Dwaraavati in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 23

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द्वारावती - 23

23


एक नूतन प्रभात जन्म ले रहा था। केशव समुद्र की तरफ़ चलने लगा। उस कंदरा तक जा रहे चरणों में एक उत्साह था तो मन में अनेक विचार जो चलते चरणों से भी अधिक तेज गति से चल रहे थे। चरणों से भी पहले केशव का मन, केशव के विचार उस कन्दरा तक पहुँच गए।
‘मैं उस कंदरा की शिला पर बैठ जाऊँगा, ओम् के नाम का जाप करूँगा, सूर्य को अर्घ्य अर्पित करूँगा। वह कंदरा के भीतर होगी, मेरे सारे मंत्रों को सुनेगी, उसे स्मरण करने का प्रयास करेगी, स्वयं उसका उच्चारण करेगी। मैं नीचे उतरकर कन्दरा के भीतर जाऊँगा, उसका मंत्र जाप सुनूँगा, वह हंसेगी, उसका प्रतिघोष सुनकर प्रसन्न हो जाऊँगा, उसके अधरों पर वही स्मित होगा, वह कंदरा से निकलकर ऊपर शिला पर बैठ जाएगी जहां मैं बैठता हूँ। वह ओम् का नाद करेगी, मैं कन्दरा के भीतर रहकर उसे सुनूँगा। वह कहती थी कि कन्दरा के भीतर उस नाद का संगीत भिन्न ही होता है।’
‘क्या वह भिन्न ही होगा? कैसा भिन्न होगा?’
‘मुझे इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं।’
जब केशव उस शिला तक पहुँचा तब उसके मन का विचार वहीं आसन लगाकर बैठ गया था।
अपने विचार को अंकुश में लेते हुए केशव ने आदेश दिया, “चलो उठो यहाँ से। यह मेरा आसन है।”
विचार ने आसन रिक्त कर दिया, उठकर हवा के साथ समुद्र में विलीन हो गया।
केशव अपने आसन पर बैठ गया। प्रतिदिन की भाँति अपनी आराधना में लग गया। मन से सभी विचार हट गए। केवल ईश्वर में ही मन रत हो गया। ओम् के जाप पूर्ण हुए, आँखें खोली, समुद्र के भीतर गया, अंजलि भर सूर्य को अर्घ्य देने के लिए अंजलि को समुद्र से ऊपर उठाया, सूर्य की प्रति मुख किया और आँखें बंद की। तभी कानों में एक मंत्र पड़ा।
ऊँ ऐही सूर्यदेव सहस्त्रांशो तेजो राशि जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहणार्ध्य दिवाकर:।।
ऊँ सूर्याय नम:,
ऊँ आदित्याय नम:,
ऊँ नमो भास्कराय नम:।
अर्घ्य समर्पयामि।।
‘आज मेरे साथ यह मंत्र कौन बोल रहा है? क्या स्वयं वायु देव मेरा साथ दे रहे हैं? अथवा समुद्र साथ गा रहा है?’
केशव ने पाँच अंजलि भरी, पाँच अर्घ्य दिए। सूर्य को वंदन किया, आँखें खोली। वह अचंभित रह गया। उसके समीप गुल थी, समुद्र के भीतर, आँखें बंद कर सूर्य को वंदन कर रही थी वह। उसने भी अंजलि भरी, सूर्य अर्घ्य मंत्र बोला, अंजलि अर्पण की। पुन: एक बार वही क्रम में कार्य किया। वंदन किया, आँखें खोली। केशव को देखा, स्मित दिया।
“गुल, तुम?”
गुल ने उत्तर नहीं दिया, स्मित दिया।
“तुम्हें यह सूर्य मंत्रभी आता है ?”
“मुझे यह गीत भी आता है।”
“गुल उसे गीत नहीं मंत्र कहते हैं।”
“यह मंत्र क्या होता है?”
“मंत्र का अर्थ है पवित्र शब्दों से बनी ईश्वर की प्रार्थना। जिसे ईश्वर की पूजा के लिए गाया जाता है।”
“जिसे गाते हैं उसे गीत कहते है। तो यह गीत ही हुआ ना?”
“नहीं गुल। गीत थोड़ा भिन्न होता है। मंत्र केवल ईश्वर की उपासना के लिए, प्रार्थना के लिए ही होते हैं।”
“तभी तो यह गीत ही है।”
“नहीं यह मंत्र है”
“नहीं गीत है।”
“मंत्र।”
“गीत।”
“मंत्र।”
“गीत।”
“मंत्र।”
“गीत।”
“ठीक है तुम उसे गीत कहती हो तो तुम्हारे लिए यह गीत ही होंगे।”
“और तुम्हारे लिए?”
केशव निरुत्तर रहा। ‘यह कन्या गीत तथा मंत्र का अंतर नहीं समझ सकती।’
“गुल, यह कहो कि कल तुम दौड़ कर जा रही थी तब तुमने कहा था कि...।”
“कि मुझे विलम्ब हो रहा है। मैं कल आऊँगी।”
“हां, तुमने यही कहा था।”
“तो मैं आज आ गई।”
“परंतु तुम्हें विलम्ब किस बात का हो रहा था?”
“यदि तुमसे बातें करने लगी तो आज भी विलम्ब हो जाएगा।”
“किस बात का विलम्ब?”
“मदरसा जाने का।”
“मदरसा क्या है? कहाँ है? तुम वहाँ क्यूँ जाती हो? प्रतिदिन जाती हो?”
“इतने सारे प्रश्न? कोई मूर्ख ही इतने प्रश्न एक साथ करते हैं।”
“कोई जिज्ञासु भी ऐसे प्रश्न कर सकता है। प्रश्न करने वाला प्रत्येक व्यक्ति मूर्ख नहीं होता।”
“किंतु हमारे मदरसा में तो कहते हैं कि जो प्रश्न करता है वह मूर्ख होता है। वो कहते हैं कि तुम प्रश्न न करो। जो भी कहा जाता है, सिखाया जाता है उसे स्वीकार कर लो क्यूँ कि वह अल्लाह के शब्द है। उसके शब्दों पर विश्वास रखना होगा, संशय नहीं।”
“ऐसा कौन कहते हैं?”
“मौलवी जी कहते हैं ऐसा।”
“यह मौलवी क्या होता है? कौन होते हैं?”
“केशव, इतना भी नहीं ज्ञात है तुम्हें? तुम्हारे गुरुकुल में कुलपति जी तुम्हें पढ़ाते हैं वैसे ही हमारे मदरसा में जो पढ़ाते हैं उसे मौलवी जी कहते हैं।”
“मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर मुझे मिल गए।”
“तो अब कौन सा प्रश्न निरुत्तर रहा?”
“मदरसा तुम्हारा गुरुकुल है, तुम वहाँ पढ़ाई करने जाती हो। मौलवी तुम्हें पढ़ाते हैं। क्या तुम वहाँ रहती हो? जैसे मैं गुरुकुल में रहता हूँ? और यह मदरसा है कहाँ।”
“नहीं, मैं मदरसा में नहीं रहती। मैं मेरे घर रहती हूँ, आपके काका के साथ। यह मदरसा थोड़ी दूरी पर है।”
“तो क्या मैं वहाँ आ सकता हूँ?”
“क्यूँ? क्या करोगे वहाँ आकर?”
“तुम्हारे मौलवी जी से मिलूँगा। कुछ प्रश्न पूछूँगा।”
“नहीं, तुम वहाँ नहीं आ सकते।”
“क्यूँ नहीं आ सकता?”
“तुम आ तो सकते हो परंतु तुम उसे प्रश्न नहीं पूछ सकते।”
“यदि प्रश्न नहीं पूछ सकते तो मौलवी जी से मिलने का कोई अर्थ नहीं रहता। किंतु प्रश्न तो पूछना आवश्यक होता है। प्रश्न करने पर क्या करेंगे मौलवी जी?”
“वह क्रोधित हो जाएँगे।”
“ऐसा कभी हुआ था क्या?”
“एक बार हुआ था, मेरे साथ ही। मैंने कुछ पूछा था तो ....।”
“तुमने क्या पूछा था?”
गुल ने दूर द्वारका नगर की तरफ़ दृष्टि कर ली, अपने हाथ को नगर की तरफ़ संकेत करते हुए बोली, “केशव, वह दूर एक मंदिर है, देख रहे हो?”
“हां, वह ऊँची धजा वाला। किसका मंदिर है वह?” केशव ने अज्ञानी की भाँति पूछा।
“मैंने भी यही प्रश्न किया था हमारे मौलवी से।”
“तो उसने क्या उत्तर दिया?”
“उत्तर? कोई उत्तर नहीं दिया उसने, अत्यंत क्रोधित हो गए।”
“तो तुमने क्या किया?”
“मैंने तथा मेरे घरवालों ने हाथ जोड़ क्षमा माँग ली तब उसका क्रोध शांत हुआ।”
“यदि आप लोग क्षमा नहीं माँगते तो?”
“तो मेरी पढ़ाई रुक जाती। मुझे मदरसा छोड़ देना पड़ता।”
“गुल, यदि ऐसा कभी हो जाए तो तुम्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें प्रश्न पूछते रहना है।”
“तो मेरी पढ़ाई कैसे होगी?”
“हमारे गुरुकुल में प्रश्न करने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। हमारे यहाँ प्रश्न करने की, संशय करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। तुम गुरुकुल आ जाना, वहाँ जितने चाहो उतने प्रश्न करना, संशय करना। तुम्हें तुम्हारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर भी मिलेगा, संशय का समाधान भी मिलेगा। और ज्ञान भी।”
“क्या ऐसा हो सकता है? मैं प्रश्न कर सकती हूँ?”
“अवश्य। गुरुकुल में तो यही होता है। वास्तव में हमारी शिक्षा पध्ध्ती ही प्रश्नों तथा उनके उत्तरों वाली है। क्या तुम्हारे मन में प्रश्न है?”
“मेरे मन में प्रश्न ही प्रश्न है। मैं अवश्य गुरुकुल आऊँगी। अभी मुझे जाना होगा, मदरसा जाने का समय हो गया।”
गुल कल की भाँति दौड़ गई, कल की भाँति ही भीनी रेत पर अपने पदचिह्नों को अंकित कर गई। केशव उसे देखता रहा, समुद्र की तरंगें उन पदचिह्नों को आज भी मिटा गई।
केशव समुद्र के भीतर गया, तैरने का प्रयास करने लगा। डुबकीयां लगाई। पुन: तैरने का प्रयास। पुन: दुबकियाँ। थक गया। बैठ गया तट पर।
सूरज की किरणें तीव्र हो गयी। ठंडी हवा अपनी शीतलता त्यागने लगी। दूर मंदिर की धजा मंद मंद लहराती दिखी।
‘यह मंदिर। भगवान कृष्ण का मंदिर। दवारका में आकर वह द्वारिकाधीश बन गए। कितना सुंदर तथा भव्य मंदिर है यह। गुल ने यही मंदिर पर प्रश्न किया था- किसका है यह मंदिर? और मौलवी क्रोधित हो गए थे। इस प्रश्न में क्रोधित होने की कौन सी बात थी?’
‘रहें होंगे उसके अपने कारण। यह मंदिर है सुंदर। एक बार तो देखना है इस मंदिर को। एक बार कृष्ण के दर्शन भी करने हैं मुझे।’
‘मन करता है मंदिर जाने का? द्वारिकाधीश के दर्शन करने का?’
‘ऐसी कोई तीव्र इच्छा तो नहीं है। कभी अवसर मिला तो चला जाऊँगा।’
‘तब गुल को भी साथ ले जाना।’
‘गुल को? ले तो चलूँगा किंतु कहीं मेरे साथ मंदिर चलने से मौलवी जी क्रोधित हो गए तो?’
केशव को कोई उत्तर नहीं सूझा।
“ हे कृष्ण!” केशव के मुख से शब्द निकल पड़े। लौट गया वह। मंदिर जाने का, गुल को मंदिर साथ ले चलने का विचार भी केशव के मन से लौट गया।