नीलम कुलश्रेष्ठ
मैंने चालीस वर्ष पूर्व एक सर्वे किया था कि गुजरात की इतनी महिलायें आत्महत्याएं क्यों करतीं हैं ? बाद के वर्षों मे मै रोमांचित होती रही थी कि यहाँ कितनी महिलायें अपने ऑफ़िस खोलकर स्त्री समस्यायों से जूझ रहीं हैं, कहते हैं दुनिया गोल है कि यदि इसकी परिक्रमा लगायें तो जहाँ से चले थे वहीँ पहुँच जाते हैं मै चौदह पंद्रह वर्ष पहले म. स. विश्वविध्यालय, वड़ोदरा मै 'आवाज़' के एक कार्यक्रम मै सम्मिलित हुई थी और आज अर्थात सन 2010 में अहमदाबाद स्थित |
इसी संस्था के ऑफ़िस में इसकी संस्थापक इला पाठक के सामने बैठी हूँ. उन्होंने मुझे वहीँ पहुंचा दिया है जब मैंने स्त्री सम्बन्धी सर्वे किया था. वे बतातीं हैं. ''आज भी उतनी ही स्त्रियाँ आत्महत्या करतीं हैं जितनी सोलह सत्रह वर्ष पूर्व करतीं थीं. अंतर ये आया है कि पहले वे केरोसिन से जलकर मरती थीं अब ज़हर खाकर मरतीं हैं, ''
अपने आश्चर्य को ज़ब्त करते हुए मै पूछतीं हूँ, ''तो इतनी सारी स्त्री संस्थाओ के संघर्ष का औचित्य ? क्या ये असफ़ल रहीं हैं?''
''ऐसी बात नहीं है. इसका कारण है पुरुष व्यवस्था की जकड़न. एन. जी. ओ'ज के प्रयास से आज की स्त्री अपने को हिंसा से बचाना सीख गयी है. कुछ में शिकायत करने का साहस आ गया है. वे जीवन की ख़ुशियाँ हासिल करना जानती है. कुछ वर्ष हमने जब पुलिस के साथ काम किया तो आत्महत्याएं कुछ कम हुयीं थीं. ''
''आज की स्थिति क्या है ?''
''पुलिस विभाग के अफ़सर बदलते रहते हैं, उन्हें प्रशिक्षण के दौरान ये नहीं सिखाया जाता की वे एन. ज. ओ'ज के साथ मिलकर काम करें. अब तो इस विभाग ने महिला सलाहकारी कमेटी बना ली है. ''
निराश्रित स्त्री के आंसू पोंछकर उसे सहारा देना अधिक आसान है कठिन है तो उसे पुरुष के समान अधिकार दिलाना. स्त्री की इसी प्रतिष्ठा की बात को लेकर अहमदाबाद की बुद्धिजीवी स्त्रियाँ जिनमें प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार व गृहणियां शामिल हैं, अपने संगठन को लेकर 'आवाज़ 'यानि अहमदाबाद वीमन एक्शन ग्रुप के माध्यम से. राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात 'आवाज़' की स्थापना की ये कहानी है -इला पाठक अंग्रेजी विभाग मै प्रोफ़ेसर थीं व स्वतंत्र पत्रकारिता करतीं थीं. सप्ता आपने कानून में पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया था. सप्ताह में एक स्त्री संगठन में जातीं थीं लेकिन उन्हें लगा कि उनकी विचारधारा कुछ अलग है. इसलिए उन्होंने सन १९ ८१ में एक ऐसा स्त्री संगठन का गठन किया जो अपने बारे में भी सोचे व पुरुष को अपने बराबर का साथी माने. बाद में अप्रैल १९८३ में इसने अपना पब्लिक ट्रस्ट के रूप में रजिस्ट्रेशन करवा लिया. इलाजी को स्त्रियों पर हुयी हिंसा, विशेष रूप से घरेलु हिंसा आंदोलित करती थी इसलिए वे समाचार पत्रों में लेख लिखतीं रही थीं. एक बार उन्होंने एक कोयला ढोने वाली, एक जमादारिन व एक मुस्लिम महिला की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में म्रत्यु देखी तो उन्हें पता लगा कि घरेलु हिंसा सिर्फ़ मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग की समस्या नहीं है बल्कि निम्न वर्ग की स्त्री भी इसका शिकार है. वे बतातीं हैं, ''ऐसे में बहाना बनाया जाता है कि वह दूध या नहाने का पानी गर्म कर रही थी अचानक आग लग गयी इसलिए जल मरी.. वह जली स्त्री डाइंग डिक्लरेशन में अपने पति व ससुराल वालों को बचा देती है. उसके माँ बाप तथस्त रुख अपनाते हैं. मुझे इन्ही बातों ने इतना आंदोलित किया कि मै आवाज़ के माध्यम से 'सोशल स्टडीज़ इन गुजरात 'व गुजरात विद्यापीठ 'के साथ इस विषय पर शोध करती रही, ''
उस समय अमिता अमीन और भी इस संगठन की महिलायों ने सोचा पहले तो स्त्रियों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए, उसे अपने अधिकारों के लिए सजग करना चाहिए. आवाज़ ने स्त्री की सुरक्षा व शिक्षा से सम्बंधित क्षेत्रों में काम करने की योजना बनायीं, स्त्री सुरक्षा व शिक्षा सम्बन्धी प्रदर्शिनियाँ आयोजित कीं, मीटिंग व सेमिनार का आयोजन किया, स्त्री के प्रति हिंसा के विरुद्ध मोर्चे व जुलुस निकाले.
आवाज़ को सिनेमा और विज्ञापनों में उभरती स्त्री की छवि से हमेशा विरोध रहा है. कार हो या साडी या सिगरेट हो या या शेविंग क्रीम हर स्थान पर नारी अपनी अर्धनग्न देहयष्टि से उपस्थित है. आवाज़ की एक सदस्य के अनुसार, ''सौन्दर्य प्रसाधन के विज्ञापन का कमज़ोर दिमाग के स्त्रियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि वे उन्हें ख़रीदने में आर्थिक रूप से समर्थ नहीं होतीं तो पैसा कमाने के अनुचित मार्ग अपनातीं हैं. आवाज़ ने बहुत नामी कपड़ा मिल को अपना विज्ञापन वापिस लेने के लिए मजबूर कर दिया था जिसमे उसने एक स्त्री को सिंथेटिक साड़ी पहने रसोई में काम करते दिखया था क्योंकि इसी साड़ी से आग लगने की संभावना रहती है. ''
आवाज़ अपनी सेमिनार मीटिंग्स में यही प्रयास करती थी कि स्त्री समझे अपनी देह पर उसे पूरा अधिकार है. वह अपने भी स्वास्थ्य का ध्यान रक्खे, पति को पति परमेश्वर न समझे. धीरे धीरे आवाज़ के लक्ष्य स्पष्ट होते चले गए जैसे कि ;
.. स्त्री को कमतर प्राणी समझने के विरुद्ध आवाज़
. समाज के ऐसे तथ्यों की तरफ समाज का ध्यान दिलाना जो स्त्री की प्रतिष्ठा पर धूल डालतें हों.
. स्त्री को पुरुष के बराबर प्रतिष्ठा मिले.
. स्त्री देश के विकास मे अपना योगदान देने के लिए जागरूक हो.
. स्त्री शिक्षा व कल्याण के लिए प्रतिबद्धता.
. निम्नवर्ग की स्त्रियों के उत्थान के लिए काम.
चार वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद कुछ स्त्रियाँ घरेलु हिंसा की रिपोर्ट करने लगीं थीं. इला जी को शोध के बाद पता लगा कि गुजरात मे न्याय व्यवस्था एक दोषपूर्ण अपराधिक व्यवस्था है. क्या सारे भारत को ही इसमें शामिल नहीं किया जा सकता ?
''इस शोध के बाद लोगों पर असर क्या रहा ?''
''हमारी उपलब्धि ये रही कि यदि किसी स्त्री की अस्पताल या घर मे रहस्यमय हालातों में म्रत्यु हो जाये तो तुरंत ही एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी छानबीन करने लगते थे. स्त्री को उसके घर में सुरक्षा दी जाती थी. ''
पेंतीस वर्ष पहले आवाज़ ने महिला वकीलों, चिकित्सकों, शिक्षाविदों. अधिकारीयों व मिडिया के लोगों के बीच अनेक कार्यक्रम करके स्त्री की स्थिति के प्रति जागरूक बनाया था. उस समय की मांग थी कि पाठ्यक्रमों में जो स्त्री की स्थिति दिखाई जाती है उसे सुधारा जाये मसलन एक घर में पिता आराम से अख़बार पड़ता दिखाया जाता है. बेटा खेल रहा होता है, बेटी सब्जी काट रही होती है व माँ रसोई में काम कर रही होती है. गणित की किताब में प्रश्नों में ९५ प्रतिशत लड़कों के ही उदाहरण रहते थे.
''आवाज़ के संघर्ष का क्या परिणाम रहा ?''
''हमें कुछ सफलता मिली, राजकीय पाठ्य पुस्तक मंडल ने सन २००० से पुस्तकों में एक साफ सुथरा खाली घर दिखाना आरंभ कर दिया है. ''
मुझे हंसी आ जाती है, ''यानि स्त्री की स्थिति अभी भी गोल मोल है. ''
''हमने जो सती प्रथा को महिमा मंडित करने के विरुद्ध मुहिम छेड़ा था या बलात्कार के मामलों को मसालेदार बनाने के विरुद्ध मुहिम छेड़ा था उसका असर देखने को मिलता ही है. सन १९८२से सन १९९५ तक हमने गुजराती नाटकों में स्त्री के लिए द्विअर्थी संवादों के लिए लगातार संघर्ष किया था. हम सन१९८७ से निम्न वर्ग की काउंसलिंग स्त्रियों के लिए व्यवस्थित रूप से सलाहकारी केंद्र संचालित करने लगे. ''
आकाशवाणी से एक नाटक प्रसारित होने वाला था, 'पुत्र कामेष्ठि यज्ञ '. इन्होने 'आवाज़ 'के माध्यम से इस तरह के शहर की दीवारों पर से पोस्टर्स हटवाए व इस नाटक प्रसारित नहीं होने देने में सफ़ल रहीं। सन १९८६ से १९९२ तक वे गुजराती अखबार में एक कॉलम लिखती रहीं '-नारी मुक्ति '. वे गुजरात यूनीवर्सिटी के 'वूमन डेवलपमेंट सेल 'की सदस्य रहीं जो कि स्त्रियों के यौन शोषण की चेष्टाओं की सुनवाई करता है।
आवाज़ की ये काउंसलिंग इतनी प्रभावशाली रही कि आज ये ऐसे चार केंद्र संचालित कर रही है -पश्चिमी अहमदाबाद मे बुदारपुरा, पूर्वी अहमदाबाद में बापूनगर में और रादनपुर व रापर गावों में. सन १९८६ में हिन्दू मुस्लिम दंगों के कारण बापूनगर में सलाहकारी केंद्र खोलना पड़ा था. वे पीपुल युनियन ऑफ़ सिविल लिबरटीज़ की उपाध्यक्ष थीं।
''आवाज़ कुछ वर्ष तक स्त्री आत्महत्या कम करने में सफ़ल रही थी, इस पर प्रकाश डालेंगी ?''
''हमने पुलिस विभाग को प्रस्ताव दिया और हमें ज़िला पुलिस अधिकारी के कार्यालय के पास सलाहकारी केंद्र संचालित करने कि अनुमति मिल गयी थी. जब कोई महिला रिपोर्ट करने आती तो उसे पहले हमारे पास भेजा जाता था. हम लोगों के समझाने पर ७५ प्रतिशत महिलाएं रिपोर्ट न करके स्वयं ही हल ढूंढ़ लेतीं थीं. ''
''आप लोग कुछ और सहायत देतीं थीं ?''
यदि वह समझाने के बाद भी केस करना चाहे तो केस लड़ने में उसे कानूनी मदद, उसकी फ़ाइल तैयार करने में हम मदद देते थे. यदि वह नारी सरंक्षण गृह जाना चाहे तो उसकी व्यवस्था भी करते थे. ''
अब तो आवाज़ एक 'शोर्ट स्टे होम 'बनाने में सफल रही है जहाँ कोई स्त्री तीन वर्ष तक रहकर कोई व्यवसायिक कोर्स कर सकती है इसका अपना एक क्रेश है जहाँ ८ माह से लेकर पांच वर्ष तक के बच्चों को रखने की व्यवस्था है.
आवाज़ से जुड़ने वाली महिलाएं अब तक अपने दुखों से निकले आत्मा के क्रंदन से इसे और जुझारू बना रहीं हैं आवाज़ की कर्मठ ट्रस्टी नलिनी त्रिवेदी अपनी माँ को पिता के पारम्परिक विचारों से टकराते देख चुकीं थीं. एक ट्रेनी महिला डॉक्टर को उन्होंने ससुराल वालों के कारण आत्महत्या करते देखा था. इससे जुडी प्रमुख कार्यकर्त्ता सारा बल्दीवाला आवाज़ के नुक्कड़ नाटक 'वीमन बिवेयर ' से प्रभावित होकर इससे जुड़ीं. एक कार्यकर्त्ता शशिकला रॉय इला बेन का एक लेख पड़कर प्रभावित हुयीं थीं.
इलाजी बतातीं हैं, '' कुछ वर्षों से स्त्री भ्रूण हत्या के विरोध में जो शोर हो रहा है, इसका विरोध तो हमने सन१९८४ में ही आरंभ कर दिया था. . स्त्री को गर्भ धारण करने या न करने का पूरा अधिकार है. ''
गुजरात के ताज़े आँकड़ों से पता लगता है कि लड़कियों के जन्म लेने कि संख्या बड़ी है. ये आवाज़ जैसी संस्थायों के अथक परिश्रम का परिणाम है. वर्ना लड़कियों की कमी के कारण आदिवासी लड़कियों की ट्रेफ़िकिंग बहुत बढ़ गयी थी इस स्थिति का इस बात से पता लगाया जा सकता है कि एक बारह वर्ष की लड़की को उसके माँ बाप ने तीन बार बेचा था.
''प्रतिवर्ष आपके पास कितनी महिलाएं सहायता के लिए आतीं हैं, ?''
''लगभग ६ सौ महिलाएं आतीं हैं जो परेशानी में होतीं हैं. हम इनका आत्मविश्वास लौटने में सहयता करते हैं और जो भी सहायता हो सकती है करतें हैं. ''
पाटन के एक लड़की के घ्रणित गेंग रेप का आवाज़ ने पाटन डिस्ट्रिक्ट फोरम के साथ मिलकर विरोध किया था व मांग रक्खी थी कि एक वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारी की नियुक्ति की जाये. इनकी मांग पर ये केस तत्कालीन डी आई जी ऑफ़ पुलिस डॉ मीरा रामनिवास को सौंपा गया था। ये एक बहुत बड़ा कारण था कि उस लड़की को न्याय मिल सका. इन लोगों ने मांग ये भी की थी कि उन ६ लोगों की डिग्री छीन ली जाये जिससे वे कभी नौकरी न कर पायें. गुजरात ने एक इतिहास रचा कि स्त्री संस्थाओं के दवाब व पुलिस की कर्मठता के कारण छ; बलातकारियों को सज़ा मिली।
''आपने इतने वर्ष महिलायों के लिए काम किया है. कृपया बतायेंगी कि भूमंडलीकरण का स्त्री जीवन पर क्या असर पड़ा है ? ''
जब भी भूमंडलीकरण की बात की जाती है तो एक ग्लेमरस सी दुनियां सामने घूम जाती है लेकिन इला बेन का उत्तर कुछ और है, '' इसका निम्न वर्ग पर बहुत मर्मान्तक प्रभाव पड़ा है, पहले सड़क के किनारे औरतें चूड़ियों का, भाजी का, फूलों का व फलों का टोकरा लेकर बैठीं रहतीं थीं लेकिन फ़्लाई ओवर बनने से उनका रोज़गार बंद हो गया है.
सन २०१२ में उनका सम्मान करते हुए 'आवाज़ 'के भव्य कार्यक्रम में उनकी चार पुस्तकें स्त्री के लिए समानता, व्यक्तित्व विकास व सशक्तीकरण की मांग करते लेखों के संग्रह की विमोचित की गईं थीं। जनवरी २०१४ अस्सी वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया था लेकिन आज भी 'आवाज़'अपने लक्ष्यों को पूरा करने में जुटी हुई है।
इला बेन के जाने बाद भी आवाज़ के सभी केन्द्र उसी तरह सुचारु रूप से कार्य कर रहे हैं। इसकी कार्यक्रम अधिकारी सुश्री सारा बतातीं हैं, '' इला बेन ने घरेलु हिंसा के विरुद्ध इसकी स्थापना की थी। हम सभी उनके मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। ''
'' सन २०१८ आ गया है, क्या आपको लगता है घरेलु हिंसा अधिनियम -२००५ को ठीक तरह से लागू किया जा रहा है ?''
''लगभग नहीं क्योंकि जो स्त्री शिकायत लेकर पहुँचती है तो एफ़. आई. आर. न लेकर सादे कागज़ पर शिकायत ले ली जाती है। पुलिस स्टेशन पर एक सरकारी अधिकारी महिला काउंसिलिंग का काम करती है। अक्सर समझौता हो जाता है। ''
''ये तो अच्छी बात है। ''
''लेकिन हमारे लक्ष्यों से अलग है क्योंकि कितनी औरतें मजबूरी में समझौता करके वापिस उसी नर्क को जीतीं हैं। 'आवाज़ 'स्त्रियों को मानसिक रूप से प्रसन्न व अपने पैरों पर खड़ी देखना चाहती है। ''
मुझे याद आ रहीं हैं डॉ अमिता वर्मा, विश्वविद्ध्यालय के नारी शोध केंद्र, वडोदरा की निदेशिका, जो कहतीं थीं, ''मैं भारत की उस स्त्री को बदलना चाहतीं हूँ जो अपने जीवन की साथर्कता भगवान के सामने घंटी टुनटुनाने को समझतीं हैं। ''
धर्म गुरुओं या बाबाओ के आश्रम में लगी स्त्रियों की भीड़ को देखकर समझ सकतें हैं -ये स्त्रियां कितना अपने को बदलना चाहतीं हैं।
इला बेन ने सन 2014 में ८० वर्ष की उम्र में देह त्याग दी थी । आजकल आवाज़ की अध्यक्ष झरना बेन पाठक हैं, जो इला बेन पाठक की विरासत 'आवाज़ 'को संचालित कर रहीं हैं।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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