Dwaraavati - 45 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 45

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द्वारावती - 45


45


सभा को छोडकर केशव समुद्र तट पर आ गया। समुद्र की अविरत जन्मती, प्रवाहित होकर तट तक जाती तथा तट पर ही मृत हो जाती लहरों को देखता रहा। उसके मन में कोई भी लहर इसी प्रकार गतिमान न थी। वह शांत था। स्थिर था। प्रसन्न था। पश्चिमाकाश की तरफ गति कर रहे सूर्य की किरणें उसके मुख की कान्ति में वृद्धि कर रही थीं। केशव ने आँखें बंद की, ध्यान मुद्रा में बैठ गया। ओम् का नाद करने लगा। 
एक अंतराल के पश्चात उसने ध्यान सम्पन्न किया, आँखें खोली। सन्मुख उसके वही रत्नाकर था जो अपने कार्य में व्यस्त था। 
“एक लंबे अंतराल के पश्चात पुन: उस नाद को सुनाने के लिए धन्यवाद, केशव।”
“गुल, तुम? यहाँ कैसे?” 
इस प्रश्न के उत्तर में गुल के मुख पर भी प्रश्न आ गया। 
“मेरा तात्पर्य है कि तुम यहाँ कब आई?”
“तुम्हारे पीछे पीछे मैं भी आ गई। मुझे पूर्ण संज्ञान है कि ऐसी स्थिति में तुम कहाँ जा सकते हो। तो मैं भी चली आई। तुम्हें स्वस्थ, शांत तथा निश्चिंत देखकर मैं प्रसन्न हुई।”
“हाँ, एक बड़े मानसिक यूध्ध के पश्चात मैं शांत हो सका हूँ। किन्तु तुम इतनी सहजता से, सरलता से 
कैसे शांत हो जाती हो? जिस क्षण जो भाव आवश्यक है वह भाव प्रकट करने के उपरांत तुम शीघ्र ही सहज हो जाती हो। क्या रहस्य है इसका?”
गुल हंस पड़ी, “तुम प्रत्येक बात को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हो?”
“तो मैं क्या करूँ? सत्य-असत्य का पक्ष तो रखना ही ... ।”
“केशव, उत्तेजित क्यों हो रहे हो? अभी अभी तो तुम शांत हुए हो।” 
“ओह, क्षम्यताम।” केशव हंस पड़ा। 
“किसी भी गंभीर बात को, उसके पक्ष-विपक्ष को शांत चित्त से, प्रसन्नता से व्यक्त करने की कला सीख लो।”
“किंतु कैसे?”
“सभी बातों को सहजता से लो। मन से यह भ्रम निरस्त कर दो कि तुम्हें इस संसार को बदलना है, इसे सत्य-असत्य का ज्ञान देना है, इसे सुधारना है।”
“क्या यह मेरा कर्तव्य नहीं है?”
“अवश्य है। किन्तु तुम्हारा कर्तव्य है प्रयास करना, परिणाम की कामना करना नहीं। तुम कृष्ण को जानते हो? मानते हो?”
“ऐसा प्रश्न क्यों?”
“कृष्ण ने भी प्रयास ही किये थे। वह भी सभी प्रयासों में सफल नहीं हुए थे। तो तुम कौन हो जो सफलता की अपेक्षा करते रहते हो? कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि – मा फलेषु कदाचन। तुम उसे कैसे भूल जाते हो?”
“इतना ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर लेती हो?”
“अपने गुरु शिवशंकर से।” गुल हंस पड़ी। केशव दुविधा में पड़ गया।
“गुरु शिवशंकर?”
“हाँ। मैंने स्वयं महादेव को गुरु मान लिया है।” गुल ने पूरी बात बता दी जो उस मंच पर हुई थी। 
“ओह, यह बात है। किन्तु यह बताओ कि तुम्हें और किसी का नाम नहीं सुझा और सीधे महादेव का नाम ही ले लिया!”
“केशव, उस समय जब गुरु का नाम पूछा गया तो मैंने आचार्य की तरफ देखा। उसने मुख मोड लिया। उनकी उस चेष्टा में स्पष्ट नकार था। मैं तुम्हें भी गुरु बनाना चाहती थी किन्तु तुम कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुए। तब मेरा ध्यान भड़केश्वर महादेव की पताका पर गया। वह स्थिर थी। मैंने मन ही मन महादेव को प्रार्थना की कि वह मुझे शिष्या के रूप में स्वीकार करें। उसने सकारात्मक संकेत दिया तो मैंने उसे गुरु मान लिया।”
“महादेव ने कैसा संकेत दिया था?”
‘वह स्थिर पताका गतिमान हो गई। वह इस प्रकार लहराने लगी जैसे तीव्र गति से पवन बह रही हो। जब कि निमिष पूर्व तक वह स्थिर थी, कोई पवन भी नहीं चल रही थी। मैंने उसे महादेव की स्वीकृति का संकेत मान लिया। अब महादेव ही मेरे गुरु हैं तथा रहेंगे।”
“हर हर महादेव।” दोनों ने एक साथ जयघोष किया, महादेव की पताका को नमन किया।
“गुल, तुम अंतिम परिणाम तक रुकी नहीं। ऐसा क्यों?”
“परिणाम में मेरी रुचि थी ही नहीं और ना है। अत: परिणाम तक रुकने का कोई औचित्य नहीं दिखा मुझे।”
“कदाचित ऐसा तो नहीं कि तुमने स्वयं को स्पर्धा से पृथक कर लिया था इसी कारण .. ।”
“स्पर्धा में तो मैं कभी थी ही नहीं तो ..।”
“तो मंच पर क्यों गई? क्यों निर्वाण षट्कम का गान किया? क्यों उन मंत्रों का अर्थ बताया? क्या था उस समय तुम्हारे मन में? क्या उद्देश्य था ?”
“केशव, मुझे ज्ञात नहीं कि उस समय मेरे मन में क्या चल रहा था। कोई उद्देश्य, कोई योजना ही नहीं थी कि मैं इस प्रकार मंच पर जाकर ऐसा कुछ करूंगी।मुझे प्रतीत हो रहा है कि यह जो कुछ भी हुआ किसी ने मेरे माध्यम से यह करवाया है।”
“कौन है वह?” 
“मुझे कुछ संज्ञान नहीं। किन्तु समय की उस क्षण ने ही मेरा उपयोग किया होगा। समय से परे किस में इतना साहस है कि हम जैसे मनुष्यों से ऐसे कर्म करवाए?”
“यह भी हो सकता है कि स्वयं महादेव ने ही ऐसा प्रपंच रचा हो?”
“महादेव ने? हाँ, यह संभव हो सकता है।”
दोनों ने दूर लहर रही महादेव की पताका को देखा। समुद्र को देखा। समुद्र में अनेक लहरें उठकर शांत हो गई। सूर्य पश्चिमाकाश में अस्त हो गया। कुछ क्षण मौन बैठे रहे दोनों, पश्चात अपने अपने गंतव्य स्थान पर चले गए।