A bloody game has been going on for years in memory of the lovers in Hindi Love Stories by puja books and stories PDF | प्रेमी जोड़े की याद में सालों से चल रहा खूनी खेल

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प्रेमी जोड़े की याद में सालों से चल रहा खूनी खेल

उस दिन मेरा भाई गोटमार मेला घूमने गया था। जब नदी के दूसरी तरफ से लोगों ने पत्थर फेंकने शुरू किए तो एक पत्थर भाई के पैर में लगा। वो नदी में गिर गया। जान बचाने के लिए वो मदद मांगता रहा, लेकिन लोग तब भी लगातार पत्थर बरसाते रहे।

भाई को तैरना आता था, लेकिन नदी का बहाव तेज था। इसलिए वो निकल नहीं पाया। छटपटाता रहा और उसकी मौत हो गई। उसका एक साल का बेटा है। जिसके सिर से पिता का साया छिन गया। इस गोटमार प्रथा ने मेरा भाई छीन लिया।

इतना कहते ही पांढुर्णा के विष्णु लेंडे खुद को रोक नहीं पाए और रोने लगे। कुछ देर बाद आंसू पोंछकर और खुद को संभालते हुए बोले- गोटमार मेला खत्म हो जाना चाहिए। कुछ उपद्रवी लोग चाहते हैं कि ये मेला होता रहे, लेकिन इसमें जान को खतरा है। इसलिए इस मेले का नामोनिशान मिटा देना चाहिए। गोटमार मेले में पत्थरबाजी के लिए प्रशासन और नगरपालिका वाले  पत्थर डालते हैं।

ब्लैकबोर्ड में कहानी इस बार मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 265 किलोमीटर दूर और महाराष्ट्र बॉर्डर से सटे गांव पांढुर्णा की, जहां गोटमार मेले में अब तक कई लोगों की मौत हो चुकी है।

छिंदवाड़ा जिले का ये गांव किसी भी आम गांव की तरह बेहद शांत है। यहां के लोग किसान हैं जो संतरा, कपास और तिलहन की खेती करते हैं। महाराष्ट्र के बॉर्डर पर होने की वजह से यहां के ज्यादातर लोग मराठी बोलते हैं। ये साधारण सा दिखने वाला गांव सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है। वजह है यहां पर खेला जाने वाला पत्थरबाजी का खूनी खेल जिसको नाम दिया गया है गोटमार।


लगभग 400 साल पुरानी ये परंपरा पांढुर्णा के जाम नदी पर हर साल भाद्र पक्ष की अमावस्या की तिथि को पोला पर्व के अगले दिन होती है।

पोला पर्व में बैलों की पूजा होती है उसके दूसरे दिन पांढुर्णा और सांवर गांव के लोग एक दूसरे पर दिनभर पत्थर बरसाते हैं। जिसमें सैकड़ों लोग घायल हो जाते हैं और कुछ की जान भी चली जाती है। आखिर क्यों चोट खाकर भी लोग ये खेल खेलते हैं, इसका जवाब जानने मैं पूनम कौशल पहुंची हूं पांढुर्णा गांव।

पांढुर्णा पहुंचने के बाद मैं सबसे पहले जाम नदी के पास गई। जहां पत्थरबाजी का खूनी खेल खेला जाता है। मैं जाम नदी को देखकर हैरान थी कि कोई कैसे इस नदी में डूब कर मर सकता है, जिसमें पानी ही नहीं है। वो नदी अब नाला बन कर रह गई है।

इसी नदी के पास मेरी मुलाकात 63 साल के अनिल थांबारे से हुई। चेहरे पर गहरे निशान थे। मैंने इशारे में पूछा तो बोले, 'मेरे सारे दांत नकली हैं, मेरा जबड़ा टूट गया। अब जबड़ा स्टील प्लेटेड लगा है। पुलिस के कहने पर गोटमार रोकने गया था, लोगों ने मुझे भी पत्थर मारे।'

मैंने पूछा इसी नदी के पास गोटमार मेला लगता है?

अनिल बोले, 'नदी में लबालब पानी भरा रहता है जब मेला लगता है। कई बार तो नदी का पानी पुल के ऊपर से बहता है। किसी व्यक्ति को यदि चोट लग जाए और वो नदी में गिर जाए तो भी लोग उस पर पत्थर फेंकना बंद नहीं करते। लोग उसे नदी से निकलने या निकालने का मौका भी नहीं देते। तब तक पत्थर मारते हैं जब तक वो मर नहीं जाता।

अनिल कहते हैं, 'इस मेले में कई लोगों की जान गई है। मेरे बड़े पापा की मौत भी गोटमार में ही हुई थी। इसी नदी से मैंने चार डूबते लोगों की जान बचाई जिसके लिए मुझे राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। पहले के समय लोग नदी के चारों ओर एक साथ बैठकर सांकेतिक रूप से एक दूसरे को पत्थर मारते थे। इसमें किसी का नुकसान नहीं होता था और समय पर इसका समापन कर देते थे। गुजरते वक्त के साथ इस मेले का रूप भी बदला और अब तो लोग किसी के मरने पर भी उसे पत्थर मारना बंद नहीं करते हैं।'

" अगर कोई गिर जाता है तो उसे उठाने की बजाय हमला तेज कर देते हैं। लोग अब बदले की भावना से गोटमार खेलते हैं।

अनिल कहते हैं, 'गोटमार का आयोजन बंद होना चाहिए। इसमें अंध भक्ति है, सिर्फ पूजा पाठ करके भी मेले को मनाया जा सकता है। लोगों को नशा करके इस मेले में खिलाया जा रहा है। पिछले साल मेरे एक पड़ोसी की मौत हो गई, जिसका एक साल का बेटा है। उसे क्या मिला। यहां के लोग सोचते हैं कि 364 दिन पुलिस के लेकिन एक दिन हमारा होता है। गोटमार के दिन पुलिस भी नदी के पास नहीं आती है।'

अनिल बताते हैं कि, 'गोटमार के दिन पांढुर्णा को पुलिस छावनी में बदल देते हैं, लेकिन गोटमार मेला जहां होता है वहां पुलिस नहीं आती। नेता वोट बैंक के लिए लोगों को गोटमार खेलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन खुद कभी नहीं आते।'

इस मेले को लेकर कई कहानियां है जिनमें एक प्रेमी जोड़े की कहानी लोगों से सुनने को मिलती है। गांव के डॉ. शंकर इसे किवदंती मानते हैं। फिर भी वो बताते हैं, 'किसी समय में सांवर गांव की लड़की को पांढुर्णा गांव के लड़के से प्रेम हो गया था। घरवाले उनकी शादी के लिए राजी नहीं थे। बहुत ही मुश्किल से उनकी शादी हुई। विदाई के बाद बारात जाम नदी के पास पहुंची। तभी दोनों पक्षों के बीच किसी बात पर विवाद हो गया। दोनों एक-दूसरे पर पत्थर फेंकने लगे। दूल्हा-दुल्हन नदी में खड़े थे, दोनों की मौत हो जाती है। किसी तरह दोनों पक्ष में समझौता हुआ और दूल्हा-दुल्हन को मां चंडी के मंदिर लाया गया।'

डॉ. शंकर कहते हैं कि कुछ और कहानियां भी हैं जैसे- 'दूल्हा-दुल्हन दोनों सकुशल पांढुर्णा आ गए थे। कुछ लोग कहते हैं कि अमावस्या की रात लड़का-लड़की को भगाकर लाया। तभी से इस घटना को यादगार बनाने के लिए गोटमार हर साल होता है।

अनिल थांबारे गोटमार के इतिहास पर बताते हैं कि, 'पहले के समय में गोंड और जाट राजा के बीच इसी जगह पर एक खेल का आयोजन होता था। यहां एक बकरे को बांध दिया जाता था और बकरे को उठाकर ले जाने वाला पक्ष जीत जाता था। इसी में दोनों पक्ष में पत्थरबाजी होती थी इसीलिए इसका नाम गोटमार पड़ा।'

अब मैं गांव के चंडी माता मंदिर पहुंची, जहां से मेले की शुरुआत हुई। इस मंदिर में स्थानीय लोगों का अटूट विश्वास है। मंदिर के अंदर गई तो मेरी मुलाकात 38 साल के मनोज गुर्वे से हुई जो पिछले 24 साल से इस मंदिर से जुड़े हैं।
मनोज बताते हैं, 'गोटमार मेले में घायल होने वाले लोग मंदिर में आकर हवन की भभूत लगाते हैं। इससे उन्हें आराम मिलता है। माता के पास झंडा फहराने के बाद गोटमार शुरू होता है और मंदिर में झंडा वापस लाने के बाद मेले का समापन होता है। इस मेले में हर साल 300-350 लोग घायल होते हैं। कुछ को गंभीर चोट भी लगती है। मुझे भी इस बार चोट लगी थी, पांच टांके भी लगे, लेकिन भभूत लगाने से जल्दी ठीक हो गया। घायल लोग अक्सर नशे में होते हैं। लोगों को जागरूक करके इस मेले की परंपरा को बरकरार रखते हुए इसका स्वरुप बदलना चाहिए।

मनोज से बात हो ही रही थी इसी बीच उनकी मां ललिता बोल पड़ीं, 'जब बेटे को मुंह पर चोट लगी तो कई डॉक्टरों ने इलाज करने से मना कर दिया। नागपुर लेकर गए तो डॉक्टर ने ऑपरेशन बता दिया। जैसे ही चेहरे से पट्टी हटाई, घाव ठीक हो चुका था। सभी ये देखकर हैरान थे। मैं समझ गई कि ये चंडी मां का चमत्कार है, लेकिन ये प्रथा बंद होनी चाहिए। लोग शराब पीकर एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं जो गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए।

मंदिर से निकलकर मैं सांवर गांव के लोगों से बात करने पहुंची। मेरी मुलाकात प्रभाकर दौलत से हुई जो 1995 से गोटमार खेल रहे हैं।

प्रभाकर बताते हैं कि, 'पत्थरबाजी के दौरान उनके जबड़े में चोट लगी और दांत भी टूट गए, लेकिन इसमें भाग लेना हमारी मजबूरी है क्योंकि सांवर गांव में तीन वार्ड है और दूसरे गांव में 30 हैं। ऐसे में गांव का साथ देने और खुद को बचाने के लिए हमें खेलना पड़ता है। हमारे मोहल्ले से 2 लोगों की मौत भी हो चुकी है।'
प्रभाकर कहते हैं कि पहले तो 1500-1600 लोग इसमें घायल हो जाते थे। अब ये संख्या घटी है। हमारा पूरा मोहल्ला चाहता है कि गोटमार मेला बंद हो।

दोनों गांव के रिश्ते के बारे में जब मैंने उनसे पूछा तो बोले, 'दोनों गांव में कोई दुश्मनी नहीं है। साल भर आना-जाना होता है बस एक दिन का ही खेल है। वो झंडा लेकर जाना चाहते हैं और हम गाड़ते हैं। गोटमार मेले के अगले दिन ही दोनों गांव के रिश्ते पहले जैसे हो जाते हैं। अब हम लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे ये खेलें। कुछ लोग तो रस्सी में बांधकर पत्थर फेंकते हैं जो बहुत दूर तक जाता है। इसे गोपन कहते हैं। इससे बहुत तेज चोट लगती है।'

प्रभाकर इस मेले की ऐतिहासिक मान्यता की दूसरी कहानी बताते हैं कि, 'चंडी माता आदिवासियों की कुलदेवी हैं। यहां पर पहले आदमी की बली चढ़ती थी, लेकिन बली की परंपरा को रोकने के लिए पत्थरबाजी शुरू हुई और ये तब से ऐसे ही चला आ रहा है।'

अब मैं पांढुर्णा के विष्णु लेंडे के घर पहुंची, जिनके भाई की पिछले साल मौत हो गई थी।

विष्णु लेंडे बताते हैं कि, 'मेले में उसे पत्थर लगा और वो नदी में गिर गया। कोई भी उसे बचाने नहीं आया।' सिसकते हुए वो कहते हैं कि 'आम लोगों की तरह वो भी मेले में घूमने गया था, लेकिन झंडे के पास ही पत्थर लगने से स्पॉट पर उसकी मौत हो गई। यहीं पास में गंगाधर का घर है, जिसकी एक आंख इस मेले की वजह से चली गई।'

विष्णु से बात करने के बाद मैं गंगाधर चौधरी के घर पहुंची।

अपनी आंखों की तरफ इशारा करते हुए गंगाधर कहते हैं कि, 'गोटमार खेलते हुए एक पत्थर मेरी आंख पर लगा। वो आंख निकालनी पड़ी। अब तो दूसरी आंख से भी कम दिखता है। इस कारण मैं कुछ काम नहीं कर पाता। बच्चों की शादी हो चुकी है। खुद का पेट पालने के लिए मजदूरी कर लेता हूं।'

गंगाधर बताते हैं कि 'पहले गोटमार मेले में मेरे दांत टूट गए थे, लेकिन दूसरी बार मेरी आंख फूट गई।'

मैंने पूछा कि जब पहली बार में दांत टूट गए तो दूसरी बार आप गोटमार में क्यों गए?

" शराब के नशे में था और चला गया। नशे में कुछ समझ कहां आता है। आजकल के लड़के भी मेरे जैसे ही हैं। जवानी के नशे में तो लड़के ये खेल खेलना पसंद करते हैं, लेकिन ढलती उम्र के साथ पता चलता है कि आखिर उन्होंने क्या खोया.


गोटमार पर महिलाओं की राय जानने के लिए मैंने गांव की रीता प्रभाकर से बात की।


रीता कहती हैं, 'गोटमार मेला एक दिन के लिए लगता है, लेकिन वर्षों के जख्म दे जाता है। मेला लगने के तीन दिन पहले से ही लोग शराब पीते हैं और इसके नशे में उन्हें होश भी नहीं रहता कि वो क्या कर रहे हैं।'

" मेले के कारण नई पीढ़ी के बच्चे बिगड़ रहे हैं। 10-15 साल के बच्चे भी मेले के नाम पर शराब पी रहे हैं। लोगों के घर बर्बाद हो जाते हैं। इसलिए इस मेले को खत्म करके कोई दूसरा खेल करवाना चाहिए।

गोटमार मेले के दौरान स्वास्थ्य व्यवस्था की जानकारी के लिए पांढुर्णा के सरकारी अस्पताल पहुंची। यहां सीबीएमओ डॉ. दीपेंद्र सलामे से मेरी मुलाकात हुई।

सीबीएमओ बताते हैं कि गोटमार मेले के समय हमारी चार टीम काम पर रहती है। जिसमें दो टीम सांवर और दो टीम पांढुर्णा में रहती है। एक टीम में 12 लोग होते हैं। जिसमें 4 डॉक्टर, 4 टेक्निशियन और 4 ड्रेसर रहते हैं। इस साल लगभग 300 लोग घायल हुए थे। इनमें से 
8 गंभीर जख्मी थे। सबसे ज्यादा लोगों को हेड, आई और एब्डोमेन इंजरी होती है। इस साल किसी की मौत नहीं हुई। पिछले साल डूबने की वजह से एक व्यक्ति की मौत हुई थी।

इस बारे में जब हमने स्थानीय पुलिस प्रशासन से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने किसी भी तरह की टिप्पणी करने से मना कर दिया।

पांढुर्णा नगर पालिका परिषद के उपाध्यक्ष रह चुके विनय कुमार सांबारे कहते हैं, 70 साल से ये देख रहा हूं। ये मूर्खता का मेला है प्रशासन के सामने मैंने कई बार इसे रोकने के लिए आवाज उठाई।

विनय कुमार गोटमार मेले पर लिखी अपनी कविता सुनाने लगते हैं।

गोटमार अनोखा मेला:

दुनिया में निराला हमने देखा पांढुर्णा नगर में गोटमार मेला

कैसे लिखूं पांढुर्णा के इतिहास में खुशियों का ये अनोखा मेला

ये कैसी खुशियां लेकर आया...

खुशियों के संग कुर्बानियां मांगने आया, पत्थरमारों का ये मेला

अभी तक मैंने जिनसे भी बात की वो सभी इसे रोकना चाहते थे, लेकिन गांव के राजेश पांडुरंग की अलग राय थी।

गोटमार को विश्व प्रसिद्ध मेला बताते हुए कहते हैं कि, 'चंडी माता की पूजा के बाद गोटमार का खेल होता है। नदी के बीच में जो झंडा लगा होता है वही लड़ाई का प्रतीक है। लोग इसे अस्मिता की लड़ाई मानकर जी जान से इस खेल को खेलते हैं। हर खेल में इंजरी  होती है तो इसमें भी इंजरी होगी।, लेकिन इसकी वजह से आज तक किसी की जान नहीं गई है। मैं खुद भी खेलता हूं। कुछ लोग नशे के कारण नदी में गिर जाते हैं और बहाव तेज होता है तो उनकी मृत्यु हो जाती है।'

सांवर गांव में रहने वाले 62 साल के मराठा वो व्यक्ति हैं जो इस गोटमार मेले की सबसे अहम कड़ी हैं। पीढ़ियों से उनका परिवार झंडे के लिए जंगल से पलाश की लकड़ी काटकर लाता है। जब मैंने पूछा कि आप आखिर कब तक ये काम करेंगे तो वो कहते हैं कि, 'चंडी माता जब तक चाहेंगी तब तक मैं सेवा करता रहूंगा। हमारा काम पूजा पाठ करके झंडा गांव के लोगों को सौंप देना है। इस बार मैंने लकड़ी लाने से मना कर दिया था, लेकिन प्रशासन और गांव वालों के दबाव में लकड़ी लानी पड़ी। चंडी माता के कारण हमारे यहां कोई बीमारी नहीं होती और माता को बलि तो चढ़ानी पड़ेगी।