नीलम कुलश्रेष्ठ
पत्थर तो पत्थर होते हैं लेकिन किसी महान कलाकार की छैनी, हथौड़ी का संस्पर्श इन पर सुंदर आकृति उकेर कर इनके पत्थर हृदय में एक ऐसी सुरीली कविता उकेर देता है जो गुनगगुनाती सदी दर सदी की देहलीज़ लांघती प्रतिध्वनित होती रहती है, उनके हृदय में जो इन्हें देखने आते हैं । ऐसी ही स्थापत्य व मूर्ति की मिसाल है उड़ीसा के भुवनेश्वर में स्थित सूर्य मंदिर 'कोणार्क'.
ये सारे भारत की चेतना पर एक विशाल समय चक्र के प्रतीक के रूप में छाया हुआ है, जिसके साथ पर्यटक अपना फ़ोटो लेना नहीं भूलते।। भारत के प्राचीन भव्य स्थापत्य कला की पहचान जिसके परिसर में कदम रखते ही पर्यटक कलात्मक समुद्र में डूब ही जाते हैं। भवन की दीवारों पर उकेरी या बनाई स्त्री पुरुष की युग्म मूर्तियाँ उन्हें चकित कर देतीं हैं --उफ़ ! इतना सौंदर्य ! कैसे गढ़ीं होंगी ये मूर्तियां इतनी कुशलता से ?और क्या स्त्रियों के वस्त्रों, केश विन्यास, यहाँ तक कि उनकी ऊंची एड़ी की चप्पलों को देखकर चकित रह जाता है कि आदिकाल से फ़ैशन समय की कड़ी के रूप में अपने को दोहराता रहता है ?
अक्सर कोणार्क मंदिर को गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम की महत्वाकांक्षा का प्रतिरूप समझ पर्यटक चंद्रभागा नदी के तट पर बने इस महाभव्य मंदिर को सूर्य की अराधना का प्रतीक समझ कर यहाँ की कलात्मकता का आनंद लेकर ताउम्र इसे भूल नहीं पाते । राजा नृसिंहदेव ने इसे बहुत मनोयोग से अपार धन व्यवस्था करके बनवाया था। इसके प्रमुख वास्तुकार थे विशु महाराणा. इससे पहले वे इन्हीं राजा के लिए चार मंदिर और बना चुके थे जो इतने विशाल और बड़े नहीं थे।
कहते हैं जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।सूर्य की आराधना समझे जाने वाले व इसीलिये विश्व विख्यात मंदिर में इस भव्य मूर्तिकला के चरम सौंदय में डॉ .संजीव कुमार ने इसके तीन मंडपों, सात घोड़ों के सूर्य रथ, इन पत्थर की मूर्तियों के सुंदर कटावों, स्त्री देह की लय में ये खोज लिया –
'कहाँ शिलाखंडों में मिलता
इतना सुंदर जीवन
पूछो तो कोणार्क
सुनाता प्रेम की मधुमय गुंजन। '
पुस्तक को ये समर्पित पंक्तियाँ हैं .इससे पहले उन्होंने अपनी धर्मपत्नी डॉ. मनोरमा को भी इस खंड काव्य को समर्पित किया है।
पत्थरों की धड़कनों में बसी इस प्रेम कहानी के मौन करुण क्रंदन को संजीव जी ने अपनी कविता से प्राण दिए हैं। उनके अनुसार, ''कोणार्क पर हिंदी में एक उपन्यास व नाटक लिखा गया है लेकिन उड़िया में एक कविता तक नहीं लिखी गई। ''
कवि ने ये सच इस तरह व्यक्त किया है --
' कला, सौंदर्यबोध
और प्रेम भरी सुरुचि
जो अविष्कृत करती है
देह से आत्मा की यात्रा
और यात्रा का सोपान। '
मैं ये ऐसी पहली पुस्तक पढ़ रहीं हूँ जिसमें एक भव्य मंदिर की रग रग में बसे उन बारह सौ वास्तुकारों व कारीगरों की कला तो है ही लेकिन उस कटु सच को उजागर किया गया है कि किस तरह से एक राजा तानाशाह बनकर कला के नाम पर बारह सौ वास्तुकारों के जीवन से उन्हें उनके परिवार से अलग कर बारह वर्ष छीन लिए थे।
'यह बारह सौ शिल्पियों की
बारह वर्षों की
तप -साधना का
मूर्त परिणाम है। '
हर जन्म लेता इंसान एक साधारण जीव होता है जिसे जीवन की हर अदा को झेलना पड़ता है लेकिन नियति उंगली पकड़ के उसे ले चलती है, जो दर्द या बात कारीगरों के प्रमुख विशु महाराणा बयां करते हैं -
'मेरी सर्वोच्च कलायात्रा ने
मुझे बनाया एकाकी
एवं एकल व्यवहारकर्ता
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कि मैंने समर्पित कर दिया
अपना जीवन
कला के लिए। ''
ये खंड काव्य एक शोध की भाँति है व कवि मन की जिज्ञासा, जो स्त्री पुरुष सम्बन्धों के इतने रूप देखकर चकित है --
'कैसे प्यार में डूबी
सराबोर ज़िंदगियाँ
मनाती होंगी जीवन का उत्सव ?
यह सत्य होगा
या केवल कल्पनाओं का संगम। '
इसी शोध को आगे बढ़ाते हुये कवि मन ने गढ़ी है ये कथा अपने व वास्तुकार विशु महाराना के बीच कविता के माध्यम से संवाद रचकर। ये बहुत बड़ा सच है कि कोई भी कलाकार चरम कला की प्राप्ति तब तक नहीं पा सकता जब तक एक विपरीत लिंग की उतनी ही सशक्त प्रेरणा न हो। तभी कवि उस रूपसी को तलाशना चाहता है जो विशु के मन प्राणों में बसकर, हाथों में उतरकर कला बनकर, इन मूर्तियों में समा गई है---
' यह रथ मंदिर,
अपने भग्न स्वरुप में भी
लिख जाता है,
जीवन के प्रेम गीत। '
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'जो अब सूर्य मंदिर कम
और प्रेम का मंदिर
अधिक लगता है। '
या
'जैसे आँखों में उगते लाल डोरे
यह रति भाव
जो तुम्हारे मन से निकलकर
समाये हैं शिलाओं में। '
कवि की आकुलता इसी नायिका की तलाश है। इस सूर्य मंदिर की पृष्ठभूमि में छिपे इसी नए दृष्टिकोण को उजागर करने के लिए ये खंडकाव्य शब्द यात्रा करता चलता है।
विशु उन्हें बताते हैं कि किसी भी कलाकार की तरह मेरा जीवन की आपाधापी सभी भावनाओं, संघर्ष के बीच, अपनी प्रेयसी व जीवनसंगिनी से दूर रहकर कला में सौंदर्यबोध की तलाश कर प्रेम भरी सुरुचि के साथ कल्पना कर इन स्त्री पुरुष युगल मूर्तियों के माध्यम से मैंने देह से आत्मा तक की यात्रा कर इन्द्रीय मार्ग से अतिइंद्रीय धरातल तक पहुंचा |
ये यात्रा विशु को या सभी बारह सौ लोगों को कितनी महंगी पड़ी क्योंकि उन्हें अपनी पत्नी, बच्चे व परिवार से अलग इस परिसर में रहना पड़ा था लगभग कैदी जैसे । विशु तो अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर आये। दुनियां से काटकर राजा ने उन्हें इस तरह रक्खा था.कोई इस वास्तुकार की पीड़ा क्या समझ पायेगा जिसे बरसों तक पता ही नहीं चला उसकी बेटी हुई है या बेटा ? और जब पता चला तो -----
कवि कल्पना करते हैं कि विशु ने जो साथ अपनी संगिनी से पाया है। उसी कल्पना को महसूस कर, कुछ परिकल्पना कर पत्थरों में जीवंत किया था। इस अथक कारीगरी व मेहनत के बावजूद बीच जब मंदिर पूरा बन नहीं पा रहा था तो राजा ने फ़रमान ज़ारी कर दिया कि इस मंदिर को बारह वर्षों में पूरा करना होगा, दूसरी शर्त है कि किसी भी बाहरी व्यक्ति की सहायता नहीं ली जाएगी। कविता 39 में एक अटल सत्य संजीव जी ने लिखा है कि जीवन कितना कितना तो विशाल है, कोई अपना मन प्राण लगाकर कुछ रचता है तो वह जीवन के कुछ ही तो अनुच्छेद होते हैं। समूचा जीवन कहाँ किसी के हाथ आ पाया है ?
'अतीन्द्रीय धरातल का स्पर्श ही
प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।'
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'इसी से संगिनी से दूर
शिल्प में
वही तृषा
वही परिकल्पना बनकर छा गई
मूर्तियों के रूप में
जैसे संगिनी पास आ गई।'
इस खंड काव्य की ख़ूबसूरती है हिन्दू धर्म के जीवन सिद्धांतों का विवेचन, आदि संस्कृत ग्रंथों की बात, नायिका भेद [ जिनको याद रखना या उच्चारण भी मेरे लिए कठिन है ] की जानकारी की बात। जब कोई नायिका है तो उसके सोलह शृंगार का वर्णन भी होगा। इस सोलह श्रृंगार में क्या क्या आता है -कवि का स्त्री के नख से शिख तक के शृंगार का ये वृहद ज्ञान अचरज में डाल देता है।
हम सब वात्सायन के रचित शास्त्र से परिचित हैं लेकिन इसी शास्त्र के आदि रचनाकार प्रजापति ने इसे रचा था एक लाख अध्यायों में, जिसे महादेव की इच्छा से 'नंदी 'ने उसे सहस्त्र अध्यायों में संक्षिप्त किया और जिसे उद्दालक मुनि के पुत्र श्वेतकेतु ने पांच सौ अध्यायों में, फिर पांचाल बा ने सात अधिकरणों में सम्प्पादित किया। फिर ये और भी विद्वानों द्वारा संशोधित होता हुआ हम तक पहुँच वात्सायन के दिए नवीनतम रूप में। ये महत्वपूर्ण जानकारी इस पुस्तक की उपलब्धि है. ये सब बातें संजीव जी के वृहद जिज्ञासा, ज्ञान व विद्वता को प्रगट करतीं हैं और साथ ही बेहद चौंका देतीं हैं कि पेशे से अधिवक्ता व प्रकाशक किस तरह गहन अध्ययन का समय निकाल पाते होंगे ? ।
कोणार्क एक शोध ग्रन्थ की तरह सूर्य मंदिर ही नहीं है बल्कि इसकी और भी कलात्मक, दुखद कथाएं हैं .वे लिखते हैं --
'एकांगी ज्ञान से
इस शिल्प को
सत्यता की ओर
ले जाने की सम्भावना नहीं होती। '
इसमें अंतर्निहित अनेक संभावनाओं की तलाश है ये खंड काव्य।
कवि का अचरज है कि
'विपरीत लिंगी
नायिका के
आंतरिक भावों को कैसे लाये
मूर्तियों के मुख पर ? '
विशु के ख़ूबसूरत उत्तर को जानने के लिए ये खंड काव्य पढ़ना ही होगा। विशु कहते भी हैं, ''कोणार्क मेरी आत्मा है। '
कल्पना कीजिये की अपने परिवार से दूर एकांत में कला साधना क्या होती है ? जब विशु चंद्रभागा नदी के पानी को छूकर तसल्ली कर लेते होंगे कि उनकी पत्नी ने भी इसे छुआ होगा। इस भव्य मंदिर की परिकल्पना, जिसमें विशाल सूर्य रथ में सात घोड़े जुते हुए हैं, को साकार करने में उनका निजी सब कुछ लुट जाता है ।
अपनी पत्नी से बारह वर्ष दूर रहे विशु की ये पीड़ा दिल चीर जाती है। वे अपने सम्बन्ध को सूर्य कुंती के बीच की दूरियों का उदाहरण देकर व्यक्त करना चाहते हैं।
'मेरी संगिनी और मैं
जैसे कोणार्क की विशाल मूर्तियाँ। '
कोई कला कैसे चरम कलात्मक पराकाष्ठा तक पहुँचती है जब कलाकर अपनी धुन में दिन को दिन, रात को रात न समझे तब कोई कल्पना से परे या अकल्पनीय कृति जैसे कोणार्क जन्म लेता है। वर्ग व वृत्त ज्यामिती पर आधारित
यहां एक शाश्वत प्रश्न किया है जो किसी न किसी रूप में हर समय का सत्य है कि अकाल और अत्याचार के बीच यहाँ शिल्प का केंद्र, यौवन और विलास।बारह सौ कारीगरों की ज़मीन छिन गई, पिता के होते हुए इनके बच्चे अनाथ की तरह जी रहे हैं, माँयें जैसे तैसे परवरिश करती रहीं । कुछ स्त्रियाँ शायद विशु की पत्नी भी किसी राजपुरुष द्वारा दासी बना ली गई थीं ।
बारह वर्ष पूरे होने वाले थे लेकिन ये मंदिर पूरा नहीं हो रहा था। वास्तुकार भय से काँप रहे थे कि मौत निकट है क्योंकि राजा की कड़ी शर्त थी कि बाहरी सहायता नहीं ली जाएगी। तभी एक चमत्कार होता है, कोई प्रगट होता है। ये मंदिर किस तरह विशु से एक और मर्मान्तक बलिदान लेकर पूरा होता है, ये इस खण्ड काव्य को पढ़कर ही पता लगेगा।
भारत में असंख्य प्राचीन भव्य कलात्मक इमारतों की भरमार है जो हमें चकित करतीं हैं कि ये सैकड़ों साल से मौसम की मार झेलती किस तरह आज भी खड़ीं हैं। इन्हें बनवाने वाले राजा महाराजाओं, बादशाहों नवाबों के नाम तो पता लग जाते हैं लेकिन हम सोचते रह जाते हैं कौन होंगे वे वास्तुकार कलाकार जिन की वास्तुकला के कारण हम सैकड़ों वर्षों बाद भी सुंदर अनुभूतियों से सराबोर हो रहे हैं।
ये पुस्तक एक दृष्टि देती है, रास्ता दिखाती है कि अन्य लेखक, आने वाली पीढ़ी और शोध करें पुस्तकें लिखकर दस्तावेज बनायें जिससे पता लगे भारत की इन भव्य इमारतों की नींव में कितने मूक क्रंदन छिपे हुए हैं।
मैं स्वयं किसी कलाकार के मुसीबतों की परवाह न करके, जीवन को जोखिम में डालकर घने जंगल में भयानक जानवरों के बीच उन्नीसवीं सदी के मेजर रॉबर्ट गिल जिन्होंने विश्व में सबसे पहले अजंता केव्स की पेंटिंग्स की अनुकृतियां बनाईं थीं और आदिवासी लड़की पारू ने प्राकृतिक रंग बनाकर सहायता की थी। ये कला साधना अपने उपन्यास 'पारू के लिये काला गुलाब ' में लिख चुकी हूं. मेजर गिल ने बदले में अपना सब कुछ खो दिया था इसलिए मैं शायद डॉ. संजीव जी की उन अनुभूतियों को कुछ समझ पा रहीं हूँ।
उपन्यास में कथा कहना कुछ तो आसान होता ही है लेकिन खंड काव्य में तनिक भी काव्य सौंदर्य खोये बिना कथा कहते चलना जिसमें भारत का प्राचीन ज्ञान भी समाहित हो, आसान नहीं होता। इससे रचयिता की निष्ठा, एकाग्र दृष्टि, प्रबल ज्ञानबोध, गहन गम्भीर शोध की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर हो रही है। मैं कवयित्री नहीं हूँ, न ही कोई कविता विशेषज्ञ। एक आम पाठिका की तरह लिख रहीं हूँ मुझे ये अतुकांत कविता में लिखा खंड काव्य कहीं से भी कविता अनुशासन से ज़रा भी भटका प्रतीक नहीं हुआ। हो सकता है ये मेरी अपनी ग़लतफ़हमी हो। डॉ .संजीव कुमार जी बहुत बधाई व अभिनन्दन के पात्र हैं।
मैं आगरा की हूँ इसलिए मेरे मन में एक लालच व आशा अंकुरित हो रही हैं कभी कोई ईरान जाकर उन ईरानी कारीगरों पर शोध कर कुछ रचे जिनके हाथ बादशाह शहंशाह ने ताजमहल बनवाने के बाद काट दिए थे।
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पुस्तक -'कोणार्क : एक प्रेम कथा' [खंड काव्य]
लेखक -डॉ संजीव कुमार
प्रकाशक -इंडिया नेटबुक्स, देल्ही
समीक्षक --नीलम कुलश्रेष्ठ, मो न. -9925534694, e-mail—kneeli@rediffmail.com
मूल्य ---175 रु [पेपर बैक], 225 रु [हार्ड बाउंड]