Dwaraavati - 42 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 42

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द्वारावती - 42




42


“केशव, चलो इस समुद्र तट पर दूर तक जाते हैं। मार्ग में अनेक कंदरायेँ आएगी। प्रत्येक कन्दरा के भीतर जाएँगे।”
केशव उठा। गुल चलने लगी। केशव ने पुकारा, “गुल, रुको तो।”
गुल रुक गई। 
“तुम्हें विदित है कि यह तट कितना लंबा है? हमें कहाँ तक जाना है? कौन से बिन्दु से लौट आना है? इस विषय में कोई विचार भी किया है अथवा बस ... ।”
गुल रुक गई। कुछ क्षण विचार मग्न मौन के पश्चात बोली,
“मुझे संज्ञान नहीं कि यह समुद्र तट कितना लंबा है। यह भी विचार नहीं किया कि कहाँ तक जाना है। किस बिन्दु से लौट आना है। अरे हाँ, लौट आने का विचार ही नहीं किया है मैंने।” गुल क्षण भर रुकी। अनंत तक विस्तरित समुद्र के ऊपर दृष्टि डाली। 
“केशव, ऐसा करते हैं कि हम तट पर चलते जाएँ, चलते ही रहें। जब कोई कन्दरा आए तो उसके भीतर विश्राम कर लें। पुन: चलते जाएँ। पुन: कन्दरा, विश्राम, तट, यात्रा। बस इसी प्रकार चलते जाएँ। कहो क्या विचार है आपका?” गुल की आँखों में एक विशिष्ट कान्ति प्रकट हो गई।
“गुल, यदि तुम्हारी बात मैं एक क्षण के लिए भी मान लूँ तो भी कब तक चलते रहेंगे हम?”
“अनंत काल तक, केशव अनंत काल तक। बस चलते रहें, चलते ही रहें। तब तक चलते रहें जब तक जीवन है। जब तक मृत्यु नहीं आती बस चलते रहें। क्या तुम मेरे साथ जीवन पर्यंत चलते रहोगे? बोलो केशव?”
गुल गंभीर हो गई। केशव हंस पड़ा। 
“केशव, इस प्रकार मेरा उपहास ना करो। मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।”
“गुल, तुम भी ना।” केशव गंभीर हो गया, “मैं तुम्हारा उपहास नहीं कर रहा। तुम्हारे बालपन पर हंस रहा था। कितना निर्दोष है बालपन तुम्हारा?”
“मैं कुछ नहीं जानती। इतना कहो कि तुम मेरे साथ चल रहे हो अथवा नहीं? मैं तो चली।” गुल चल पड़ी। 
“मैं भी चल रहा हूँ तुम्हारे साथ। किन्तु यह स्मरण रहे कि हमें लौटना भी होगा।”
“चलने वाले लौटने की चिंता नहीं करते।” केशव गुल के साथ चल पड़ा। दोनों मौन थे, दोनों के चरण पगरव कर रहे थे। समुद्र की लहरें बोल रही थी।बहता समीर बोल रहा था। वह सब क्या कर रहे थे, दोनों में से किसी का ध्यान उस पर नहीं था। दोनों चल रहे थे, बस। 
समुद्र तट की भीगी रेत पर चलते हुए जो अनभव हो रहा था उससे दोनों हर्षित थे। 
“केशव, हम समुद्र की लहरों से दूर क्यूँ चल रहे हैं?”
“हमें भीगने से बचना है इसलिए।”
“भीगने से बचना है तो तट पर क्यूँ चलें? कहीं दूर जाकर बैठ जाते हैं अथवा नगर के बंद घरों में लौट जाते हैं।”
गुल रुक गई, केशव के प्रतिभाव की प्रतीक्षा करने लगी। केशव, कुछ क्षण के लिए वैचारिक मुद्रा लिए खड़ा रहा। पश्चात वह समुद्र की तरफ बढ़ गया। तरंगों के मध्य चलने लगा। गुल ने उसका अनुसरण किया। समुद्र की ध्वनि के साथ गुल-केशव के पद ध्वनि एकरूप हो गई। 
“केशव, वहाँ देखो। वहाँ कन्दरा है।”
केशव ने उसे देखा। “चलो भीतर जाते हैं।”
दोनों भीतर प्रवेश करने लगे। 
“कन्दरा में समुद्र का पानी है।”
“केशव, मुझे तो लगता है कि कन्दरा के भीतर भी कोई समुद्र है।”
“समुद्र के भीतर कन्दरा है अथवा कन्दरा के भीतर समुद्र है? सत्य क्या है?”
“मुझे तो दोनों सत्य लग रहे हैं।” गुल हंस पड़ी। 
“इस कन्दरा के भीतर जाने के लिए हमें इस पानी को पार करना होगा।”
“कितना गहरा होगा यह पानी?”
“वह तो पानी में उतरकर ही ज्ञात होगा।”
दोनों पानी में उतर गए। कन्दरा तीन दिशाओं से तथा ऊपर से बंद थी। केवल एक ही द्वार था प्रवेश के लिए। 
“हमारे चलते चरण से उठती ध्वनि कुछ विशेष लगती है।” गुल नई ध्वनि उत्पन्न करने लगी। 
“एक क्षण रुको, गुल। कोई ध्वनि उत्पन्न ना करना। शांत हो जाओ।” दोनों रुक गए, स्थिर हो गए। श्वासों की ध्वनि को नियंत्रित कर लिया। पूर्णत: मौन व्याप्त हो गया। समुद्र की मंद लहरें कन्दरा तक आते आते समाप्त हो जाती थी। उसकी मंद ध्वनि सुनाई दे रही थी। पवन मंद गति से कन्दरा के भीतर प्रवेश करता था। इसकी मंद ध्वनि भी सुनाई दे रही थी। उपरांत उसके कोई ध्वनि नहीं थी वहाँ। 
“गुल ।” केशव ने ऊंची ध्वनि में कहा। केशव के शब्द कन्दरा के भीतर गए, कन्दरा की भिंत से टकराए, प्रतिघोष बनकर अनेक बार सुनाई दिये। 
केशव ने दूसरी, तीसरी… अनेक बार गुल के नाम का घोष किया, कन्दरा ने प्रतिघोष किया। 
अपने नाम का घोष- प्रतिघोष सुनकर गुल रोमांचित हो गई। वह प्रसन्न हो गई। उसने ताली बजाई। ताली का घोष भी प्रतिघोष बन गया। वह तालियाँ बजाने लगी। घोष-प्रतिघोष होने लगा। केशव गुल की प्रसन्नता को साक्षी भाव से निहारता रहा। 
गुल दौड़कर कन्दरा के भीतर चली गई। पानी में दौड़ने से उत्पन्न ध्वनि तथा उसकी प्रतिध्वनि ने कन्दरा में संगीत का सर्जन कर दिया। अजोड़, अनुपम, अपूर्व संगीत !
भीतर जाकर कुछ अंतर पर गुल रुक गई। “यहाँ आओ, केशव।”
केशव भीतर आ गया। 
“केशव, गहन श्वास लो। हाँ... लो... लो... ।”
“हाँ, लिया।”
“लेते रहो। मेरा अनुसरण करो। बिना रुके श्वास लेते रहो।”
गहन श्वासों की ध्वनि कन्दरा में व्याप्त हो गई। 
“कुछ विचित्र सुगंध का अनुभव हो रहा है, केशव?”
“हाँ, गुल। विचित्र भी है, आकर्षक भी है।”
“उसका आकर्षण इस दिशा में है, केशव। हम सुगंध का अनुसरण करते हैं। उसके उद्गम तक जाते हैं।”
दोनों सुगंध की तरफ आगे बढ़े। सुगंध को अपने भीतर उतारते हुए, अनुभव करते हुए कन्दरा के भीतर तक आ गए। 
“यह किसकी सुगंध है? कैसी सुगंध है?”
“यह सुगंध कन्दरा की है, यहाँ जन्मे - बसे जीवों की है।” केशव ने कुछ जीवों को देखा। केशव ने उस तरफ संकेत किया। गुल ने उन जीवों को देखा। 
“अब यहाँ भी आओ। इसे देखो।” केशव गुल के समीप आ गया।
“गहन श्वास लो। इस सुगंध का अनुभव करो।” 
“यह तो इस वनस्पति की सुगंध है।” दोनों ने उस सुगंध को भीतर उतारा। 
“ओह, यह सुगंध !”
“केशव, उस सुगंध के मोह पाश से मुक्त हो जाओ। यहाँ अभी अनेक सुगंध बाकी है उसका हमें अनुभव करना है।”
दोनों कन्दरा का निरीक्षण करते रहे। एक कोने में कुछ रंगों ने उनका ध्यान आकृष्ट किया। दोनों उसकी तरफ बढ़ गए। 
“गुल, यह तो पुष्प लगता है।”
“प्रतीत तो ऐसा ही होता है।” गुल नीचे झुकी, पुष्प को स्पर्श करने जा रही थी कि केशव ने उसे रोका। 
“रुक जाओ गुल। उसे स्पर्श ना करना।” वह रुक गई। प्रश्नभाव युक्त मुख से केशव को देखने लगी। 
“गुल, यह अज्ञात पुष्प है। आज के पूर्व हमने इसे ना कभी देखा है ना कभी इस विषय में सुना है। इस पुष्प की प्रकृति से हम अनभिज्ञ हैं। हमें सतर्क रहना चाहिए। वह हमें क्षतिग्रस्त कर सकता है।”
“कोई पुष्प कभी किसी को क्षतिग्रस्त कर सकता है क्या? मैंने ऐसा कभी नहीं सुना। तुम इस स्थान पर भी उपहास कर रहे हो केशव।”
“जहां सतर्कता की आवश्यकता होती है वहाँ उपहास के लिए कोई अवकाश नहीं होता है।”
“तुम्हारा कहना उचित है।” वह पुष्प से दूर हो गई। 
“चलो। कुछ अन्य सुगंध को पकड़ते हैं।” केशव आगे बढ़ गया। गुल भी। 
“केशव, मैंने एक सुगंध को पकड़ा है। तुम भी उसे पकड़ो।”
केशव ने प्रश्नार्थ लिए देखा। नाक से किसी सुगंध को पकड़ने का प्रयास किया। उसने एक सुगंध को पकड़ा, गहन श्वास लेते हुए भीतर तक उतारा। वह कन्दरा के पत्थरों की तरफ बढ़ गया। एक पत्थर के समीप रुका, उसे स्पर्श किया। वह पत्थर भीगा था। उसने उसे सूंघा। इस सुगंध को उस सुगंध, जो उसने अपने भीतर उतारा था, से परखा। दोनों सुगंध एकरूप थी। गुल ने भी वही क्या। 
“कन्दरा के पत्थर जो युगों से समुद्र के पानी से भीगते रहें हैं उन पत्थरों की सुगंध है यह।”
“ओह। इस सुगंध पाने के लिए पथ्थरों ने कितना कुछ सहा होगा।”
दोनों ने एकदूसरे को देखा। एक साथ बोल पड़े।
पत्थरो की भी सुगंध होती है।” दोनों हंस पड़े। प्रतिघोष से कन्दरा जागृत हो गई। 
“यह कंदरा है कि सुगंध का दरिया?” 
“दरिया, कन्दरा, सुगंध। वाह गुल, तुमने इन तीनों का एक सुंदर संबंध जोड़ दिया।”
“इस कन्दरा में समुद्र भी है तथा सुगंध का सागर भी है।”
“यदि इन सभी सुगंधों को एक साथ भीतर उतारोगे तो जो संमिश्रण होता है वह अद्भुत है, गुल।”
“यह सभी सुगंध!” गुल गहन श्वास लेने लगी।
“यह संमिश्रण स्वयं में एक नयी सुगंध को जन्म दे रही है। क्या है यह? कौन सी सुगंध है यह? इसे हम क्या नाम दें?”
“सोच विचार कर बताता हूँ।”
“तुम सोचो। तुम विचारो। मैं तो सुगंध ले रही हूँ।”
“यह अच्छी बात है कि तुम सुगंध लेती रहो और मैं उसे छोडकर सोचता ही रहूँ।”
“अरे, तुम भी सुगंध का आनंद लेते रहो।”
“धन्यवाद, गुल। यह सुगंध समग्र कन्दरा की है।”
“एक समस्तता, एक पूर्णता है इसमें।”
“इस पूर्णता की अनुभूति के लिए मौन हो जाते हैं।”
दोनों मौन हो गए। सब कुछ स्थिर हो गया। चलित थी तो केवल सुगंध तथा लहरों की ध्वनि। इसी अचलता में अनेक क्षण व्यतीत हो गए। 
“इस संसार के लोगों में से किन लोगों ने इस सुगंध का आनंद प्राप्त किया होगा, केशव?”
“केवल दो व्यक्तियों ने।”
“कौन है वह दो व्यक्ति? तुम्हें कैसे ज्ञात है?”
“तुम भी उन दोनों से परिचित हो, गुल।”
“मैं भी? कहो ना कौन है वह दो? मेरी उत्सुकता अधीर हो रही है।”
“एक तो है एक लड़की जिसे हम गुल के नाम से जानते हैं। तथा एक है लड़का… ।”
“जिसे हम केशव के नाम से जानते हैं।” गुल ने अपूर्ण वाक्य पूर्ण कर दिया। दोनों इस बात पर हंस पड़े। कन्दरा ने अपने स्वभाव के अनुरूप उस हास्य का प्रतिघोष कर दिया।
“अर्थात यह कन्दरा निर्जन ही रही है। हमने उसकी निर्जनता को भंग कर दिया। हैं ना केशव?”
“एक यही कन्दरा नहीं गुल, इस समुद्र की अधिकांश कंदरायें निर्जन ही होती है। हम जैसे व्यक्ति यदा कदा इन कंदराओं में से एकाद कन्दरा तक यात्रा करने मे सफल हो जाते हैं। अन्यथा मनुष्य यहाँ तक आने का साहस ही नहीं कर पाता है।”
“अर्थात मनुष्यों ने कन्दराओं की निर्जनता को अक्षुण रखा है। यह तो अच्छी बात है।”
“निर्जनता की यही सुगंध ही हमें यहाँ आकृष्ट करती है।”
“तो यह सुगंध कन्दरा की निर्जनता की है, अक्षुण एकांत की है!”
“अथवा उस निर्जनता, उस एकांत के भंग की भी हो सकती है।”
“हो सकता है। कुछ भी हो सकता है। सब कुछ संभव है। किन्तु यह निर्णय कौन करेगा कि यह सुगंध – जो स्वयं के भीतर एक समग्रता को धारण किए हमें आकृष्ट करती है - वह सुगंध है किसकी?” 
“यह तो विचार का विषय है। किन्तु कदाचित यह निर्णय मनुष्य ही करता है। युगों से करता आ रहा है।”
“किसने दिया यह अधिकार मनुष्यों को?”
“गुल, पिछले अनेक दिवसों से मेरे मन में जो संघर्ष चल रहा है उसे तुमने एक दिशा दी है।”
“वह कैसे, केशव?”
“तुमने अभी अभी जो कहा कि मनुष्य को यह अधिकार किसने दिया कि वह किसी सुगंध के विषय में निर्णय करे तथा उस निर्णय को सारे जगत पर थोप दें?”
“अर्थात?”
“एक ऐसा ही निर्णय इस द्वारका नगरी में मनुष्यों ने लिया है।”
“कैसा निर्णय?”
“गुल तुम कहो कि क्या हमें अधिकार है कि यह निर्णय करें कि –
कौन सी कोयल अधिक सुंदर गाती है? कौन सा नृत्य, कौन सा संगीत, कौन सी अभिव्यक्ति उत्तम है अथवा निम्न है? सूर्य की कौन सी किरणें सुंदर है? कौन सा सूर्योदय अनुपम है? कौन सा सूर्यास्त अनूठा है? पवन की कौन सी लहर मनोहर है? समुद्र की कौन सी तरंग आकर्षक है? मेघों से बरस रही वर्षा की कौन सी जल कणिका मनभावन है? 
क्या ऐसे निर्णय करने की हमारी क्षमता है? कहो गुल, कहो।”
केशव रुका, गुल हंस पड़ी। 
“इसमें हंसने की कौन सी बात है गुल?”
“अरे केशव, तुम जरा शांत हो, स्वस्थ हो तथा बोलते बोलते रुको तब तो मैं कुछ कहूँ ना? तुम्हारे प्रत्येक शब्द के साथ तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी भावना, तुम्हारी अभिव्यक्ति को देखकर मुझे हंसी आ गई। तुम इतने भावुक क्यूँ हो गए हो केशव? अवश्य कोई बात जो तुम्हारे भीतर संघर्ष उत्पन्न कर रही है उस बात से तुम यह सारी बातें जोड़ रहे हो।”
“हाँ।”
“तो सीधे सीधे कह दो कि क्या बात है। इस प्रकार अन्य बातों का आश्रय लेना पड़े ...।”
केशव शांत हो गया। कुछ क्षण पश्चात बोला,
“गुरुकुल में समाचार आया है कि समग्र भारत वर्ष के छात्रों के लिए इस द्वारका नगरी में एक प्रतियोगिता का आयोजन होने जा रहा है।”
“केवल छात्रों के लिए ही? छात्राओं के लिए नहीं?”
“हाँ। केवल छात्रों के लिए ही। किन्तु तुम यह क्यूँ पूछ रही हो?”
“मैं उस प्रतियोगिता में सहभागी बनना चाहती हूँ।”
“प्रथम यह तो संज्ञान ले लो कि प्रतियोगिता किस बात की है।”
“कैसी प्रतियोगिता है? तथा उस प्रतियोगिता से तुम्हारे इन आक्रोश भरे शब्दों का क्या संबंध है?”
“संस्कृत के विभिन्न ग्रन्थों से श्लोक तथा मंत्रों को गाने की प्रतियोगिता है। देश के प्रत्येक गुरुकुल से छात्र आएंगे तथा प्रतियोगिता करेंगे। अत: तुम्हारे लिए इस प्रतियोगिता में कोई स्थान नहीं है।”
“मेरी छोड़ो। तुम इस प्रतियोगिता में भाग ले रहे हो ना? तुम्हारे उपरांत अन्य कोई विजेता नहीं हो सकता।”
“सभी आचार्य तथा कुलपति की यही धारणा है।”
“सत्य है, केशव। अभिनंदन।”
“मैं इस अभिनंदन का अस्वीकार करता हूँ। मैं निर्णय कर चुका हूँ कि मैं इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले रहा हूँ।”
“तुम ऐसा नहीं कर सकते, केशव। यह तुम्हारे गुरुकुल की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। तुम इस प्रकार पलायन कर अपने दायित्व से भाग नहीं सकते।”
“मैं तुम्हारे तर्क से सम्मत हूँ। किन्तु तुम यह नहीं पुछोगी कि मैंने ऐसा निर्णय क्यूँ लिया?”
“तुम्हारे आक्रोश से इसका सीधा संबंध होगा। कहो क्या कारण है।”
केशव ने एक प्रलंब श्वास लिया। 
“छात्रों का कर्म है ज्ञान प्राप्त करना। अतिरिक्त उसके हमारा कोई अन्य कर्म भी नहीं है ना धर्म है। यह प्रतियोगिता ज्ञान की कसौटी की नहीं है। यह तो है गान की, अभिव्यक्ति की, प्रस्तुति की, प्रदर्शन की, अभिनय की। क्या हम इन महान ग्रन्थों से, इन ग्रन्थों के अभिनय सीखने गुरुकुल में प्रवेश करते हैं? शिक्षा समाप्त होने पर ऐसा रंगमंचीय प्रदर्शन ही हमारा अंतिम लक्ष्य है?”
केशव रुक गया, मौन हो गया। गुल भी केशव के विचारों को समझने का प्रयास करते करते मौन हो गई। इस मौन के मध्य कन्दरा की ध्वनि तथा सुगंध व्यक्त होती रही। 
“केशव, तुम प्रतियोगिता में अवश्य भाग लेना।” गुल इतना ही बोल सकी। 
“ऐसा ही होगा क्यों कि यह मेरी विवशता है।”
“मुझे प्रसन्नता है तुम्हारे इस निर्णय से।”
“गुल, अब हमें लौट जाना चाहिए।” केशव कन्दरा से बाहर आने लगा, गुल भी।