Shuny se Shuny tak - 47 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 47

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शून्य से शून्य तक - भाग 47

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अगले दिन का सुबह का वातावरण हमेशा की तरह था। चुप्पी से भरा!हाँ, एक बदलाव हुआ था कि वह अभी कई दिनों से सबके साथ बैठकर नाश्ता करने लगी थी और कई बार यह भी प्रयास करती थी कि पापा और मनु के साथ ऑफ़िस निकल जाए| रेशमा कॉलेज चली जाती थी और घर में बस घर के सेवक ही रह जाते| अब उसका मन भी यह सोचकर धड़कने लगा था कि जब मनु और रेशमा यहाँ से अपनेघर चले जाएंगे तब यहाँ कितना सूना हो जाएगा| इतने दिनों से साथ रहते-रहते अब आशी को भी घर ‘घर’लगने लगा था वरना इससे पहले तो उसे सराय या होटल सा ही लगता था| कुछ लोगों की कमी और कुछ उसके और पापा की दूरियों ने घर को ‘घर‘ से वंचित ही रखा था| 

यह एक ईंट, पत्थर, मार्बल, ग्रेनाइड से बना हुआ एक ऐसा होटल था जिसमें सुंदर, खिला हुआ बगीचा भी था लेकिन बगीचे की खिलखिलाहट में चुप्पी पसर गई थी| व्यंजनों से रसोईघर भरा हुआ था लेकिन स्वाद ही कहीं गायब हो गया था| ताज़गी और मधुरता कहीं गायब हो गई थी| घर में लोग तो थे लेकिन एक दूसरे के प्रति लाड़-दुलार नहीं था| जब से ये लोग यहाँ पर आकर रहने लगे थे तबसे हँसने और रोने में भी मानो संवाद भर गया था, घर में महक भर गई थी| 

यह सब समझते सोचते हुए भी अपने पिता की बात उसके गले ही नहीं उतर रही थी, पल्ले ही नहीं पड़ी थी| कितना कष्ट होता है विवाह के बाद कितनी ज़िम्मेदारियाँ? कितने एडजस्टमेंट्स, विवाह कोई मज़ाक है क्या? यह तो वह बेड़ी है जो एक बार गले में पड़ गई तो हमेशा के लिए इसको गले में लटकाए रहना पड़े| उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था| 

कभी कभी उसका दिल मनु के नाम से धड़कने लगता, क्या वह उससे प्यार करती है? कैसे हो सकता है? ये सब उसकी माँ और पापा की ओर हैं, उसके लिए कोई नहीं बना है ! फिर ये दिल की धड़कन क्यों भला? पापा हैं कि शादी के पीछे ही पड़े हैं| हाँ, वह जानती, समझती है कि मनु सच में ही एक बहुत सुलझा हुआ लड़का है लेकिन क्या कभी उसने आशी के दिल की बात सुनने, समझने की कोशिश की? ये सब एक तरफ़ हैं----

‘इस विषय में मनु से बात की जाए‘उसने सोचा| 

रात को डिनर के बाद सब अपने-अपने कमरों में चले गए, घर भर का काम निबटाकर सभी सेवक घर की बत्तियाँ बंद करने लगे, गेट पर ताला लग गया।चौकीदार अपनी केबिन में आ गया | हर दिन की तरह केवल बगीचे और बॉलकनी की डिम लाइट जली रही, आशी ने धीरे से अपने कमरे का दरवाज़ा खोला और इधर-उधर ताककर धीरे से मनु के कमरे के बाहर जाकर उसका दरवाज़ा हल्के से नॉक कर दिया| 

“कौन? ”मनु टेबल पर बैठ लैंप की रोशनी में कुछ पढ़ रहा था | 

“मनु, मैं आशी---”धीरे से उसे उत्तर मिला| 

मनु उठकर दरवाज़े पर आया, चौंककर उसने कहा;

“आशी---तुम---? इस समय ? ”

आशी कमरे में आकर पलंग के सामने रखे सोफ़े पर बैठ चुकी थी| यह सब इतनी जल्दी हुआ था कि न आशी को और न मनु को पता चल कि दीना अंकल उस लंबी बॉलकनी के कोने में खड़े थे| शायद उन्होंने अपने पैर भी मनु के कमरे की ओर बढ़ाए लेकिन फिर शायद कुछ सोचकर वहीं रुक गए| हाँ, उनके मन में उत्सुकता तो उठी कि आशी क्यों आई होगी इस समय मनु के कमरे में? अगर वह उनके सामने ही मनु से बात करती या उसका हाथ भी पकड़ लेती, उन्हें तो खुशी ही मिलती| वे चुपचाप दबे पाँवों से कुछ सोचते हुए अपने कमरे में चले गए|