Then the Aquarius is the path of salvation, the true meaning in Hindi Spiritual Stories by नंदलाल मणि त्रिपाठी books and stories PDF | अथ कुम्भ मोक्ष मार्ग सत्यार्थ

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अथ कुम्भ मोक्ष मार्ग सत्यार्थ


(अ)पौराणिक कुम्भ कथा--सनातन की सिंद्धान्तों के सुंदर लोककल्याण एव लोकवोत्सव कि परम्पराओ में कुम्भ एक महत्वपूर्ण  पड़ाव एव आयोजन है जो नियमित रूप से प्रत्येक चार वर्षों पर के अंतराल में हरिद्वार ,प्रयाग ,उज्जैन एव नासिक में आयोजित होता है। आर्थत बारह वर्षों के अंतराल में कुम्भ स्नान का आयोजन भारत की पवित्र नदियों गंगा के उद्गम से कुछ दूर हरिद्वार, गंगा यमुना सरस्वती के संगम प्रयाग , शिप्रा तट पर उज्जैन एव गोदावरी तट पर नासिक में आयोजित किया जाता है ।सनातन धर्म ग्रंथो पुराणों में कुम्भ कि महिमा का वर्णन करते हुए स्प्ष्ट रूप से निर्धारित किया गया है कि कुंभ में पवित्र नदी में डुबकी लगाने से  कर्म जनित जाने अंजाने पापों का समापन होता है और प्राणि के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।कुम्भ के संदर्भ में जो सनातन ग्रंथो में जो है कथा  है उसके अनुसार दुर्वासा ऋषी का इंद्र द्वारा अपमान किए जाने से क्रोधित होकर महर्षि दुर्वाशा ने इंद्र के साथ उनकी सभा एव सेना के सभी देवतावों को बल हीन एव श्रीहीन होने का श्राप दे दिया जिसके कारण देवता बलहीन हो गए जब दुर्वासा ऋषि के श्राप से देवतावों के बल हीन होने की बात  असुरों को पता चली तब उन्होंने बलि के नेतृत्व में देवताओं पर आक्रमण कर दिया बलहीन देवताओं द्वारा पराक्रमी असुरों का सामना न कर पाने के कारण उन्हें पराजित होना पड़ा पराजित होने के बाद इंद्र के सिंघासन पर असुरों का राज्य स्थापित हो गया और देवताओं का आधिपत्य समाप्त हो गया असुरों के भय से देवता इधर उधर अपनी रक्षा सुरक्षा को भटकने लगे और अपने रक्षार्थ उपाय खोजने के लिए ब्रह्मा जी के पास गए ब्रह्मा जी सभी देवतावों के साथ परब्रह्म नारायण श्री हरि के पास गए और उनकी स्तुति कि नारायण श्री हरि प्रसन्न होकर प्रगट हुए जब देवताओं ने अपनी व्यथा को परब्रह्म नारायण श्री हरि को बताया तब भगवान नारायण श्री हरि ने देवताओं को सुझाव दिया कि देवता असुरों के साथ संधि कर ले एव उन्हें समुद्र मंथन के लिए सहमत करे नारायण श्री हरि ने देवताओं को मंथन में सर्वप्रथम विष निकलने कि बात बताई और उससे व्यथित या विचलित न होने के लिए आगाह किया ।नारायण श्री हरि कि बात स्वीकार कर सभी देवता असुरों के राजा बलि के पास गए और उन्होंने संधि का प्रस्ताव रखते हुए समुद्र मंथन कि बात कही और यह बताया की समुद्र मंथन से निकलने वाले अमृत का पान कर असुर भी अमर हो सकते है राजा बलि ने असुर वीरों और सभासदों से विचार विमर्श किया असुर वीरों एव सभासदों को भी देवताओं के प्रस्ताव में कोई दुराग्रह या खोट नही प्रतीत हुआ अतः उन्होंने राजा बलि को देवताओं से संधि कर समुद्र मंथन की सहमति का सुझाब दिया राजा बलि ने देवताओं के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सागर मंथन कि प्रक्रिया का शुभारंभ हुआ ।नारायण श्री हरि के  आदेशानुसार मन्दराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेति का प्रयोग होना था समुद्र मंथन हुआ जब मन्दराचलसमुद्र में मंथन से समाने लगा तब नारायण श्री हरि ने कच्चप रूप धारण कर मन्दराचल को अपनीपीठ पर धारण किया जिसे नारायणश्री हरि का कच्चप अवतरण के रूपमें वर्णित किया गया है।मंथन में सर्वप्रथम कालकूट विष के साथ चौदह रत्न निकले जिसे सागर मंथन कि देवतावों और असुरों के मध्य निर्धारित शर्तो के अनुसार  बांटना था चौदह रत्नों में उच्चैवश्रवा घोड़ा, कल्पबृक्ष, पाञ्चजन्य शंख, अहिरावत हाथी, अमृत कलश के साथ धन्वंतरि,लक्ष्मी,  रंभा अप्सरा, शारङ्ग धनुष,कौस्तुभ मणि, कामधेनु गाय, वारुणी मदिरा ,बाल चंद्रमा मंथन के प्रथम चरण में कालकूट विष निकलते ही देवतावों और दानवों के बीच हाहाकार मच गया तब भगवान शिवशंकर ने कालकूट विष को ग्रहण किया जिसके कारण शिवशंकर का कंठ नीला पड़ गया  जिसके कारण भगवान शिवशंकर को नीलकंठ के नाम से भी शुशोभित किया जाता है । समुद्र मंथन से निकले अन्य रत्नों में कामधेनु गाय,शारङ्ग धनुष,रम्भा अप्सरा ,अहिरावत हाथी ,कल्पबृक्ष, लक्ष्मी ,कौस्तुभमणि, पांचजन्य शंख, देवताओं को प्राप्त हुए तो चंद्रमा एव धन्वंतरि देवतावों में सम्मिलित हुए उचेश्रवा घोड़ा ,वारुणी आदि असुरों को प्राप्त हुए।(आ)-कुम्भ कहां कहां और क्यो लगता है-समुद्र मंथन से अमृत प्राप्त होने के बाद देवताओं और दानवों में बटवारे के लिए युद्ध छिड़ गया यह युद्ध बारह दिनों तक चला इसी युद्ध के दौरान अमृत की बूंदे हरिद्वार,प्रयाग ,उज्जैन, एव नासिक में गिरी इन्ही चारो स्थान पर बारह वर्षों के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है ।चूंकि अमृत के लिए देवताओं और असुरों में युद्ध बारह दिनों तक चला देवताओं का एक दिन पृथ्वी लोक के एक वर्ष के बराबर होता है अतः पृथ्वी पर प्रत्येक बारह वर्षों पर कुंभ आयोजित होता है।।(इ)ज्योतिष के अनुसार कुम्भ और महाकुंभ--बृहस्पति एक वर्ष तक एक राशि मे रहते है और इस प्रकार बारह वर्षों में वह बारह राशियों की परिक्रमा पूर्ण करते है अतः बारह वर्ष में एक बार कुम्भ का आयोजन होता है।1- जब सूर्य बृषभ सूर्य मकर राशि मे होते है तब कुंभ प्रयाग में आयोजित होता है।2- जब सूर्य मेष और बृहस्पति सिंह राशि मे होते है तो कुम्भ उज्जैन में आयोजित होता है इसे सिंहस्त कुम्भ कहते है।3- जब बृहस्पति कुम्भ राशि और सूर्य मेष राशि मे होते है तो कुम्भ हरिद्वार में आयोजित होता है।4- जब बृहस्पति और सूर्य दोनों सिंह राशि मे होते है तब कुंभ नासिक में आयोजित होता है ।(ई)महाकुंभ--महाकुंभ का आयोजन 144 वर्षों बाद किया जाता है इसकी गणना देवताओं और पृथ्वी के काल समय के अनुसार की गई है सनातन मतानुसार देवताओ का एक दिन पृथ्वी लोक के एक वर्ष के बराबर होता है इसप्रकार देवताओं के बारह वर्ष पृथ्वी लोक के एक सौ चौवालीस वर्षों के बराबर होता है महाकुंभ का आयोजन सिर्फ प्रयाग में ही होता है जहां गंगा ,यमुना ,एव सरस्वती का संगम है।(उ)कुंभ का सत्यार्थ--- कुम्भ को सत्य अर्थों में व्यख्या ही प्राणि एव तदनुसार आचरण  जगत का कल्याणकारी होगा ।कुम्भ काल का शुभारम्भ इंद्र को महर्षि दुर्वासा के द्वारा दिये गए श्राप एव समुद्र मंथन कि कोख से हुआ। जिसका प्रथम कारक कारण बैभव तथा  भोग विलास के कारण उपजे अभिमान इंद्र का अपने स्वर्ग बैभव में मदान्ध होकर भोग विलास में लिप्त होकर महर्षि दुर्वासा का अपमान एव महर्षि दुर्वासा द्वारा दिया जाना वाला श्राप जिसके कारण  देवताओं का श्रीहीन शक्तिहीन होना एव असुरों द्वारा  देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर आधिपत्य स्थापित करना एव देवताओं का पलायन कुम्भ का मूल है शक्तिहीन देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना एव पुनः उनके साथ नारायण श्री हरि के पास जाकर उनकी स्तुति करना नारायण श्री हरि द्वारा समुद्र मंथन के लिए परामर्श एव असुरों से सन्धि करना कुंभ के अतिमहत्वपूर्ण सनातन संदेश है जो प्राणि के कल्याणार्थ निहित है ।नारायण श्री हरि द्वारा असुरों से संधि करने का परामर्श सनातन का सारगर्भित संदेश प्राणि प्राण के कल्याणार्थ अति महत्वपूर्ण है ।सम्पूर्ण सनातन धर्म ग्रंथो के अध्ययन के उपरांत एक तथ्य बहुत स्प्ष्ट होता है आसुरी एव देव प्रवृत्तियों में द्वंद एव आसुरी पराजय एव देव विजय अर्थात देव तत्व ही श्रेष्ठ माना जाता है क्योकि देव तत्व सकारात्मक एव भोग विलास कि प्रवृति से अलग मात्र कल्याणकारी होता है और जब देव शक्ति भोग विलास में डूबकर मदान्ध हो जाती है तब उनमें और आसुरी प्रवृत्ति में कोई अंतर नही रह जाता है बहुत स्प्ष्ट संकेत है कुम्भ का इंद्र का भोग विलास में मदान्ध होकर अहंकार में महर्षि दुर्वासा का अपमान देव तत्व को असुरों के सामान बना देता है क्योकि भय भ्रम संसय अहंकार दुराग्रह द्वंद यह सभी प्रवृतियां आसुरी है ।ब्रह्मा जी के साथ जब शक्तिहीन श्रीहीन देवता श्री हरि नारायण के शरणागत हुए तब श्री हरि नारायण ने उन्हें इसीलिए असुरों से संधि करने को कहा क्योकि श्री हरि नारायण तो देव एव दानव दोनों शक्तियों के मुख्य शक्ति श्रोत है उनके लिए सृष्टि एव उसका संतुलन महत्वपूर्ण है ।सनातन अवतारों को देखा जाय तो किसी न किसी आसुरी शक्ति के उद्भव पराक्रम के समापन के लिए ही नारायण श्री हरि ने अपने स्वरूप में सृष्टि में अवतार लिया ।मस्त अवतार जल ही जीवन के सिंद्धान्त पर सृष्टि निर्माण के लिए  कच्छप अवतार देव दानवों कि सयुक्त शक्ति के परिणाम कि सृष्टि दृष्टि समाज का वास्तविक दर्शन दर्पण था बाराह अवतार नकारात्मक आसुरी शक्ति हिरण्याक्ष से पृथ्वी रक्षा का था पांचवा वामन आसुरी शक्ति वलि से समाज सत्ता से मुक्त करना और चौथा नरसिंह अवतार हिरणाक्ष कि क्रुरत से मुक्त कराना  छठा परशुराम अवतार अन्याय कि आसुरी शक्तियों से पृथ्वी को भार मुक्त तो रामावतार रावण आदि दानवीय शक्तियों से पृथ्वी को भार मुक्त करना तो कृष्णा अवतार सामाजिक संबंधों में आई आसुरी प्रवृति कंस के साथ साथ अधर्म कि आसुरी शक्तियों का समापन था।अर्थात धर्म वहां रहता है जहां सकारात्मकता रहती है जहां राग द्वेष दम्भ अभिमान भोग विलास अहंकार का कोई स्थान नहीं रहता क्योकि ये सभी आसुरी प्रवृत्ति के आचरण है। सनातन शास्त्रों के अनुसार सतयुग में चारो चरण धर्म ही धर्म होता है अतः सतयुग में विचारों में भी अन्यथा आने पर पाप पुण्य परिभाषित है और जीवन मूल्यों में मर्यादा नैतिक आचरण कि प्रमुखता होती है ।त्रेता में तीन चरण धर्म एव एक चरण अधर्म की बात कही गयी है यही प्रमुख कारण था जो रामराज्य कि  सत्यता प्रमाणित परिभाषित की त्रेता में मानसिक पाप दोष नहीं था द्वापर में दो चरण धर्म एव दो चरण अधर्म था द्वापर में मानसिक वाचिक दोनों पापों से मुक्त था द्वापर में एक ही वंश परिवार कुटुंब के पांडवों और कौरवों के मध्य धर्म एव अधर्म कि पृष्ठभूमि पर स्वंय पूर्णावतार नारायण श्री हरि कृष्ण के रूप में महाभारत जैसे भयंकर परिवर्तन कारी युद्ध का नेतृत्व किया और कुरुक्षेत्र से कर्मयोग का उपदेश देते हुए निष्काम कर्म का जीवन सिंद्धान्त सम्पूर्ण ब्रह्मांड को दिया क्योकि सर्वज्ञ सर्वेश्वर श्री भगवान श्री कृष्ण को भलीभांति ज्ञात था कि कलयुग में धर्म होगा ही नही चारो तरफ पाप एव पापकर्मो का साम्राज्य होगा ऐसे में मानसिक वाचिक पाप तो बहुत सामान्य बात होगी अतः कर्म  सिंद्धान्त ही कलयुग का मूलमंत्र होगा हालांकि नवथा भक्ति में मनसा वाचा कर्मणा से सद्गुणों की चर्चा करना सुनना सुनाना आदि वर्णित है इन संदर्भो में देखा जाय तो समुद्र मंथन नारायण श्री हरि के दूसरे अवतार की लीला वर्णन में आता है तब चारो चरण धर्म ही धर्म था तब से अब तक कई युग एव मन्वंतर बदल चुके है तब देवताओं के राजा इंद्र के भोग विलास  अभिमान अहंकार  के कारण श्रीहीन एव बल हीन होकर आसुरी शक्तियों से संधि करनी पड़ी और समुद्र मंथन देव एव दानव कि सयुक्त शक्तियों से सम्पन्न हुआ और परिणाम स्वरूप सृष्टि को चौदह महत्वपूर्ण रत्न प्राप्त हुए सर्वप्रथम कालकूट विष प्राप्त हुआ जिसका वर्तमान में सत्यार्थ है दानवीय प्रवृति पर विजय जिससे देव प्रवृति का उदय होता है ।ब्रह्मांड में प्रकृति और प्राणि दो महत्वपूर्ण है जिनका नियंता परब्रह्म परमात्मा है परमात्मा तो निराकार साकार निर्विकार सर्वत्र है अर्थात ब्रह्मांड के कण कण में व्यप्त है सनातन में आराधना के जो नियम निर्धारित किए गए है उसके अनुसार ब्रह्मांड के प्रत्येक अवयव को ब्रह्म कि चेतना मानकर उसे वन्दित किया गया है बृक्ष नदिया सागर पर्वत गाय आदि क्योकि परमात्मा कि सृष्टि में सबका अपना महत्वपूर्ण स्थान है ।परमात्मा का अंतिम सत्य है आत्मीय बोध आत्मा जो परमात्मा का ही काया में अवस्थित चेतना है और जिसमे नकारात्मक एव सकारात्मक दोनों ही प्रवृतियां ही सुषुप्ता अवस्था मे उपस्थित है नकारात्मक प्रवृत्ति आसुरी है तो सकारात्मक देव प्रवृत्ति जब सकारात्मकता प्रभावी होती है तो नकारात्मकता शक्तिहीन हो जाती है और देवशक्ति प्रभावी हो जाती है जो समाज समय काल के प्रवाह  में अपने आचरण कार्य से देवत्व को स्थापित करती है और जब नकारात्मकता प्रभावी हो जाती है तो अहंकार भोग विलास झूठ छल प्रपंच द्वेष दम्भ का जन्म होता है और आत्मीय बोध में सुषुप्ता अवस्था मे ही देव तत्व दम तोड़ देता है और आसुरी उद्भव सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने लगते है तब काल समय समाज लज्जित और हताश निराश होता है।सनातन में समुद्र मंथन का प्रसंग इसी सत्य का पर्याय परिणाम है देव और दानवों कि सयुक्तता अर्थात नकारात्मकता का सकारात्मता में विलय ही सृष्टि युग काल समय को रत्न दे सकने में सक्षम होता है जिससे युग सृष्टि एक नए शौर्य सूर्य से दैदीप्यमान होती है ।जब ब्रह्मा जी के साथ देवता नारायण श्री हरि कि स्तुति करते हुए अपने श्रीहीन एव बलहीन होने की मुक्ति की प्रार्थना करते है तब श्री नारायण के उपस्थिति एव उनके विग्रह का वर्णन जिस प्रकार से सनातन ग्रंथो में किया गया है वह सत्यार्थ  ब्रह्मांड में समुद्र मंथन के सत्य को प्रत्यक्ष परिलक्षित करता है।उदारहण - बिजली के वल्ब में दो ध्रुव होते है एक निगेटिव पोल दूसरा पॉज़िटिव पोल किसी एक से प्रकाश हो ही नही सकता जब दोनों मिलते है तो प्रकाश होता है।ठीक इसी प्रकार आत्मीय बोध में सुषुप्ता अवस्था की नकारात्मकता को सकारात्मकता में समाहित कर लिया जाता है तो आत्मप्रकाश का प्रस्फुटन होता है जो देवत्व पराक्रम को प्रमाणित करती है।सनातन में समुद्र मंथन इन्ही संदर्भो में सार्थक शिक्षा देता है जो अहंकार, भोग ,विलास आदि विकारों के त्याग एव मर्यादा ,नैतिकता, धर्म, मर्म ,कर्म के सद्विक आचरण का आधार है ।(ऊ)कुम्भ स्नान की डुबकी--1-कुम्भ में स्नान की पहली डुबकी - अहंकार का त्याग।।2-दूसरी डुबकी- भोग विलास का त्याग।।3-तीसरी डुबकी- छद्म छल प्रपंच द्वेष द्वंद द्वेष लोभ मद का त्याग।।4-चौथी डुबकी- नकारात्मक आसुरी प्रवृत्ति पर विजय।।5-पांचवी डुबकी- मर्यादित नैतिक आचरण का संकल्प।।6-छठी डुबकी- आत्मीय चेतना बोध की जागृति।।7-सातवी डुबकी- आत्मीय बोध का प्रकाश।।8-प्राणि प्राण कल्यार्थ।आठवी डुबकी- मोक्ष मार्ग।।यही सत्यार्थ है है कुम्भ स्नान का।।(अं)कुंभ में दानवीय प्रवृत्ति से सतर्क रहें-कुम्भ में मोक्ष कि कामना से आस्थावान श्रद्धालु जाते है किंतु भीड़  में अराजक तत्व राहु केतु की तरह श्रद्धा आस्था एव मोक्ष मार्ग में पापग्रह राहु केतु की तरह उपस्थित होने की कोशिश करते है।समुद्र मंथन से अमृत प्राप्त होने के बाद देवताओं और दानवों में अमृत बटवारे के लिए जब भगवान श्री हरि नारायण ने मोहिनी रूप धारण किया और देवताओं को अमृत पान करा रहे थे तभी असुरों में से स्वर्भानु देवताओं की पंक्ति मे जा बैठा और अमृत पान कर लिया जब यह तथ्य नारायण श्री हरि ने जाना तब स्वर्भानु चक्र सुदर्शन से सिर धड़ से अलग कर दिया चूंकि स्वर्भानु ने अमृत पान कर लिया था अतः उसके दोनों भाग जीवित रहे सिर वाला भाग राहु और धड़ केतु कहा जाता है ज्योतिष में इन्हें छाया ग्रह एव पॉपग्रह कहा जाता है लगभग हर कुम्भ में इनकी उपस्थिति रहती है लेकिन सात्विक देव प्रवृतियों के प्रभावी होने के कारण इनका प्रभाव नहीं पड़ता किंतु सावधान रहना अपरिहार्य एव आवश्यक होना  चाहिए।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।