मेरा नाम रूबी खातून है। पटना, बिहार से हूं। बिहार की पहली ऐसी महिला थिएटर आर्टिस्ट जिसे 2022 में राष्ट्रीय बिस्मिल्लाह खां अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। ये अवॉर्ड संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली देती है।
यहां तक का सफर बहुत ही मुश्किल था। सबके लिए मुश्किल होता है, लेकिन खासकर मेरे लिए ये इसलिए ज्यादा मुश्किल था, क्योंकि में मुसलमान थी। मुस्लिम परिवार की लड़कियां थिएटर के बारे में सोच भी नहीं सकतीं।
हम लोग बिना बुर्का पहने घर से बाहर नहीं निकल सकते, लेकिन पटना में मेरा काम ऐसा था कि मुझे घर लौटने में अक्सर रात के 11-12 बज जाते। अकेले आ नहीं सकती थी, कोई साथी घर छोड़ने आता था। मोहल्ले वाले रात में अनजान आदमी के साथ देख तंज कसते थे। वे मेरे चरित्र पर सवाल उठाते थे।
मैंने पर्दे से निकलकर पर्दे तक का सफर तय किया है। पर्दा मतलब हमारा नकाब जो हमारी तहजीब का एक हिस्सा है।
किसी से कहूं कि थिएटर से हूं, तो वो थिएटर से अभी भी सोनपुर का गुलाब बाई थिएटर ही समझते हैं। अभी भी लोगों के बीच में, परिवार के बीच में और समाज के बीच में खुद को स्थापित नहीं कर पाई हूं। उन्हें अभी भी यही लगता है कि नाचने और गाने वाली हूं।
मेरी किस्मत का खेल देखिए... बीते एक साल से एक भी नाटक में रोल प्ले नहीं किया। आज यह बातचीत खत्म करने के बाद एक मॉल के उद्घाटन में एंकरिंग करने जाऊंगी।
यह सब सिर्फ इसलिए कि मुझे फिलहाल पैसों की जरूरत है। मेरे ही कहने पर छह साल पहले पापा भी नौकरी छोड़कर घर बैठे हुए हैं।
मैंने छठी तक की पढ़ाई जैसे-तैसे पूरी की। मुझे ये समझ नहीं आता था कि बाहर जा रही हूं तो गर्मी में भी पूरी तरह से बाल और चेहरा क्यों ढंकना पड़ रहा है। कुछ कह नहीं सकती थी क्योंकि पिता जी ही डांट देते थे।
जैसे तैसे नालंदा से नाता छूटा और हम लोग पटना आ गए। पिता जी दर्जी थे तो पटना में उन्होंने एक दुकान खोल ली और किराए के घर में चौथे तल्ले पर रूम ले लिया। मुस्लिम बस्ती ही थी और बहुत से रिश्तेदार पहले से रहते थे।
पास ही के एक स्कूल में दाखिला ले लिया। तब मेरी उम्र मुश्किल से 13 साल रही होगी।
पहले स्कूल के एनुअल फंक्शन में रोल प्ले किया। मन एक्टिंग करने का होने लगा। शहर के एक थिएटर ग्रुप से जुड़ गई। मन पढ़ने से ज्यादा थिएटर में लगने लगा। बहुत तारीफ मिली। मम्मी भी साथ देने लगीं। पापा दिन भर सिलाई की दुकान पर रहते। शुरू में तो उन्हें पता ही नहीं चला कि क्या कर रही हूं।
इधर, थिएटर की दुनिया में मेरा स्टेज प्रेजेंस बढ़ने लगा। एक बार दैनिक भास्कर अखबार में मेरे प्ले के बारे में छपा। खबर के साथ मेरी फोटो भी छप गई। अखबार में फोटो छपते ही मोहल्ले में हलचल मच गई। बात मेरे पिता तक पहुंच गई। मेरी जाति के लोगों ने आपत्ति जताई।
नाते-रिश्तेदारों सहित मोहल्ले के लोगो ने पापा से कहा, तुम्हारी बेटी थिएटर कर रही है। ये गुनाह है, हमारी घर की बहू-बेटियों पर क्या असर होगा। पापा तमतमाते हुए घर आए। वे मेरी किसी बात को समझने को तैयार ही नहीं हुए। बात इज्जत, प्रतिष्ठा और धर्म तक पहुंच गई। 'चार समाज' ने पापा के इतने कान भरे कि मेरा घर से निकलना बंद हो गया। वे मान चुके थे कि मैं उसी डांस ग्रुप का हिस्सा हूं जिसकी लड़कियां मेलों में डांस करती हैं।
पापा कहने लगे कि या तो तुम घर चुनो या नाटक, तुम घर से निकल जाओ। मम्मी और पापा के तलाक तक बात आ गई थी। मुझे लगा कि यहां मुझे स्टैंड लेना होगा। ऐसे पॉइंट पर जब आप कोई फैसला लेते हैं तो आपकी लाइफ एकदम बदल जाती है।
मैंने पापा से कहा कि ठीक है, बैग पैक करती हूं और यहां से चली जाती हूं, लेकिन मां ने डांट कर चुप कर दिया था। अगर उस दिन पापा की बात मान लेती और नाटक छोड़ देती तो आज शादी करके किसी गांव में पर्दे के अंदर बाल-बच्चे संभाल रही होती। इस पर्दे तक का सफर नहीं हो पाता।
करीब 15 दिन तक घर से कदम तक नहीं निकाला। जो आस-पड़ोस और रिश्तेदार आते, ताना दे जाते। मुझे लगने लगा कि ऐसे तो नहीं रहा जा सकता है।
कहते हैं न बुरा वक्त आता है तो चारों तरफ से आता है। इसी दौरान पापा का काम बहुत कम चलने लगा। दिनभर में 300-400 रुपए ही कमा पाते। इतने में घर नहीं चल सकता था। पैसों की कमी से घर में रोज मम्मी-पापा के बीच चिक-चिक होने लगी। तय किया कि थिएटर से ही पैसे कमाऊंगी और पापा को एक बार फिर से समझाने की कोशिश करूंगी। मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा वो पापा को संभाल लेंगी।
मम्मी से मेरे मन की उदासी देखी नहीं जा रही थी। 15 दिन में ही मेरा खाना-पीना कम हो गया। उन्होंने कहा- तू अपने मन का काम कर, जो तुझे अच्छा लगे और जिसमें खुश रहे। मां की बात सुनते ही मेरे आंसू आ गए। उनसे लिपटकर खूब रोई। कुछ दिन अपने आप को संभाला और घर से बाहर जाना शुरू कर दिया। लोगों ने फिर कुछ न कुछ कहना शुरू कर दिया।
मुझे बहुत दिक्कतें आईं। सबसे पहली दिक्कत मेरे घर में आई, मेरे परिवार में आई और मेरे समाज ने तो मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं था।
जब नाटक करके आती थी, तो रात के 11-12 बज जाते थे। कभी-कभी जब शहर से बाहर प्ले के लिए जाना होता तो रात में एक बजे भी घर से निकलती थी। जब मेरे साथी मुझे रात में घर छोड़ने आते तो मोहल्ले के लोग बातें बनाते थे। कहते थे कि देखिए... फलां की बेटी को ... रोज कोई नया लड़का घर लेकर आता है। एकदम कैरेक्टरलेस है।
मोहल्ले की लड़की इससे क्या सीखेंगी? इसे तो घर से निकाल देना चाहिए। इसके मां-बाप कैसे हैं? ये खुद कैसी है? चेहरे पर इतना मेकअप थोपकर रहती है, पता नहीं क्या करती है।
जब भी कुछ होता है तो महिलाओं के कैरेक्टर पर बात आती है। कोई लड़का अगर रात में दस बजे घर आता हैरात में दस बजे घर आती है, तो वो कैरेक्टरलेस हो जाती है।
मैंने 16 साल की उम्र से जमकर थिएटर और प्ले करने शुरू कर दिए थे। मामला पैसों पर आकर फिर अटक गया। एक प्ले को स्टेज तक उतारने में महीने भर रिहर्सल होती है। एक महीने रिहर्सल के लिए आने- जाने पर खुद खर्च करना होता है। परफॉर्मेंस हो जाने पर 1500 या 2000 रुपए मिलते थे। ये तो पिता जी से भी कम कमाई थी। किसी दिन वो पूछ लेते तो मेरा निकलना एकदम बंद हो सकता था।
मैंने तय किया कि एक साथ चार-पांच प्ले में पार्टिसिपेट करूंगी। पटना में उस समय के सभी थिएटर ग्रुप के साथ जुड़कर काम किया। अंत में यही होता था कि मेरे पास महीने के आठ से दस हजार रुपए आ जाते थे। ये परिवार के लिए पर्याप्त थे।
जाहिर सी बात है कि सभी ग्रुप के साथ काम करने पर चेहरा पहचाना जाने लगेगा। यही हुआ भी। पटना में मेरी खूब तारीफ होने लगी, लेकिन मेरे दिल में तो एक अजीब किस्म का दर्द था। दुख तो ये था कि बाहर लोग मेरी तारीफ में कसीदे काढ़ते, घर आकर किसी से खुशी से ये बात साझा नहीं कर सकती थी।
इतने दिन तक लगातार प्ले करने के बाद मेरे पापा का व्यवहार मेरे प्रति थोड़ा बदल सा गया था। ये महसूस करने लगी थी। तय किया कि उन्हें अपना प्ले दिखाऊंगी। मुझे पहली बार लगा कि चाहे दुनिया कुछ भी तारीफ कर दे, लेकिन जब तक परिवार की वैलिडेशन नहीं मिलती, कुछ अधूरा रह जाता है।
पापा को पहली बार पटना के काली दास ऑडिटोरियम लेकर गई। वहां जब उन्होंने मेरा प्ले देखा और तारीफ की, तो मुझे दुनिया की सबसे जरूरी वेलिडेशन मिली। सच बताऊं तो उस दिन से आज तक मुझे लगता रहा है कि काफी कुछ पा लिया है।
दस साल में 100 से अधिक प्ले कर लिए। 21 साल की उम्र में मेरी ठीक ठाक पहचान बन गई। पटना में लोगों का प्यार मिलने लगा और थोड़ी बहुत पूछ- परख भी बढ़ गई। दूरदर्शन पर एंकरिंग करने लगी, कई सरकारी विज्ञापन में मुझे फीचर कर लिया गया।
साथी कलाकारों को थोड़ी जलन भी हुई। कुछ ने मुंह पर तो कुछ ने पीठ पीछे मेरे चरित्र पर सवाल उठाए। ये बात खलती तो थी, मगर मजबूत भी हो रही थी। रंगमंच में भी लड़की अगर कुछ अच्छा करती है तो हमारे साथ के लोग ही ये सोचते हैं कि इसने कोई शॉर्टकट अपनाया होगा। उसके अचीवमेंट के पीछे उसका स्त्री होना उसका साथ दे रहा है, लेकिन जब कोई लड़का कुछ अचीव करता है तो कहते हैं कि मेहनत के दम पर किया है।
ये सब कुछ चल ही रहा था कि मां की तबीयत बिगड़ गई। छह महीने के भीतर ही मां नहीं रहीं। पिता जी बहुत परेशान रहने लगे। उनकी नौकरी छुड़वा दी और कहा कि आप घर पर रहिए, मैं कमा कर लाऊंगी। ये बात इतनी आसान थी नहीं, जितने ताव में कह दी थी।
थिएटर से पैसे आने से रहे और विज्ञापन रोज बनते नहीं। यही जद्दोजहद चल रही थी कि 2022 में अवॉर्ड के लिए नामित किया गया। खुशी का ठिकाना नहीं था कि चलो, अब काम मिलने लगेगा।
लेकिन जिंदगी इतनी आसान नहीं है।
कोरोना के बाद से थिएटर शो में कमी आ गई। प्ले होते नहीं हैं और होते भी हैं तो उसमें कम पैसे लेने वाले नए एक्टर्स को जगह दी जाती है। कुछ नया करने को सोचा। कुछ दिन बाद एंकरिंग के ऑफर आने लगे। थिएटर की कलाकार को मॉल के उद्घाटन में संचालन करना पड़े तो ये कलेक्टिव फेल्योर है। समाज, परिवार, सरकार और संस्थाएं सब दोषी हैं।
मुझे एक कार्यक्रम के दो हजार से पांच हजार तक मिल जाते हैं। जिससे मेरा और पापा का सप्ताह भर का खर्च चल जाता है। काम लगातार मिलता है तो जिंदगी आसान हो जाती है। नहीं मिलता है तो सेविंग्स का सहारा है।
पापा बीमार रहते हैं, मुंबई नहीं जा सकती। पटना में रहकर रोजी-रोजगार संभव नहीं है, तो जैसा चल रहा है, चलने देते हैं। अपने भविष्य के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाती हूं, निराशा ही होती है।