No God nor Love in Hindi Moral Stories by Sharovan books and stories PDF | खुदा मिला न बिसाल ए सनम

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खुदा मिला न बिसाल ए सनम

        खुदा मिला  न बिसाल-ए-सनम   कहानी / शरोवन

  ***

'चुल्लू भर पानी है, तेरी विदेशी जमीन पर? शर्म नहीं आती तुझे, इस तरह से अपने बाप के लिए कहते हुए? अरे, वह मेहनत नहीं करते, खुद भूखे रहकर तुझे भरपेट नहीं खिलाते, तुझे नहीं पढ़ाते, तो क्या तू इंजीनियर बनकर विलायत चला जाता? चार पैसे हमें क्या भेज दिए तो अपने बाप की भी कीमत तुझे मालुम हो गई? *** 

   अचानक से बड़े ही ज़ोरों की आवाज़ के साथ फोन की घंटी बजी नहीं,   बल्कि जैसे चीखने लगी तो आशा किचिन में अपने हाथ का काम छोड़कर फोन की तरफ भागी. घंटी की इस तेज आवाज को सुनकर ही वह समझ गई थी कि, जरुर फोन आलेख का ही होगा. उसने तुरंत फोन उठाकर कहा कि,'हलो?''मम्मी सलाम.''?'- सुनकर आशा अचानक ही चौंक गई. उसका चौंकना तो बहुत स्वाभाविक था. वह जानती थी कि, हमेशा आलेख ही उसे फोन करता था. उसकी जगह आज रश्मि ने उसे फोन कर दिया? वह तो जब से विदेश गई है, कभी फोन तो क्या, झूठे से एक सलाम तक नहीं भेजा है? सोचते हुए, एक संशय से आशा ने जबाब दिया,'सलाम बेटा. कैसी हो?''खबर अच्छी नहीं है?''क्यों? सब ठीक तो है?' आशा के दिल में किसी अज्ञात भय की शंका के कारण अचानक ही धक सी होकर रह गई.'नहीं. . .नहीं. . .वैसे तो सब ठीक है. घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, बस किसी कारणवश हम सबको अब भारत लौटना होगा. लीबिया में अब हम लोग अब और नहीं रह सकते हैं. जब आऊँगी, तब सारी बातें होंगी. आप लोग केवल कुछ दिनों के लिए घर में हमारे रहने के लिए कमरे आदि साफ़ करा देना, बाक़ी तो जब हम आयेंगें तो अपने मकान का इंतजाम कर ही  लेंगे.''तो कब आ रहे हो तुम लोग?''दो हफ्ते के बाद, जो सत्ताईस तारीख आयेगी, उसी को. कतार एयर लाइन्स से बुकिंग है. बाक़ी फ्लाईट बगैरह की जानकारी मैं, मेसेज से भेज दूंगी.''ठीक है. अपना सबका ख्याल रखना.'फोन कट गया तो आशा वहीं पड़े सोफे पर बैठ गई. आलेख और रश्मि उसके बेटा-बहू थे, जो पिछले सात सालों से लीबिया में रह रहे थे. उनके दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी थे. किरण और सूर्या. जब भारत से लीबिया गये थे, तब दोनों के पास कोई भी सन्तान नहीं थे. दोनों ही  बच्चे विदेश में ही पैदा हुए थे और तब से आशा और उसके पति ने उन्हें देखा भी नहीं था. सात सालों में दो बच्चों  का जन्म? अधिक-से-अधिक बच्चों कि उम्र भी क्रमश: एक और तीन साल के मध्य ही होनी चाहिये- सोचते ही आशा का  दिल पुलकित हो गया- कितने वर्षों के बाद उसकी और उसके पति की यह आस भी अब पूरी होगी? आशा शहर आने से पहले अपने पति के साथ गाँव में रहती थी. उसके पति के पास समुचित पुश्तैनी जमीन थी. यही उनकी जीविका भी थी. दोनों पति-पत्नी परिश्रम करते, खेती करते, फसलें उगाते, गाय-भेंस का दूध, घी बेचते. खूब दिन-रात मेहनत करते और जरूरत पड़ती तो खेतों की जुताई-बुबाई, कटाई आदि मजदूरों से भी करा लिया करते थे. दोनों ही के मां-बाप ने इतना जरुर किया था कि, दोनों को कॉलेज की स्नातक की शिक्षा अवश्य करा दी थी, शायद यही सोचकर कि अगर कभी खेती-बाड़ी से काम नहीं चल सका तो कहीं भी छोटी-मोटी नौकरी करके अपनी ज़िन्दगी बसर कर लेंगे. आशा के पति आरम्भ से ही धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष थे और हमेशा पहला स्थान अपने ईश्वर, इस संसार के करता-धर्ता को ही दिया करते थे.तब जीवन ने करबट ली. उनके घर में दो प्यारे-प्यारे बच्चे आ गये. शुरू में जब तक बच्चे छोटे रहे, सब कुछ ठीक चलता रहा. आरम्भ की पढ़ाई-लिखाई दोनों बच्चों की गाँव के ही प्राईमरी स्कूल में हो गई. आगे गाँव में स्कूल नहीं था. किरण के पिता अपने दोनों बच्चों को आगे भी पढ़ाने का मन बना चुके थे. उन्हीं दिनों वे एक मिशनरी के सम्पर्क में आये तो बच्चों का आगे का भविष्य देखते वे अपनी जीविका का थोड़ा बहुत सामान-असबाब उठाकर, अपने गाँव से बहुत दूर एक बड़े शहर में चले आये और मिशन के ही अस्पताल में एक असिस्टेंट की नौकरी करने लगे. उनकी पत्नी ने भी उसी अस्पताल में लिपिक की नौकरी कर ली- हांलाकि, दोनों की तनख्वाह ज्यादा अच्छी नहीं थी मगर रहने को घर, बिजली-पानी की सुविधा सब कुछ निशुल्क था और साथ में बच्चों की पढ़ाई में भी मिलनेवाली सुविधाएं और छूट मिलने के कारण जीवन की गाड़ी भागी तो नहीं बल्कि, चलने लगी थी, बगैर किसी भी शिकायत और परेशानी के. इस तरह से दोनों ने अपनी ज़िन्दगी जी, बच्चे पाले, उन्हें पढ़ाया-लिखाया- सब कुछ किया- अच्छा खाया-पीया, ढंग से जिए; मगर बचा कुछ भी नहीं सके. नतीजा ये हुआ कि,  मिशनरियों की इस नौकरी में सिर छुपाने के लिए एक घर भी नहीं बना सके. सेवा-निवृत हुए तो अस्पताल का घर छोड़ना पड़ा. गाँव में पुरखों का अपना मकान था, वहां जाना भी चाहा तो बच्चों को स्वीकार नहीं हुआ. हार मानकर किराए के मकान की शरण में जाना पड़ गया.नौकरी से जो पेंशन बनी थी वह दोनों की मिलाकर इतनी हो जाती थी कि, केवल काम चलने लगा था. आलेख  इंजीनियर बन चुका था और वह भी एक कम्पनी में काम करने लगा था. सूर्या बड़ी हुई तो उसका विवाह कर दिया और इस तरह से जो बची हुई पूंजी बैंक में ब्याज कमा रही थी वह भी एक दिन समाप्त हो गई.अपनी बढ़ती उम्र की अंतिम पायदानों पर कदम लड़-खड़ाने लगे तो पता चला कि, सत्तर साल के होने वाले हैं. पति  की उम्र तिहत्तर वर्ष हो चुकी थी और आशा की सत्तर. ज़िन्दगी के बारे में सोचते तो लगता कि बसर हुई और जब यह देखते कि जीवन के इतने सालों के संघर्ष में हाथों में क्या आया तो लगता था कि, जीवन बसर नहीं हुआ था- गुजर सका था, वह भी जैसे-तैसे; हां, यह सौ प्रतिशत सच हो चुका था कि, उम्रें  जरुर पूरी हो रही थीं.लड़का  इंजीनियर बन चुका था. नौकरी भी कर रहा था- मगर जब विदेश जाने का अवसर मिला तो वह ज़रा भी चूका नहीं. हाथ आये अवसर को गंवाया नहीं और अपना सारा बोरिया-बिस्तर बांधकर, पत्नी को लेकर लीबिया चला गया. लीबिया जाने के आरम्भ के वर्षो में, उसके फोन हरेक सप्ताह आते रहे. वह मां-बाप, दोनों ही  की सेहत और अन्य तमाम बातों के लिए खैर-खबर लेता रहा. मगर जब उसका पहला बच्चा संसार में आया तो उसके फोन आने कम हो गये. एक दिन मां ने जब उसका फोन आया तो यूँ ही पूछ भी लिया,'क्या बात है? अब ज्यादा बिजी रहने लगा है? लगता है कि, काम भी बढ़  चुका है. बहुत कम फोन करने लगा है?'लड़के ने अपनी परेशानी बताई. कुछ शिकायते करते हुए. बोला कि,'मम्मी, अब यह कोई इंडिया तो है नहीं. यहाँ नौकरी का मतलब है, नौकरी. आपको आठ घंटे केवल काम ही करना है. आधा घंटे का लंच मिलता है और उसका भी पैसा काट लेते हैं. सीधे अर्थों में कहो तो- 'काम नहीं तो दाम नहीं.'मां कुछ देर को चुप हो गई. इतना कि, जो कहना चाहती थी, वह भी नहीं कह सकी थी. वह भी भूल गई. सोच लिया कि, फिर कभी कह दूंगी.  'चल ठीक है. अपना ख्याल और बहु, बेटे का ख्याल करे रहना. खुदा से दूर मत होना, वही सब सम्भालकर रखता है.'मां ने फोन काट दिया. उस दिन की बात समाप्त हो गई. बात समाप्त होते ही आशा को महसूस हुआ कि फिर एक बार कम-से-कम दो महीनों के लिए फुर्सत हो गई.आशा के पति बरामदे में बैठे हुए सुबह की चाय के साथ आज का अखबार पढ़ रहे थे. ढलती हुई उम्र के इस मोड़ पर अब काम ही क्या रह गया था- टी.वी., अखबार, पत्रिकाएँ और चाय. बस यही उनकी इतनी-सी दुनियां रह गई थी. आशा लड़के से बात कर रही थी, मगर उनके पति के कान उसकी  वार्ता की तरफ ही लगे हुए थे. वे जानते थे कि, उनका लड़का उनसे तो कम मगर अपनी मां से अधिक बात करता है. आशा जब फोन रखकर आई उनके पास आकर बैठ गई तो उन्होंने उससे यूँ ही पूछ लिया,'क्या बात हुई. सब कुछ ठीक तो है न?'हां, कह तो रहा था, मगर लगता नहीं है. बातों से कुछ परेशान ही नज़र आ रहा था.''अब उसकी अपनी ज़िन्दगी है, जैसी वह चाहे, उसे जीने दो. खुदा उसे और उसके परिवार को खुश रखे.'आशा सुनकर चुप ही रही.बड़ी देर की खामोशी के बाद वे बोले,'आशा, जब से बच्चे दूर हुए हैं, लगता है जीवन जैसे नीरस हो चुका है? सोचा था कि, रिटायरमेंट के बाद रही-बची यह ज़िन्दगी नाती-पोतों की किलकारियों उनके शोर-शराबों के साथ शान्ति से गुज़र जायेगी; लेकिन अब तो यह भी नसीब में नहीं है. लड़का देश छोडकर चला गया और लड़की अपनी ससुराल में जाकर ही भूल गई?''क्यों ऐसा सोचा करते हैं आप? हर किसी का अपना जीवन होता है और अपनी ही तरह-से गुजारने के लिए आज़ाद हैं. हमें क्या चाहिए, बच्चे जहां भी रहे, बस खुश रहें- यही तो न?''हां, तुम ठीक ही कहती हो. फिर भी पोते-पोती को देखने का बहुत मन करता है. एक बार आकर बच्चों का मुंह दिखा देता बस.'अब जब वह फोन करेगा तो मैं उससे बात करूंगी.''तुम भी तो कर सकती हो उसे फोन. करना तो उसके कान में यह बात जरुर डाल देना.''करती हूँ, वह उठाता ही नहीं है. वैसे भी दिन-रात का चक्कर है. हम सोते हैं तो वे जागते हैं. अबकी बार उसके फोन आने पर जरुर कहूंगी कि, एक बार आकर फिर चला जाए.'आशा ने कहा तो वे फिर से अखबार में आँखें गड़ा बैठे.    दिन और व्यतीत हो गये.आशा और उसके पति अक्सर बैठे ही रहते. ऐसा कुछ काम भी नहीं रह गया था. खाना-पीना, सोना, दवाइयां खाना और खाली वक्त में चाय पीते रहना.एक दिन फिर से आलेख  का फोन आ गया तो आशा ने सारी बातों के बाद उससे बोल ही दिया,'बेटा, तेरे पापा की उम्र भी हो रही है. हम दोनों का क्या ठिकाना, कभी-भी प्रमेश्वर बुला ले. कम-से-कम अब एक बार भारत घूम आये,. तेरे पापा का  अब पोते-पोती को देखने का बहुत मन करने लगा है?मां की यह गुजारिश सुनकर आलेख जैसे भड़क-सा गया. लगता था कि, पहले ही से भरा हुआ बैठा था. बोला,'मम्मी आप तो ऐसे कह देती है कि, जैसे यहाँ से इंडिया आना, दिल्ली से अलीगढ़ को जाना है. आने के लिए छुट्टियां, पैसा, समय, सब कुछ देखना पड़ता है. पापा ने अपनी सारी उम्र मिशन की एक छोटी-सी नौकरी की जी-हुजूरी में बर्बाद कर दी. कुछ नहीं किया, कुछ भी नहीं कमा पाए. सारी उम्र 'हैंड टू माऊथ' ही रहे. जितना कमाया, सब खा-पीकर उड़ा दिया. अब मुझे मौका मिला है तो मैं सितारों पर उड़ना चाहता हूँ. अभी तो आप लोगों को जैसा भी है, मैंने नया मकान लेकर दिया है. नहीं देता तो कहाँ सिर छिपाते फिरते? गाँव का मकान ही बेचना पड़ता, तब ले पाते न? मेरा भारत आना, इतना आसान नहीं है- यहाँ बहुत अधिक काम है. बहुत ज्यादा 'बिजी' रहता हूँ मैं. इतना अधिक, कि मैं और तुम्हारी बहू, दोनों एक साथ बैठकर कॉफ़ी का एक घूँट भी नहीं भर पाते हैं.'मां की ममता कहाँ तक सब्र कर पाती? किस हद तक वह बर्दाश्त करती. उसके स्वाभिमान पर चोट मारी गई थी- जिस पति की उसने अपनी सारी ज़िन्दगी एक सति-सावित्री बनकर इज्ज़त की थी- उसका आदर-मान किया था- उसके खिलाफ वह क्यों सुनती? चाहे उसका बेटा ही क्यों न था? आलेख उसके सामने होता तो जरुर उसके एक थप्पड़ भी रसीद कर देती. क्रोध में बेटे को फटकार लगा दी. बोली,'चुल्लू भर पानी है, तेरी विदेशी जमीन पर? शर्म नहीं आती तुझे, इस तरह से अपने बाप के लिए कहते हुए? अरे, वह मेहनत नहीं करते, खुद भूखे रहकर तुझे भरपेट नहीं खिलाते, तुझे नहीं पढ़ाते, तो क्या तू इंजीनियर बनकर विलायत चला जाता? चार पैसे हमें क्या भेज दिए तो अपने बाप की भी कीमत तुझे मालुम हो गई? अपने देश की सरहदें पार करते ही तूने आज अपने बाप का दाम भी लगा दिया, तो कल मुझे भी खरीद लेगा क्या? ज्यादा घमंड मत करना अपने ऊपर. खुदा एक सेकिंड में घमंडियों का सिर धूल में मिला देता है. याद रखना कि, आसमान में उड़नेवाले के लिए वहां बैठने की जगह नहीं होती है. हमें नहीं चाहिए तेरे पैसों से बनी हुई यह इनायत- हम, अपने जहां भी है, जैसे भी हैं, खुश हैं.'  .फोन पर आशा बड़बड़ा रही थी. लगता था कि आज जैसे किसी ने उसकी दुखती नब्ज़ को छेड़ दिया था. इससे पहले किसी ने भी उसके इतने अधिक बिगड़े हुए तेवर नहीं देखे होंगे. बाद में आगे कुछ भी कहे बगैर उसने फोन काट दिया था . . .'. . .सोचते हुए आशा के सामने उसके जिए हुए दिनों के सैकड़ों चित्र नाच कर लुप्त हो गये. वह धम्म से वहीं सोफे पर बैठ गई. बेटे के बदले हुए स्वभाव और नाफरमानियाँ सोचकर ही उसकी आँखें भर आई थीं.आशा के पति ने फोन पर मां और बेटे की झड़प तो सुन ही ली थी. वे तुरंत अंदर आशा के पास आये. उसे उदास देखकर बोले,'अरे, क्यों डांटती रहती हो उसे. विदेश का जीवन बहुत अधिक 'टाइट' रहता है. किसके पास वहां समय है? कभी तो आ ही जाएगा, जब भी परमेश्वर की मर्जी होगी.'पतिदेव आकर उसके पास बैठ गये और उन्होंने उसे देखा तो बोले,'अरे ! तुम तो . . .?'सिर पर हाथ रख कर आशा का मुखड़ा उठाया तो वह सिसकने लगी थी. जिस बेटे को नाजों से पाला हो, जिसके लिए खुद गीले बिस्तर पर सोई हो और उसे सूखे पर सुलाया हो, जिसकी इच्छाएं पूरी करने के लिए अपनी सारी खुशियाँ स्वाह कर दी हों- उसके ऊपर बदलते युग की अलगाव और स्वार्थ की अबाबीलें चिपकते हुए देख किसी को दुःख हो-न-हो, मां तो परेशान होगी ही.  एक पल के अंदर ही सारे घर का सौहार्द से भरा शांतिपूर्ण वातावरण अब बोझिल हो चुका था. आज यह दूसरा अवसर था कि जब आशा की आँखें नम हुई थीं. पहली बार बेटे के विदेश जाने पर वह रोई थी. लेकिन बहुत अंतर था बेटे के विदेश जाते समय आये हुए आंसुओं और विदेश में रहते हुए, बेटे की लगनेवाली बातों को सुनकर आये हुए आंसुओं में- पहली बार के आंसू नारी स्वाभिमान के सिर को ऊंचा करने की खुशी के थे और दूसरी बार के अपने ही कलेजे के द्वारा चोट मारने के कारण. दोनों ही तरीके से उसका बेटा बदल चुका था- विदेशी भूमि का ममता से महरूम पानी पीने के कारण और दूसरा इतने अधिक वर्षों तक दूर रहने के कारण? शायद यही सबसे बड़ा अंतर होता है, विदेशी धूल से भरी रेगिस्तानी मिट्टी में और अपने देश की हवाओं में- एक  मतलब से सारे बदन से चिपक जाती है और दूसरी बार-बार चूमकर अपने अथाह प्यार का इज़हार करती रहती है. कोई माने-न-माने, पराई तो पराई होती है और अपनी मात्रभूमि तो अपनी ही है. चाहे कैसी भी क्यों न हो? बेटा, चाहे कैसा भी, कैसी भी दशा में लौटकर आये, मां तो अपने आंचल में छिपा ही लेगी.  'रिलेक्स हो जाओ. मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ.'आशा के पति कहते हुए किचिन में चले गये.बेटे ने एक प्रकार से अपनी मदद के द्वारा मां की ममता को नहीं बल्कि उसके अंदर की स्त्री के सम्मान को ललकार कर झकझोर दिया था. मां-बाप एक बार को भूखा मरना पसंद करते हैं लेकिन बच्चों के आगे हाथ फैलाना उनके लिए जैसे अपने आत्म-सम्मान को बेचना जैसे होता है. हां, अगर बच्चे खुद ही मां-बाप की आवश्यकताओं का एहसास करते हुए सहायता करते हैं तो उन्हें बहुत आनन्द मिलता है, मगर जब ऐसा करने के बाद अगर बच्चे ताना दें, उन्हें जली-कटी सुना दें तो यही बात मां हो या पिता, उन दोनों के लिए नर्क से भी अधिक सड़ने जैसी हो जाती है.आशा मां थी. बेटे ने उलटा-सीधा कुछ और बका होता तो बर्दाश्त भी कर लेती. मगर उसने तो विदेशी पैसे की संगीन का सहारा लेकर उसकी अंतरात्मा  को ही धराशायी कर डाला था. आशा ने अपने पति से सलाह ली और बेटे का मकान खाली करके उसकी धरोहर जैसे उसी को वापस भी कर दी. अपने बहु-बेटे को इस परिवर्तन के लिए कुछ भी नहीं बताया और फिर यह एक कमरे का मकान बहुत कम किराए पर लेकर रहने लगे. आत्म-सम्मान की बात थी, इसलिए बेटे के मकान को किराए तक पर भी नहीं उठाया.     बहू ने वापस भारत आने और फिर से बसने के लिए फोन किया तो आशा के लिए यह कोई भी आश्चर्यजनक बात न होकर वह अजूबा था कि, जिसे केवल उनका ईश्वर ही कर सकता था- वक्त ने न्याय किया था और सही समय पर अपना करारा जबाब भी उसके बेटे आलेख  को न देकर उन संतानों को भी दिया था जो अपने मां-बाप की इज्ज़त तो करना दूर, उनकी कद्र भी करना नहीं जानते हैं. कोई नही जानता था कि जो कहानी एक प्रकार से खत्म होकर पूर्ण विराम पर आकर टिक चुकी थी वह एक दिन फिर से आरम्भ भी हो जायेगी.   . . . आज वर्षों बाद जब बहु की आवाज़ फोन पर सुनी तो लगता था कि, जैसे अब सबकुछ नये सिरे से फिर शुरू होने वाला है. आशा बाहर बरामदे में बैठी हुई थी. उसके पति यूँ ही पास-पड़ोस में मिलने-मिलाने के लिए चले गये थे. सोच रही थी कि, यह खुशी की खबर भी वह जितना भी जल्दी हो उन्हें सुना दे. हो सकता है कि, सुनकर उनके चेहरे पर कुछ रौनक ही आ जाए.लगभग लगातार दो घंटों की बेसब्र प्रतीक्षा के बाद पतिदेव वापस आये.'आपको तो अवसर मिलना चाहिए, चिपक कर ही रह जाते हैं.'आशा के शब्दों में बेसब्री से की गई प्रतीक्षा की शिकायत थी.'शाम के चार बजनेवाले हैं, एक प्याला चाय मिल जाती.' बैठते ही उन्होंने फरमायश कर दी.'?'- आशा ने उनको भेदभरी निगाहों से देखा. फिर बोली,'क्यों? सुबह से मित्रों के घर में बैठे हुए बतिया रहे थे, वहां किसी ने नहीं पिलाई?''हां, पिलाई थी. वही छोटे-छोटे कपों में, दो-दो घूंट चाय. कहाँ से मन भरे.''आप भी ऐसे ही कप लेकर आयें, मैं भी दो घूंट ही चाय पिलाया करूंगी, अपने घर आनेवाले को.'कहते हुए आशा चाय बनाने के लिए किचिन में चली गई.ज़रा-ज़रा-सी बात पर न जाने क्यों भुन-भुनाने लगी है यह? मन में ही कहकर वे आकाश के शून्य में निहारने लगे.दस मिनिट से भी कम समय में गर्म-गर्म घर की मज़ेदार चाय का भरा हुआ बड़ा-सा मग समान प्याला आशा ने जब अपने पति के सामने लाकर रखा तो उसे देखते ही उनकी आँखों में वह चमक आई कि जिसे देखकर ही लगता था कि जैसे उनके शरीर की रगों में दौड़ते हुते रक्त की 'स्पीड' भी किसे बुलेट ट्रेन से कम नहीं होगी. वे तुरंत ही बोले,'बीबी की चाय तो बीबी की ही होती है?''अच्छा, अब मैं बोलूं कुछ?' आशा ने कहा.'नहीं. चाय ठंडी मत करना.' यह कहते हुए उन्होंने कप उठाया और पहला घूंट भर लिया. उसके बाद बोले,'लड़के ने कुछ भारत आने का इशारा आदि किया या नहीं. कभी आयेगा भी वह यहाँ?''आएगा नहीं, आ रहा है. दो हफ्ते के बाद सत्ताईस तारीख को. अपना सारा बोरिया-बांधकर, अब यहीं रहेगा, हमेशा के लिये.''?'- सुनकर एक संशय से वे भर गये. तुरंत ही बोले कि,'अचानक से आई हुई इस तब्दीली का कारण?''बहू ने तो कुछ बताया नहीं. पर कुछ न्यूज ऐसी है कि, वहां पर कुछेक अन्य अप्रवासियों ने ऐसी बातें की हैं जिससे उनके धर्म को कड़ी ठेस पहुँची है. इसलिए उनकी सरकार ने सारे भारतीय अप्रवासियों को, देश छोडकर अपने देश जाने का रातों-रात फरमान जारी किया है. यही कास्र्ण है कि, वह वापस आ रहा है. वरना तो वह कभी भी नहीं लौटता.''?'- सुनते ही वे जैसे गहरी सोच में डूब गये.'अब क्या करेगा वह यहाँ?''करेगा कुछ भी. मैं क्या जानूं?'?'- वह फिर से चुप हुए तो आशा ने आगे कहा कि,'बहू कह रही थी कि, अभी हमारे साथ ही वे लोग कुछ दिन रहेंगे, बाद में वह अपना इंतजाम कर लेगी. मैं, सोचती हूँ कि, अपना वह मकान जो आलेख  ने खरीदकर दिया था, खाली ही पड़ा है. उसी को साफ़-सुथरा करवाकर उसे ही दे देते हैं. वैसे भी वह मकान लड़के ने ही तो खरीद कर हमें दिया था. एक तरह से उसी का है भी. हमारी क्या, अपना एक कमरे का मकान है. गुजर-बसर तो ही रही है. कौन-सा हमको इसका भी बहुत ज्यादा किराया देना होता है. जितनी भी पेंशन हम दोनों को मिलती है, मियाँ-बीबी का गुज़ारा हो जाता है. अब और क्या चाहिए हमें''बहुत अच्छी बात कही है तुमने. उस मकान की सफाई आदि करा दो और जैसे ही आयें, एक 'सरप्राइज़' के तौर हमारी तरफ से उनके लिए वतन वापसी का उपहार भी हो जाएगा.'   सत्ताईस तारीख आई.सुबह ही से पति-पत्नी के लिए खुशियों का वातावरण था. आकाश खुला हुआ था और रातभर की सारी सुस्ती उतारकर सूर्य का गोला आकाश में चमक रहा था. आज न जाने क्यों वातावरण में उड़ते-बैठते, अपने भोजन को तलाशते हुए नादान परिंदों में भी उन्हें बेटे-बहू की वतन वापसी की खुशियों की गुनगुनाहटें महसूस हो रहीं थी.जैसा भी हो, आखिरकार बेटा था. मां-बाप तो सन्तान और उनकी खुशियों के लिए कुछ भी सह लेते हैं. आशा ने उनका अपना मकान इन दो सप्ताह में फिर से नया करवा दिया. सफेदी करवाई, नया पेंट दरवाजों पर करा दिया और थोड़ा-बहुत नया फर्नीचर भी लगवा दिया था. साथ ही अपना एक कमरे का मकान भी हल्का-फुल्का साफ़ और आकर्षित कर लिया.फिर बेटा-बहू अपने दोनों बच्चों के साथ एयर पोर्ट पर मिले तो आशा और उसके पति ने सबको अपने कलेजे से लगा लिया. वर्षों से पोते-पोती को आँखों से देखने की इच्छा जब पूर्ण हुई तो आशा और उसके पति की भी आँखें भर आईं. ज़ाहिर था कि, जीवन का यह सपना भी किसी युक्ति से नहीं बल्कि ईश्वर की मर्जी से ही उन्हें मिल सका था.सभी लोग खुश थे. आलेख  के दोनों बच्चे दादा-दादी और एकदम से बदले हुए वातावरण को देखकर हैरान थे., वहीं आलेख  बिलकुल चुप और शांत था. आशा ने भी ज्यादा बात नहीं की थी. पापा भी हलो कहकर चुप हो चुके थे. वह मन-ही-मन जैसे बहुत कुछ सोच रहा था. लगता था कि, जैसे पिछले दिनों की हरेक बातों को दोहरा था- सोच रहा होगा कि, 'विदेश में पैर रखते ही वह कभी  सितारों  उड़ने की बात किया करता था. यह जानते हुए भी कि, सितारे तो अपनी जमीं से भी दिखाई देते हैं. विदेशी चाल-चलन का असर- किराए की भूमि, किराए के जल का पहला घूंट भरते ही अपनी संस्कृति, तहजीब, बड़ों का आदर-मान और तमीज़; सब कुछ भूल चुका था. यह जानते हुए भी कि फलों से लदे हुए पेड़ का काम सिर्फ झुकना ही होता है. आसमान में ऊंचाइयों तक उड़ कर यह भी भूल गया था कि, बैठने के लिए, थक कर पैर टिकाने के लिए उसे नीचे धरती पर ही आना होगा. मगर, बहुत ऊंचा पहुंचकर उसे ना तो मां-बाप दिखाई दिए और ना ही ऊंचाइयों पर ईश्वर- शायद इसीलिये किसी ने सच ही कहा है कि, दो किश्ती में पैर रखने के कारण ना तो किनारे पहुचे और ना ही डूब ही सके. दोनों ही मह्त्वपूर्ण हस्तियों को उसने खो दिया था- जाने कौन-सी हसरतों की ललक में उसने यह सब किया था? वह न इधर का रहा और न ही उधर का- उसे खुदा मिला और न ही बिसाल-ए-सनम. 

- समाप्त.