my lord in Hindi Film Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | महाराज

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महाराज

नीलम कुलश्रेष्ठ

नेटफ़्लिक्स ओ टी टी प्लेटफ़ॉर्म पर 'महाराज 'फ़िल्म अंत की तरफ़ बढ़ चली है। कोर्ट के बाहर अंधाधुंध भीड़ है। इसमें अधिकतर कपास का व्यापार करने वाले गुजराती व्यापारी हैं। वैष्णव सम्प्रदाय के महाराज जादुनाथ कोर्ट की तरफ़ अपने रथ में बढ़ रहे हैं कोर्ट के सामने रथ से उतरते हैं तो अंधभक्त श्रद्धालु रास्ते के दोनों ओर से ज़मीन पर बैठकर दोनों हाथ धूल में रख देते हैं। इन हाथों को कुचलते, चलकर महाराज कोर्ट में जाते हैं पाप में डूबे होकर भी बौराये मदमस्त हाथी की तरह चलते हुये।

मैं हैरान हूँ ये उन्नीसवीं सदी है --या इक्कीसवीं सदी ? लगभग डेढ़ सदी पहले ये मुंबई कोर्ट के सामने जुटी भीड़ है या पाखंडी आसाराम बापू के केस के समय जोधपुर कोर्ट के बाहर उनके अंधभक्तों की ?---या राम रहीम के केस के समय सड़कों पर निकल आये जुलूस निकालने वाले उनके हज़ारों अनुयाइयों की, उनके अंधभक्तों की ?--या ऐसे ही गुरुघंटालों के शिष्यों की ?

अक्षय कुमार की दो 'ओ एम जी 'फिल्में ,आमिर ख़ान की 'पी के ' व इनकी जैसी कुछ और फिल्में भी इन अंधभक्तों की ऑंखें खोल नहीं पाईं तो महाराज जैसी कम शोर शराबे वाली सीधे सादे ढंग से अपनी बात कहने वाली फ़िल्म क्या लोगों को जगा पायेगी ? फिर मैं क्यों बेचैन हूँ इस पर लिखने के लिए ? बस वही बेचैन आत्मा को सुकून देने जैसी बात।

वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिरों को हवेली कहा जाता है। अक्सर ये बड़ी हवेलिया होतीं हैं। इनमें आरती, पूजा तो की जाती है। यहां अक्सर भव्य मूर्तियों के सामने शास्त्रीय राग के भजन गाये जाते हैं जो सुनने में सुमधुर होते हैं। अहमदाबाद में हमारे पहले घर के पास भव्य हवेली ऐसा मंदिर था। कभी कभी सुंदर मूर्तियों वाले मंदिर में जाने से, भजन सुनने से सुकून तो मिलता ही था। एक विचित्र बात ये थी कि पीछे की बालकनी जिससे मंदिर दिखाई देता था। वहां सुबह हम चाय पीते या जब फ़ुरसत हो तो खड़े हो जाएँ तो मन में बहुत शांति मिलती थी, शायद इसी को पाज़ीटिव इनर्जी कहते हैं। तब पता नहीं था कि ये सम्प्रदाय उन्नीसवीं सदी का एक घृणित अध्याय अपने सीने में छिपाये हुए है। ये भी बहुत बड़ा सच है कोई भी क्षेत्र हो सिर्फ कुछ लोगों के ख़राब होने से वह ख़त्म नहीं हो जाता। ऐसे लोगों को ही तिरस्कार मिलता है।

वड़ोदरा में पत्रकारिता के दौरान मैं वैष्णव सम्प्रदाय की धर्मगुरु इंदिरा बेटी जी के सम्पर्क में आई क्योंकि ये इस शहर की दूसरी महिला थीं जिन्होंने धर्म को समाज सेवा से जोड़कर अस्पताल, स्कूल खुलवाये थे। उन्होंने बताया था,'' वैष्णव सम्प्रदाय का आधार ये भावना है कि कोई भी काम करो वह सर्वश्रेष्ठ ढंग से करो चाहे वह घर की सजावट हो ,भोजन करना हो या कपड़े पहनना। ''

और सच ही इंदिरा बेटी जी बेहद विशाल कार में मंदिर से बाहर जातीं थीं। वही राजसी साज सज्जा फ़िल्म के महाराज की पोषक, उनके गहनों व यहाँ तक कि हवेली में दिखाई देती है।

नेटफ्लिक्स पर गुजरात हाईकोर्ट ने 'महाराज 'के रिलीज़ होने पर अस्थायी रोक लगाई थी। इस फ़िल्म पर आरोप था कि इस फ़िल्म ने सनातन हिन्दू धर्म की आस्थाओं को ठेस पहुंचाकर छवि को धूमिल करने की कोशिश की है। मेरा अभिमत है कि हो सकता है वैष्णव सम्प्रदाय के कुछ प्रभावशाली लोग व गुरु इस फ़िल्म के माध्यम से उस सच को सामने नहीं लाने देना चाह रहे होंगे। गुजरात में इस सम्प्र्दाय को बहुत माना जाता है। जब वे लोग कुछ दृश्य कटवाकर संतुष्ट हो गए होंगे या ये समझकर कि कुछ मुठ्ठी भर गंदे लोगों के कारण कोई मत, कोई धर्म या कोई क्षेत्र समूल नष्ट नहीं हो जाता। तो ये प्रतिबन्ध हटा लिया गया होगा। आखिर ये फ़िल्म 14 जून को रिलीज़ हो ही गई थी।

इस फिल्म की कहानी सन 1862 एक सत्य घटना पर आधारित है जिसे महाराज मानहानि केस के नाम से जाना जाता है। उस समय में बम्बई में गुजराती कपास व्यापारियों का बोलबाला था। बम्बई में वैष्णव संप्रदाय की सात हवेलियां थीं। इनमें से एक हवेली की सत्य घटनाओं पर आधारित है ये फ़िल्म।

इसमें आमिर ख़ान के बेटे जुनैद ख़ान ने करसनदास मूलजी समाज सुधाकर पत्रकार की भूमिका अदा की है जिन्होंने वर्षों के संघर्ष से पत्रकारिता की दुनियां में एक इतिहास रचा। उस समय के मुंबई के समाज को ऐसे घिनौने गुरु घंटाल महाराज 'की चालों से मुक्त करवाया। वे चालें क्या थीं ?महाराज जादूनाथ बने जयदीप अहलावत को कोई लड़की पसंद आ जाती तो उसे अपनी'' चरण सेवा 'के लिए चुनते। ये कैसी चरण सेवा होगी कहने की आवश्यकता नहीं है. बात और भी घिनौनी है -रुपये देकर लोग खिड़कियों से झांककर इस' सेवा 'को देख सकते थे।

अशोभनीय बात ये थी कि इस प्रथा को समाज की मान्यता प्राप्त थी। कुछ लो महाराज के पास अपनी लड़की या बहू भेजकर इसे गर्व का विषय समझते थे।

माँ के मरने के बाद मामाओं के घर पलने वाले करसनदास स्वयं पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय को मानने वाले व्यवसायी परिवार के थे लेकिन फिर भी वे अंधे होकर कुरीतियां नहीं स्वीकारते थे। उन्हें अपनी विधवा छोटी मामी को देखकर दुःख होता था कि उनका क्यों नहीं पुनर्विवाह हो सकता ? जबकि ऐसी बातें सोचना भी उस समय पाप समझा जाता था।

करसानदास की जब मंगेतर किशोरी [ शालिनी पांडे ]को फ़िल्म में होली में सुंदर नृत्य करते देखकर महाराज का मन मचल उठता है तो उसे चरण सेवा के लिए चुना जाता है। महाराज उसके सीने पर बहुत सा गुलाल लगाकर अपनी आसक्ति प्रगट करते हैं। उसकी माँ उसे ख़ुशी ख़ुशी महाराज के विशाल कक्ष में छोड़ने आती हैं। किशोरी स्वयं आत्माभिमान से भरी हुई है। करसनदास जब उसे ढूंढ़ता ढूँढ़ता महाराज के कक्ष के बाहर जाता है तो ये देखकर हैरान रह जाता है कि कुछ लोग बायोस्कोप की तरह खिड़कियों से महाराज के विशाल कक्ष में झाँक रहे हैं। अंदर का दृश्य देखकर वह सकते की हालत में रह जाता है और गुस्से में किशोरी से सगाई तोड़ देता है। जब किशोरी को वह खरी खोटी सुनाता है तब उसकी ऑंखें खुलती हैं। वह अपनी बहिन देवी [अनन्या गुप्ता] को महाराज की शिकार बनने से पहले उनके कक्ष में बिस्तर से निकाल लाती है। हालाँकि उसकी बहिन देवी बहुत झगड़ा करती है कि ये सौभाग्य उससे क्यों छीना ? बाद में किशोरी करसनदास की बेरुख़ी से अपना क्षोभ व ग्लानि सह नहीं पाती और आत्महत्या कर लेती है। करसानदास के लिए ये बहुत बड़ा झटका है।

मूलजी भाई अख़बार में वैष्णव पुजारियों के इस स्त्री शोषण पर लेख लिखता है। ये बात जादुनाथ महाराज पर पहुँचती है तो वह अखबार मालिकों पर दवाब डालकर मूलजी भाई को नौकरी से निकलवा देता है. दादाभाई नौरोजी [सुनील गुप्ता]जैसे लोग तक उसे समझाते हैं कि हवेली वालों से टक्कर नहीं ले, वे पहुंचे हुए बड़े लोग हैं। ये छटपटाते हुए ये अपना अख़बार 'सत्य प्रकाश 'आरम्भ करते हैं। महु जी [मेहर विज] जैसे सहायक उनका साथ नहीं छोड़ते। एक लड़की विराज [शरवरी वाघ] ग़लत सलत अंग्रेज़ी बोलती इस अख़बार के ऑफ़िस में नौकरी पा लेती है व करसनदास के जीवन में कुछ रस घोलने की कोशिश करती है। ये ख़ुद भी महाराज का शिकार होते होते अपने विवेक के कारण बची थी इसलिए इस लड़ाई में करसनदास का साथ देने को तैयार हो जाती है।

आज जो क्राईम थ्रिलर बनाते हैं या लोग बहुत चाव से देखते हैं, ऐसे लोगों के लिए बहुत से लोग नाक भौं चढ़ाते हैं। वे इस फ़िल्म में डेढ़ सौ साल के पहले के समय को देखें किसी को कुचलने के लिए विशेष रुप से 'सत्यप्रकाश 'जैसे सत्य को सामने लाने वाले अख़बार या मीडिया के साथ क्या क्या किया जाता था या आज भी क्या क्या सितम ढाये जाते हैं ।

महाराज के खिलाफ़ वाले लेख वाले अखबार की प्रतियाँ किस तरह जनता तक नहीं पहुँचने दीं जातीं जबकि ताँगों, बैल गाड़ियों में भरकर मुंह अँधेरे ऑफ़िस से निकाली जातीं हैं। लेकिन हर अपराध का भी कोई न कोई तोड़ होता है जिसे आप फ़िल्म में देखेंगे। । यह लेख अख़बार में पुन प्रकाशित होकर आम जनता में हंगामा मचा देता है। करसनदास जैसे आज भी कितने पत्रकार होंगे जो समाज से हर बुराई को दूर करना चाहतें हैं चाहें उनके ऑफ़िस ही जला दिए जाएँ।

इससे प्रमुख महाराज जादूनाथ नाराज़ होकर इन पर मानहानि का मुकदमा कर देते हैं। कभी बहुत पहले महाराज से गर्भवती हुई लीलावती [प्रियल गौड़] को महाराज किस तरह प्रसाद के बहाने मारने की कोशिश करते हैं और देखिये किसके द्वारा इनकी कोशिश नाकाम कर दी जाती है। किसी तरह करसनदास को अपनी कोर्ट में सच्चाई प्रमाणित करने के लिए लीलावती और उसके भाई का साथ मिलता है लेकिन ---यही तो क्राइम थ्रिलर है इस पीडिओडिक फ़िल्म का। अंत में विजय तो सत्य की होनी है। कैसे ? ये फ़िल्म से 'मी टू 'अंदाज़ में देखकर पता लगेगा। क्या जज अर्नोल्ड ने करसनदास मूलजी भाई के पक्ष में अपना फ़ैसला दे पाते हैं ?

डेढ़ सौ साल के समाज, जीवन को प्रामाणिक रुप से सजीव करने में सफ़ल रहे हैं। भारत में जो ज़बरदस्त प्रतिभाशली पीढ़ी आई है जो गौरवशाली अतीत को बहुत मेहनत व शोध से सामने ला रही है। उनमें से ये एक हैं इस फ़िल्म के निदेशक व प्रोड्यूसर सिद्धार्थ पी मल्होत्रा।

जुनैद ख़ान ने आज के ग्लैमरस समय में डेढ़ सौ साल के पहले गैट अप में नॉन फ़िल्मी चोंचलों, लटके झटके टाइप रोल में न आकर डेब्यु रोल में एक रिस्क लिया है। उनका अभिनय बहुत बढ़िया न सही लेकिन सहज सरल है। कहीं उन्होंने अपने को नकली या हाइपर नहीं होने दिया है। लोगों की कॉस्ट्यूम्स पर विशेष ध्यान दिया गया है। महाराज जादुनाथ के रोल में जयदीप अहलावत कम बोलकर बहुत कुछ कह जाते हैं या कहिये ये फ़िल्म में छाये हुए हैं। इन्होने इस रोल के लिए महीनों मेहनत करके अपना बहुत किलो वज़न काम किया है। इनके अंधभक्त सहायक गिरिधर खवास के रोल में जय उपाध्याय भी मंदिरों के छोटे मोटे गोसाईं टाइप छाप छोड़ते हैं। संगीत साधारण है।

आज के ग्लैमरस फिल्मों के दर्शक इस सादगी भरी फ़िल्म को हिट न होने दें किन्तु यदि इसे देखना आरम्भ कर दें तो इसे समाप्त कर ही उठ पायेंगे क्योंकि अपने धर्म का सभी आदर करते हैं. इसे गंदा करने वाले लोगों को माफ़ करना मुश्किल होता है।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com