अब यह सिर्फ़ मेरी तन्हाई नहीं है—
अब यह हम सबकी तन्हाई है।
अब यह सिर्फ़ मेरा मुकालमा नहीं है—
अब यह हम सबका मुकालमा है।
मैंने एक बार सुना था,
"कभी-कभी हमारी सबसे बड़ी ताक़त वही चीज़ बनती है, जिसने हमें सबसे ज़्यादा तोड़ा हो।"
शायद यह तकलीफ़ मेरी सबसे बड़ी ताक़त बनने वाली थी।
क्योंकि अब मैं इसे अपने अंदर दबाकर नहीं रखूँगी—
अब मैं इसे इस तरह लफ़्ज़ दूँगी कि हर टूटे हुए इंसान तक पहुँचे।
अब मैं सिर्फ़ ख़ुद से मुकालमा नहीं करूँगी—
अब मैं उन सबसे भी मुकालमा करूँगी, जो मेरे जैसे हैं।
और अगर तुम यह पढ़ रहे हो,
तो समझ लो—
अब हम अकेले नहीं हैं।
मैंने लिखने का फ़ैसला कर लिया।
लेकिन क्या सिर्फ़ लिख देना काफ़ी था?
मैंने एक-एक लफ़्ज़ अपने अंदर के अंधेरे से निकाला था।
हर जज़्बा, हर तकलीफ़, हर एहसास को स्याही में घोल दिया था।
लेकिन यह काग़ज़ के पन्नों में क़ैद रह गया,
तो फिर यह किसके काम आएगा?
मैंने जो लिखा है,
वो उन लोगों तक पहुँचना चाहिए, जो इसे समझ सकते हैं।
जो इसे महसूस कर सकते हैं।
जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
पर कैसे?
मुझे कौन पढ़ेगा?
मैं कौन हूँ?
एक मामूली लड़की—
जो बस अपनी तकलीफ़ को काग़ज़ पर उतार रही है।
क्या यह दुनिया मेरी बात सुनेगी?
या फिर यह सफ़र यहाँ ही ख़त्म हो जाएगा?
मैंने एक लफ़्ज़ लिखा।
फिर दूसरा।
फिर एक के बाद एक,
यह लफ़्ज़ सिलसिला बनते गए।
पर क्या यह किसी तक पहुँचेंगे?
मुझे यक़ीन था कि यह सिर्फ़ मेरी दास्तान नहीं थी।
यह उन सबकी कहानी थी जो हर दिन यह सोचते हैं कि "अब और नहीं सह सकते।"
जो ख़ुद को टूटते हुए देखते हैं,
पर किसी को बता नहीं पाते।
अगर यह लफ़्ज़ सिर्फ़ काग़ज़ पर रह गए,
तो क्या फ़ायदा?
मुझे इन्हें बाहर ले जाना था।
मुझे अपनी आवाज़ को इस दुनिया तक पहुँचाना था।
पर कैसे?
कौन सुनेगा?
क्या कोई सच में पढ़ेगा?
या फिर यह भी हज़ारों कहानियों की तरह कहीं गुम हो जाएगी?
मुझे डर था।
लेकिन इस बार…
डर की वजह से रुकना नहीं था।
मैंने अपनी किताब पूरी कर ली थी।
हर लफ़्ज़, हर जज़्बा, हर एहसास—
अब यह सब काग़ज़ पर था।
लेकिन क्या इतना काफ़ी था?
किताब को अलमारी में रखकर भूल जाना…
या फिर इसे दुनिया तक पहुँचाने की कोशिश करना?
मैं जानती थी कि यह आसान नहीं होगा।
मुझे अपने ही लोगों से सवाल मिलेंगे—
"तुम कौन होती हो लिखने वाली?"
"ये सब बकवास बातें हैं, इससे क्या बदलेगा?"
"तुम्हारी बात को कोई सीरियस क्यों लेगा?"
पर मैंने अब तय कर लिया था—
मुझे पीछे नहीं हटना।
मैंने किताब का एक हिस्सा निकाला और पढ़ने लगी।
हर लफ़्ज़ मेरे दिल से निकला था।
यह सिर्फ़ कहानी नहीं थी—यह मेरा सच था।
मुझे इसे छुपाने का हक़ नहीं था।
मुझे इसे उन लोगों तक पहुँचाना था जो इसे समझ सकते थे।
जो इसे महसूस कर सकते थे।
जो इसे "अपनी" कहानी समझ सकते थे।
पर अब सवाल था—कैसे?
अब किताब पूरी हो चुकी थी।
अब बस एक आख़िरी काम बचा था—
इसे दुनिया तक पहुँचाना।
पर यह सोचकर ही मेरा दिल तेज़ धड़कने लगा।
मुझे नहीं पता था कि यह कैसे होगा।
कहाँ से शुरू करूँ?
क्या कोई इसे पढ़ेगा भी?
और अगर पढ़ेगा, तो क्या समझेगा?
सबसे पहला ख़याल आया—पब्लिशिंग हाउस।
शायद किसी बड़े पब्लिशर को भेज दूँ।
अगर उन्हें पसंद आई, तो छप जाएगी।
पर क्या यह इतना आसान था?
एक अनजानी लड़की की लिखी किताब, जो डिप्रेशन पर थी—क्या यह किसी की दिलचस्पी ले सकती थी?
या फिर मुझे वही सुन्ना पड़ेगा—
"ये सब बातें कौन पढ़ेगा?"
एक और रास्ता था—
ख़ुद इसे लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करना।
पर कैसे?
क्या सोशल मीडिया पर डालूँ?
या फिर छोटे-बड़े प्लेटफ़ॉर्म्स पर छपवाने की कोशिश करूँ?
मेरे पास बहुत से सवाल थे।
पर एक बात साफ़ थी—
अब मैं पीछे नहीं हटने वाली थी।
अब यह सिर्फ़ मेरी कहानी नहीं थी।
यह हम सबकी कहानी थी।
मैंने कई रातें इसी सोच में गुज़ारीं—
कहाँ से शुरू करूँ?
मुझे याद आया, एक बार किसी ने कहा था,
"अगर तुम दरवाज़े पर दस्तक न दो, तो कोई तुम्हारे लिए दरवाज़ा नहीं खोलेगा।"
तो क्या मुझे किसी पब्लिशर के दरवाज़े पर दस्तक देनी चाहिए?
मैंने हिम्मत जुटाई और कुछ पब्लिशिंग हाउस के नाम ढूँढे।
कुछ नाम बड़े थे, कुछ छोटे।
मैंने उनकी वेबसाइट पर जाकर देखा—
"हमें अपनी मुसव्वदा भेजें"
लिखा था।
दिल धड़कने लगा।
क्या मुझे वाक़ई अपनी किताब भेज देनी चाहिए?
पर फिर वो तमाम शक़ ज़हन में आने लगे—
"अगर उन्होंने रिजेक्ट कर दिया तो?"
"अगर उन्होंने कहा कि यह 'किसी काम की नहीं'?"
"अगर किसी ने इसे सीरियसली ही नहीं लिया?"
मुझे लगा जैसे मैं किसी ऊँचाई पर खड़ी हूँ,
जहाँ से क़दम आगे बढ़ाने पर या तो उड़ जाऊँगी,
या फिर नीचे गिर जाऊँगी।
पर मुझे पता था—
अगर मैं कोशिश भी नहीं करूँगी, तो न उड़ पाऊँगी, न बच पाऊँगी।
मैंने साँस ली।
अपनी मुसव्वदा खोली।
और पहला ईमेल लिखना शुरू किया।
"आदाब, मैं समर हूँ..."
मैंने ईमेल लिखा,
तअर्रुफ़-ए-किताब किया
और मुसव्वदा अटैच कर दी।
फिर कर्सर "सेंड" बटन पर आकर रुक गया।
मेरी उंगलियाँ काँप रही थीं।
मन में वही सवाल—
"अगर उन्होंने रिजेक्ट कर दिया तो?"
"अगर कोई जवाब ही न आया तो?"
"अगर मेरी बात किसी के लिए मायने ही नहीं रखती?"
एक सेकंड।
दो सेकंड।
पाँच सेकंड।
मैंने गहरी साँस ली…
और "सेंड" बटन दबा दिया।
बस।
अब यह मेरे हाथ में नहीं था।
अब मैं इंतज़ार कर सकती थी—
सिर्फ़ इंतज़ार।
मैंने फ़ोन रखा और घड़ी देखी।
रात के 2 बज रहे थे।
कहीं न कहीं,
किसी इनबॉक्स में
मेरी कहानी पहुँच चुकी थी।
पर क्या वो इसे पढ़ेंगे?
क्या यह उनके लिए "बस एक और ईमेल" होगा?
या फिर,
शायद…
शायद, यह कहीं जगह बना सके?
ईमेल भेजने के बाद,
मुझे लगा जैसे मैं ख़ुद को किसी अनजान समुंदर में फेंक चुकी हूँ।
अब या तो किनारा मिलेगा,
या फिर लहरें मुझे और दूर बहा देंगी।
पहला दिन बीत गया—कोई जवाब नहीं।
दूसरा दिन भी ख़ामोश।
तीसरे दिन भी कुछ नहीं।
हर बार जब फ़ोन की नोटिफ़िकेशन बजती,
दिल तेज़ धड़कने लगता।
पर हर बार—
कोई प्रमोशनल मेल,
कोई बेकार का मैसेज।
"क्या किसी ने मेरा ईमेल देखा भी होगा?"
"या फिर यह कहीं स्पैम में पड़ा होगा?"
मैंने हिम्मत करके उनकी वेबसाइट दोबारा देखी—
"हम जवाब देने में चार से छह हफ़्ते तक का समय लेते हैं।"
छह हफ़्ते?
छह हफ़्ते?
मुझे यह छह घंटे भी भारी लग रहे थे।
मुझे लग रहा था कि जवाब तुरंत आना चाहिए।
या कम से कम इतना तो पता चले कि उन्होंने देखा भी या नहीं।
क्या मुझे दूसरा रास्ता ढूँढना चाहिए?
या फिर और इंतज़ार करना चाहिए?
पर इंतज़ार भी तो एक इम्तिहान होता है, न?
मैंने तय किया—
अगर इस दरवाज़े से जवाब नहीं आया,
तो मैं कोई और दरवाज़ा तलाश करूँगी।
मुझे अपनी किताब को दुनिया तक पहुँचाना ही था,
किसी भी तरह।
रात के सन्नाटे में जब पूरी दुनिया सो रही थी,
मैं अपनी बेचैन सोचों के साथ जाग रही थी।
मेरा ईमेल किसी अनजान इनबॉक्स में पड़ा था,
और मैं उम्मीद और डर के बीच झूल रही थी।
पहला दिन गुज़र गया—कोई जवाब नहीं।
दूसरा दिन भी उसी ख़ामोशी में डूबा रहा।
तीसरे दिन, हर फ़ोन नोटिफ़िकेशन पर दिल धड़कता,
पर हर बार बस एक बेकार सा मैसेज निकलता।
"क्या किसी ने मेरा ईमेल देखा भी होगा?"
"या फिर यह कहीं स्पैम में पड़ा होगा?"
मैंने दोबारा वेबसाइट चेक की—
"हम जवाब देने में चार से छह हफ़्ते तक का समय लेते हैं।"
छह हफ़्ते?
छह हफ़्ते?
जैसे किसी ने मेरे अंदर जलती बेचैनी को और बढ़ा दिया हो।
मुझे लगा था कि जवाब जल्द आएगा।
मगर यह इंतज़ार तो जैसे किसी और इम्तिहान की तरह था।
रातों को नींद नहीं आती थी।
सोचती थी, "अगर रिजेक्ट कर दिया गया तो?"
फिर ख़ुद को समझाती, "अगर नहीं भेजती, तो और भी अफ़सोस होता।"
लेकिन अब सवाल यह था—
क्या बस इंतज़ार करती रहूँ?
या फिर कोई और रास्ता तलाश करूँ?
मैंने तय किया—
अगर एक दरवाज़ा बंद रहेगा, तो मैं दूसरा रास्ता ढूँढ लूँगी।
क्योंकि यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं थी,
यह उन सबकी थी,
जो अंधेरे में कोई रौशनी तलाश रहे थे।
मुझसे अब और सब्र नहीं हो रहा था।
मैंने एक-दो नहीं, बल्कि कई पब्लिशर्स को ईमेल किए थे। पर जवाब? सिर्फ़ ख़ामोशी।
हर बीतता दिन मेरे लिए किसी इम्तिहान से कम नहीं था। जैसे मैं किसी बंद कमरे में क़ैद थी, जहाँ हर तरफ़ सिर्फ़ अँधेरा था और मुझे नहीं पता था कि रोशनी किस ओर से आएगी।
"क्या मेरी बात किसी तक पहुँचेगी?"
"क्या किसी को मेरी कहानी में दिलचस्पी होगी?"
"या फिर यह भी हज़ारों अधूरी कोशिशों की तरह कहीं गुम हो जाएगी?"
इन सवालों ने मेरी बेचैनी को और बढ़ा दिया।
एक और रास्ता
इंतज़ार अब नामुमकिन हो गया था।
मैंने ख़ुद से कहा—"अगर कोई तुम्हें नहीं सुन रहा, तो क्या तुम बोलना छोड़ दोगी?"
नहीं।
मैंने फिर से रिसर्च शुरू की। इस बार मैं सिर्फ़ "Traditional Publishing" के पीछे भागने के बजाय दूसरे रास्ते तलाश रही थी।
कुछ देर बाद, मुझे कुछ ऐसे प्लेटफ़ॉर्म्स मिले जहाँ ई-बुक्स को पब्लिश किया जा सकता था—
Amazon Kindle, Notion Press, Bluerose Juggernaut, Google Books…
"क्या मुझे ख़ुद इसे पब्लिश करना चाहिए?"
इस सवाल ने पहले हिचकिचाहट पैदा की।
"अगर ये रास्ता भी ग़लत निकला तो?"
पर फिर मैंने खुद से पूछा—"अगर ये सही निकला तो?"
मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था। पर अगर मैंने यह कर लिया, तो शायद कोई ऐसा होगा जो मेरी तरह होगा—जो मेरे लफ़्ज़ों में अपना अक्स देख सकेगा।
पहला क़दम—Soft Copy तैयार करना
मैंने तय कर लिया था—अब मैं और इंतज़ार नहीं करूँगी।
मैंने अपनी किताब की Soft Copy तैयार करने के लिए काम शुरू किया। मुझे सही फ़ॉर्मेट में किताब लानी थी, अच्छे फ़ॉन्ट में, सही लेआउट के साथ।
"अगर इस सफ़र में सिर्फ़ एक शख़्स भी मुझसे जुड़ पाया, तो यह सफ़र बेकार नहीं जाएगा।"
अब ये सिर्फ़ मेरी कहानी नहीं थी।
अब ये हम सबकी कहानी थी।
यह किताब बस लफ़्ज़ों का एक सिलसिला नहीं है—यह एक आवाज़ है, जो उन तमाम लोगों तक पहुँचना चाहती है, जो कभी न कभी इस अंधेरे से गुज़रे हैं।
जब मैंने इसे लिखना शुरू किया था, तब यह सिर्फ़ मेरा दर्द था। फिर यह मेरी जद्दोजहद बनी। और अब, जब यह आप तक पहुँची है, तो यह सिर्फ़ मेरी नहीं, हम सबकी कहानी बन चुकी है।
इस सफ़र में कई मुश्किलें आईं। (Traditional Publishing) की राह लंबी और थकाने वाली थी। हर जवाब का इंतज़ार किसी इम्तिहान से कम नहीं था। लेकिन मैंने ठान लिया था कि यह कहानी सिर्फ़ काग़ज़ों में क़ैद नहीं रहेगी—यह उन लोगों तक पहुँचेगी, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
इसी तलाश में, मैंने नए रास्ते खोजे। ई-बुक पब्लिशिंग का दरवाज़ा खुला, जहाँ मैं अपनी आवाज़ को सीधे आप तक पहुँचा सकती थी। और आज, यह किताब आपके हाथों में है।
लेकिन यह किताब सिर्फ़ मेरी बात कहने के लिए नहीं लिखी गई। मैं चाहती हूँ कि जैसे मैंने आपसे अपनी कहानी कही, वैसे ही आप भी मुझसे अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्से बाँटें। अगर आप कुछ कहना चाहते हैं, कोई एहसास, कोई दर्द, कोई लम्हा जो आपके दिल में दबा हुआ है—तो उसे मेरे साथ साझा करें। मैं उसे आपकी इजाज़त से सबके सामने लाऊँगी, ताकि आपके दिल का बोझ हल्का हो सके और कोई और भी इससे हिम्मत पा सके।
किताब पढ़ने के लिए शुक्रिया।
मैं बहुत जल्द किसी न किसी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिए आप सबसे रूबरू होने की कोशिश करूँगी। तब तक, ख़ुद का ख़याल रखें।
और हाँ, यह कभी मत भूलिए—हम अकेले नहीं हैं।