अध्याय 50
“हां आपका नाम क्या है बताया?”
“धनंजयन, संतोष।”
“संतोष…सर कहकर आदर के साथ बुलाओ। हां आप तो मेरे पापा के सेक्रेटरी हो ना?” उसके बोलने का ढंग और तरीका बड़ा ही विचित्र था।
“यस सर।”
“मेरी एक छोटी बहन है आपने बताया था?”
“हां सर”
“उसकी मां है क्या ? या उसे भी मेर पिताजी ने मार कर भगा दिया?”
“वह सब कुछ नहीं है सर। वह हार्ट अटैक से मर गईं थीं ऐसे सर ने बताया था।”
“जाने दो ऐसा एहसान कर ही अभी मैं आ रहा हूं। सचमुच में आने की मेरी बिल्कुल रुचि नहीं है। मेरी मां कौन है ?यह ना मालूम होते हुए मेरी जिंदगी कितनी कष्ट कारक थी, ऐसी जिंदगी किसी को भी नहीं होनी चाहिए” ऐसा कहा संतोष ने।
उसी समय उसके मोबाइल फोन पर घंटी बजी और वह विवेक का फोन था।
“संतोष क्या कर रहें हो?”
“सर… वह …मेरे पिताजी को देखने जा रहा हूं।” बड़ी धीमी आवाज में मुंह को एक तरफ करके वह बोला।
“तेरे बाप को तो मरे हुए कई साल हो गए ना…यह तो नकली बाप है। मुझसे ही?”
“सर…कार में धनंजयन है । बाद में बात करूं?”
“ठीक है ठीक है…तुम्हारा स्वागत के लिए बहुत ज्यादा तैयारीयां हो रही है ऐसी मुझे खबर लगी। आराम से उस कार्तिका से शादी करके उस संपत्ति को प्राप्त करने का मेरा अधिकार था । अब वह संपत्ति तुम्हें मिलने वाली है।”
“मुझे आए या आपको आए सर दोनों ही एक ही बात है ना सर…”
“इस तरह की बातें करके तू अपने को मेरे बराबर सोच रहा है क्या? तू मुझसे वेतन लेने वाला सिर्फ एक नौकर है: इसे भूल मत जाना।”
“नहीं भूलूंगा सर। वह धना देख रहा है। मैं फोन को रख देता हूं सर” जल्दी से संतोष ने फोन को काट दिया।
संतोष के धीरे-धीरे फोन पर बात करने और उसके क्रियाकलापों से कुमार के अंदर एक अजीब सी फीलिंग उत्पन्न हुई। उसने जैसे ही धना को देखा, धना के चेहरे पर भी बेचैनी उसे दिखाई दी।
बंगले के मुख्य गेट को पार कर कार अंदर प्रवेश किया। दौड़ कर आकर यूनिफॉर्म धारी नौकर ने कार के दरवाजे को खोला।
हाथ में आरती की थाली लिए खाना बनाने वाली शारदा मामी के साथ कार्तिका भी खड़ी हुई थी।
कार से उतर रहें संतोष, सुमति और उनके दोनों बच्चों को आंखें फाड़ कर सब लोग देखने लगे। जवाब में उनके पास जो बड़े पेड़, केले के पंखे जैसे पेड़ों और विशाल बंगले को को वे लोग भी आंख फाड़ कर देख रहे थे।
धना उन लोगों को इशारा करके चलने को कहा तो आरती लेकर दौड़कर आई शारदा मामी। आंशु मिश्रित आंखों से कार्तिका देखती रही।
धना ने उनका परिचय देना शुरू किया।
“यह आपकी सिस्टर कार्तिका…” कहते ही जवाब में अजीब तरह से संतोष ने देखा।
“अरे ! आप कैसी हो?” कहते हुए उसके हाथों को सुमति ने अपने हाथों में लिया।
“मुझे क्या है भाभी…आप?”
“मैं भी ठीक हूं। क्यों जी मुंह खोलकर बात कीजिए यह आपकी बहन है” उसने उसको उकसाया।
जवाब में संतोष, “तुम ही कार्तिका हो क्या?” ऐसा उसने भारी आवाज में पूछा।
“हां अन्ना…आईए अंदर चलते हैं। अप्पा तड़प रहे हैं।”
“क्यों वे बाहर आकर हमारा स्वागत नहीं करेंगे क्या?”
“अन्ना …उनसे उठा बैठा नहीं जाता।”
“ओ हो…इसीलिए आखिर समय में उन्हें अक्ल आ गई।” संतोष बोला।
“क्यों जी आप चुपचाप चलिए। आप तो सचमुच के लड़के जैसे बड़बड़ा रहे हो” उसके कान के पास जाकर धीरे से बोली संतोष की पत्नी सुमति।
दांतों को पीसते हुए “मालूम है रे पहले तुम चुपचाप रहो…” वह बोला।
कृष्णराज जी के कमरे में वे लोग आए। एकदम से बहुत दवाइयां की गंध आ रही थी। सब लोगों के आने से नर्स एक तरफ सरक गई। आशुमिश्रित आंखों से कृष्णराज ने संतोष को देखा।
“अप्पा अप्पा अन्ना आए हैं अप्पा…अन्ना यही है हमारे अप्पा…” कार्तिका बोली।
सुमति को उनके बिस्तर को दशा देखकर दिल पसीज गया। एक हाथ में ‘सलीन वाटर’ चढ़ रहा था दूसरी तरफ नाक में ऑक्सीजन मास्क लगा हुआ था।
जानबूझकर मौन रहकर उन्हें संतोष ने घूर कर देखा।
“तुम्हारे नजरों से घूरने का अर्थ मेरे समझ में आ रहा है बेटा। मुझे पहले माफ कर दो।” बड़े भावुक खोकर कृष्णराज बोले।
उसी समय उनके बंगले के बाहर एक पुलिस की कार ने प्रवेश किया। कार के अंदर ‘स्पेशल इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर’ चंद्र मोहन आईपीएस.,
आगे पढ़िएगा....