परीधि
पहली नजर में देखने से कर्नल पंत जितने रौबदार व शुष्क नजर आते थे वास्तव में वह अंदर से कोमल ह्रदय समझदार व्यक्ति थे | नियमों का पालन करने वाले इंसान एक सच्चे थे। उनकी पत्नी सुधा को भी उनसे विशेष शिकायतें नहीं थी।
वर्षों से थल सेना में कार्यरत थे उसी वातावरण के लोगों के बीच उठना बैठना । लगातार उसी तरह के वातावरण में रहने के कारण कनर्ल पंत की कुछ बातें आम सिविलियंस की समझ से परे होती। वैसे भी सैना में या राजनिति में रह रहे लोगों का प्रिय शब्द होता है ‘प्रोटोकोल’’ जो उनकी व उन जैसे लोगों की जबान पर सदा घरा रहता है। वह प्रोटाकोल ही होता है जिसके कारण आप अपने चारों तरफ रह रहे लोगों से भी खुल कर बतिया नहीं पाते क्योंकि प्रोटोकोल की जडें अंदर तक पेंठ बनाये होती हैं|
एक सैनिक पत्नी दूसरी सैनिक पत्नि के साथ प्रोटोकोल के हिसाब से ही तो मिलना जुलना रखती है। सुधा सदा इन बातों का बहुत ध्यान रखती। इसी लिये कनर्ल पंत को पत्नि सुधा का साथ पसंद था और इसीलिये उनके आपसी व्यवहार में शिकायत के मौके कम से कम आते। वैसे भी इस तरह के समाज में पारिवारिक सारे समझौते एक तरफा ही तो होते हैं| इसी लिये कनर्ल साहब को पत्नी अपने परिवार को साथ रखना अखरता नहीं था।
दो युवा बेटों के पिता कर्नल पंत जो आज भी शारिरीक रूप से उतने ही जवां और चुस्त नजर आते , जैसे वह बीस बरस पहले नजर आते थे। सुधा को भी अपने रख रखाव वनाव शृंगार की पूरी हिदायत थी। कहीं भी जाने से पहले समयानुकूल, स्थानाकूल पोषाक कनर्ल साहब की प्रथम प्राथमिकता थी।
यूं तो प्रकृति में तो अनेक रंग पर पर रंगों का व वस्त्रों को चयन स्थान अवसर पर निर्भर करता है| इतने वर्षेा साथ रहकर सुधा सब सीख गई थी।
कनर्ल साहब परिवार के प्रति भी उतने ही सजग थे| जितने वह देश के अपने कर्तव्य के प्रति थे। उनकी अपनी दिनचर्या घूमने फिरने में कोई व्यवधान न हो, इसीलिये उन्होंने निर्णय लिया था कि छोटा बेटा सुशांत अभी से ही हॉस्टल में रहकर अपनी पढाई पूरी करेगा। क्योंकि वह अपनी पत्नी के ध्यान को बंटता हुआ बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। सुधा ने भी तो मन मार कर ही उनके कुछ निर्णयों का स्वागत किया था।
बड़ा बेटा घर में था पर उसका रहना भी क्या अर्थ रखता था। कहते हैं विधाता किसी को भी सारे सुख नहीं देता। कनर्ल साहब का बड़ा बेटा .........मानसिक बिमारी से ग्रस्त था। इस बात को लेकर कर्नल पंत ने कभी किसी के सामने अपना अफसोस या दुःख व्यक्त नहीं किया। जैसे उन्होने विधाता की हर बात को स्वीकार कर लिया हो। हां कभी कभी वह अपनी पत्नि के साथ बैठकर अपने पुत्र को शान्ति से निहारते देखे जाते कभी अकेले में अपने ढल आये आंसूओं को सबसे छुपा कर पौंछते भी सुधा ने ही देखा था।
कनर्ल पंत का व्यवहार अधिनस्थ लोगों. सैनिक परिवार व अन्य लोगों के प्रति सदा सह्रदय पूर्ण रहता। कभी उन्होने अपना रौब व रूतबा दिखाने के लिये किसी को नहीं डांटा। सुधा को भी रौब दिखाने से बहुत चिड़ थी। पर कोई उसे सहजता से ले व उसके साथ गलत व्यवहार करे ये भी उसे कतई मंजूर नहीं था।
अभी कुछ समय पहले ही पंत साहब के अधिनस्थ काम कर रहे अर्दली का अचानक देहान्त हो गया। कर्नल साहब ने निर्देश दे कर सारी प्रक्रिया को सहजता से पूरा करवाया| उन्होने ही उसके परिवार को
गाँव भेजने की व्यवस्था की , अर्दली का विवाह अभी वर्ष भर पहले ही हुआ था। परिवार के नाम पर पत्नि ही थी, जिसे उसके ससुराल भेज दिया गया। कुछ दिनों पहले कनर्ल पंत को सुत्रों से समाचार मिला कि पैन्शन और सेना से मिले रूपयों के लालच में परिवार ने उसकी विधवा को स्वीकार तो कर लिया पर सारा पैसा ले लेने के बाद उसे घर से निकाल दिया । समाचार जान कर कुछ देर सोचने के बाद कनर्ल साहब ने पत्नी सुधा से कहा। मैंने उस अर्दली की पत्नि को यहाँ बुलवाने का निर्णय ले लिया है| अब उसे हम अपने घर में रखेंगे और हम उसे संरक्षण देंगे। सुधा ने अचरज से पति को निहारा था| आगे किसी प्रश्न की संभावना को समाप्त करते हुये कर्नल पंत ने कहा था |
“हमारे प्रशान्त की आया बनकर वह हमारे सामने रहेगी। मैंने देखा है वह धैर्यवान व सलीके दार महिला है”
सुधा भौचच्की सब सुनती रही, महिलाओं के प्रति पारखी द्रष्टि रखने वाले पति को वह निहारती रह गई। सुधा को इस निर्णय में अनेक नकारात्मक पहलु नजर आ रहे थे फिर भी वह किसी तरह का तर्क करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी। कभी कभी कनर्ल साहब को व्यवहार व निर्णय उसको भी अचरज में ड़ाल दिया करते थे। वह अपनी दुरदर्शिता से क्या देखते हैं, क्या समझते हैं यह सुधा को लम्बे समय के बाद समझ आता।
खैर दिवंगत अर्दलीं की पत्नि सुरेखा को कनर्ल साहब के अंतःपूर में स्थान मिल गया। अब वही प्रशांत को पूरी तरह से संभालती थी। प्रशात भी अब सौलह वर्ष का किशोर हो चला था| पहले प्रशान्त को नहलाने धुलाने के लिये एक अलग आदमी रखा था। पर अब वह उससे चिढ़ने लगा था। इस लिये सुरेखा ही प्रशान्त का नहलाना धुलाना कपड़े पहनाना घूमाना फिराना करती।
वह सुरेखा के साथ शांत रहता, उसे सहयोग भी करता सुधा को पति का निर्णय सही लगा क्योंकि अब प्रशात ठीक से खाने लगा था। डाक्टर से सीख कर सुरेखा रोज़ प्रशान्त को कसरत करवाती| दोपहर का खाना खिलाने के बाद प्रशान्त टी वी देखते देखते सो जाता। तभी सुरेखा अपना नहाना- धोना, खाना-पीना करती। अब सुरेखा की दिनचर्या भी प्रशांत के अनुसार बन गई थी| जिससे सुधा अब और बेफिक्र हो गई थी |
सुरेखा को आये अब चार वर्ष हो गये थे। सुधा ने महसूस किया की प्रशांत अब पल भर भी सुरेखा की अनुपस्थि बदाश्त नहीं कर पाता था। सुधा ने अब प्रशात में सुधा के लिये एक लगाव व चाहत देखी । जब भी वह रसोई घर में होती बाहर होती वह उसे बुलाने लगता फिर सुधा भी पुत्र को समझाने का प्रयास करती पर प्रशांत तो तभी शांत होता जब सुरेखा उसके सामने आती। सुधा यह बात किसी को कह तो नहीं पाई पर उसके मन में अनेकों प्रश्न उठते। वह सोचती कभी सुरेखा गांव चली गई तो उसे प्रशांत को संभालना कितना कठिन हो जायेगा। इसी सोच के साथ सुधा प्रशांत को कितने ही दिनों तक स्वयं संभालने में व्यस्त रहती| उसके कुछ काम अपने उपर लेती पर यह बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चलता ।
सुधा ने महसूस किया कि पहले सुरेखा बाहर वाले कमरे में सोती थी| अकसर प्रशात की देर रात की पुकार पर मां सुधा ही उसे संभालती थी पर आजकल सुरेखा रात देर तक प्रशांत के कमरे में बनी रहती । प्रशात को सुलाकर वह वहीं बैठी टी वी देखा करती या किताब पढती रहती।
कर्नल साहब जब सुरेखा से प्रशांत में आये बदलाव की बात करते तब सुरेखा का जवाब सकारात्मक ही होता। उसका कहना था मुझे तो प्रशांत की सभी बातें समझ आती हैं। पता नहीं क्यों औरों को समझ नहीं आती ।
कनर्ल साहब जानते थे कि सुरेखा की मैहनत का ही परिणाम था कि प्रशांत अपने आप नहाना, कपडे़ पहनना, चप्पल पहनना, खाना व बिस्तर पर चादर ओढना जैसे काम स्वयं करने लगा था। यहॉ तक की दूर रखा पानी का ग्लास भी सुरेखा के आदेश पर लाकर देने लगा था। सुरेखा अकसर सुबह प्रशांत को अच्छी तरह से तैयार करती कनर्ल साहब के पास हाथ पकड़ कर लॉन में बिठा देती सुबह का अखबार भी दिखाती। बाग में पक्षी, फूल, पत्ते दिखाकर आकर्षित करती। यही सब सुधार पिता भी महसूस कर रहे थे।
कर्नल साहब जानते थे कि प्रशांत को जो बिमारी है। इस तरह के जन्मजात रोगियों में विशेष सुधार की आशा करना व्यर्थ है पर ठीक है जीवन अपनी गति से चल रहा था। जब सुशान्त आता तो दोनों भाई खेलते प्यार से मिलते पर कनर्ल साहब के लिये दोनों के बीच का अंतर और मुखर हो उठता। इस बार भी कुछ दिनों से सुशांत घर आया हुआ था। प्रशांत के आये बदलाव को देखकर सुशांत भी प्रसन्न था। इस बार सुशांत, प्रशात के साथ उसी के कमरे में रहा और वहीं सोया। इससे सुधा को बडा सकून मिला था।
जिस दिन सुशांत जाने वाला था| सुशांत की ट्रेन मध्यरात्री की थी । कर्नल पंत को व सुधा को शाम सात बजे ही किसी कार्यक्रम में जाना था। प्रोटोकॉल था इसलिये जाना जरूरी था। जानते थे कि वापस लौटने में देर हो जायेगी। इसलिये ट्रेन का समय होने पर गाड़ी भेज कर सीधे स्टेशन पर ही बुलवा लिया था सुशांत को।
सुशांत आज जा रहा है पप्रशांत का मन खराब होगा। यह बात कर्नल साहब के दिमाग में थी । रात बारह बजे के बाद जब वह लौटे तब कर्नल पंत सीधे प्रशांत के कमरे में जाने की सोच रहे थे| सोचा पहले कपडे़ बदल लें। वैसे भी यदा कदा कर्नल साहब का पितृत्व जागता तो वह सोते प्रशांत को कुछ पलों तक निहारते रहते, सर पर हाथ फेर कर बाहर आ जाते। आज भी उन्होंने यही सोच कर दरवाजा खोला पर उनके पैर दरवाजे पर ही रूक गये। कमरे में उन्होने जो द्रष्य देखा। उन्होने बिना आवाज किये दरवाजा तुरन्त बंद कर दिया और पत्नि सुधा का हाथ कस के पकड़ कर उसे भी बाहर लान में ले आये। करीब घसीटती हुई ही आयी थी सुधा ।
घीरे से ईशारे से पूछा ’क्या वह उनके लिये एक पैग बना लाये’ कोई जवाब नहीं था| अब पति के चैहरे की बदली रंगत से उसे अंदाज हो गया था कुछ गड़बड है| या तो कोई फोन काल आया है या कुछ और .....क्या हुआ है कुछ समझ नहीं आ रहा था। कर्नल जैसे बहादुर इंसान ने सुधा का हाथ कस कर पकड़ रखा था| वह थर थर कांप रहे थे फिर उन्होंने कुछ शान्त होकर पत्नी को बताया कि उन्होंने प्रशांत के कमरे में प्रशात और सुरेखा को किस आपत्ती जनक मुद्रा में नींद में बेसुध देखा है।
सुनते ही सुधा का आवेष सातवें आसमान पर था। अभी चोटी पकड़ कर बाहर करती हुं उसे.... उसकी हिम्मत कैसे हुई...कनर्ल साहब ने सुधा की और गहरी नजरों से देखा और कहा मैदान की जंग तलवारों से बंदूको से लड़ी जा सकती है पर कुछ जंग के लिये सभी हथियार बेकार होते हैं | जो सब को जीत सकता है वह कभी कभी अपनी ही संतान के हाथेंा हार जाता है।
उन्होंने कहा “यह मेरी गलती है कि मैंने सुरेखा को प्रशांत का ध्यान रखने को चुना। मैं भूल गया था कि दो सुलगती हुई अग्नि शिखासे शीतलता की आशा करना ही मेरी भूल थी”। सुधा ने आवेश में कहा था। जरूर यह उसकी ही करतूत होगी। कर्नल साहब ने उसे घीरे से डपटते हुये कहा था “ये मत भूलों तुम्हारा बेटा एक जवान पुरूष भी है जैसे भोजन पानी की मांग होती है वैसी ही उसके शरीर की भी मांग होगी । “तो क्या बहु बना लेगें, हम इस नौकरानी को “.....। “नहीं तुम खुले दिमाग से सोचो जो अग्नि शिखा जलने लगी है उसको कैसे शान्त करोगी, वह तुम्हारा नादान पुत्र किसी और के साथ एैसा कर बैठा तो” .... “तो क्या उसे अब भी घर में ही रखने की सोच रहे हैं” कर्नल साहब ने ठंडी आह सी भरते हुये कहा था “हाँ... अब उसे इसी घर में रहना होगा”। सुधा की भीतर की सोई मां जाग उठी.... “मेरा बेटा इस कामवाली के साथ ....नहीं कभी नहीं” ...। “तो कौन देगा तुम्हारे बेटे को पढ़ी लिखी पुत्री .. छी... छी ,मुझे तो शर्म आती है। सुरेखा की करतूत पर ,क्या उसे हमारे पैसे चाहिये थे तो वैसे ही कह देती..”.। कर्नल साहब ने पत्नी को झकझोरते हुये कहा था|
“सुधा उसे हमारे रूपै पैसे कुछ नहीं चाहिये ,यह एक सामान्य मांग है जिसे वह हमारे बेटे के साथ पूर्ण सहमती से पूरा कर रही है.”....और..... “ बिना हमारी अनुमती के” सुधा ने तपाक से कहा था। “पागल मत बनो वह समय होता है क्या अनुमती लेने का.”..। “नहीं में इसे स्वीकार नहीं कर सकती “...। कर्नल साहब अब अपने निर्णय में स्पष्ट थे उन्होने द्रढता से कहा था। “अब सुरेखा चाहे तो भी हमारे घर से नही जायेगी| चाहे हमें उसके लिये उसे कुछ भी क्यों नहीं करना पड़े”। सुधा ने तमक कर कहा था” मैं उसके बच्चों को इस घर में बदाश्त नहीं कर सकती, लोग क्या कहेंगे। समाज क्या कहेगा”।
कनर्ल साहब ने सुधा को अब एक जाम बना लाने को कहा और घीरे घीरे सुधा को शांत रहने के लिए समझाते रहे। “सुधा जरा विचार करो कि हमने सुरेखा को उसकी हरकत के लिये डांटा, फटकारा तो वह जाने का निर्णय ले लेगी और तुम जानती हो अगर उसने नहीं जाने का निर्णय लिया क्यों कि उसके पास जाने के लिये कोई जगह नहीं है| एैसे में हमने जबरदस्ती करी तो वह हमारा नाम भी खराब कर सकती है| हम पर किसी भी तरह को आक्षेप लगा सकती है। कौन देगा सफाई? हमारा बेटा तो इस लायक भी नहीं है कैसे साबित कर पाओगी अगर उसने मुझ पर भी कोई इल्जाम लगा दिया तो? जरा विचार करो यह हमारी समस्या को बहुत बडा समाधान है अब हमें करना यही होगा की उसे परीधि में बांध कर रखना होगा| जिससे उसकी और आगे हिम्मत नहीं बंढे। अब तुम स्त्री हो ये तरीका तुम सोचों की गर्भ निरोध कैसे हो” ।
“ तरीका यही है कि हम इसे मन ही मन अपनी बहु मान लें, उससे कुछ न कहें, जैसा चल रहा है चलने दें। सुधा आगे की मत सोचों आज की सोचों ,जिसमें तुम्हारे अपने पुत्र की भलाई छूपी है। अब तो तुम्हें भी अपने पुत्र के शांत रहने उसके सकारात्मक बदलाव के कारण समझ आ रहे होंगे । तुम इस विषय में मात्र एक औरत बनकर नहीं वरन एक मां बनकर सोचों तो ततुम्हें इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लगेगा”।
“हमारे आर्मी हास्पिटल में उसे ले जाकर डाक्टर से मिलवा दो, संभव है पढी लिखी है स्वयं ही कुछ जान ले डाक्टर से, वर्ना हम इसका भी उपाय ठूंठ निकालेंगे । हमारे प्रोटोकोल में हैल्थ चैकअप भी आता है इसी दौरान कुछ समाधान हो जायेगा। याद रहे वह कभी अपनी परीधी को पार न करे”।
और अब कनर्ल साहब ने सुधा को शयन कक्ष में चलकर चैन से सो जाने को कहा। सुधा की ऑखों से नींद कोसों दूर थी। वह सोच रही थी ‘स्त्री के तन, मन ओर आत्मा की उपयोगिता पुरूष ने अपनी सुविधा से आंक ली है’। निर्णय नहीं कर पा रही थी कि ‘कल वह सुरेखा को किस नजर से देखेगी’। इतना विश्वास तो उसे हो गया था कि पुत्र के साथ पिता के लिये नहीं है वह क्यों की कनर्ल साहब ने उसे मन ही मन बहु कह कर पुकारा है। काश अग्निशिखा को शांत करने के जितने उपाय स्त्रियों के लिये बनाये हैं समाज ने पुरूषों के लिये भी बनाये होते “जिस परीधी में वह सुरेखा को बांधने जा रही थी| काश वह अपने पुत्र को भी बांध पाती। प्रेषक
प्रभा पारीक