Dwaraavati - 60 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 60

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द्वारावती - 60

60

गुल ने जब आँखें खोली तब वह गुरुकुल के किसी कक्ष की शैया पर थी। कुछ कुमार उसकी सेवा में वहीं थे। उसने उनमें किसी को खोजने का प्रयास किया किंतु वह वहाँ नहीं था। 
गुल के आँख खोलते ही एक कुमार प्राचार्य को इसकी सूचना दे आया। वह कक्ष में आए। गुल के माथे पर हाथ रखते हुए बोले, “हरे कृष्ण।” 
कृष्ण का नाम सुनते ही गुल में किसी चेतना का संचार होने लगा। वह बोली, “हरे कृष्ण।” सभी के मुख पर हर्ष छा गया, गुल के मुख पर सौम्य हसित। 
“केशव कहाँ है?”
“उसे सूचित कर दिया है, शीघ्र ही वह आ जाएगा। तब तक तुम विश्राम करो।”
“तब तक मैं कृष्ण स्मरण करती हूँ, उसके नाम का जाप करती हूँ।”
“हम भी साथ कृष्ण स्मरण करते हैं।” सभी साथ मिलकर गाने लगे-
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
कीर्तन चलने लगा। कृष्णमय सब हो गए। कीर्तन के मध्य सहसा बांसुरी के स्वर बजने लगे। गुल का ध्यान उन स्वरों पर गया। उसे वह ध्यान से सुनने लगी, उन सुरों को उसने पहचान लिया। वह बोल पड़ी।
“केशव। यह बांसुरी तुम बजा रहे हो ना? केशव, केशव…।” 
उसके नयन कमरों के मध्य केशव को खोजने लगे। 
केशव कक्ष के बाहर बांसुरी बजा रहा था। एक कुमार ने संकेत दिया और केशव कक्ष के भीतर आ गया। गुल ने उसे देखा। उसके अधरों पर बांसुरी थी। केशव के हाथ उस बांसुरी पर चल रहे थे। बांसुरी मधुर स्वर सुना रही थी। केशव के नयनों में एक भाव था जिसे गुल पढ़ने लगी। कुमारों ने कीर्तन का समापन किया। अब वहाँ केवल बांसुरी के स्वर ही थे। बाक़ी सब कुछ शांत था, मौन था। 
जैसे जैसे बांसुरी सुनती गई, गुल का चित्त प्रसन्न होता गया। एक बिंदु पर केशव ने बांसुरी के सुरों को विराम दिया। सभी सुर, सभी स्वर शांत हो गए।गुल का उद्विग्न मन भी। 
केशव गुल के समीप गया। अन्य सभी कक्ष से बाहर चले गए। 
“केशव …।” गुल ने बात करना चाही किंतु भावावेश में वह कुछ भी बोल ना सकी। कंठ में अवरुद्ध हुए शब्द नयनों के माध्यम से अश्रु बनकर बोल पड़े। केशव ने अश्रुओं को बोलने दिया। गुल सभी बंधनों को तोड़कर रोने लगी।केशव उसके रुदन का साक्षी बना रहा। पूर्ण रूप से रो लेने से गुल के भीतर का उद्वेग शांत हो गया। रुदन रुक गया। 
“सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम व्रज।
अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि। मा शुच:।।”
केशव ने गीता के उस श्लोक का उच्चार किया जो स्वयं कृष्ण ने अपने भक्तों के लिए अर्जुन से कहा था। इस एक श्लोक ने गुल के मन की समग्र पीड़ा हर ली। मुख पर से पीड़ा के सभी भाव लुप्त हो गए। मन में कृष्ण का स्मरण किया, आँखें बंद कर ली। केशव ने इन भाव परिवर्तन को देखा। उसने मन ही मन कृष्ण का धन्यवाद किया। 
उस रात्रि गुल ने पूर्ण निद्रा ली। प्रातः जब जागी तो केशव को कक्ष में ही पाया। केशव किसी पुस्तक को पढ़ रहा था। उसने नहीं देखा कि गुल निद्रा त्याग चुकी है। 
केशव की एकाग्रता को भंग किए बिना ही गुल उठी, गवाक्ष को खोल दिया। समुद्र का शीतल समीर कक्ष में प्रवेश कर गया। समीर के इस स्पर्श ने केशव का ध्यान भंग कर दिया। उसने अनायास ही गवाक्ष को देखा तो ध्यान आया कि गुल जाग चुकी थी, गवाक्ष पर खड़ी थी और कहीं दूर समुद्र के भीतर उठ रही तरंगों को देख रही थी। वह शांत थी। उन तरंगों की चंचलता को निहारने के उपरांत भी वह शांत थी। पूर्ण तन्मयता से वह उन तरंगों का अनुभव कर रही थी। केशव ने उस तन्मयता को खंडित करना उचित नहीं समझा।वह गुल को देखता रहा, उसकी तन्मयता के अंत की प्रतीक्षा करने लगा। 
केशव गुल को देख रहा था। गुल समुद्र की तरंगों को देख रही थी। तरंगें इन दोनों को देखे बिना ही अपनी सहज गति से बह रही थी। 
एक समुद्र पंखी उन तरंगों पर से उड़ता हुआ तट पर आया। वहीं पर विहरने लगा। गुल की दृष्टि ने सहज ही समुद्र पंखी का अनुसरण किया। उसकी पंखी सहज प्रवृति देखकर गुल को मन हुआ कि वह भी तट पर दौड़ जाए और पंखी के साथ क्रीड़ा करे। स्वयं को तट पर जाने की सज्जता में वह गवाक्ष से हटी तो उसने केशव को देखा जो अनिमेष उसे ही देख रहा था। क्षणभर वह सकुचाई, लज्जावश आँखें बंद कर ली। 
“यदि तुम्हारा मन हो तो हम कुछ समय तट पर जाकर बैठते हैं।” केशव के शब्द सुनकर गुल ने आँखें खोली। दोनों तट की तरफ़ चल दिए। 
तट पर आते ही गुल को पिता की मृत्यु तथा माँ का घर छोड़ने की घटना का स्मरण हो गया। मुख पर विषाद उभर आया। चलते चलते वह रुक गई। तट पर पड़े दो चार पत्थर को हाथ में लिये, पुरे क्रोध से उसे समुद्र को मारने लगी। 
केशव रुक गया। उसने गुल को नहीं रोका। कुछ पत्थर समुद्र को मारने के पश्चात गुल थक गई, रुक गई, तट पर बैठ गई, रोने लगी। केशव समग्र घटना को किसी चलचित्र के दर्शक की भाँति देखता रहा। रोते हुए जब गुल शांत हो गई तब केशव उसके समीप गया। 
सस्मित बोला, “गुल।” 
गुल ने स्वयं को समेटा, स्वस्थ हुई और केशव के स्मित का उत्तर दिया।
“गुल, मुझे तुमसे एक महत्वपूर्ण बात करनी है। यही कारण से मैं तुम्हें इस समुद्र के तट तक ले आया हूँ।”
“तो हम कहीं अन्यत्र चलें। मुझे इस समुद्र से कहीं दूर ले चलो।” गुल उठने लगी। 
“क्यों?” 
“मैं इस समुद्र के सम्मुख कोई बात नहीं करनी। मैं इससे कोई सम्बंध नहीं रखना चाहती।यह समुद्र ….।” 
“रुक क्यों गई? क्या है यह समुद्र? कहो।”
गहन श्वास को भीतर लेते हुए गुल बोली, “इस समुद्र ने मेरे पिता की हत्या की है। मैं इससे घृणा करती हूँ।” गुल चलने लगी। 
“तो यह बात है समुद्र की बेटी के मन में!” 
“हाँ, मैं अब इस समुद्र का दर्शन भी नहीं करना चाहती।चलो, कहीं अन्यत्र चलते हैं।” 
गुल जाने लगी। केशव ने उसे रोकना चाहा किंतु वह नहीं रुकी। केशव दौड़कर गुल के समीप गया, उसका मार्ग रोक लिया। 
“अब रुक भी जाओ, गुल।”
मुख पर अप्रसन्नता के भावों के साथ गुल रुक गई। 
“कुछ क्षण शांत हो जाओ। यहाँ बैठ जाओ।”
“यहाँ?” 
“मैं तुम्हारे मन के भावों का सम्मान करता हूँ। उसे भली भाँति समजता हूँ। इसीलिए कहता हूँ कि क्षणिक रुक जाओ, शांत हो जाओ।”
गुल रुक गई।
“आओ मेरे साथ।” केशव उसे समुद्र तट पर स्थित एक शिला पर ले गया। “बैठो यहाँ पर।”
गुल बैठ गई। आँखें झुकाए वह शिला को देखती रही।
“गुल, इस समुद्र से आँखें मिलाओ। आँखें चुराने से तो ….।” 
“तो क्या होगा?”
“तो तुम अपना प्रतिशोध पूरा नहीं कर सकोगी।”
“प्रतिशोध?” गुल के वदन पर आश्चर्य के भाव उत्पन्न हो गए।
“हाँ, गुल।हमें जिससे प्रतिशोध लेना होता है उससे हमें आँखें चुरानी नहीं चाहिए किंतु उस पर आँखें जमाए रखनी चाहिए।”
“यह क्या कह रहे हो केशव? मुझे किस से प्रतिशोध लेना है? मुझे किसी से कोई प्रतिशोध नहीं लेना है।”
“जिसने तुम्हारे पिता को मृत्यु दी है उससे तुम प्रतिशोध नहीं लोगी?”
“किससे?”
“इस समुद्र से।” केशव के शब्द वेधक थे।गुल उसे सुनकर स्तब्ध रह गई। 
“इस समुद्र ही तुम्हारे पिता की मृत्यु का कारण है। कारण ही नहीं अपितु उत्तरदायी भी है। नहीं, नहीं। इस समुद्र ने ही तुम्हारे पिता की हत्या की है। उससे प्रतिशोध तो लेना ही होगा, गुल।”
“किसी से प्रतिशोध लेना मेरा स्वभाव नहीं है। ना ही मेरी ऐसी कोई इच्छा है।”
“तो?”
“मैं तो बस इस समुद्र से रूठी हूँ।उसे क्षमा नहीं करूँगी।उससे कोई सम्बंध नहीं रखना चाहती।” गुल ने पुन: आँखें झुका दी।
“इस प्रकार रूठना तुम्हारी अपरिपक्वता का संकेत है।तुम इतने सारे ग्रंथों का अध्ययन कर चुकी हो।उसके ज्ञान को, उसके मर्म को जान चुकी हो तथापि तुम इस प्रकार ….।” 
“यह सारा ज्ञान केवल पुस्तकों में ही सुंदर लगता है। वास्तविक जीवन में इसका कोई औचित्य नहीं है।”
“चलो, एक क्षण के लिए इस ज्ञान को भूल जाते हैं। अब कहो कि वास्तव में क्या हुआ था?”
“इसी समुद्र के कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई है यही वास्तविकता है।”
“इसी समुद्र के कारण तुम अपनी मृत्यु से बच सकी हो यह भी वास्तविकता है।”
“क्या? मेरी मृत्यु?”
“हाँ। तुम्हारी मृत्यु।जो इसी समुद्र के कारण टल गई।”
“ओह केशव।”
“मृत्यु तो तुम्हारी भी सम्भव थी। काल के चरण तुम्हारी तरफ़ भी आ गए थे। उसे किसने रोका? इसी समुद्र ने। क्या इस सत्य का तुम अस्वीकार कर सकती हो?”
गुल निरुत्तर हो गई।
“यह स्मरण रहे कि तुम अभी जीवित हो।”
“किंतु मेरे पिता ….।”
“हाथ से जो छूट जाता है हमें वही मूल्यवान लगता है। जब कि जो हाथ में है वह कितना भी मूल्यवान क्यों ना हो, हमें उसके मूल्य का ज्ञान नहीं रहता। यह कैसी विचित्रता है, गुल?”
“अहम न जानामि।”
“जिसका नाम होता है, उसका अंत निश्चित होता है। उसके अंत का समय, तिथि, स्थान, कारण सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है।जब भी इन सबका संयोग बनता है, काल उसे नष्ट कर देता है। उसे कोई रोक नहीं सकता।स्वयं विधाता भी नहीं। किंतु उस संयोग तक हमें जीने के लिए जीवन उपलब्ध होता है। उस समय तक हमें जीना पड़ता है। हंसते हुए भी- रोते हुए भी। पसंद तुम्हें करना है। जीवन तुम्हारा है।”
“ज्ञान की बड़ी गहन बात कर रहे हो?”
“सरल शब्दों को आप जैसे ज्ञानी लोग समझते कहाँ हैं? ज्ञानी व्यक्ति को ज्ञान की भाषा में ही समझाना पड़ता है।”
गुल हंस पड़ी। “मैं तुम्हारी बातों का मर्म समझ गई। किंतु पिता से वियोग?”
“यह तुम्हारा प्रथम वियोग है। जीवन में ऐसे अनेक वियोग आते रहेंगे। तुम्हें उसका स्वीकार करना होगा। अभी एक और वियोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, गुल।”
“एक और? कितने वियोग होते हैं इस एक जीवन में, केशव?”
“यह कोई नहीं जानता।”
“तो तुम कैसे जानते हो?”
“क्यों की अब जो वियोग तुम्हारे जीवन में आ रहा है वह वियोग मैं तुम्हें देने वाला हूँ।”
“तुम? अर्थात् तुम्हारी भी मृत्यु…..?”
“मृत्यु के उपरांत भी वियोग के अनेक नाम होते हैं। अनेक कारण होते हैं।”
“तो? जो भी हो, स्पष्ट शब्दों में कहो।”
“कल सूर्योदय से पूर्व मैं इस गुरुकुल को, इस द्वारका नगरी को, इस समुद्र को, इस गुरुकुल को और तुम्हें छोड़कर मुंबई महानगर में अध्ययन हेतु प्रस्थान करूँगा।”
“तो क्या ? जब भी समय मिले हम सब को मिलने आ जाना। इसे वियोग थोड़ी कहते हैं?”
“नहीं गुल। यह सम्भव नहीं होगा। चार वर्षों तक में आ नहीं पाऊँगा।”
“चार वर्ष पश्चात तो आओगे ना?”
“चार वर्ष के पश्चात क्या होगा, कोई नहीं कह सकता।”
“तो तुम्हारा वियोग भी स्थायी वियोग ही होगा?”
“ऐसा स्वीकार कर लेना ही उचित है। मैं तुम्हें कोई मिथ्या आश्वासन देना नहीं चाहता।”
“ओह, केशव। यह सारे वियोग मेरे ही भाग्य में क्यों है?”
“तुम्हें तो केवल एक का ही वियोग होगा। किंतु तुम्हें विदित भी है की मुझे कितने वियोगों का स्वीकार करना पड़ेगा?”
“कितने?”
“गिनते जाना। द्वारका नगरी से, इस समुद्र से, इस तट से, महादेव से,गुरुकुल से, सहपाठियों से, आचार्यों से, प्राचार्य से, ….।”
“और मुझसे?”
“हाँ, सबसे अधिक तुम से।”
“मेरे वियोग से तुम्हारा वियोग विशाल है, कठिन है। भगवान द्वारिकाधीश तथा महादेव भड़केश्वर तुम्हें इस वियोग सहने का सामर्थ्य प्रदान करें।” गुल ने दोनों मंदिरों को वंदन किया।
“केशव, जाने से पूर्व एक बार द्वारिकाधीश के मंदिर जाकर उसके दर्शन कर आओ।”
“मन मेरा भी यही चाहता है किंतु यह सम्भव नहीं होगा।”
“क्यों? अभी चले जाओ।”
“आज पूरा दिन ग्रहण है। ग्रहण में मंदिर नहीं खुलते।”
“यह भी कैसा संयोग है केशव?”
केशव ने स्मित से उत्तर दिया। दोनों गुरुकुल लौट आए