Towns in ruins from the war in Ukraine in Hindi Book Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | यूक्रेन में युद्ध से बारुदी विस्फ़ोटों से उजड़ते नगर

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यूक्रेन में युद्ध से बारुदी विस्फ़ोटों से उजड़ते नगर

नीलम कुलश्रेष्ठ

कुछ महीने पहले अहमदाबाद में एक चित्रकला प्रदर्शनी थी। एक विशाल मेज़ पर रक्खे एक बोर्ड पर एक युवा कलाकार ने बेहद चटकदार रँगों से रंगे टूटे फूटे हुए मकानों को साकार किया था,जो कहीं कहीं बारुद से काले हो गए थे. मेज़ के पीछे ऊपर दीवार पर लिखा था -' वॉर ऑफ़ यूक्रेन '..मुझे तब ये टूटे मकान नहीं युक्रेन वासियों का आँसु बहाता तड़पता, दर्दीला शोक गीत लग रहा था। ऐसा गीत जिससे दुनियां का हर संवेदनशील व्यक्ति ऐसा ही व्यथित था । युद्ध की पृष्ठभूमि पर कोई कलमकार योद्धा ही उपन्यास लिख सकता है जिसमें बॉम्बस व मिसाइल्स के जानलेवा कान फोड़ते शोर के बीच से गुज़रने की, उसके बाद दमघोटु बारुद से जले, उधड़े हुए कहीं कहीं काली बारुद से सने मांस से झलकते ख़ून से भरे जिस्मों, चीखकर कराहते जिस्मों,दम तोड़ते जिस्मों, इंसानी शरीरों का कत्ल करते,एक बॉम्ब से अनेक इंसानों को एक पल में ख़त्म करने वाले लोगों को चित्रित करने का,उन पीड़ाओं को झेलने, खून भर आँसुओं को पीकर लिखने का साहस हो। उस गहरी तकलीफ़ के रुदन को उपन्यासकार अजय शर्मा जी तकलीफ़ भरे शब्दों से अपने उपन्यास 'खारकीव के खंडहर 'में साकार करने में सफ़ल हुए हैं।

यहाँ तो युद्ध से झकझोरे हुए असंख्य जीवन की कहानियां थीं, घरों,संसाधनों,प्रतिष्ठानों का नष्ट हो जाना था, असंख्य स्त्रियों की प्रतारणा थी। युक्रेइन लड़कियों को बाइक पर अगवा कर ले जाते हुए, एक पतली दुबली जर्मन लड़की के हमास के हट्टे कट्टे गुंडों द्वारा उसे छेड़ते हुए एक जानवर की तरह खुली जीप में पटककर अगवा करने का दृश्य जिन्होंने टीवी पर देखा है-- वे सकते की हालत में क्या चैन पा सके होंगे ?

मैं अजय शर्मा जी के 'कुमुदनी 'उपन्यास के विषय में बिना लिखे नहीं रह पाई थी क्योंकि सरोगेसी पर आधारित इस उपन्यास में गहरे विचारों के दर्शन हुए थे। मैं इनका कोरोनाकाल के समय लिखा 'शंख में समुंद्र 'उपन्यास पढ़कर इसलिए चमत्कृत थी इन्होंने उस समय को ज्यों का त्यों उपन्यास में उतार दिया था। अब ये उपन्यास मेरे सामने है 'खारकीव के खंडहर '.सच ही मैं मान गई कि अजय भाई एक 'इंस्टेंट नॉवेलिस्ट 'हैं। इनके अनेक उपन्यास पंजाब के विश्वविद्ध्यलयों में पढाये जा रहे हैं।

इनके उपन्यासों की एक और विशेषता है,इसमें भी चित्रित है। आप किसी न किसी पौराणिक कहानी से व प्रकृति के माध्यम से कुछ कहते हुए उपन्यास को आगे बढ़ाते हैं। महाशक्तिशाली देशों की छोटे देशों के शोषण की राजनीति बगुलों और केकड़ों, मछलियों की बोध कथा की तरह है। प्रह्लाद व हिरण्यकश्यप की कहानी से बताना चाहते हैं कि अग्नि में सब कुछ जलकर भस्म हो जाता है लेकिन 'प्रह्लाद 'यानी 'सत्य 'बचा रहता है। इस उपन्यास में युद्ध के चित्रण भर ही नहीं हैं बल्कि उन कटु सच्चाइयों की गहरी पड़ताल की है कि छोटे छोटे देश किस तरह बड़े देशों खासकर रुस व अमेरिका की प्रयोगशला होते हैं। जैसे कि ओसमा बिन लादेन जैसे क्रूर आतंकवादी को अमेरिका ने पैदा किया था,उसी तरह इस तरह से युद्ध पैदा करना भी इन्हीं देशों की कूटनीतिक चालें होतीं हैं। महाभारत का युद्ध हो या हिटलर का पागलपन, उसी तरह के युद्ध फिर फिर इन सनकी लोगों के कारण जन्म ले रहे हैं। बात हमास व इज़रायल युद्ध तक जा पहुँची है।

बकौल इस उपन्यास -बड़े बड़े देश हथियारों की खेती बाड़ी करने लगे हैं। जब हथियार इतनी बड़ी मात्रा में बनेंगे तो ये वीडियो जारी करके अपनी शक्ति प्रदर्शन करेंगे ही.

कुछ देशों को बेचे जाएंगे। छोटे देशों में इनको ख़रीदने की, अपने को ताकतवर दिखाने की स्पर्धा बढ़ेगी ही। जब हथियार अधिक हों तो देश शांति में युद्ध की तलाश करेंगे ही।

यूक्रेन रुस के युद्ध के समय हमारी नज़र टीवी पर उन भारतीय मेडिकल छात्रों पर थी जो किसी तरह बचते बचाते बारुदी धमाकों के बीच यूक्रेन की सीमा की तरफ़ बढ़ रहे थे -- बमुश्किल बढ़ रहे थे. आख़िरकार उन 77 छात्रों को भारत सरकार के प्रयासों ने बचा ही लिया था। हम निश्चिन्त हो गए थे और भूल गए थे कि उन पर युद्ध के धमाकों,लोगों के लाशें बनते जाने के बीच से लौटकर का क्या असर क्या हुआ था ?उनकी अपने आपको संतुलित करने की जद्दोजेहद क्या थी ? उनकी आगे की पढ़ाई का क्या हुआ था ?अधूरा मेडिकल कोर्स छोड़ना क्या होता है ?उनके परिवार की चिंता क्या होती है ? अजय जी ये सब नहीं भूले। इन्हीं छात्रों के माध्यम से उन्होंने ये युद्ध अपने दिमाग़ व अपनी कलम पर झेला है। इसके मुख्य पात्र हैं एक छात्र वासुदेव, उसकी युक्रेइन प्रेमिका लिलिया. उस की बहिन दीमा से भारत लौटकर भी जिससे मोबाइल पर नायक यूक्रेन से संवाद चलता रहता है। हमें पता लगती रहती है युद्ध की विभीषिका, उसकी घटनाएं। .

रुस का मानना है कि यूक्रेन को अमेरिका ने न्यूक्लियर हब बना रक्खा है। यहाँ अनेक ख़तरनाक फैक्ट्रियां बना रक्खीं हैं। उपन्यास में दीमा की बहिन लिलिया का भारतीय मेडिकल छात्र,नायक वासुदेव से फ़ोन पर कहना है,''बेलारुस की सीमा,कई जगह पर पोलेंड के साथ लगती है। वहाँ पर एक प्वॉइंट है जिससे रुस को नाटो से खतरा रहता है। रुस को लगता है कि पोलेंड को तबाह कर दूंगा तो यूक्रेन घर की मुर्गी जैसा हो जाएगा।

बॉम्बस व मिसाइल्स के जानलेवा कान फोड़ते शोर के बीच भूमिगत छः सात मंज़िल के मेट्रो स्टेशन पर लोगों को शरण लेने के कहा जाता है। वहां के प्लेटफ़ॉर्म पर एक तरफ करेंट उसे गर्म रखने के लिए छोड़ा जाता है,दूसरी तरफ़ से ट्रेन आती है। एक वृद्ध महिला का कुत्ता उसे अचनाक बहुत प्यार करने लगता है। कुछ देर प्यार करके वह स्टेशन के एक तरफ तेज़ी से भागने लगता है जिस तरफ लोग जा रहे हैं, ये समझकर कि उस तरफ़ ट्रेन आ रही है। वह बहुत तेज़ी से आगे पहुँचता तो करेंट से मरकर लोगों को बचा लेता है। एक प्रश्न जैसे आज तक दुनियां के बीच लटका हुआ है ---जानवर इंसानी मौत का अर्थ समझ कर अपनी जान कुर्बान कर देते हैं लेकिन खूंखार लोग बार बार युद्ध से इंसानी जानें ले लेते हैं। तुर्रा ये है कि देशों के आका अपने परिवारों को ऐसे स्थान से सुरक्षित बाहर भेज देते हैं। जनता सुख चैन लुटाती, कभी सपत्ति व संतति लुटाती केवल मूकदर्शक होती है, बेबस, कुछ कर नहीं पाती।

लेखक भारतीय है इसलिए यहाँ बांसुरी की धुन व लाल बिंदी का आकर्षण तो मिलेगा लेकिन इसमें एक कमी जो मुझे थोड़ी लगी कि इसमें यूक्रेन के त्योहारों व उत्सवों का बिलकुल भी ज़िक्र नहीं है। दूसरी प्रमाणिकताएँ हैं। स्टेंडिंग कॉमेडियन रहे यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने इकोनॉमिक्स व कानून पढ़ा है लेकिन इस लादे हुए युद्ध में उनको स्टेंड करने में मुश्किल हो रही है।ज़ाहिर है लोग उनका मज़ाक उड़ा ही रहे थे कि एक कॉमेडियन क्या देश सम्भालेगा? इस उपन्यास से ये भी पता लगता है कि उनका एक प्ले 'सर्वेंट ऑफ़ द पीपुल 'बहुत प्रसिद्द हुआ था। इसी के नाम पर उन्होंने अपने राजनीतिक पार्टी बनाई थी। ये सब हम भी अखबार में पढ़ते रहे होंगे लेकिन अजय जी यूक्रेन की अधिक से अधिक पृष्ठभूमि समेटते हुए इस उपन्यास को प्रामाणिक बनाने में सफ़ल हुए हैं।

सरकार की तरफ़ से बता दिया गया है कि रोमानिया,हंगरी,पोलेंड और स्लोवाकिया की सीमाएं खोल दी गईं हैं। लोग ट्रेन,बस या कार किराये पर लेकर सीमा की तरफ बढ़  रहे हैं। हम अनुमान भी नहीं लगा सकते समय समय पर होते बारूदी विस्फ़ोटों के बीच सीमा की तरफ़ बढ़ते भारतीय छात्रों की मनस्थिति का। क्या होता है ग्यारह दिन एक ही ड्रेस पहने रहना,बार बार मोज़ों में जम जाती बर्फ़ का बाहर निकालना। खाना नहीं मिले तो प्रोटीन खाकर रह जाना। छात्रों का दीमा की कार से अपने पैसे से ब्रेड ख़रीदकर यहाँ वहां बिखरे छात्रों में वितरित करना। ट्रेन में वे चढ़ने को तैयार हैं लेकिन अचानक एक धमाके से स्टेशन में आग लग जाती है। अपने को ही जैसे तैसे बचा पाते हैं। इन्हें पिसोचिन के ओल्ड एज होम में रात गुज़ारनी पड़ती है जहाँ की बिजली व्यवस्था तहस नहस हो जाने के कारण ठंड को झेलना आसान काम नहीं था।

लोग उनके घरवालों की असीमित द्विविधा भी कैसे जान सकते हैं जिनके बच्चे युद्ध की भीषणता में फंसे हुए हों। इनका सहारा सिर्फ़ सरकार का ऑपरेशन गंगा ही था,जो भगीरथ की तरह वहां से निकाल लाया आख़िरी छः किलो मीटर पर करने में उन्नीस घंटे लगे तो क्या ? अजय जी के लेखन का ये चरम है जो हमें बताता है कितना रुपया देकर घरवालों ने यूक्रेन मेडिकल की पढ़ाई करने भेजा था। कुछ महीनों बाद दूसरे मुल्कों में इनके दाखिले के रास्ते तो खुल गए हैं लेकिन फिर से रुपयों का इंतज़ाम ?

इस युद्ध में इतनी जानें चली गईं है कि दीमा जैसी बहुत सी लड़कियों को सरकारी आदेश के कारण जबरन फ़ौज में भर्ती होना पड़ता है। क्षोभ में वह मेडीकल की छात्रा अपना सफ़ेद एप्रिन कैंची से काट काट कर फाड़ देती है। बहुत हृदयस्पर्शी है ये निर्णय जो दीमा और उसका प्रेमी लेते हैं। उनका वह कदम क्या था ?वह सफल हुआ या नहीं ? विश्व में शांति चाहने वालों को इस उपन्यास में 'बगुला 'कहा गया है।अपने प्यार की कुर्बानी देकर ये क्या विश्व के इन बगुलों को ये अपना सन्देश पहुंचा पाए ? ये जानने के लिए हिंदी साहित्य के इस विशिष्ट उपन्यास को आपको पढ़ना पड़ेगा।

हम तो यूक्रेन में चल रहे निरंतर युद्ध के कारण उसकी बर्बादी की कल्पना कर सकते हैं। लिलिया का वासुदेव को किया फोन ही सारा चित्र खींच देता है -''तुम सौभाग्यशाली हो जो यहाँ से बचकर निकल गये। सारा खारकीव शहर ही खँडहर में बदल गया है। सरकार ने बहुत से लोगों के रहने का इंतज़ाम मेट्रोज़ के डिब्बों में कर दिया है। प्लेटफ़ॉर्म पर सब ज़रुरी सामान रख दिया गया है। ''

सोचने में भी रुह काँपती है,ये शब्द एक डेढ़ वर्ष पहले लिखे गए होंगे। आज वे मेट्रो स्टेशन भी बचे होंगे या नहीं ?

'बवाल 'फ़िल्म में निदेशक,अश्विनी अयय्यर व उनकी कहानीकार टीम ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दृश्य के वीडियो डालकर विश्व को दिखाना चाहा है कि युद्ध की विभीषिका क्या होती है जिसे बाद की सदियाँ आंसु बहाते ढोते चलतीं हैं। संदेश यही है कि युद्ध नहीं करना चाहिए। आपको पता है, मुझे पता है कि दीमा हो या हसन या विश्व के बगुले कभी सत्ता में नहीं होते इसलिए युद्ध कैसे रुकें ? बगुले कला के माध्यम से सन्देश देना नहीं छोड़ेंगे, जैसे कि वे लोग युद्ध।

अजय शर्मा जी को युद्ध की पृष्ठभूमि पर एक सफ़ल उपन्यास लिखने के लिए बधाई देते हुए इस उपन्यास की सफ़लता की कामना करतीं हूँ।

 

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पुस्तक -'खारकीव के खंडहर '[उपन्यास ]

लेखक -डॉ अजय शर्मा

प्रकाशक -साहित्य सिलसिला पब्लिकेशंस

मूल्य --२०० रुपये

 

 

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