Shuny se Shuny tak - 6 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 6

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

शून्य से शून्य तक - भाग 6

6===

आशी ने अपने दादा जी का ज़माना देखा नहीं था लेकिन सब बातों का दुहराव इतना अधिक हुआ था कि उसे सब बातें रट गईं थीं| बच्ची थी तबसे ही सब बातें सुनती आ रही थी और अब जब उसका जीवन एकाकी रह गया तब उसे उन सब बातों में से फिर गुज़रने का अहसास सा होने लगा| अपने जीवन की कथा केवल उसकी अपनी ही नहीं थी बल्कि दादा जी से उसकी यात्रा शुरू हुई थी जिसने उसके दिलोदिमाग में एक अलग ही जगह बनाई हुई थी| वह और कुछ कदम आगे चली---कभी दादा जी की स्मृति तो कभी पिता की---

आज जब दीनानाथ ‘व्हील-चेयर’पर बैठे रहते हैं तो उनका दिमाग या तो आशी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है अथवा वे पचास साल पहले, दूर-दराज के अँधेरों में भटकते रहते हैं| जीवन में अंत तक कौन किसी का साथ दे पाता है? एक न एक दिन सभी एक-दूसरे से बिछड़ जाते हैं| मनुष्य चाहते हुए भी वह सब नहीं कर पाता जो वास्तव में वह करना चाहता है | इसे ही प्रारब्ध कहते हैं न ! मनुष्य चाहे कितना भी साथ देना चाहे ’पॉज़िटिव थिंकिंग’ रखे लेकिन प्रकृति के हल्के से ‘न’ करने पर वह सब कुछ मानो दूर छिटककर उसका साथ छोड़ने के लिए बाध्य हो जाता है| 

दीनानाथ जैसे सरल और जिंदादिल व्यक्ति के साथ बार-बार ऐसा हुआ है| आखिर क्यों? इस क्यों के साथ उनका मन भटकता रहता है और उसका उत्तर न पाने पर वह फिर निश्चेष्ट से होकर अपनी कुर्सी पर अपना सिर टिका लेते या फिर माधो उन्हें कमरे में लाकर लिटा देता है | जहाँ वे शांत होने के लिए नींद की गोली खाकर लेट जाते हैं और बस—फिर सब शांत---बंद आँखों के भीतर की हलचल तो उनका सुप्त मन ही जान सकता है| हाँ, यदि उठकर कुछ याद रहता तब भी उनके पास माधो ही था, उनके मन की बात साझा करने के लिए| 

आज अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे पता नहीं दीनानाथ क्यों अपने पिता के ज़माने में जा पहुँचे | उनके मुख पर मुस्कुराहट देखकर माधो को बहुत अच्छा लगा | 

“क्या बात है सरकार? ”

“कोई खास बात याद आ गई क्या सरकार--? ”

“हाँ---माधो ”दीनानाथ ने हँसकर कहा | 

“मुझे अपने संस्कृत के गुरु जी के साथ हुई एक घटना याद आ गई| बेचारे बड़े शरीफ़ थे और मैं महासंकोची! मुझे वे पिता जी के घर पर संस्कृत पढ़ाने आते थे | हम उन्हें ‘पंडित जी’ कहते थे | माधो! मेरी माँ पान खाया करती थीं| उनका पीकदान (जिसमें पान खाकर थूका जाता है, वह बर्तन) साफ़ होकर खिड़की में रखा रहता था | वह खिड़की सीढ़ियों में खुलती थीं| मेरा कमरा ऊपर था| पंडित जी मुझे पढ़ाने मेरे कमरे में ही आया करते थे| एक दिन बेचारे पंडित जी सीढ़ियों में से ऊपर आ रहे थे | उस दिन पीकदान अब तक साफ़ नहीं हो पाया था, नौकर सफ़ाई करने जा ही रहा था कि उसका हाथ खिड़की में रखे हुए पीकदान पर लग गया और सीढ़ियों में ऊपर चढ़ते हुए पंडित जी के ऊपर आ गिरा| पंडित जी बेचारे हरे राम ! हरे राम ! करने लगे | हम लोग भागकर वहाँ गए| पंडित जी की दशा देखकर समझ में ही नहीं आ रहा था क्या करें? सर्दियों के दिन थे | घबराई हुई माँ ने जल्दी से उनके स्नान के लिए गर्म पानी रखवाया | अब कपड़ों की समस्या? क्या किया जाए ? माँ ने पिता जी के कपड़े निकाले और उनके गर्म पानी में गुलाब जल डलवाया | उनके लिए नया साबुन, नया तौलिया---यानि जो कुछ भी कर सकती थीं किया | 

माँ बेचारी शरम से गड़ी जा रही थीं पर अब हो क्या सकता था? पंडित जी हरे राम ! हरे कृष्ण ! कहते हुए काफ़ी देर तक बाथरूम में नहाते रहे | माँ बादाम का गर्म दूध लेकर खड़ी रहीं लेकिन जैसे ही पंडित को बाथरूम से निकलते देखा, उनकी ज़ोर से हँसी छूट गई | मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, भला माँ ऐसा कैसे कर सकती थीं? लेकिन जब मैंने पंडित जी को देखा, मेरा संकोच भी जाने कहाँ गायब हो गया | छोटे से कद के, दुबले पतले पंडित जी पिता जी का लंबा कुर्ता पहने खड़े थे | उस लंबे-चौड़े कुर्ते के नीचे पहनी हुई धोती इस कदर ढक गई थी कि दिखाई ही नहीं दे रही थी | जब पंडित जी ने कमरे में जाकर आदमकद शीशे में खुद को देखा तो खुद भी ठठाकर हँस पड़े | तब मुझे और माँ को होश आया और हम उस स्थिति से बाहर निकलने के लिए बगलें झाँकने लगे | पता नहीं कभी-कभी वे पंडित जी मुझे पिताजी के कुर्ते में नज़र आने लगते हैं और आज तक भी मेरी हँसी रुक नहीं पाती| ”

माधो भी खुलकर हँस पड़ा | न जाने कितने लंबे समय बाद उसके ‘सरकार’हँसे होंगे| 

“अरे ! ये क्या सरकार, मालिक करता रहता है? तू ही तो मेरा असली बेटा है---”वे अक्सर माधो को टोकते रहते| उनकी आवाज़ भरभरा उठती और माधो उनके पैरों में लेट जाता | 

आशी की गाड़ी की आवाज़ आ गई थी | दीनानाथ थोड़े चौकन्ने होकर बैठ गए| आशी धम्म-धम्म करती सीढ़ियाँ चढ़ती ऊपर आ गई थी| उस लंबी सी लॉबी के एक कोने में दीनानाथ का कमरा था तो दूसरे कोने में आशी का दरवाज़ा खोलते हुए आशी ने एक दृष्टि दीनानाथ पर डाली –

“ओहो ! कैसे हैं पापा ? ”

दीनानाथ ने सिर हिला दिया और आशी अपने कमरे में समा गई| 

“जा, बेटा माधो देख ले उसे कुछ चाहिए तो नहीं ? ”

“बुला लेंगी न अगर कुछ चाहिएगा तो ---”

“नहीं, नहीं तू पूछ आ –”

“ठीक है ---”

माधो उठकर आशी के कमरे तक गया, कमरा नॉक किया | 

“कौन है ? ”आशी की झल्लाई हुई आवाज़ आई | 

“जी, मैं माधो –”

“क्या काम है ? ”

“आपको कुछ चाहिए तो ---”

“बुला लूँगी किसी को ---घर के सारे नौकर मर गए क्या---? ”

माधो अपना सा मुँह लेकर वापिस आ गया | आवाज़ इतनी तेज़ थी कि पूरी लॉबी में फैल गई थी माधो ने न कुछ दीनानाथ जी को बताया, न ही उन्होंने कुछ पूछा| रोज़ का ही तो यही रवैया था | माधो गुमसुम सी हो कुछ खोजने लगा|