"प्रतापगढ़ न्यूज " मूलत: एक सस्पेंस उपन्यास है |इसका कथानक पेशे से एक वकील सत्येन्दु और एक समाचार पत्र के मालिक नासिर और उसकी पत्नी उजमा के इर्द गिर्द घूमती रहती है |सत्येन्दु जो तेज तर्रार वकील हैं उनके विश्वसनीय इंफार्मर हैं हरहर प्रतापगढ़ी |उजमा अपने पति को धोखा देकर किसी और से शादी करना चाहती है |उसी दौरान एक क्लब में उजमा और उसके प्रेमी की उपस्थिति में एक कत्ल हो जाता है जिसमें पुलिस उजमा को गवाह बनाना चाहती थी और अगर पुलिस उसको गवाह बनाती तो इस बात का पता नासिर को लग जाता |इसलिए उजमा सत्येन्दु को यह जिम्मा सौंपती है कि उसका नाम ना आने पाए । सत्येन्दु अब प्रतापगढ़ न्यूज के असली मालिक नासिर तक पहुंचता है और उसे उस रात के मर्डर के समाचार को को दबाने के लिए कहता है |जिस रात सत्येन्दु नासिर के घर जाता है उसी रात नासिर का मर्डर हो जाता है |उजमा को लगता है कि सत्येन्दु नेमर्डर कर दिया है |सत्येन्दु को लगता है कि अपने पति नासिर की हत्या उजमाने किया है | ऐसे में इसी घटनाक्रम के दौरान उन्हीं के घर में रह रहा एक और पात्र करीम हाजिर होता है जिसके नाम नासिर वसीयत करना चाहता था |अब उपन्यास में परत दर परतसस्पेंस बढ़ता चला जाता है |अंत में उजमा की जगह करीम ही नासिर का असलीहत्यारा निकलता है |कुल मिलाकर "प्रतापगढ़ न्यूज " उपन्यास अपने सस्पेंस और थ्रिल को अंत तककायम रखने में सफल है |उपन्यास के पात्र सत्येन्दु, अपराजिता, उजमा खान, हरीश भरद्वाज, भास्कर पाण्डेय, हरहर प्रतापगढ़ी, पुलिस अधिकारी दिलीप, नासिर, खानसामा डिग्गी, करीम खान, वैदेही आस पास के प्रतीत होते हैं।श्री सत्येन्दु ओझा की चमत्कारी लेखन शैली को मैं सलाम करता हूं !
ओझा जी उम्र में मुझसे छोटे किन्तु साहित्य, लेखन और पत्रकारिता में मुझसे बहुत ज्यादा विस्तृत और विशाल हैं। हिंदी और अंग्रेजी पर उनकी पकड़ भरपूर है। सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी हैं। पिछले दिनों जब वे लखनऊ आए थे तो उनसे मेरी स्नेहमय मुलाकात हुई थी। मैने उनको अपनी लिखी कुछ पुस्तकें भेंट की थीं और उन्होंने मुझे यह पुस्तक पढ़ने और समीक्षा करने के लिए दी थी। जैसा कि अक्सर मेरे साथ होता है मैं चाह कर भी इस पुस्तक को समय से पढ़ नहीं पाया और जब मैने इसे अपने गोरखपुर प्रवास में पढ़ा तो 10दिसंबर को इसकी समीक्षा भी लिख डाली थी। इसके बाद भी लगभग एक महीने हो गए हैं और अब इस समीक्षा को प्रकाशित कर रहा हूं। बढ़ रही उम्र में यह अनियमितता लाजमी है। उधर उससे उलट ओझा जी ने मेरी आत्मकथा के पहले खंड "आमी से गोमती तक"की नीर - क्षीर - विवेकी समीक्षा बहुत पहले कर दी। उस पुस्तक की त्रुटियों विशेषकर प्रूफ संबंधी दोषों की ओर उन्होंने मेरा ध्यान भी दिलाया था। प्रूफ रीडिंग एक मुश्किल काम है। कई बार सुधार के बावजूद पुस्तक छपने के बाद कई त्रुटियां सामने आ ही जाया करती हैं। प्रतापगढ़ न्यूज उपन्यास भी इसका अपवाद नहीं है। इसमें भी प्रूफ संबंधी कुछ त्रुटियां रह गई हैं। बहरहाल सुधेंदु ओझा की लिखी अन्य पुस्तकों को पढ़ने की इच्छा बलवती हो चली है। साहित्य की पहुंच असली पाठकों तक हो यही उसकी सफलता है, रॉयल्टी कमा लेना नहीं।