the speed of time in Hindi Classic Stories by prabha pareek books and stories PDF | समय कि गति

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समय कि गति

समय की गति
समय क्या चीज़ है जीवन के पथ पर अनुभवों की थाती संभलाता अच्छे बुरे अनुभवों से झोलियाँ भरता आगे बढ़ता जाता है। प्रकृति की सजीव व निर्जीव सभी चीजें हमें कुछ ना कुछ तो सिखा ही देती हैं। आकाश में उड़ती हुयी पतंग चाहे किसी भी रंग की क्यों न हो हमें आकर्षित करती ही हैं। हर पतंग उड़ते समय सदा चंचल मस्त नज़र आती हैए चाहे अनेकों बार फट कर चिपकाई ही क्यों न गयी होए चिपकाने की कतरनें भी तो हमें तभी नज़र आती है जब वह नीचे उतर आती है।
डोर में बंधी पतंग में और डोर से टूटी पतंग में बहुत फर्क है। एक बार डोर से टूटने के बाद तो उसे नीचे गिरना ही है धागे से टूटकर आकाश से नीचे गिरती पतंग के साथ कितना डोर बंधा है यह अनुभवी पतंगबाज़ उसके हिचकोले खाने के अंदाज़ से जान ही जाता है। क्योंकि बिना डोर की पतंग हल्की और हवा लगने पर भी ज्यादा ऊँचे.ऊँचे जाती है। वहाँ.जहाँ हवा उस ले जाती है। मानव जीवन में भी सम्बन्धों का यही हाल है। जितनी मजबूती से संबंध जुडे़ होंगे जितने जतन से उन्हें सींचा गया होगा। जीवन उतना ही सहज व सरल होगा। फिर चाहे जीवन कितना भी उतार. चढ़ाव भरा क्यों न होघ्
शिवानी ने भी इसी पाठ को खूब ध्यान से बचपन में ही पढ़ लिया था। सम्बन्धों की धरोहर को संभालना बचपन से ही तो सीखती आई है और उसी के सहारे आगे बढ़ती भी रही। जानती भी तो थीए ष्कौन जाने कब किसकी जरूरत पड़ जायेष् आखिर इंसान के इंसान ही तो काम आता है। किसी ना किसी डोर से बंधे रहने की चाह हर पतंग की होती है। उसके जीवन का खालीपन भरने में सम्बन्ध ही तो सहायक रहे हैं। ष्ष्आशा किसी से नहीं पर विश्वास सब परष्ष् यूं तो सभी अपने होते हैंए पर हमारी आँखें सदा उन अपनों की तलाश में रहती हैं जो कहे बिना ही हमारे मन की दशा जान जाते हैं। शिवानी के जीवन का वो खालीपन जिसे महसूस करनेए थक जानेए का भी समय नहीं था उसके पास। बढ़ते बच्चेए घर परिवार उसे सोचने का समय ही कहाँ देते थे। दफ्तर में भी कोई ऐसा नहीं था। जिसके साथ उसकी अंतरंगता नहीं थी। आखिर दफ्तर ही तो उसकी हर समस्या का हल था। कहते हैं अपना हाथ जगन्नाथ।ष्ष् बस उसके साथ.साथ दफ्तर का काम।
साथ ही दफ्तर में काम करने वाला किशोर नाम का समझदारए होशियार लड़काए पर कोई चपलता नहीं सदा चुपचाप अपना काम करते रहने वालाए जैसे किसी से कोई सरोकार ही नहीं हैए किसी से बात करना जैसे उसकी आदत में ही नहीं था। हर समस्या के समाधान स्वरूप उसकी चुप्पीजो सदा मुझे अखरती ष्ष्आखिर कोई इतना चुप कैसे रह सकता है।ष्ष्
एक अजीब सा मौन कवच अपने चारों ओर बनाये रखता। नाम तो था किशोरए पर था अपने नाम के विपरीत न आँखों में कोई चमक न कोई तेजीए उग्रता का नामों निशान भी नहीं। न जाने क्या था उसके अन्तर्मन में जिसे वह काम की तहों में छुपाये रखता। एक ही कक्ष में चुपचाप काम करते हमें करीब दस वर्ष गुजर चुके थे गिनती कर सके इतनी बार ही हम दोनों ने आपस में बात की होगीए वो भी संक्षिप्त शब्दों में काम की भिन्नता होने के कारण बात करने की कोई बाध्यता भी नहीं थी। मैं मात्र उसका नाम ही जानती थीए पर वह मेरा नाम और मैं दो युवा संतान की माता हूँ और मेरे अकेले पन से भी अनभिज्ञ नहीं था।यह भी जानता था वह कि दो युवा अवस्था की ओर अग्रसर संतान की जिम्मेदारी मैं अकेले उठा रही हूँ। अक्सर बच्चों की फीस के लिये मुझे एडवांस लेना पड़ता। मुझे अर्जी लिखते देखा करता। मेरे काम की सफलता के विषय में कभी कोई सवाल नहीं पूछताए पर काम हो गया का आभास पा कर उसके चेहरे पर जो संतोष के भाव आतेए उन्हें मैं महसूस करती। मेरे दुखः.सुख देखए उसकी प्रतिक्रिया देख वह मुझे मेरे मन के निकट लगता। मुझ से करीब दस वर्ष छोटा होने पर भी मुझे लगता कि वह मेरे लिये बड़ों की तरह चिन्तित है। उसकी हर बात को मैंने भी आँखों से पढ़ना सीख लिया हो जैसे।
मेरे दोनांे बच्चों जो क्रमशः प्रथम व द्वितीय वर्ष कॉलेज में हैं। उस दिन कॉलेज से सीधे दफ्तर चले आये थे क्योंकि किसी कारण से उस दिन मैं अपने घर की चाबी पड़ोस में देना भूल गई थी। मैंने महसूस किया कि बच्चों को देख कर किशोर का चेहरा जैसे खिल उठा थाए पर वह चुपचाप चेहरा नीचे किये काम करता रहा और कनखियों से देखता भी रहाएबच्चों के जाने के बाद वह मुझे दिखा नहीं। समय जैसे भागा जा रहा था घरए दफ्तरए काम और एक दिन बेटी ने आकर बताया कि उसकी कॉलेज की फीस भरी जा चुकी है। प्रिन्सिपल ने जानकारी देते हुये बताया कि तीन वर्ष की एडवांस फीस भरी जा चुकी है। साथ में यह भी कहा कि फीस भरने वाले ने अपना नाम गुप्त रखने का आग्रह किया है। अगले दिन बेटे ने भी आकर बताया कि उसकी भी फीस एडवांस भरी जा चुकी है। मैं समय निकाल कर कॉलेज भी गई परएफीस भरने वाले का नाम पता लगाने में असफल ही रही। मन डरता था कि ना जाने इस तरह की भलाई की आड़ में फीस भरने वाले को क्या आशा हो। प्रिन्सिपल ने मुझे आश्वस्त भी किया इस तरह की किसी संभावना की आशंका उन्हें नहीं थी। जैसा की मानव स्वभाव हैए जीवन थोड़ा भी आराम से चलने लगे तो मनुष्य लापरवाह हो ही जाता है। वैसे ही जीवन अपने ढर्रे पर चलने लगा। मुझे किशोर की चुप्पी की आदत हो चली थी। बच्चों का कॉलेज अब पूरा होने की कगार पर ही था। बेटी अपनी पी‐जीण् के लिये अनेकों प्रयासों में लगी थी। मेरी भी इच्छा यही थी कि बेटी अपने पाँवों पर खड़ी हो जाये। मैंने महसूस किया कि ऑफिस समय में जब कभी भी मैं बच्चों से किसी तरह की परेशानीए घरए परिवारए काम.काज सम्बन्धित बात करतीए किशोर चैंकन्ना होकर सुनता। बच्चों की शिक्षा की बात पर तो वह सचेत ही हो जाता था। मैंने इसे हमेशा नज़रअंदाज़ किया था।
होली का त्योहार आने को था इस बार घर बाहर के अनेकों बाकी काम थेए जो मुझे डरा रहे थे। इसलिये त्योहार के आगे.पीछे कर के मैंने चार.पाँच दिन की छुट्टी की अर्जी देकर यह काम निबटाने की सोची व मुझे थोड़े आराम की आवश्यकता भी थी। इन दो दिनों में बैंक पानीए बिजली के बिलों में व्यस्त थी। इसी दौरान सूचना मिली कि पड़ोस के शर्मा जी की बच्ची अस्पताल में भर्ती है। सोचा काम में एक और काम सही समय निकाल कर शाम के समय अस्पताल जाने का निर्णय किया। शाम के समय जब अस्पताल के दरवाजे पर ही थी कि मैंने किशोर को देखा अस्पताल के अन्दर ही आ रहा था। सोचा पूछ लूंगी क्या बात हैए पर मैंने महसूस किया कि वह मुझ से नज़रें चुरा रहा है। मैंने एकदम सामने आकर पूछा घर में सब ठीक है ना किशोरघ् तुम यहाँ कैसेघ् जवाब में किशोर मेरा मुँह ताकने लगाएमैंने मेरा सवाल फिर से दोहराया। किशोर का चेहरा उस समय देव शिशु सा लग रहा था। रहस्यमय सा चेहरा जैसे उस समय कुछ बताने से भी घबरा रहा होए पर मेरा मन व्याकुल हो रहा था। मेरी व्याग्रता देख जैसे उसने कोई निर्णय लिया हो। मेरा हाथ पकड़ के लगभग मुझे घसीटने जैसे गति से मुझे वार्डों को पार करता हुआ एक अत्याधुनिक से कमरे में ले गया। जहाँ पर तीन बेड लगे थेए जो आधुनिक सुविधाओं से लैस थे। एक पलंग के पास मुझे ले जाकर मुझे खड़ा करने के बाद किशोर ने गहरी साँस लीए जैसे बहुत थक गया हो। उसने उस वृद्ध व्यक्ति को इंगित कर बोलना शुरू किया। यह मेरे पिता हैं वह वृद्ध सज्जन पूरी तरह से मशीनों से घिरे हुये थे और लगभग बेहोशी की अवस्था में थे। पिताजी की पिछले दस वर्षों से यह हालत है। डॉक्टर भी अपना पूरा प्रयास कर रहें हैं। आशा को भी नकारा नहीं जा सकता। समय का इन्तजार करना हैए जोकि हम कर रहे हैं। मैं हतप्रद सी खड़ी थी। मँुह से जैसे शब्द नहीं निकल रहे थे। कुछ बोलूं उससे पहले किशोर ने मुझे अपनी बड़ी बहन के बारे में बताया। किशोर की बड़ी बहन का सारा शरीर जलने के कारण घावों से भरा था। बेहोश शरीर की हलचल बता रही थी कि बेहद कष्ट में हैं।
अपनी बहन की हालत में किसी भी भाई का बैचेन होना स्वभाविक है। दवाईयों की खुशबूए आधुनिक यंत्रों की आवाजए दम घांेट देने वाली खामोशीए मुझे बैचेनी सी होने लगी। अब खाली बिस्तर दिखाते हुये उसने कहा वहाँ उसकी माँ थीए जो तीन वर्ष इतने ही कष्ट सह कर चल बसी। अब मेरा संयम जवाब दे चुका था।
मेरा नारी मन इतना मजबूत कैसे हो सकता था। मैं सिर्फ इतना ही कह पाई मुझे बाहर ले चलोए इतने में दो चार वर्दीधारी लोग दिखेए जिनको देख कर किशोर ने निर्देश दिये व चाय लाने का आदेश दिया। मेरे लिये यह सभी कुछ चाैंकाने वाला था। सबसे पहले मुझे अपने आप को संयत करने की जरूरत थी। किसी तरह चाय के दो घूंट ही गले के नीचे उतार पाईए इतने सारे सवाल मेरे ज़ेहन में चल रहे थे। किशोर को लेकरए उसके परिवार को लेकरए उसका दोहरा व्यक्तित्व मुझे ज्यादा चैंका रहा था। अब उसकी चुप्पी का कारण मुझे समझ आ गया था। मैं उसके देव शिशु से कोमल चेहरे को सवालों भरी नज़रांे से निहारती भर रहीए क्यांेकि जब बहुत सवाल मन में होते हैंएतो ज़बान पर एक भी सवाल नहीं आ पाताए ऐसा ही कुछ मेरे साथ हो रहा था। मेरी दशा किशोर भांप गया था।
उसने अपने परिवार के विषय में बताना आरम्भ किया। वह सब सुनकर मेरा विश्वास उन लोगों पर से उठ गया जो व्यापार में भागीदारी करते.करते कब रिश्तेदार बन जाते हैं और आस्तीन का सांप बन उन्हीं की जान लेने से भी नहीं चूकते। किशोर के परिवार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। अपने भागीदार के पुत्र के साथ किशोर की बहन का सम्बन्ध जोड़ने के कुछ वर्षों बाद बहन के सुसराल वालों का मन लालच के कारण बदल गया। पहले दहेज के नाम पैसा अपने नाम करवाते रहे फिर एक के बाद एक कम्पनी अपने नाम करवाने का दबाव बनाने लगे। आना.कानी करने पर बाप बेटा एक दिन इस हद तक पहूँच गये कि उन्होंने मेरी बहन को पेट्रोल डाल कर जला देने जैसा दुष्कर्म कर डाला। माँ अभी इस सदमे से उबरने का प्रयास कर ही रही थी। पिताजी किसी प्रकार सामान्य होने के प्रयास में थे। हमारे भागीदार से रिश्तेदार बने मुखिया ने हमारी आधी सम्पत्ति छल से अपने नाम करवा ली।यह सदमा पिता के लिये घातक साबित हुआ।उसी सदमे से हृदयघात और फिर लकवा। आज आप हालत देख ही रही हैं आप शायद यह भी जानना चाहती होंगी कि मैं नौकरी क्यंूघ् मुझे अब इस धन कारोबार में कोई विश्वास नहीं रहा ना ही रूचि है। अपने मन को शान्त करने के लिये मेरा मन किसी ना किसी काम में तो लगाना ही थाए जो मैंने किया आपको पहले दिन से ही अपनी बड़ी बहन के स्थान पर देखता आ रहा हूँ। आपका आदर करता हूँए आपको संघर्ष करते हुये देखता हूँए पिछले कितने ही वर्षों से पिता की अथाह दौलत भी दीदी को खुशी नहीं दे पाई। दौलत के अंधे लोगों की प्यास कभी नहीं बुझती। आपके संघर्ष में एक सुख तो हैए संतोष है। पिता की दौलत के कारण उनकी पहली संतान का जीवन बर्बाद हुआए इसीलिये मैंने निर्णय लिया कि सादगी भरा जीवन ही श्रेष्ठ है। मेरा दुःख मैं किसी के साथ बांटना नहीं चाहताए इसीलिये किसी को भी इसमें भागीदार नहीं बनाया। आपके बच्चों की फीस भी मैंने ही भरी है बच्चों का मामा बनकर ही सही पिता के बचे पैसे सही काम में लगाकर शायद थोड़ा सुकून पा सकूं।
मेरे इस अनोखे भाई के सामने मैं नतमस्तक निरूत्तर थी। आज एक अलग किशोर मेरे सामने था। आँखों से ही बोलने वाला किशोर आज ज़बान से कितना कुछ कह गया थाए जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। मानव जीवन में सम्बन्धांे के अनेक रूप देखे होंगेए पर दस वर्ष के मेरे इस संघर्षपूर्ण जीवन को आज इस अनोखे भाई ने एक सुखद विराम दे डाला। आकाश में कटी पतंग को सभी झपटना चाहते हैए पर बहुत कम लोग होते हैं जो उसमें और धागा बांधकर उसे और ऊँचा उड़ने की आज़ादी देते हैं। मेरे जीवन को आसान बनाने के लिये एक बार फिर सम्बन्ध सहायक हुये। यह सम्बन्ध ऐसा था जिसमें संवाद नदारद थेए कैसे कहूँ कि एकतरफा था। ऐसा अनोखा भाई पाकर मैं धन्य हुई।

प्रभा पारीक , भरुच