Dwaraavati - 64 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 64

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द्वारावती - 64


64                                  

प्रातः काल का समय।द्वारिकाधीश के मंदिर में उपस्थित अभूतपूर्व जनसागर। प्रभु की प्रतिमा के सम्मुख खड़े दो विद्वान- आचार्य जगन्नाथ एवं गुरुकुल के प्राचार्य। स्पर्धा की प्रतीक्षा में द्वारका नगरवासी कुछ नूतन देखने की उत्कंठा में, उत्सुकता में, चिंता में अधीर हो रहे थे। 
सबसे अधिक चिंता से ग्रस्त तो पंडित जगन्नाथ थे।रात्रि भर की अनिद्रा का प्रभाव उनकी आँखों में तथा मुख पर अनायास प्रकट हो रहे थे जिन्हें छिपाने का वह अपने कृत्रिम स्मित से प्रयास कर रहे थे। मन ही मन भगवान द्वारिकाधीश को प्रार्थना भी कर रहे थे। प्राचार्य ने उसे देख लिया था अतः उसे अधिक कष्ट हो उससे पूर्व वह बोले।
“नगरजनों, आज एक अद्भुत संयोग है। ज्ञान की नगरी काशी से पधारे विद्वान पंडित जगन्नाथ हमारे अतिथि हैं। भगवान महादेव काशी विश्वनाथ के प्रतिनिधि हैं आप। देव द्वारिकाधीश के समक्ष खड़े हैं आप। आप के यहाँ पधारने से आज देव एवं महादेव का मिलन हो गया गया है। आपका शास्त्रों का ज्ञान अतुलनीय है। दर्शन शास्त्र के प्रकांड ज्ञाता हैं आप। 
कल आपने दिए हुए आव्हान पर सारा नगर आज यहाँ उपस्थित है। आपने कहा था कि हमारे नगर से कोई व्यक्ति आपसे स्पर्धा करे, आपको परास्त करे। किंतु आप जैसे प्रखर मर्मज्ञ से स्पर्धा करना हमारा सामर्थ्य नहीं है ना ही यह उचित है। हम तो आपके आशीर्वाद के पात्र हैं।अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप स्पर्धा ना करें।”
पंडितजी के मुख के भाव कुछ शांत हो गए। उसने स्मित दिया, जो नैसर्गिक था, सहज था। उसमें प्राचार्य के प्रस्ताव का समर्थन था।
“जो व्यक्ति यहाँ आकर शास्त्रों के मंत्रों का उच्चार करे उसे आप अपने ज्ञान से मार्गदर्शन दें, आपके महादेव भगवान विश्वनाथ के आशीर्वाद से आप उन्हें पुलकित करें। यही हमारी आपसे प्रार्थना है।”
रात्रिभर जिस चिंता से पंडित जी ग्रस्त रहे थे वह समाप्त हो गई। उसके मन में पश्चाताप होने लगा। उसने भगवान द्वारिकाधीश को देखा। उसे भी वही नटखट स्मित का आभास हुआ।
“मैं आपके प्रस्ताव का सम्मान करता हूँ, स्वागत भी करता हूँ। भगवान द्वारिकाधीश के मंदिर में, भगवान के सम्मुख, भगवान की नगरी के किसी नागरिक के मुख से मंत्रों को सुनना, उससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है!”
“तो प्रारम्भ करें?” पंडितजी ने मौन स्मित से अनुमति दी।
“कुमारी गुल, यहाँ आओ।” नाम सुनते ही प्रजाजनों में कुतूहल व्याप गया। पंडितजी स्तब्ध हो गए। भिड़ में से श्वेत वस्त्रों में सज्ज एक युवति प्राचार्य की तरफ़ बढ़ी। उसने दोनों को वंदन किया। एक तरफ़ खड़ी हो गई। पंडितजी गुल को विस्मय से देखने लगे। गुल के मुख की सौम्यता को देखकर पंडितजी को उसमें माता शारदा का दर्शन होने लगा। वह अनायास ही बोल पड़े, “बेटी, तुम मंत्रों का उच्चार करोगी?”
“जी।” इस एक शब्द में भी वह मोह था जिससे पंडितजी बच नहीं पाए। वह गुल के विषय में जानना चाहते थे तो उसे बातों में व्यस्त रखना भी चाहते थे।
“तो प्रथम अपना परिचय दो, पुत्री।”
“पंडितजी, इस कन्या की प्रस्तुति ही उसका परिचय होगा।यदि आप अनुमति दें तो प्रारम्भ करें।” 
दोनों विद्वानों ने आसन ग्रहण किए। 
“अवश्य। क्या प्रस्तुत करोगी?”
“मैं सर्व प्रथम अग्नि सूक्त प्रस्तुत करूँगी।आप आशीर्वाद दें।”
गुल ने ओहम का नाद किया। वह नाद अलौकिक था। इस नाद ने ही पंडितजी का मन हर लिया। गुल ने अग्नि सूक्त का पथ प्रारम्भ किया।
ओहम अग्नि मीडे पुरोहिताम यज्ञस्य देव मृत्विजम होतारम रत्न घातमम….
समग्र जन गुल के मीठे, सुंदर तथा रस भरे शुद्ध उच्चार को सुन मंत्र मुग्ध हो गए। जब गुल ने अग्नि सूक्त सम्पन्न किया तभी सभी की समाधि भंग हुई। अनायास ही सबके हाथों के करतल ने ध्वनि उत्पन्न कर दी।
“साधो, साधो।” पंडितजी के मुख से शब्द निकल पड़े। 
जब करतल ध्वनि शांत हुआ तो पंडितजी ने पूछा, “गुल, तुमने अग्नि सूक्त से ही प्रारम्भ क्यों किया?”
“अग्नि स्वयं तो पवित्र है ही, अपने भीतर जिसको समाविष्ट करता है उसे भी वह पवित्र कर देता है। वह पावक है, तेजोमय है, शुद्ध है, श्वेत है, शुभ्र है और ऊर्जा तथा चेतना का भंडार है। शास्त्र कहता है कि संसार के सभी कार्यों को अग्नि को साक्षी मानकर करना चाहिए। अतः अग्नि देवता का आव्हान किया है मैंने।”
पंडितजी अभिभूत होकर अपने आसन से उठ गए। 
“अग्नि की भाँति ही तुम्हारे विचार भी पवित्र हैं, शुद्ध हैं।”
“धन्यवाद पंडितजी।” 
प्राचार्य ने पंडितजी की तरफ़ देखा।“कहिए, अब क्या सुनने की उत्कंठा है?”
“अब कुछ नहीं सुनना। कुछ पूछना अवश्य है।”
“जी।”
“केवल एक प्रश्न का उत्तर दो, पुत्री। इस सूक्त में दो शब्द आते हैं - एक ‘न’ तथा दूसरा ‘न:’। इन दोनों में क्या भेद है?”
“‘न’ शब्द का अर्थ है - नहीं। जब कि ‘न:’ शब्द का अर्थ है - हमारे लिए।”
“अद्भुत। अद्भुत।” बोलते बोलते पंडितजी की आँखों से हर्ष के अश्रु निकल पड़े। पंडितजी ईश्वर की प्रतिमा को अनिमेष देखते रहे, अश्रुधारा में नहाते रहे। उस धारा में उनका पूरा अभिमान पिघल गया। कुछ समय पश्चात जब उनके भावों का शमन हुआ तब उसने आसन ग्रहण किया। 
गुल की सफलता से अनेक युवकों में उत्साह तथा विश्वास प्रकट होने लगा। कईयों ने तो पंडितजी से कहा, “हम भी कुछ प्रस्तुत करना चाहते हैं। आप हमारा भी आकलन करें।”
भाववश पंडितजी कुछ समय तक कुछ बोल नहीं सके। उसने प्राचार्य को संकेतों में कुछ कहा।
“नगरजनों , पंडितजी इस एक प्रस्तुति से ही प्रसन्न एवं संतुष्ट है।अब वह अन्य किसी की कोई भी परीक्षा नहीं करना चाहते।”
सब दृष्टि पंडितजी को देखने लगी। उसने प्राचार्य की बात का समर्थन करते हुए भाव मुख पर प्रकट किए। सभा शांत हो गई। 
अपने भावों को किसी प्रकार नियंत्रित करते हुए पंडित जी बोले, “मैं आज अत्यंत प्रसन्न हूँ।भगवान द्वारिकाधीश के सानिध्य में तथा उसे साक्षी रखकर आप सब के समक्ष पुत्री गुल को एक सम्मान देना चाहता हूँ। आज से यह केवल गुल नहीं किंतु पंडित गुल के नाम से जानी जाएगी। क्या आप सब इसे स्वीकार करते हो?” 
पंडितजी ने सभा को एक प्रश्न दे दिया। जिसके उत्तर में सभा ने करतल ध्वनियों के नाद से मंदिर को भर दिया। कुमारी गुल अब पंडित गुल बन गई। 
पंडितजी की ललकार का सुखद अंत हो गया। इस पर द्वारका नगरी, मंदिर के पुजारी, प्राचार्य, ब्राह्मण एवम् स्वयं पंडितजी के मन से एक भार उतर गया। 
किंतु गुल के मन पर एक भार चड गया - पंडित गुल ! 
‘मुझे इस शब्द की महिमा का ध्यान रखना होगा। मुझे इस विशेषण का संवर्धन करना होगा। मुझ पर एक महा दायित्व आ पड़ा है। है ईश्वर, हे द्वारिकाधीश। मुझे इतना सामर्थ्य प्रदान करना कि मैं इस मार्ग से कभी विचलित न होऊँ।’ गुल ने हाथ जोड़ भगवान के दर्शन किए। उसे भगवान में एक दिव्य तेज का दर्शन हुआ। भगवान के अधरों पर स्मित था - भुवन मोहिनी स्मित।