There is no stop in Hindi Moral Stories by Sharovan books and stories PDF | नज़र आती नहीं मंजिल

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नज़र आती नहीं मंजिल

नज़र आती नही

मंजिल

कहानी/Sharovan 

***

ज़िन्दगी के इक्कीस वर्षों तक रूमी की मृत्यु के साथ-साथ अपनी अजन्मी सन्तान के भी काल के गर्त में समा जाने का दर्द झेलते हुए राज बाबू जिन यातनाओं के दौर से गुज़रते हुए अपनी उम्र के दिन पूरे कर रहे थे, उन्हीं के मध्य जब उन्होंने एक दिन अचानक से महुआ को देखा तो वे उसे देखते ही चौंक क्यों गए? प्रेम के विश्वास के धरातल पर वफाई के सौदों पर भी डंडी मारती हुई एक इंसान की वह दुखभरी कहानी कि जिसने सदा चुपचाप अपने आंसुओं को पिया, मगर किसी पर बे-मुरब्ब्ती का कलंक न लग जाए, कभी अपनी जुबान तक न खोली. अपनत्व के विश्वास की हसरतों को BEबे-रहमी से नोचती हुई ये कहानी आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर सकती है.

***

'बाबू जी, बाहर दरवाज़े पर कोई बड़ी प्यारी सी लड़की उदास खड़ी है और वह आपसे मिलना चाहती है।’‘लड़की?’‘जी हां।’घर में खाना पकानेवाली नौकरानी जस्सो की हां पर, वार्षिक परीक्षा की उत्तर कॉपियां जांचते हुये राज बाबू के हाथों की कलम अचानक ही रूक गई तो वह आश्चर्य से जस्सो का ही मुंह ताकने लगे।‘जाकर देख लीजिये। बड़ी परेशान सी नज़र आती है वह।’ कहते हुये जस्सो जाने लगी तो राज बाबू ने उसे जाने से रोका। वे बोले,‘अच्छा देखो, तुम उसे शीघ्र ही बैठक में बैठा दो और पानी व खाने आदि के लिये पूछ लो। तब तक मैं कपड़े बदलकर जल्दी ही आता हूं।’जस्सो के चले जाने पर राज बाबू विचारों में डूब गये। सोचने लगे कि कौन हो सकती है वह? उनका तो दूर तक किसी परिचित और संबन्धियों में ऐसा कोई जानकार भी नहीं है। कॉलेज में पढ़ाने के नाते यदि उनकी कक्षा की कोई छात्रा भी होती तो वह अपना नाम व परिचय अवश्य ही देती। कुछ नहीं तो उनसे मिलने से पूर्व एक फोन तो कर ही देती। न मालुम कौन हो? सोचते हुये वे शीघ्र ही मुंह धोने बाथरूम में घुस गये। जल्दी-जल्दी मुंह पर पानी के कुछेक छींटे मारे, फिर वहां से निकलकर अपने कमरे में चले गये। कपड़े बदले और फिर बैठक की तरफ चल दिये। अब तक जस्सो ने उस लड़की को आराम से अंदर बैठा दिया था तथा एक शीतल पेय भी बनाकर उसको दे दिया था। गर्मी के दिन थे, सो खिड़की पर लगा एअरकंडीशन भी चालू कर दिया था।संम्प्रति के हिसाब से राज बाबू पिछले तीन दशकों से स्थानीय कॉलेज में रसायन शास्त्र के प्रवक्ता के रूप में कार्य करते आये थे। कॉलेज में सब ही उनको राज बाबू के नाम से ही संबोधित किया करते थे। हांलाकि उनका नाम तो ‘राजनाथन हितकारी’ था, पर प्रवक्ता से पूर्व वे इसी कॉलेज में एक लिपिक के पद पर कार्य कर चुके थे, शायद यही कारण था कि उनका नाम राज बाबू पड़ चुका था। उम्र के हिसाब से पचास के हो चुके थे वे, मगर अभी भी अविवाहित थे। उनके अपने परिवार में उनके अन्य सब ही भाई व बहन अपना पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे, लेकिन राज बाबू का विवाह न करने का क्या कारण हो सकता था, ये राज़ उन्हीं के पास केवल सुरक्षित था। निहायत ही एकांतमय जीवन में शांतिप्रिय समय गुज़ारने की उनकी भी जैसे एक आदत सी पड़ चुकी थी। ज़िदगी की तमाम हसरतें उनकी तन्हाइयों से गले लगकर चुप तो हो चुकी थी, लेकिन उनके मन की दम तोड़ती–सुलगती हुई आस्थाओं के उठते हुये गुबार को शायद किसी ने भी न देखा था?विचारों और सोचों में डूबे राज बाबू ने जैसे ही बैठक के दरवाज़े को हल्का सा खटखटाते हुये अंदर कदम रखा वह लड़की तुरंत ही उनके आदर–मान और सम्मान में अपनी जगह से खड़ी हो गई और फिर उनको नमस्ते करते हुये उनके पैरों की तरफ झुकने लगी तो राज बाबू उसके हाथों को सहारा देकर उसे उठाते हुये बोले,‘नहीं-नहीं बेटी इसकी आवश्यकता नहीं है। ये सम्मान केवल ईश्वर को ही दिया करो।’इतना कहने के पश्चात जैसे ही उन्होंने उस लड़की का चेहरा देखा तो पल भर को अचानक जैसे चौंक भी गये। इस प्रकार कि शीघ्र ही उनको अपनी आंखो पर विश्वास भी नहीं हो सका। एक संशोपंज में डूबते हुये फिर अपने आप से मन में ही बोले कि, ‘नहीं! ये कैसे हो सकता है? ये तो संभव नहीं है?’तुरन्त ही उन्होंने खुद को संभाला। सामान्य हुये। फिर उस लड़की से संबोधित हुये। बोले,‘मैंने अब तक तुम्हें पहचाना नहीं बेटी? कैसे आना हुआ है? अपना परिचय दे सकती हो?’उत्तर में तब उस लड़की ने कहा कि, “मेरा नाम महुआ निखल है। मैं कुमाऊं से आपका पता लगाते हुए यहां तक आई हूं। मेरा यहां आने का जो कारण है उसे सुनकर आप न जाने क्या सोचें . . .।? कहते हुये वह लड़की झिझकी तो राज बाबू ने उसका हैसला बढ़ाते हुये कहा कि,‘संकोच मत करो। सारी बात विस्तार में कहो?’‘मैंने इस वर्ष बी. एस. सी. की फायनल परीक्षा दी है। बहुत ही गरीब और अकेली हूं। कहने को तो माता-पिता हैं, पर वे भी नहीं के बराबर हैं। दुर्भाग्य से मेरा कार्बनिक रसायन शास्त्र का पर्चा इतना अधिक खराब हो गया है कि मैं पास नहीं हो सकती हूं। (यह कहानी उस समयकाल पर आधारित है जब कि परीक्षा की कॉपियां जांचनेवाले अध्यापक/प्रोफेसर के घर पर भेजी जाया करती थीं) एक कंपनी में नौकरी मिलने के अवसर हैं, मगर बी. एस. सी. पास करने के पश्चात ही मुझे ये नौकरी मिल सकेगी। इतना पैसा भी नहीं है कि दुबारा परीक्षा देने के लिये फिर से प्रवेश ले सकूं। किसी प्रकार पता लगाया है कि मेरी परीक्षा की कॉपी आपके पास जांचने के लिये भेजी गई है। यदि आप दया करें तो मुझे पास कर दीजिये।’ कहते हुये महुआ रोने को हुई तो उसे देखकर राज बाबू को लगा कि जैसे उनकी खुद की बेटी ही उनके सामने रो रही हो। महुआ की परेशानी तथा दुख-दर्द उनको महसूस हुआ तो क्षण मात्र को उनकी भी आंखें नम होने लगी। तब वे उसे तसल्ली देते हुये बोले,‘नहीं-नहीं, हिम्मत से काम लो। मुझे कुछ सोचने दो।’राज बाबू की ये बात सुनकर महुआ को कुछ संतोष मिला तो वह जैसे आसक्त हो गई। तब राज बाबू ने आवाज़ देकर घर में खाना बनाने वाली अपनी नौकरानी जस्सो को आवाज़ दी तो वह तुरन्त ही चली आई। उसे अपने पास आया देखकर उन्होंने उससे कहा कि,‘जस्सो, देखो ये बच्ची बड़ी दूर से हमारे घर पर आई है। शायद इसने कुछ खाया भी नहीं होगा। तुम इसका पहले तो खाने आदि का इंतजाम करो। मैं समझता हूं कि आज ये अपने घर वापस भी नहीं जा पायेगी, सो तुम अपने कमरे में ही इसका रूकने का बंदोबस्त कर लेना।’‘ठीक है बाबूजी।’ जस्सो ये कहकर चली गई तो राज बाबू फिर से महुआ से संबोधित हुये। वे बोले कि,‘बेटी, तुम्हें ये सब सुनकर कुछ एतराज़ तो नहीं हुआ? तुम शायद मेरी परेशानी और चिंता को न समझ सको। आज का युग बहुत खराब है। एक युवा लड़की जो मेरी दहलीज़ पर एक शरणायक के तौर पर आई है, उसकी हरेक सुरक्षा के बारे में भी तो मुझे सोचना है। फिर रही तुम्हारा पेपर खराब होने की बात, तो ये समझो कि मैं भी नियमों और कानून में बंधा हुआ हूं, पर अपने घर आये हुये अतिथ का ख्याल रखना भी तो मेरा कर्तव्य है। इसलिये मैंने सोचा है कि . . .’ कहते हुये राज बाबू अचानक ही रूके तो महुआ गौर से उनका चेहरा देखने लगी। इतने पर भी जब वे कुछ न बोले तो उसने सादगी से अपनी नर्म और कोमल आवाज़ में उनसे पूछा कि,‘आपने क्या सोचा है?’‘तुम अपना ये पर्चा दोबारा दे सकती हो?’‘सर, मैं पहले ही से तैयारी करके आई हूं।’‘तो ठीक है। तुम ये पर्चा फिर से देना, यदि तुम पास हो जाओगी तो मुझे भी तुमको पास करने में प्रसन्नता होगी।’राज बाबू की इस बात पर महुआ के परेशान और चिन्तित चेहरे पर संतोष के चिन्ह उभरकर सामने आये तो उसके समस्त चेहरे की आभा इस प्रकार से खिल गई कि जैसे काफी देर से काले बादलों में छिपा चांद निकलकर बाहर आगया हो।‘अब तुम आराम करो, कल अपना पर्चा फिर से तैयारी करके देना।’ये कहकर राज बाबू बैठक में से निकलकर जैसे ही बाहर आये तो जस्सो उनके सामने आ गई। वह अपने हाथ में महुआ के लिये खाने की थाली और पानी का गिलास लेकर आई थी। बैठक में जाने ही वाली थी कि राज बाबू ने उससे कहा कि,‘जस्सो इस बच्ची का पूरा-पूरा ध्यान रखना। उसे यहां पर रहते हुये कोई भी परेशानी नहीं होनी होनी चाहिये।’‘आप बे-फिक्र रहिये, पर . . .’ कहते हुये जस्सो ने उन्हें एक संशय से देखा तो राज बाबू भी उसको गंभीरता से देखने लगे तो जस्सो चुपचाप उनके सामने से जाने लगी। तब राज बाबू ने उसे रोका। बोले,‘सुनो।’‘!’ जस्सो चुपचाप वहीं अपने स्थान पर ही ठहर गई तो राज बाबू उससे संबोधित हुये। वे बोले कि,‘जीवन के पिछले डेढ़ दशक से तुम मेरे यहां खाना बनाती हो, घर के सारे कामकाज करती आई हो, इसका मतलब यह नहीं है कि इस घर में तुम अभी भी एक नौकरानी ही हो। बड़ी सीधी सी बात है कि जब कोई भी इंसान एक ही जगह और एक ही छत के नीचे एक लंबे समय से साथ रहता आया हो तो वह भी उस स्थान और घर का सदस्य बन जाता है। मैं जानता हूं कि तुम मेरे बारे मैं बहुत कुछ समझती हो, तुम्हें बहुत कुछ मालुम भी होगा। जो सवाल तुम्हारे मन मस्तिष्क में घुमड़ रहा है उसका कारण यही है कि पिछले एक महीने से लगभग बारह छात्र मेरे पास अपने खराब पर्चे के नंबर बढ़वाने के लिये आये होंगे, लेकिन उनको मैंने हां और ना का जबाब दिये बगैर ही वापस लौटा दिया था, पर ये लड़की जो कुंमाऊं की पथरीली घाटियों को पार करके मेरे दरवाज़े पर आई है, उसके लिये मैं क्यों नर्म पड़ गया? शायद यही जानने के लिये तुम्हारी पुतलियां फैल गई थीं?राज बाबू की कही बात सुनकर जस्सों चुप ही रही तो वे आगे बोले कि,‘जाओ पहले उस लड़की को खाना खिला दो। हमें अपना दुख-सुख रोने के लिये तो हर रोज़ ही अवसर मिलता रहेगा, पर घर आये हुये मेहमान जैसे पथिक का अतिथ-सत्कार करने का अवसर कभी-कभार संयोग से ही मिला करता है।’ये कहकर राज बाबू अपने कमरे में चले गये तो जस्सो भी खाने की थाली लेकर बैठक में घुस गई।राज बाबू अपने कमरे में आये तो तुरन्त ही उनके कदम ड्रेसर पर एक पुराने फ्रेम में वर्षों पहले मढ़ी हुई रोमिका की तस्वीर को देखकर ठिठक कर गये तो स्वत: ही वे विचारों में खो भी गये। उनके घर में एक शरणारथी की हैसियत से ठहरी हुई अनजान लड़की महुआ की शक्ल कितनी कुछ रोमिका से मिलती है। वही रूप, वही शक्ल है। उतने ही लंबे घनेरे, कूल्हों से भी नीचे झूलते हुए उसके लंबे-घनैरे बाल, उसकी आंखों का देखने और बात करने का अंदाज कितना कुछ रोमिका से मिलता है? लेकिन ये सब समानतायें किसी एक इंसान में मिल जाना एक संयोग कैसे हो जायेगा? फिर रोमिका को तो दुनियां छोड़े हुये जैसे एक युग बीत चुका है। अपनी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने रोमिका के बगैर कैसे तोड़-तोड़कर जिया है? ये तो वे ही जानते हैं। कैसे अचानक से वह उनके सीधे-सादे नीवन में हलचल मचाने आई थी? आई भी थी तो चली क्यों गई? और फिर गई भी तो सदा के लिए एक ऐसा प्रश्न क्यों उनके सामने छोड़ गई कि इंसान जिसमें खुद को न देखते हुये केवल अपनी परछाई को ही पकड़ने की कोशिश करता रहे? सोचते हुये राज बाबू की बीते हुये दिनों की स्मृतियां उन्हें पिछले कई वर्षों के जिये हुये दिनों के जैसे रूठे हुये अतीत में पीछे तक धकेलती ले गई . . .’. . .कितनी प्यारी और भोली थी रोमिका? अपने घर के दरवाज़े के पीछे से जब भी झांककर देखा करती थी तो लगता था कि जैसे बेला का महकता हुआ सफेद ओस से नहाया हुआ फूल मुस्कराने लगा हो। कुमाऊं की पथरीली मनमोहक घटियों की एक विशेष भेंट में जैसे ऊपरवाले ने उसे भेजा होगा, इस धरती की शोभा बढ़ाने के लिये। पहाड़ों की अनमोल कृति थी वह। इतना अधिक आकर्षित चेहरा था उसका कि राज बाबू उसे पहली ही बार में देखकर अपने आप में ही गुमसुम हो चुके थे। बर्फीली पहाड़ियों पर जिस प्रकार से सूरज की प्रथ म रश्मियों का अक्श पड़ते ही आराम से विराजमान बर्फ के बदन पर सिहरन हो जाती है, ठीक वही हाल राज बाबू का हो चुका था। चांदनी रात में ठंडी ओस से नहाये हुये पर्वतों की घाटियों तथा वहां की मनोरम प्रकृति में जन्म लेने वाली सुकुमारियों की सुन्दरता का यदि किसी लेखक ने वर्णन किया है तो वह गलत नहीं किया होगा। सचमुच में पहाड़ों के बदन से हर समय खेलने-चहकनें वाली और सदा हसीन वादियों में महक बिखेरनेवाली प्रकृति की देन हैं वह सुन्दरम घाटियां कि जिनमें हरेक प्यार करनेवाला प्रेमी कूदने को तत्पर हो जाता है। रोमिका के बदन के हरेक हिस्से में परमात्मा ने कुंमाऊं की पर्वत श्रृंखलाओं की सारी सुन्दरता कूट-कूटकर भर दी थी। इतनी ढेर सारी प्रकृति की सारी सुन्दरता को जो लड़की बटोरकर अपने आंचल में भरे फिर रही हो, रूप की उस निधि जैसी मलिका को राज बाबू तो क्या कोई भी देखनेवाला किस प्रकार से भूल सकता था?जितनी जल्दी कॉलेज समाप्त हुये और गर्मी की लंबी छिुट्टियां हो गईं तो उतना शीघ्र ही हर साल के समान राज बाबू उत्तर–प्रदेश की गर्म हवाओं से बचने के लिये अलमोड़ा आ गये थे।हरेक साल गर्मियों की छूट्टियां पहाड़ों की ठंडी और पथरीली भूमि पर व्यतीत करने में राज बाबू के दो मकसद स्वत: ही पूरे हो जाया करते थे। पहला तो मैदानी क्षेत्र की गर्म तपतपाती हवाओं से बचकर वे ठंडे मौसम में अपनी छुट्टियां बिताते थे और दूसरा उनके पिता का वह चिनार की लकड़ियों का व्यापार जिसे वे वषों से करते थे, गर्मी के दो महीनों में वे खुद संभालते थे। इससे उनके पिता को भी आराम मिल जाता था तथा राज बाबू भी व्यापार करने के मामले में परिपक्व होते जाते थे। वे जानते थे कि अपने पूर्वजों से विरासत में मिली रोजी-रोटी की ये विशेष निधि एक न एक दिन खुद उनको ही संभालनी होगी। यही सोचकर राज बाबू अपने संपूर्ण मन और आत्मा से इस कार्य में ध्यान दिया करते थे।सो इस वर्ष भी अपनी अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर की सालाना परीक्षा देने के बाद जब राज बाबू अलमोड़ा आये तो ऐसे ही एक दिन संयोग से उनकी भेंट पहाड़ों की अनमोल सुंदरता की निधि रूप की रानी रोमिका से हो गई थी। सन्धया के डूबते सूरज की लालिमा की आखिरी रश्मियां जैसे मजबूर होकर दम तोड़ने को बे-बस हो चुकी थीं। गहराती हुई शाम का धुंधलका डूबते हुये सूर्य को देखता हुआ चुपचाप रात्रि की कालिमा को निमंत्रण देने लगा था। तभी राज बाबू बड़ी गंभीरता से पहाड़ों के गर्भ में बहती हुई उस नदी की गहराई के साथ उसकी घाटी को भी झुककर झांकते हुये देख रहे थे, जिसके आंचल के साये में ठहरे हुये कुछेक बादलों के आवारा टुकड़े जैसे चुपचाप किसी गंभीर वार्ता पर विचारमग्न हो चुके थे। राज बाबू अपने आस-पास के वातावरण की हरेक निस्तब्धता से बेखबर ये सब देखने में जैसे खो से गये थे कि तभी उनको किसी की सुरीली और मोहक आवाज़ ने चौंका दिया था।‘ऐ . . .।’‘?’ राज बाबू ने अचानक ही मुड़कर देखा तो आवाज़ देनेवाली पर्वतीय मोहक बाला ने उनसे फिर कहा,‘ऐ बाबू।’‘?’ राज बाबू पुन: एक सशोपंज में डूबे उस अनजान लड़की को देखने लगे तो वह उनसे बे-झिझक बोली,‘पर्वत की घाटी में क्या छलांग लगाकर मरने का इरादा है आपका?’कहकर वह लड़की ज़रा मुस्कराई तो राज बाबू को समझते देर नहीं लगी कि वह तो उनको यूं ही जैसे छेड़ने के अंदाज़ में कह रही थी। हांलाकि, कभी राज बाबू के साथ ऐसी घटना नहीं हुई थी कि जिसमें किसी अपरिचित, अनजान रूप-सुदंरी ने उनसे इस प्रकार कहा हो। लेकिन इस जमाने में कभी भी, कैसी भी अनहोनी घटना किसी के साथ भी हो सकती है, सोचते हुये राज बाबू ने भी उसी के अनुरूप उस लड़की को उत्तर दे दिया था। वे बोले थे,‘नहीं, अभी इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी है। यदि पड़ी भी तो यहां पहाड़ों से सिर फोड़ने से बेहतर अपने देश में आत्महत्या करना ज्यादा पसंद करूंगा।’‘क्यों? मैंने तो सुना है कि मैदानी इलाकों के परेशान और दुखी लोग प्राय: पर्वतों पर ही अपना सिर पटकने आया करते हैं?‘आते होंगे, पर मैं उनमें से नहीं हूं। मैं तो हर साल ही आया करता हूं यहां पर।’‘हर साल! लेकिन मैंने तो पहले कभी देखा नहीं यहां आपको?’‘कैसे देखेंगी, मैं तो बहुत ही व्यस्त रहता हूं। पिताजी का बिजनिस है, उसके दफ्तर में ही बैठने से फुर्सत नहीं मिलती है। आज थोड़ा सा वक्त मिला भी था तो आप आकर उलझ गईं।’‘मैंने आपका कीमती समय खराब कर दिया। मॉफ करना बाबू। लेकिन मेरा इरादा ऐसा कुछ भी नहीं था। सचमुच में मुझे आपकी मदद चाहिये थी। इसीलिये आपको टोका था।’‘कैसी मदद?’‘वह मेरा लकड़ी का गट्ठर है, उसे सहारा देकर मेरे सिर पर रखवा दीजिये।’ उस लड़की ने इशारे से लकड़ियों का बंधा हुआ गट्ठर दिखाया तो राज बाबू उससे बोले,‘इतनी सी बात तो तुम सीधे से भी कह सकती थीं?’‘सीधे से? सीधाई का जमाना अब नहीं रहा है बाबू। सचमुच में लड़की बनकर रहो तो लोगों की नियत खराब होते ही आंखों की रोशनी बदल जाया करती है।’‘इसीलिये शेरनी बनकर डरा रही थीं मुझे।’ राज बाबू ने कहा तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी थी। इस प्रकार कि जैसे अचानक ही किसी के गले में पड़ी मोतियों की माला टूटकर बिखर पड़ी हो।तब राज बाबू ने उसकी मदद कर दी थी। लकड़ियों के बड़े से ढेर को लेकर जब वह जाने लगी थी तब उसने एक बार फिर मुस्कराते हुये राज बाबू से कहा था कि,‘बाबू! कल फिर से यहीं पर मिलना।’‘कल फिर क्यों?’‘अरे, आप तो बिलकुल बुद्धू हो जैसे। यदि आप यहां नहीं होंगे तो कल कौन लकड़ियों का गट्ठर उठवाकर रखवायेगा?’सचमुच बुद्धू ही तो हो गये थे राज बाबू। दूसरे दिन राज बाबू वहां पर समय पर पहुंच गये थे लेकिन वह अनजान लड़की नहीं आई थी। नहीं आई तो राज बाबू सोचने लगे थे कि वे यहां पर सचमुच में उस अनजान लड़की की मदद करने आये थे या फिर उसके ही कारण खुद खिंचे चले आये थे? जब कुछ निर्णय नहीं ले पाये तो उन्होंने इस घटना को मात्र एक संयोग देकर अपने मन-मस्तिष्क से साफ करने की चेष्टा तो की थी पर चाहकर भी वह ऐसा नहीं कर सके थे। फिर काफी दिनों तक उस लड़की का सुंदर चेहरा उनके दिल के ख्यालों में हलचल मचाता रहा था। बहुत चाहा था कि वे उसे भुला दें, पर नहीं भुला सके थे।तब एक दिन वह लड़की उनको फिर से मिल गई थी। लेकिन इस बार पहाड़ों की वादियों में न होकर एक केबिस्ट की दुकान पर। उसे देखकर राज बाबू मुस्कराये तो वह लड़की उन्हें देखकर पहचानी तो पर उस् तरह से मुस्कराई नहीं। तब राज बाबू ने उससे पूछा,‘परेशान लगती हो?’‘मेरी मां बुखार में पड़ी हुई है। इसीलिये मैं दूसरे दिन नहीं आ सकी थी। यहां उनके लिये दवा लेने आई हूं। मुझे मालुम है कि आपने जरूर मेरा इंतजार किया होगा।’‘इंतजार? तुमने कैसे पता लगा लिया कि मैंने तुम्हारा वहां पर इंतजार किया होगा?’ राज बाबू ने पूछा था, तो वह बोली थी,‘इसलिये कि आप बहुत सीधे हैं। लगता है कि किसी सभ्य परिवार से भी हैं?’‘अपने परिवार के बारे में तो कोई तर्क नहीं दूंगा, लेकिन हां, गैर मसीही होकर भी मैं मसीह यीशु के स्वभाव, सहनशीलता, नम्रता उनके कार्य तथा त्याग में बहुत आस्था रखता हूं।’तब उस लड़की ने जैसे उनकी बात अनसुनी करते हुये कहा कि,‘बाबू, अभी तो मैं बहुत जल्दी में हूं। जाती हूं। कभी खूब आराम से बैठकर आपसे बातें करूंगी। बहुत ही दिलचस्प मनुष्य लगते हैं आप।’‘बातें करोगी, लेकिन किससे?’‘आपसे।’‘मेरा नाम जानती हो?’‘कुछ भी हो, पर मैं तो आपको बाबू ही बोलूंगी। बाबू नाम ही काफी रहेगा मेरे लिये।’‘रहती कहां हो?’‘यहीं, इसी शहर में।’‘तुम्हारा नाम।’‘रूमी। पूरा नाम रोमिका निखल है।’‘मिलोगी कहां पर।’‘कहीं भी, कभी भी, अचानक से।’ कहते हुये वह हंसती हुई चली गई तो राज बाबू फिर एक बार टापते से रह गये थे। जानते थे कि सब कुछ तो उसके बारे में पूछ लिया ठसा, मगर फिर भी जैसे कुछ नहीं जान सके थे उसके बारे में।तब एक दिन रूमी राज बाबू को फिर से मिली। पहले से और भी अधिक सज-धज कर। उसके रूप में चांदनी की परतें जोड़कर, नीली आंखों में जब राज बाबू ने अपने डोलते-हिलते हुये प्रतिबिंब को देखा तो वह भी डोलने लगे थे। फिर मुलाकातें और बढ़ीं। वे दोनों और करीब आये। प्यार के प्रतिबिंब दोनों की आंखों से बनते हुये एक दूसरे के दिलों के घर की दीवारों से चिपकने लगे। वे पास आये। इतना अधिक कि फिर कभी अलग होने की कल्पना भी नहीं कर सके। जानते थे कि यदि जुदा हुये तो जिस तीसरे अनजाने मानवीय जीव के जन्म की तैयारी वे दोनों समाज और धर्म दोनों ही के नियम तोड़कर कर चुके हैं, उसका क्या होगा? रूमी कहीं बदनाम न हो, उस पर कलंक न लगे, यही सोचकर राज बाबू ने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसकी नीली आंखों में आंसू झलक आये। इस प्रकार कि जैसे आकाश से टूटती शबनम की बूंदों को जमीन की वनस्पति ने भी पनाह देने से इनकार कर दिया हो। फूलों और पत्तियों पर यदि ओस की बूंदों को शरण नहीं मिलेगी तो फिर वे कहां जायेंगी? रूमी की आंखों में मजबूरी थी। परेशानी थी। उसके प्यार की राहों में कोई रूकावट थी, ये बात तो राज बाबू समझ गये थे पर, उसकी बेबसी का राज़ क्या हो सकता है, वे नहीं समझ सके थे। रूमी रोकर, आंसू पौंछकर, परेशान सी, उनसे दूसरे दिन मिलने का वचन देकर चली गई थी। पर उसके बाद वह फिर कभी भी उनको नहीं मिली थी। राज बाबू ने उसको बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा, हरेक वह स्थान और वह जगह कई-कई बार देखी, जहां पर उसके मिलने की ज़रा भी संभावना हो सकती थी, मगर वह नहीं मिली। एक बार सोचा कि अखबार में उसकी गुमशुदी की खबर करवा दी जाये पर यही सोचकर कि प्यार के रिश्तों से तो उनका संबन्ध रूमी से बनता था, पर कानून और समाज दोनों ही के नाते उनका उस पर कोई अधिकार नहीं जाता था। यदि अखबार में एक बार छपवा भी दिया तो बेमतलब खुद रूमी के साथ वे भी बदनामी के घेरे में आ जायेंगे। लोग रूमी को कलंकनी, दुष्टा आदि न जाने क्या-क्या दोष लगाते फिरेगें।फिर जब रूमी नहीं मिली तो राज बाबू परेशान ही नहीं खुद से उदास भी हो गये। उनकी उदासी का मुख्य कारण रूमी की अकारण पलायनता इतनी नहीं थी जितना कि वे उसका कारण जान लेना चाहते थे। जानना चाहते थे कि आखिर ऐसी कौन सी बात, कारण और विवशता रूमी के समक्ष आ गई कि जिसके कारण वह उनके जिस्म में समाकर भी अब अलग हो गई थी। धर्म, समाज, राज्य और देश, कोई तो कारण सामने आया होता कि जिसकी असमानता और विभिन्नता ने एक ही पथ के दो पथिकों को सदा के लिये अलग कर दिया था। वे जानते थे कि उन्होंने तो रूमी को इसकदर चाहा था कि उसकी चाहत में उन्होंने कभी भी ये तक जानने की कोशिश नहीं की थी कि वह कौन थी? क्या उसकी पारिवारिक स्थिति थी, किस धर्म और समाज से उसका वास्ता था। जिस रिश्ते से उन्होंने रूमी को अपने गले से लगाया था, जिस लगन से उसको अपने दिल और दिमाग की हर धड़कन का राज़ बताया था, उस रिश्ते का केवल एक ही नाम उनके पास शेष बचा था। और वह रिश्ता था, प्रेम, अपनत्व और मानवीय चाहत का।रूमी को जब राज बाबू नहीं ढूंढ सके। उसकी गुमशुदी की कोई खबर भी उनको नहीं मिली और उसकी खोज में जब थक-हारकर परेशान हो गये तो एक दिन निराश और टूटे मन से अल्मोड़ा से लुटे-लुटे से चले आये। चले आये तो दुबारा उनका वहां जाने का मन ही नहीं हो सका। और फिर जाते क्यों और किस आस और उम्मीद पर? जिस शहर की जमीन ने उनके प्यार की तौहीन कर दी थी, जिसकी हवाओं ने उनके सच्चे प्रेम की जैसे खिल्लियां उड़ाई थीं और जिन पर्वत की घाटियों में उनका प्यार धूं-धूं करके जलकर खाक हो चुका था, वे वहां क्योंकर जाते? अगर जाते भी तो केवल वहां के पत्थरों से अपना सिर फोड़ने के लिये ही। कितनी सही बात रूमी ने उनसे उस समय कही थी जब कि वे उसके साथ अपने प्रेम की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ सके थे, ‘मैदानी इलाकों के परेशान और दुखी लोग पर्वतों पर अपना सिर फोड़ने ही आया करते हैं बाबू।’ राज बाबू रूमी की इस बात को याद करते थे और फिर अपना सिर धुनते थे। अपने मैदानी क्षेत्र के घर पर जहां वे रहा करते थे, पर ना आत्महत्या कर सके और न ही रूमी के पहाड़ी इलाके में सिर फोड़ने जा सके। वे चुपचाप अपने दिल का हाल किसी को भी बताये बगैर रूमी की स्मृतियों को अपने दिल में अपनी ज़िन्दगी का एक कड़वा और कसैला हादसा छुपाकर दिन-रात घुटते हुये जीने लगे थे। तभी एक दिन उनको डाक में एक पत्र मिला था। लिखनेवाली ने अपना नाम न लिखकर केवल ‘रूमी की मां’ ही लिखा था। पत्र में खबर थी कि किन्हीं कारणोंवश रूमी आपसे विवाह नहीं कर सकती थी और जहां पर उसका विवाह लगा था वह वहां भी नहीं करन चाहती थी, इस कारण उसने पहाड़ी से कूदकर अपनी आत्महत्या कर ली है। राज बाबू ने पत्र पढ़ा तो फिर अपना सिर पकड़कर ही बैठ गये। फिर भी सब्र कर लिया था कि कम से कम खबर तो मिली थी, चाहे इतने दिनों तक कसकने, घुट-घुटकर जीते रहने और चाहे देर में ही क्यों न? अब असंतोष जैसी कोई बात तो नहीं रहेगी। लेकिन फिर भी उन्हें मलाल था तो केवल इस बात का ही कि जीवन का इतना महत्वपूर्ण फैसला करने से पहले रूमी ने उनसे एक बार कहा तो होता?उसके बाद, एक दिन राज बाबू फिर से अल्मोड़ा गये। रूमी की मां से मिले। अपना दुख प्रगट किया। परेशान हुये। पश्चाताप के आंसू बहाये और उस स्थान पर जहां पर रूमी का अंतिम संस्कार किया गया था उसकी समाधि के नाम पर अपनी बरबाद और उजाड़ मुहब्बतों के पुष्प रख कर चुपचाप चले आये। पिता के बिजनिस को पिता की मृत्यु के पश्चात उन्होंने नहीं चलाया और उसे भी बेच डाला। बेच इस लिये दिया कि उस शहर में वे अब क्यों रहते जिसमें उनके प्यार की अर्थी अंतिम संस्कार होने से पूर्व ही नीलाम कर दी गई थी। घर आकर उन्होंने साधारण सी जीविका के लिये कॉलेज में ही लिपिक की नौकरी की और बाद में वे विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे थे। अब तक वे रूमी की याद को भुला तो नहीं सके थे, इसलिये वर्ष में एक बार वे अल्मोड़ा जाकर उसके सम्मान में उसकी समाधि पर श्रृद्धा के फूल रखने अवश्य ही जाया करते थे। रूमी का दुख और मलाल तो उनको था ही पर उससे भी अधिक सदमा उन्हें अपनी उस संतान का लगा था जो रूमी के गर्भ में जन्म लेने से पहले ही मर चुकी थी। काश: रूमी ने उनके प्यार की इबादत का अध्याय सदा को बंद करने से पहले कुछ नहीं तो दोनों के प्यार की अजन्मी निशानी का ही ख्याल कर लिया होता। इस संसार से कूच करने से पहले उनसे एक बार पूछा तो होता। पूछ लिया होता तो शायद उनके और रूमी के प्रेमपथ की तबाह हुई मंजिल की तस्वीर कुछ दूसरी ही हुई होती। राज बाबू महसूस करते थे कि उनके जीवन की वह खुबसूरत और प्यारी तस्वीर जो उनके ख़ाक हुये अरमानों की लाश पर रखे हुये फूलों की माला का अब तनिक भार भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी अब इस लायक भी नहीं रह गई थी कि उसे दुबारा दीवार पर कोई सूली पर सजा भी सके। कितना बुरा हश्र उनके प्यार के उन गीतों का हुआ था कि जिसके एक-एक सुर में रूमी की नीली आंखों से टूटते हुये अश्रुओं की आहट के साथ-साथ अब हर रोज़ उन्हें अपने प्यार की अजन्मी, नादान, मासूम और भोली संतान की मासूम कराहटें भी सुनाई देने लगी थीं . . . .’. . . और आज जब फिर से एक बार उन्होंने अपने घर की दहलीज़ पर आई हुई अनजान और अपरिचित लड़की महुआ को देखा तो उसकी शक्ल में विराजमान वर्षों पूर्व उनकी मजबूर मुहब्बत के कफ़न में मृत रूमी जैसे फिर से जीवित हो गई थी। दुनियां का चलन है कि संयोग केवल संयोग होता है और हकीकत वास्तविकता के धरातल पर वह सच होता है कि जिसे मनुष्य बहुत चाहते हुये भी कभी नकार नहीं पाता है। उनके अपने घर में एक केवल एक रात की शरणागत् की हैसियत से ठहरी हुई अनजान लड़की महुआ के जीवन की कोई न कोई डोर का कोई सिरा रूमी या फिर उसके परिवार से अवश्य ही मिलता होगा...? विचारों में डूबे, परेशान राज बाबू सोचे बगैर नहीं रह सके थे।दिन भर का थका-थकाया सूर्य का गोला दूर वृक्षों के सहारे नीचे उतरने लगा था। शाम डूबने की तैयारी कर रही थी। पेड़ों और बिजली के खंभों की लंबी होती परछाइयां राज बाबू के घर के आंगन की दीवार फांदकर जाने कब की अंदर घुस चुकी थीं। जस्सो दोपहर में अपने घर जाकर फिर से आकर शाम का काम–काज किचिन में कर रही थी। रसोई में प्राय: होती बर्तनों की खटपट उसकी उपस्थिति और उसके द्वारा किये जानेवाले कामों का आभास दिला देती थी। दोपहर होने से पहले का समय रहा होगा जब महुआ ने उनका दरवाज़ा खटखटाया था, तब से अब तक न जाने कितने घंटों तक राज बाबू अपने कमरे में उदास बैठे हुये अपने जीवन के कितने बहुमूल्य गुज़ारे हुये दिनों को एक बार फिर से दोहरा चुके थे। उनके जीवन के वे पल, वे दिन और वे यादें कि जिसके हरेक कतरे में उनकी और रूमी की उजाड़ मुहब्बतों के वे नाजुक पुष्प बेजान पड़े हुये थे जो आज वक्त के बदले हुये मौसम और वातावरण में बगैर एहसास के ठोस पत्थर बन कर रह गये थे। दिल की कितनी नाजुक उम्मीदों के सहारे उन्होंने अपनी हसरतों की मंजिक ढूंढ़ लेनी चाही थी, पर ये उनके नसीब की लकीरों का सिला ही था कि मंजिल ढूंढ़ने की चाहत में वे अपने खुद का जीवन तक खो चुके थे। अपनी जवानी के दिनों में रूमी के साथ गुनगुनाई हुई उनके प्यार की कहानी आज मरने के पश्चात भी फिर एक बार महुआ के सुंदर रूप में जीवित होकर दोहराने लगी थी।बीती हुई, ज़ख्मी स्मृतियों का बंधन तोड़कर राज बाबू बाहर बरामदे में आकर बैठ गये तो तुरन्त ही जस्सो ने शाम की चाय का गर्म, भाप उड़ाता हुआ मग उनको लाकर पकड़ा दिया। हाथ में मग को पकड़ते हुये राज बाबू जस्सो से बोले,‘वह लड़की?’‘उसको भी चाय दे दी है मैंने?’‘अब क्या कर रही है?’‘जब से आई है किताबें पढ़ने में लगी है।’‘उसने कुछ आराम भी किया है या नहीं?‘मैं तो सोचती हूं कि नहीं।’कहकर जस्सो चली गई तो राज बाबू फिर से विचारों में खोने लगे। सोचने लगे कि एक अनजान और अपरिचित उस लड़की महुआ से जिसकी शक्ल तो क्या उसके शरीर का एक-एक हिस्सा, उसके हरेक हाव-भाव उनकी उस रूमी से बखूबी मिलते हैं, जो समाज और कानून के हिसाब से तो उनकी कोई नहीं लगती थी पर दिल में लिखी हुई हसरतों के नाते उस पर उनका पूरा अधिकार था, उससे किस प्रकार और किस बहाने से रूमी का ज़िक्र करें? इन्हीं ख्यालों और ताने-बानों में शाम डूब गई। रात घिरने लगी तो शाम का खाना राज बाबू ने महुआ के साथ ही बैठकर खाया। खाना खाते समय भी उन्होंने सोचा कि महुआ से रूमी के बारे में पूछें पर कहने के लिये साहस नहीं बटोर सके। लेकिन वास्तविक बात को छोड़कर उन्होंने अन्य बातों की जानकारी उससे अवश्य ले ली थी। इसी उहापोह में शाम का खाना भी समाप्त हो गया। राज बाबू सोने चले गये। जस्सो के साथ महुआ भी सोने चली गई। दूसरे दिन महुआ को वापस जाना था। राज बाबू देर रात तक जागते रहे थे। काफी देर में वे सो सके थे। इसलिये जब सुबह उठे तो काफी देर हो चुकी थी। जस्सो ने महुआ को नाश्ता आदि करा ही दिया था। वह खा-पीकर बैठक में अपनी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। राज बाबू को कहीं आवश्यक काम से जाना भी था, सो उन्होंने अपने कमरे में फ्रेम में वर्षों पूर्व मढ़ी हुई रूमी की तस्वीर को लिफाफे में बंद किया तथा जाने से पहले उसे महुआ को देते हुये बोले कि,‘बेटी, मुझे एक आवश्यक काम से जाना है। तुम्हें परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं है। तुम केवल पांच नंबरों से ही फेल हो रही थीं, सो मैंने उन्हें ‘एडजस्ट’ करके तुम्हें पास कर दिया है। तुम निश्चिंत होकर कभी भी अपने घर वापस जा सकती हो।’महुआ ने सुना तो खुशी के कारण तुरन्त ही उसकी आंखों में आंसुओं के मोती झलकने लगे। आंसू आ गये थे शायद इस कारण कि जो प्यार और अपनत्व राज बाबू के सामीप्य में उसने पाया था, इतना तो शायद उसे अपने निजी घर में भी नहीं मिला होगा? राज बाबू ने समझा और महसूस किया तो खुद उनकी भी आंखें नम हो गई। सूखे खेत में अचानक से आई बरसात देखकर जो खुशी एक किसान को होती है वही खुशी महुआ की आंखों के मोतियों में दिखाई दे रही थी। तब बाद में राज बाबू ने उस लिफाफे को जिसमें उन्होंने रूमी की तस्वीर को बंद करके रख दिया था, को महुआ को थमाते हुये कहा,‘बेटी, तुम अल्मोड़ा की रहनेवाली हो। अल्मोड़ा से मेरे जीवन का एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा जुड़ा हुआ है। मैं तुमसे बहुत कुछ पूछना चाहता था पर, मैं एक अध्यापक हूं और तुम छात्रा, इसलिये बहुत चाहकर भी साहस नहीं जुटा सका था। इस लिफाफे में मेरे जीवन की एक बहुत महत्वपूर्ण और कीमती वस्तु रखी हुई है। यदि इससे तुम्हारे जीवन का कोई वास्ता हुआ हो तो मुझे मालुम है कि तुम क्या करोगी? यदि नहीं तो इसे मुझको फिर से वापस कर देना और हमारी इस भेंट को एक औपचरिक भेंट समझकर भुला भी देना।’यह कहकर राज बाबू चले गये। फिर जब वे दूसरे दिन लौटकर आये तो दरवाज़े पर दस्तक दी। मगर जस्सो के स्थान पर जब महुआ ने द्वार खोला तो उसे सामने खड़ा देखकर चौंक गये। वे कुछ कहते इससे पूर्व ही महुआ कुछ भी कहे बगैर उनके बदन से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी। राज बाबू को समझते देर नहीं लगी कि उनकी वषों पूर्व की खोई हुई मंजिल उनको अब मिल चुकी है। तब उनसे लिपटे हुये ही महुआ ने सिसकियां भरते हुये कहा कि,‘पापा जी! मम्मी जीवित हैं और वे मेरे दूसरे पापा के साथ रह रही हैं।’‘तुम्हें जब मैंने देखा था तो मेरा भी यही ख्याल था बेटी। लेकिन में नहीं जानता हूं कि तुम्हारी मां को खुद जीवित रहकर मुझे जीते-जी इस तरह से मारने की क्या जरूरत पड़ गई थी?’ज़िन्दगी का इतना कड़वा और कठोर और कसैला झूठ बोलकर रूमी उनसे सदा के लिये किनारा कर गई. . .? सोचते ही राज बाबू की भी आंखों में क्षोभ और विछोह के मोती झलकने लगे।रूमी की अचानक पलायनता, राज बाबू के जीवन से उसका यूं चुपचाप चले जाना, प्यार के वादे करने के बाद उनकी निशानी को अपनी कोख़ में छिपाकर उनसे सदा के लिये मुंह मोड़ लेना, रूमी के ये सब ऐसे अनहोने व्यवहार बनकर राज बाबू के समक्ष आये थे कि जिसके बारे में वे कोई भी कारण अपने सारे जीवन भर नहीं ढूंढ़ सके थे। मगर कभी-कभी बीती यादों की धुंध में जो हल्का सा सबब उन्हें महसूस होता था वह शायद दो विभिन्न धर्म और समाजों के मध्य मनुष्य के द्वारा बनाई हुई वह ऊंची दीवार है कि जिसको तोड़ने की कोशिश कम और मजबूत करने की ज्यादा इंसान सदा से करता आ रहा है। राज बाबू तो मसीही नहीं हुये थे। केवल यीशु मसीह के सिद्धांतों में आस्था ही रखते थे। केवल आस्था रखने भर से ही उनको वह सजा मिली है कि जिसने उनकी ज़िन्दगी की सारी खुशियों को बदलकर कड़वाहट में बदल डाला है। इस प्रकार कि उनसे प्यार करनेवाली रूमी ने अपने प्यार की परवा न करते हुये उनको सारे जीवन भर रिसने का रोग दे दिया। किस प्रकार वे पिछले इक्कीस वर्षों से किसी की झूठी समाधि पर अपने उजड़े हुये प्यार के फूल अर्पित करते आ रहे थे। अपने प्रेम की अर्थी के झूठे बदन पर अपनी रूठी मुहब्बत की आस्था के आंसू बहा रहे थे। फिर भी राज बाबू ने संतोष कर लिया था कि उनके जीवन की वह मंजिल कि जिसका निशान तक उनकी आंखों से छिप चुका था, अब स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। उनकी रूमी, अब उनकी बेटी बनकर उनके घर आ चुकी थी। उन्हें अब उन्हें इस बात और बदनामी की भी कोई चिंता नहीं थी कि ये सब कुछ देख कर लोग क्या कहेंगे? समाज उन पर कैसे-कैसे दोषारोपण करेगा? वे तो केवल इतना भर ही जानते थे कि दिल की महबूबी हसरतों के साथ संजोई हुई कोई भी प्यारी वस्तु जब खोने के पश्चात फिर से वापस मिल जाती है तो उसके सुखद अनुभव की जो अनुभूति मिलने वाले को होती है उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है।

-समाप्त.