Shuny se Shuny tak - 45 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 45

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शून्य से शून्य तक - भाग 45

45====

दो/तीन दिन यूँ ही चुप्पी से भरे हुए बीते| सारा वातावरण खामोशी से भर गया था| सभी के चेहरों पर उदासी थी| दीनानाथ सोनी के बगीचे में आकर खड़े हुए , उन्हें लगा बगीचा भी उदास हो गया है| वैसे तो कैसे मुस्कुराते रहते थे सारे गुलाब और गुलाब ही क्या पूरा बगीचा! आज जैसे इन्हें भी पता चल गया था कि घर से बिटिया की विदाई हुई है| वैसे भी बेटी की विदाई से अपने ही नहीं गैरों की आँखों और मन में भी उदासी भर जाती है| 

“अब इतने भी उदास न हों मालिक, आशिमा बीबी को अपने घर तो जाना ही था| आप उदास होंगे तो मनु बाबा और रेशमा बीबी भी उदास हो जाएंगे| कितना अच्छा घर-वर मिला है आशिमा बीबी को| और इतना दूर भी तो नहीं है, जब चाहें मिल सकते हैं| ”माधो ने कहा| 

“ठीक ही तो कह रहा है माधो, अंकल ! अगर आप उदास रहेंगे तो हम घर कैसे जाएंगे? ”मनु पीछे ही खड़ा था| कुछ रुककर फिर बोला;

“ऐसे आपको उदास छोड़कर जाएंगे तो हम भी वहाँ उदास ही रहेंगे| ”

यह तो दीनानाथ भूल ही गए थे कि ये बच्चे उनके घर मेहमान की हैसियत से आए थे। इन्हें अपने घर भी जाना है| मनु की बात से वे चौंक गए;

“कहाँ जाना है मनु? ”फिर कुछ सोचते हुए बोले;

“हम्म, तुम अपने घर जाओगे---कुछ दिन और नहीं रुक सकते बेटा? और हाँ, अभी तो आशिमा बिटिया को फेरा डलवाने के लिए लेने भी जाना है फिर उसे विदा भी करना है---”उनका मन किसी न किसी तरह बच्चों को यहीं रोकने का हो रहा था| वे कोई न कोई बहाना ढूंढ रहे थे कि बच्चे यहीं रुक सकें| 

“ठीक है अंकल, जैसा आप कहें| हाँ, रेशमा कह रही थी कि उसका बहुत टाइम चला गया है, उसकी रेफरेंस बुक्स और कुछ और काम की चीज़ें वहीं हैं| ”

“आ जाएंगी, यहीं पढ़ना शुरू कर देगी---”उनका मन बार-बार यही कर रहा था कि बच्चे बस उनके पास ही रह जाएं| 

“ठीक है अंकल, मैं उसे कह दूँगा, वह गाड़ी लेकर ले आएगी सामान, जो भी उसे चाहिए---”

“नहीं—नहीं उसे अकेले नहीं भेजना है, अभी छोटी है | ड्राइवर के साथ भेजना, अकेले नहीं| ”उनका दिल धक-धक करने लगा, सहगल की पिचकी हुई गाड़ी उनकी आँखों के आगे आ खड़ी हुई और उनकी आँखों में पानी भर आया| 

“आखिर कब तक अंकल ? कब तक हम उसे प्रोटेक्शन दे सकेंगे? कब तक कोई किसी का साथ देगा? ”मनु ने गंभीर स्वर में कहा| 

वे मनु की बात सुनकर चुप हो गए, ठीक ही तो कह रहा था वह !वे सोचने लगे कि उनसे ज़्यादा तो बच्चे ‘मैच्योर’ हो चुके हैं| जीवन की लड़ाई को लड़ना जानते हैं| मगर उनकी आशी उनके सामने एक न सुलझने वाला प्रश्न बनकर खड़ी हुई है| उसकी समस्याएं कैसे? क्या? कब? में उलझी हुई हैं| कभी होगा भी या नहीं आशी की उलझनों का निवारण? उनके सामने सब ठीक होगा भी अथवा नहीं? उनका दिल भयभीत ही बना रहता| 

उसी शाम को मनु और रेशमा बहन की ससुराल जाकर आशिमा को ले आए| अपने रिवाजों के अनुसार दीना अंकल ने न जाने कितना खाने-पीने का सामान और सबके लिए गिफ्ट्स देकर बच्चों को भेजा था| अनिकेत की मम्मी ने कहा कि अब इतना कुछ करने की क्या ज़रूरत है? मनु के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था| 

“आँटी! हम लोगों को तो कुछ मालूम नहीं है, जैसा दीना अंकल कहते हैं, हम लोग कर लेते हैं| मम्मी-पापा भी ऐसा ही करते| ”मनु ने विनम्रता से उन्हें उत्तर दे दिया| 

तय हुआ कि शाम को अनिकेत आशिमा को लेने आ जाएगा| मनु और रेशमा के लिए भी अनिकेत की मम्मी ने न जाने कितने उपहार लेकर रखे थे| सब बड़े प्रसन्न थे| आशिमा को देखकर दीना को तसल्ली हुई| अनिकेत वास्तव में बहुत अच्छा व होनहार विनम्र लड़का था और उसके माता-पिता बहुत भले व सहृदयी थे| उन्होंने आशिमा को खुश देखकर ईश्वर को धन्यवाद दिया| 

शाम को अनिकेत आ गया, वह भी खूब खुश लग रहा था| उसने दीना अंकल के पैर छूने चाहे तो उन्होंने कहा कि दामाद पैर नहीं छूते| अनिकेत ने हँसकर कहा कि क्या वह उनके बेटे जैसा नहीं है? दीना ने स्नेह से उसे अपने गले लगा लिया | वे आशिमा की शादी से संतुष्ट थे और बचकानी सी बात सोचने लगे कि सहगल और भाभी कहीं मिल जाएं तो उनसे पूछेंगे कि वे संतुष्ट हैं या नहीं? फिर खुद ही अपनी बात पर मुस्कराने लगे| किसी को समझ में नहीं आया कि आखिर वे क्या सोचकर मुस्करा रहे हैँ? 

डिनर पर अनिकेत ने आज पहली बार सबसे खुलकर बातें कीं| अभी तक तो वह उनको मालिक के रूप में ही देख रहा था| जब दीना अंकल ने उसे गले से लगाया उसे भी उनमें अपने पिता की छवि नज़र आई और सबके साथ उसने बातचीत में खुलकर भाग लिया| आज पता चला कि वह इतना चुप रहने वाला भी नहीं था लेकिन हाँ, वह काफ़ी सलीकेदार और अनुशासित लड़का था| 

आशी से कहा गया था कि वह डिनर पर रहेगी तो अच्छा लगेगा लेकिन उसके उस दिन भी कहीं दर्शन नहीं हुए| वह ऑफ़िस तो गई थी लेकिन वहाँ से न जाने कहाँ निकल गई थी और डिनर पर काफ़ी देर उसकी प्रतीक्षा करने के बाद डिनर शुरू कर दिया गया था| 

अब उनके लौटने का समय हो चुका था| आशिमा फिर से उदास और चिंतित नज़र आ रही थी| 

“अब और भी अकेले पड़ जाएंगे ये दोनों---”आशिमा रेशमा और भाई के लिए अधिक चिंतित थी| 

“नहीं बेटा, मैं जो हूँ| जब तक मैं हूँ तब तक तो ये अकेले नहीं पड़ेंगे| तुम इनकी चिंता मत करो और खुश रहो| तुम खुश रहोगी तो हम सब भी खुश रहेंगे| ”उन्होंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फिराते हुआ कहा| 

“वो तो मैं जानती हूँ अंकल, पर कब तक? ”आशिमा के गले में शब्द अटककर रह गए| 

“जब तक ईश्वर चाहेगा, तब तक, वैसे भी वही हो रहा है जो वह चाहता है| तुम इनकी चिंता मत करो| निश्चिंत होकर अपने घर जाओ---“फिर पूछ बैठे

“तुम लोगों की कल की फ़्लाइट है न? कल जा रहे हो घूमने? ”

“जी, अंकल---“अनिकेत ने हाँ मे सिर हिलाया| 

“ठीक है, यहाँ की चिंता मत करना, अच्छी तरह घूमकर आना, इन दिनों स्वीटजरलैंड का मौसम भी खूब सुहाना होगा| पंद्रह दिन का प्रोग्राम है न? ”

“जी अंकल---”अनिकेत ने उत्तर दिया| 

डिनर के बाद जब वे लौटने लगे। माधो ने फिर से ड्राइवर के साथ मिलकर डिक्की में गिफ्ट्स रखने शुरू कर दिए| 

“अंकल! अब फिर से इतना ? मम्मी कह रही थीं कि आपने पहले ही इतना सामान भेज दिया है कि मेहमानों और पड़ौसियों में बाँटने के बाद भी पूरा घर भरा हुआ है | ”अनिकेत ने कहा तो दीना मुस्करा पड़े| 

“अरे बेटा, बेटियों को जितना भी दो कम ही होता है| ”उन्होंने प्यार से अनिकेत की पीठ थपथपा दी, रेशमा से टीका करवाया था और चुपके से एक लाख रुपये अनिकेत के हाथों में देने लगे| अनिकेत ने अब उनके आगे हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से मना कर दिया| 

आशिमा गाड़ी में बैठने ही लगी थी कि वे उसके पास आगे बढ़े और उसका पर्स खोलकर उसमें रुपयों का बंडल रख दिया| उसके न, नुकर करने पर बोले;

“कुछ खरीद लेना---“

“अंकल---“वह कुछ भी न बोल सकी, उसने भर्राए हुए गले से कहा और उनके गले लग गई | 

गाड़ी अनिकेत और आशिमा को लेकर आगे बढ़ ही रही थी कि आशी की गाड़ी आकर रुकी, आशिमा ने गाड़ी रुकवाई और आशी दीदी के गले से लिपट गई| 

“कहाँ थीं आप दीदी? ”वह रोने लगी थी| आशी ने उसकी कमर थपथपाई और बोली;

“इट्स ओके आशिमा, बी हैपी---रोते नहीं हैं| ”उसने अनिकेत को बाय की और अंदर चली गई| 

इससे अधिक की किसी ने उससे आशा भी नहीं की थी| सब खड़े हुए जाती हुई गाड़ी को देखते रहे| गाड़ी के ओझल होने के बाद सब उदासी ओढ़े अंदर आ गए|