The story of a fatherless child in Hindi Moral Stories by MD AJDAN ALAM books and stories PDF | पिता विहीन बच्चों की गाथा

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पिता विहीन बच्चों की गाथा



पिता… यह केवल एक शब्द नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और संरक्षक का प्रतीक है। पिता का साया सिर से हटते ही जीवन में एक खालीपन और असुरक्षा का अहसास घर कर जाता है। यह लेख, “पिता विहीन बच्चे”, ऐसे बच्चों की संवेदनाओं, संघर्षों और उनकी अदम्य इच्छाशक्ति को सामने लाने का एक प्रयास है, जो अपने जीवन में इस अपूर्णता के साथ आगे बढ़ते हैं।

पिता की अनुपस्थिति केवल एक शारीरिक दूरी नहीं है, बल्कि यह एक भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक चुनौती का रूप ले लेती है। ऐसे बच्चे समाज की ठोकरों, जिम्मेदारियों के भार और अनगिनत सवालों से जूझते हुए अपने अस्तित्व को साबित करने का प्रयास करते हैं। उनकी आँखों में छिपी मासूमियत और दिल में छुपा दर्द उन कहानियों को जन्म देता है, जो हमें मानवता और धैर्य की नई परिभाषा सिखाते हैं।

यह लेख न केवल पिता विहीन बच्चों की दुर्दशा का चित्रण करती है, बल्कि उनकी संघर्षशीलता, आत्मनिर्भरता और साहस की प्रेरक कहानियों को भी उजागर करती है। इसमें उन असंख्य बच्चों की पीड़ा को जगह दी गई है, जिन्होंने अपने जीवन में पिता का साया खो दिया, लेकिन अपने सपनों को मरने नहीं दिया।

प्रस्तुत लेख का उद्देश्य केवल सहानुभूति जगाना नहीं है, बल्कि समाज को यह दिखाना है कि पिता विहीन बच्चों के लिए एक सहायक और प्रेरक वातावरण बनाना कितना आवश्यक है। उनकी जरूरतें केवल भौतिक नहीं होतीं; उन्हें संवेदनाओं और समझदारी से भरा एक ऐसा माहौल चाहिए, जो उनके आत्मविश्वास को बढ़ाए और उन्हें अपने सपनों की उड़ान भरने में सक्षम बनाए।

आइए, इस लेख माध्यम से हम उनके दर्द, उनके संघर्ष और उनकी उम्मीदों को समझें। शायद, इस यात्रा के अंत में, हम अपने समाज और अपने दृष्टिकोण को और अधिक संवेदनशील बना सकें।

यदि इस लेख में किसी प्रकार की त्रुटि हुई हो, तो कृपया क्षमा करें। आप सभी का इस लेख को पढ़ने के लिए धन्यवाद।
— लेखक: मोहम्मद अजदान


"अधूरे सपनों का सूरज"

गर्मियों की तपती दोपहर थी। हवा में उमस थी, लेकिन आदित्य के मन में उससे भी अधिक घुटन थी। गाँव के कच्चे रास्तों पर नंगे पाँव दौड़ता हुआ वह स्कूल से घर लौट रहा था। उसकी उम्र महज तेरह वर्ष थी, लेकिन जीवन ने उसे समय से पहले परिपक्व कर दिया था।

आदित्य का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उसके पिता, रामशरण, गाँव के सबसे मेहनती किसानों में गिने जाते थे। हर सुबह सूरज की पहली किरण के साथ खेतों में जाना और देर रात तक हल चलाना उनकी दिनचर्या थी। परंतु भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। एक दिन, खेत में काम करते हुए अचानक आई आंधी में एक विशाल पेड़ गिर पड़ा और रामशरण की वहीं मृत्यु हो गई। वह दिन आदित्य की जिंदगी का सबसे काला दिन था।

पिता-विहीन जीवन की कठोर सच्चाई

रामशरण के निधन के बाद आदित्य की माँ, सरला, ने अकेले ही परिवार की बागडोर संभालने का प्रयास किया। लेकिन समाज ने उन्हें कमजोर समझा। लोग कहते— "बिना पिता का लड़का कैसे आगे बढ़ेगा?" रिश्तेदारों ने भी कन्नी काट ली। गाँव के कई लोग उसे दया भरी नजरों से देखते, पर कोई सहायता को आगे नहीं आया।

आदित्य के लिए पिता केवल एक अभिभावक नहीं, बल्कि उसका आदर्श थे। जब वह स्कूल जाता, तो दूसरे बच्चों के पिता उनके साथ चलते, उन्हें कंधे पर बिठाकर मेले ले जाते, स्कूल में उनकी फीस भरते। लेकिन आदित्य? वह हर महीने माँ की आँखों में चिंता देखता, जब स्कूल की फीस जमा करने की तारीख पास आती। माँ मजदूरी करतीं, दूसरों के खेतों में काम करतीं, ताकि घर का चूल्हा जलता रहे।

पिता की छाया के बिना संघर्ष

गाँव के बच्चे खेलते, हँसते, अपने पिता के साथ शाम को नदी किनारे घूमने जाते, और आदित्य किताबों में सिर झुकाए खुद से लड़ता। वह जानता था कि यदि उसने हिम्मत हारी, तो उसकी माँ का संघर्ष व्यर्थ हो जाएगा। उसने खुद को शिक्षा के पथ पर आगे बढ़ाने का निश्चय किया।

लेकिन समाज की मानसिकता उसे हर कदम पर याद दिलाती कि वह "पिता-विहीन" है। जब वह स्कूल में प्रथम आता, तो शिक्षक गर्व से कहते— "देखो, बिना पिता का बच्चा होकर भी कितना अच्छा कर रहा है!" यह वाक्य उसकी प्रशंसा से अधिक, उसकी कमी का बोध कराता। क्या पिता के बिना इंसान अधूरा होता है? क्या मेहनत और संघर्ष की कोई कीमत नहीं?

संघर्ष की लौ और आत्मनिर्भरता का संकल्प

आदित्य ने ठान लिया कि वह अपनी पहचान खुद बनाएगा। वह गाँव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा, ताकि अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल सके। उसकी माँ को भी अब कम काम करना पड़ता। धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी।

वर्षों बाद, जब आदित्य अपनी मेहनत से उच्च शिक्षा प्राप्त कर एक न्यायाधीश बना, तो उसी समाज ने जिसने उसे "पिता-विहीन" कहकर कमजोर समझा था, तालियाँ बजाईं। लेकिन आदित्य जानता था, यह सफलता केवल उसकी नहीं, बल्कि उन सभी बच्चों की थी, जो बिना पिता के भी अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।



आदित्य की कहानी उन लाखों बच्चों की कहानी है, जो पिता-विहीन होने के कारण समाज में उपेक्षा का शिकार होते हैं। लेकिन यह कहानी यह भी बताती है कि संघर्ष और आत्मविश्वास के बल पर कोई भी व्यक्ति अपनी तकदीर बदल सकता है। पिता-विहीन होना अभिशाप नहीं, बल्कि एक परीक्षा है, जिसे धैर्य और परिश्रम से पार किया जा सकता है।

आज जब आदित्य अपने गाँव लौटता है, तो लोग उसे सम्मान से देखते हैं। अब कोई नहीं कहता कि वह "पिता-विहीन" है, क्योंकि उसने साबित कर दिया कि सच्ची पहचान खून के रिश्तों से नहीं, बल्कि अपने कर्मों से बनती है।

पिता-विहीन बच्चों के प्रति समाज का कर्तव्य

संध्या का समय था। गाँव के चौपाल में कुछ वृद्धजन और युवा आपस में वार्तालाप कर रहे थे। तभी एक बालक, जिसका नाम आदित्य था, वहाँ से गुज़रा। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी गंभीरता और आँखों में अपार पीड़ा थी। गाँव के बुजुर्गों में से एक, पंडित रमाशंकर, उसकी ओर देखते ही बोले—

"बेटा, कहाँ जा रहे हो?"

आदित्य ठिठक गया, फिर संयमित स्वर में उत्तर दिया, "मंदिर जा रहा हूँ, बाबा। माँ कहती हैं कि ईश्वर ही हमारी सबसे बड़ी आशा हैं।"

पंडित जी ने उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और बोले, "बिलकुल ठीक कहा तुम्हारी माँ ने। पर तुम्हारे मन में जो व्यथा है, उसे क्यों नहीं बताते?"

आदित्य की आँखों में आँसू छलक आए। उसने कहा, "बाबा, पिता के बिना जीवन एक अधूरे गीत की तरह लगता है। समाज के लोग भी हमें दया की दृष्टि से देखते हैं, कभी-कभी उपेक्षा भी करते हैं। क्या पिता का साया हटते ही एक बालक का अस्तित्व अर्थहीन हो जाता है?"

चौपाल में सन्नाटा छा गया। गाँव के अन्य लोग भी यह वार्तालाप सुनने लगे। तभी गाँव के स्कूल के शिक्षक, आचार्य वसंत, बोले—

"नहीं बेटा, ऐसा सोचना भूल है। एक बालक केवल अपने माता-पिता की पहचान से नहीं जाना जाता, बल्कि अपने गुणों और कर्मों से पहचाना जाता है। यदि समाज पिता-विहीन बच्चों को हीन भावना से देखेगा, तो उनके आत्मबल को ठेस पहुँचेगी। हमें इन्हें दया नहीं, सम्मान और सहयोग देना चाहिए।"

गाँव के मुखिया, श्रीराम चौधरी, ने सहमति में सिर हिलाया और बोले, "समाज का कर्तव्य है कि ऐसे बच्चों को शिक्षा, संस्कार और आत्मनिर्भरता की राह दिखाए। हमें इन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करना चाहिए, न कि इनके अभावों को उनकी कमजोरी बनने देना चाहिए।"

पंडित रमाशंकर ने कहा, "यही सच्ची मानवता है। समाज को चाहिए कि वह पिता-विहीन बच्चों को अपनी संतान के समान देखे, उन्हें प्रेम और मार्गदर्शन दे, ताकि वे भी आत्मविश्वास से पूर्ण जीवन जी सकें।"

इस संवाद से आदित्य के हृदय में आशा का संचार हुआ। उसने सोचा कि यदि समाज की सोच बदल जाए, तो पिता-विहीन बालकों को भी अपने सपने पूरे करने का अवसर मिलेगा। वह निश्चय कर चुका था—अब वह अपनी मेहनत और संकल्प से अपनी पहचान बनाएगा, और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करेगा।


अधूरी छाँव

प्रथम अध्याय – एक आशा की किरण

सुबह की हल्की सुनहरी किरणें खिड़की से छनकर कमरे में प्रवेश कर रही थीं। चिड़ियों की चहचहाहट के बीच आदित्य की आंखें खुलीं। वह चौदह वर्षीय बालक था, लेकिन उसके चेहरे पर समय से पहले ही गंभीरता और जिम्मेदारियों की छाया दिखती थी। जीवन की कठोर सच्चाइयों ने उसके बचपन को वक्त से पहले ही परिपक्व बना दिया था।

आदित्य की माँ, सरला, रसोई में रोटी बेल रही थीं। उनकी आँखों में एक गहरी उदासी थी, परंतु उनके होंठों पर हमेशा की तरह अपने बेटे के लिए एक मधुर मुस्कान थी। पति के जाने के बाद से ही सरला ने अपने आंसुओं को अपने तक सीमित रखा था, ताकि आदित्य पर कोई दुख की छाया न पड़े।

"बेटा, जल्दी उठ जाओ। तुम्हारी पढ़ाई का समय हो गया," सरला ने हल्की आवाज में कहा।

"जी माँ," आदित्य ने तुरंत जवाब दिया और जल्दी से अपना बिस्तर समेटने लगा।

सरला चाहती थीं कि उनका बेटा पढ़-लिखकर एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त करे। लेकिन कठिन परिस्थितियों ने उनके सपनों की राह को काँटों से भर दिया था। पति के गुजर जाने के बाद, अकेली माँ ने समाज की कई विडंबनाओं का सामना किया। लोगों की सहानुभूति के पीछे छिपे व्यंग्य, रिश्तेदारों की बेरुखी और आर्थिक तंगी, ये सभी उसके जीवन का हिस्सा बन चुके थे।

द्वितीय अध्याय – संघर्ष की राह

आदित्य पढ़ने में मेधावी था, लेकिन गरीबी उसकी पढ़ाई के लिए एक बड़ी बाधा थी। स्कूल की फीस, किताबों का खर्च और जीवनयापन की अन्य जरूरतें – ये सब सरला के लिए किसी पहाड़ से कम नहीं थे।

हर दिन के संघर्ष के बावजूद, सरला ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दूसरों के घरों में सिलाई-कढ़ाई का काम शुरू किया। वह दिनभर काम करतीं और रात में आदित्य की पढ़ाई में मदद करतीं।

एक दिन स्कूल में शिक्षक ने आदित्य से पूछा, "बेटा, तुम्हारा लक्ष्य क्या है?"

आदित्य ने बिना हिचकिचाए कहा, "मैं एक शिक्षक बनना चाहता हूँ, ताकि हर गरीब बच्चों को शिक्षा  का अवसर प्राप्त हो सके।"

शिक्षक उसकी बात सुनकर प्रसन्न हुए, लेकिन कुछ सहपाठी हँसने लगे।

"तू? एक गरीब लड़का? शिक्षक बनेगा?" एक लड़के ने व्यंग्य से कहा।

आदित्य ने कुछ नहीं कहा। उसने बस माँ की वह झलक याद की, जब उन्होंने अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश की थी। उसी क्षण उसने ठान लिया कि वह अपनी माँ के संघर्ष को व्यर्थ नहीं जाने देगा।
एक नई सुबह

समय बीतता गया। सरला की मेहनत और आदित्य की लगन रंग लाने लगी। आदित्य ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर ली, जिससे उसकी उच्च शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हुआ।

जब वह वह अच्छे  शिक्षक के साथ एक अच्छे संतान होने का निर्वाहन किया तथाअपनी माँ के पास आया, तो उनकी आँखों में गर्व के आँसू थे।

"माँ, अब तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।"

सरला ने उसका हाथ पकड़ा और कहा, "तू ही तो मेरी ताकत था, बेटा। हमने एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ा, इसलिए जीत हमारी हुई।"

उस दिन सूरज की किरणें पहले से कहीं अधिक उज्ज्वल थीं, क्योंकि अब आदित्य और सरला के जीवन में एक नई सुबह आ चुकी थी।