संपूर्णा अभी तक घर क्यों नहीं पहुंची थी?
बाबू नेकचंद ने मैंटलपीस को छठी बार उठा कर देखा–घड़ी की सुइयां अढ़ाई बजाने जा रहीं थीं।
आंधी -पानी के कारण संपूर्णा को कभी देर हुई भी थी तो हद से हद पौने दो के सवा दो बजे बज गए थे,मगर इस तरह अढ़ाई तो कभी न बजे थे।
घर में दो बहुएं थीं।तीन पोते थे।एक पोती थी। मगर बिना किसी से कुछ कहे बाबू नेकचंद ने अपनी कमीज़ के साथ अपनी पतलून पहनी-– घर पर वह पाजामे-कुर्ते में रहा करते—और छाते के संंग घर से बाहर निकल लिए।
छाता दुर्बल और पुराना था और आकाश का मेघ- विस्फोट विकट तथा बृहत।
“ रिक्शा चाहिए? बाबू जी?”
“ नहीं,” बाबू नेकचंद ने सिर हिलाया और सड़क पर आगे कदम बढ़ाने लगे, “ कहां मुझे कोई मील से दूर जाना है…”
रिक्शे से संपूर्णा का स्कूल एक मील पड़ता । जभी उन्हें ध्यान आया, वह बात पुराने लंदन वाले मील की रही थी जब फ़ुट बड़े थे और मील की बराबरी करते पांच हज़ार कदम। कहा जाता था तब मील में 280 फ़ुट जुड़े थे । मगर 1593 में जब फ़ुट की लंबाई छोटी कर दी गयी थी तो मील के आठवें अंश‐– फ़र्लाग– में 625 फ़ुट की बजाय 660 फ़ुट माने जाने लगे थे।
स्कूल से घर और घर से स्कूल सम्पूर्णा हमेशा पैदल ही आती- जाती— डेढ़ फ़र्लाग तो ऊंचे पुल की चढ़ाई वाली सड़क ही थी जहां सभी रिक्शे वाले अपनी सवारी को रिक्शे से उतार दिया करते। हां,ऐसे आंधी - पानी के समय रिक्शे की सवारियां ज़रूर बैठी रह सकतीं थीं : तय किए जा चुके भाड़े में पुल की चढ़ाई हमेशा शामिल होती थी। बाकी बचे रास्ते के दो फ़र्लाग उस ऊंचे पुल के अगले सिरे के कोने में बनी सीढ़ियां घटा देतीं । वे सीढ़ियां एक गली में उतरतीं थीं जिस का खुला भाग सम्पूर्णा के स्कूल वाली सड़क पर जा खुलता।
सम्पूर्णा जब घर की सड़क पर बाबू नेकचंद को दिखाई न दी तो वह ऊंचे पुल के दांए हाथ जा खड़े हुए।
घर वाली सड़क की बांयी पटरी न भी इस्तेमाल की जाती तो भी चल जाता , मगर ऊंचे पुल की सड़क इतनी चौड़ी थी और उस की चढ़ाई एकदम खड़ी चट्टान सरीखी कि पुल चढ़ते- उतरते समय सड़क के नियमों का पालन करना ज़रूरी हो जाता। सम्पूर्णा इसीलिए ऊंचे पुल के दाहिने फ़ुटपाथ से घर लौटती थी।
ऊंचे पुल की पूरी चढ़ाई बाबू नेकचंद ने गलत हाथ ही पूरी की।
अपनी राह जाती एक अधेड़ महिला ने रुक कर उन्हें टोका भी, “ बाबूजी ,अपने बांए हाथ वाले फ़ुटपाथ पर चलिए। यहां सामने से आ रहे लोगों में से कहीं किसी की कुहनी से आप को चोट खा जाने का खतरा है।”
उन्हें लोभ हुआ वह उसे रोक कर पूछें ,” क्या तुम सम्पूर्णा को जानती हो? सम्पूर्णा मेरी बेटी है। लगभग तुम्हारी ही उम्र की है । एक स्कूल में पढ़ाती है। बत्तीस साल से वहीं पढ़ा रही है और घर लौटने में उसे आज जितनी देरी उसे आज तक नहीं हुई। मैं उसका पता लगाने निकला हूं। उस का पता लगा रहा हूं।”
लेकिन नहीं,बाबू नेकचंद का गला भरा रहा और अपने मुंह से वह एक शब्द भी न निकाल पाए।
सम्पूर्णा क्या उन्हें ऊंचे पुल की सड़क पर मिलेगी?
ऊंचे पुल की अपनी सड़क खासी लंबी थी– उस सड़क के ऐन नीचे रेल की चौदह लाइनें थीं,जिन की चौड़ाई पौन फ़र्लाग से कम क्या रही होगी।
ऊंचे पुल की सड़क भी खत्म हो गयी और बाबू नेकचंद का सम्पूर्णा का मेल वहां भी न हो पाया।
एक तीखी धुकधुकी के बीच वह ऊंचे पुल की सीढ़ियों तक जा पहुंचे।
मगर सीढ़ियों पर नज़र दौड़ाते ही वह ठिठक कर खड़े हो गए।
आकाश की टपकन सीढ़ियों से अपने जल-मार्ग का काम ले रही थी।सीढ़ियों पर लीक से भागता बारिश का पानी सीढ़ियों की टूट- फूट और दुरुपयोगिता को रह- रह कर उजागर करता जाता । कच्ची ईंट की बनी उन सीढ़ियों के खांचों में जो ढेर सा कीचड़ जमा रहा होगा ,वह अब ईंट के बराबर आ पहुंचने के कारण और मुश्किल पैदा कर रहा था। यह तय करना अब सुगम न था,सीढ़ियों का कौन सा भाग धंसान थी और कौन भाग समतल भूमि।
घबरा कर बाबू नेकचंद सीढ़ियों से दूर खिसक लिए। इस समय उन के वार- पार जाना किसी जोखिम से कम क्या रहता?
सम्पूर्णा ज़रूर लंबे रास्ते से लौट रही होगी।
मगर पुल की किस दिशा से?
दांए से?
अथवा बांए से?
कस्बापुर की पांच मुख्य सड़कें इसी ऊंचे पुल की टेक लिए थीं।पुल के बीचोबीच जो मुख्य सड़क थी ,उस की बांयीं बगल में तीन सड़कें थीं और दायीं बगल में दो।ये सीढियां उन दो सड़कों के ऐन बीच में रहीं और बाबू नेकचंद एकाएक निर्णय न ले पाए कि सम्पूर्णा इन दो सड़कों में से किस सड़क पर उन्हें मिल सकती थी?
अटकलबाज़ी की अवस्था में बाबू नेकचंद पुल की रेलिंग के पास जा खड़े हुए।
यह क्या?
जैसे ही उन की नज़र पुल के समांतर चल रही निचली सड़क पर पड़ी,उन्हें सामने की एक दुकान पर सम्पूर्णा खड़ी दिखाई दे गई।
क्या आंधी- पानी से बचने के लिए सम्पूर्णा उस दुकान पर शरण लेने गयी थी?
“ सम्पूर्णा…सम्पूर्णा….” पूरा दम लगा कर बाबू नेकचंद ने सम्पूर्णा को पुकारा।
चौंक कर सम्पूर्णा ने अपने आज़ू- बाज़ू देखा।
“सम्पूर्णा…सम्पूर्णा ….” वह फिर चिल्लाए,” इधर देखो….ऊपर पुल की तरफ़….”
इस बार मूसलाधार वर्षा को चीर कर सम्पूर्णा के कानों में बाबू नेकचंद की आवाज़ पहुंचने में सफ़ल रही।
“मैं आती हूं,बाबू जी,” सम्पूर्णा ने उन्हें वहीं पुल पर रुकने का इशारा किया।
“आप की बेटी है?” बाबू नेकचंद के पास एक रिक्शे वाला चला आया।
“हां,” बाबू नेकचंद ने रिक्शे वाले से स्नेहपूर्वक बात की।
सम्पूर्णा को सही- सलामत देख कर वह बहुत प्रसन्नचित्त थे।
“सीढ़ियों से बचो,” बाबू नेकचंद सीढ़ियों के ऊपर बनी पुल की रेलिंग पर चले आए, “ उधर से घूम कर आओ,सम्पूर्णा।”
सीढ़ियों की ओर बढ़ रही सम्पूर्णा ने तत्काल अपने कदम पुल के समानांतर चल रही नीचे वाली सड़क की दिशा में मोड़ लिए।
“ आप की बेटी आप के पास रहती है?” रिक्शे वाले ने पूछा।
“ हां।”
“ आप ने उसे ब्याहा नहीं?”
“ तुम पुल के नीचे से उसे यहां ले आओ,” बाबू नेकचंद ने रिक्शे वाले को वहां से भगा दिया,” फिर हम दोनों तुम्हारे साथ अपने घर तक चलेंगे। घबराओ नहीं,तुम्हें किराया बहुत मुनासिब मिलेगा।”
वह रिक्शे वाले से क्यों बताते जिस लड़के के संग उन्हों ने सम्पूर्णा की सगाई पक्की ठहरायी थी,उस के तपेदिक के बारे में पता लगने पर वह सम्पूर्णा के स्वास्थ्य की खातिर उस की शादी टालते चले गए थे। सगाई उन के परम मित्र के पुत्र के साथ तय हुई थी और सगाई को तोड़ना बाबू नेकचंद के लिए असंभव रहा था। फिर पांच साल बाद जब उस वर की मृत्यु हुई भी तो छोटी बुद्धि के लोगों ने तपेदिक के स्थान पर संपूर्णा को दोषी ठहरा उसे अपशकुनी के साथ जोड़ दिया था और सम्पूर्णा की शादी टलती चली गई थी।
“ तुम्हारे लिए नीचे रिक्शा भेजा है,सम्पूर्णा,” बाबू नेकचंद पुल की रेलिंग से फिर चिल्लाए।
“ अच्छा बाबू जी,” सम्पूर्णा उन के आदेशों का अनुपालन कैसी श्रद्धा और नमनशीलता से करती थी!
समय का एक हिसाब उन से ज़रूर गलत बैठा था किंतु उन की अंधभक्त सम्पूर्णा ने उन्हें सदैव असंदिग्ध समर्थन दिया था और जीवन निरापद होने से बच गया था।
स्नेही हर्ष की एक और हिलोर बाबू नेकचंद के ह्रदय से निकली और उस आंधी -पानी में भी उनकी बूढ़ी धमनियों में एक ताज़ी गर्मजोशी के कई- कई ज्वार एक साथ उतार गयी।