"अम्मा की तबियत ठीक नहीं चल रही है, उम्र भी काफ़ी है। अस्पताल वालो ने घर भेज दिया है, बोल दिया है, सेवा करो!", माँ ने विवेक से घर का काम ख़त्म करते हुए कहाँ।"हाँ पता है मम्मी, मैं परसो अस्पताल मे देख कर आया था। अब उम्र भी उनकी ज्यादा हो चली है, वजन भी काफ़ी है। ऊपर से कोरोना की तीनो लेहरो मे वो हॉस्पिटल मे भर्ती रही। इन सब के बाद भी उन्होंने पता नहीं कितनी बार अपनी मृत्यु को स्थगित कर दिया था। ब्लड प्रेशर, शुगर ना जाने क्या-क्या दिक्कते वे कितने समय से झेल रही है। हिम्मत तो एक नंबर है उनकी" विवेक ने यह कहते हुए माँ को उनकी चाची-सास का ब्यौरा दिया।
"चल मे कल देखने जाऊँगी उन्हें"।
"ठीक है, मै भी चलूँगा"।
मनुष्य की सबसे बड़े दुश्मनों मे उसकी उम्र भी एक है। उम्र हर व्यक्ति को कमजोर बनाती है और एक समय आने पर उसके चाहने वाले भी अपने प्रिय परिजनों के लिए भी मृत्यु का आवाहन करना प्रारम्भ कर देते है क्यूंकि जब दवा या औषधि किसी पीड़ा को खत्म करने मे अपने हथियारों को जमीन पर सजा देती है, तब मृत्यु उस पीड़ा से मुक्ति दिलाने आती है। मृत्यु ऐसी औषधि है जो कभी भी असफल नहीं होती। उसकी मारक क्षमता ब्रह्माण्ड मे सबसे तेज़ और अचूक है।
"ट्रीन... ट्रीन....", उसी रात करीब दो बजे फ़ोन बजा।
पिता जी ने पुरे आत्मविश्वास के साथ फ़ोन उठाया। जैसे उनको पता था की दूसरी ओर से बोलने वाला व्यक्ति क्या समाचार देने वाला है।
रात मे फ़ोन बजना वैसे भी व्यक्ति को दो पल के लिए झंजोड़ देता है. सारी नींद धुआँ हो जाती है. व्यक्ति मन ही मन सभी बीमार व वृद्ध लोगो की गिनती करना शुरू कर देता है. वो रेखांकित करता है कि कितने अस्पताल मे है?, कितनो को डॉक्टरों ने जवाब दे रखा हाँ? या किस-किस की आयु साठ सत्तर साल से ऊपर है?. इन सब का हिसाब वो फ़ोन उठाने से पहले ही लगा लेता है। और ये सब एक पल के दशवे भाग मे ही हो जाता है। बाकि बचा काम फ़ोन की स्क्रीन पर नंबर देख कर हो जाता है और "हेलो.." बोलते ही सब शक विश्वास बन जाता है कि घटना अगर घटी, तो किसके साथ घटी।
"ठीक है आता हुँ!" पिताजी ने फ़ोन काटा और सबको सुचना देना शुरू कर दी.
"हेलो.., विवेक चल गाड़ी निकाल, चाची पूरी हो गई है!"
विवेक ने किसी की मृत्यु के लिए "पूरी हो गई" जैसा वाक्य पहली बार सुना था। लेकिन वो समझ गया था की इस वाक्य के कहे जाने के पीछे क्या प्रयोजन है। लेकिन फिर भी वो सोचने लगा "क्या! पुरे जीवन वो अधूरी थी?, क्या कमी थी जो वे अब पूरी हुई?, क्या जिनके पति पहले स्वर्गीय हो जाते है उनके लिए इस विशेषण का उपयोग किया जाता है?। विवेक चाहता था तो यह बात पिताजी से पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता। लेकिन ना वो समय सही था और ना ही पिताजी की मनोदशा। उसने इस विचार को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दिया।
विवेक ने गाड़ी निकाली और माँ को आता देख बोला "माँ आपकी जुबान पर साक्षात् माँ सरस्वती विराजी थी, सुबह भी ना हो पाई"। चलो अब बैठो....
सुबह के चार बजे विवेक सभी घरवालों के साथ वहाँ पहुँच गया। वहाँ पहले से ही टेंट लगा हुआ था। महिलाये पार्थिव शरीर के पास बैठी थी और पुरुष बाहर शामियाने के भीतर कुर्सीयो व ताखतो पर बिलकुल शांत बैठे थे। विवेक अभी भी यही सोच रहा था की ये "पूरा होना" क्या है?। वो एक शानदार परिभाषा की तलाश मे था। लेकिन उसकी नज़र मे कुछ ही लोग थे जिन्हे वह बुद्धिजीवी समझता था। विवेक ऐसा ना था की वो अपने सवाल का जवाब किसी से भी ले ले। जैसे कुछ लोग होते है जिनकी कुछ पसंदीदा जगह होती है और वह वहीं जाना पसंद करते है, कुछ पसंदीदा लोग होते है जिनसे वह मिलना पसंद करते है और कुछ चुनिंदा कंधे होते है जहाँ वो सिर रख कर रोना पसंद करते है।
अम्मा जी प्रपोत वाली थी। वे अपनी तीन पीडियो को गोद मे खिला चुकी थी। ये मौका भी बहुत कम बुजुर्गों को मिलता है।उनके जाने का दुःख तो था ही लेकिन संतुष्टि भी थी कि कहीं ना कहीं वो अपनी पीड़ा से मुक्त हुई। इतना लम्बा जीवन और दुनिया को इतने वर्ष तक देखने के बाद व्यक्ति के देखने के लिए क्या ही बचा होगा! उनके मुख मण्डल पर एक निर्वाण को प्राप्त करने वाली मुस्कान थी। कोई दुःख, दर्द, चिंता आदि जैसा कोई भी भाव उनके मुख मण्डल पर नहीं था।
सुबह का सूर्य चढ़ रहा था। सूर्य अपनी लालिमा से दुनिया को रंग दे रहा था। रात के अँधेरे मे दुनिया बिलकुल पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्मो की तरह हो जाती। कोई कितनी भी महंगी जगमग लाइट लगा ले। लेकिन सूर्य जितना दम कोई नहीं रखता। कुछ मान्यताओं मे चाँद को महत्व दिया जाता है और तर्क भी इतना बेवक़ूफी भरा होता है जिससे एक बुद्धि रखने वाला मानुस खुद की बुद्धि को समाप्त कर ले। वो कहते है, "चाँद हमें तब रौशनी देता है जब सूर्य अनुपस्थित होता है। इसलिए चाँद ज्यादा महत्वपूर्ण है"। ऐसी मान्यताओं से तो भगवान बचाये।
सुबह के छ: बजे थे. चिड़ियाये अपने ऊँचे स्वर मे आपस मे बात कर रही है और इसके साथ ही चाय का आगमन होता है। पड़ोस का लड़का, एक स्टील की ट्रे मे दस-पंद्रह कागज़ के कपो मे चाये लिए घूम रहा है। सभी अपना अपना हिस्सा उठाते है और दुनिया जहाँन की बातो मे कही गुम हो जाते है।
वहाँ लोग अलग-अलग समूह मे खड़े थे। हर तरह की बातों का चलन वहाँ चालू था जैसे घरेलू मुद्दे, व्यापारिक माथापच्ची, किसी पर लालछन लगाना, सियासी बाते आदि।
वहाँ कहीं दूर विवेक की आँखों ने पिताजी को ढूँढा तो वह मेरठ वाले चाचा के साथ खड़े थे। विवेक उनकी तरफ चल दिया। विवेक उनसे थोड़ी ही दुरी पर था, तभी उसने चाचा जी को पिताजी से कहता पाया, "और भाईसाहब क्या चल रहा है? सब कुछ बढ़िया तो है?"
"सब बढ़िया है", पिताजी ने जवाब दिया.
"विवेक कही सेट हुआ?, कही नौकर हुआ?."
"नहीं अभी नहीं! वो सरकारी नौकरी ही करेगा. उसी मे लगा रहता है"
"अरे भाई साहब चौबीस-पच्चीस साल का हो गया होगा अब भी कोई सरकारी नौकरी देगा?, मेरा आशीष एक मल्टीनेशनल कंपनी मे नौकर हो लिया, तीस हज़ार तनख्वाह है"
ये सुनते ही विवेक पिताजी की नजर से ओझल हो गया। ऐसा नहीं था कि विवेक के पास जवाब ना हो लेकिन वो वक़्त की नज़ाकत को देख कर चुप रह गया। सोचने ये भी लगा की ये मेरठ वाले चाचा किसी शोक मे आये है या शादी मे!
दूसरी तरफ देखा तो दूसरे रिश्तेदार इसी तरह की बांते कर रहे थे। लेकिन उनकी छुरी के निचे कोई दूसरा बकरा था।
वहीं से थोड़ी दूर अम्मा के दोनों बेटे लड़ते पाए गए। उनका मसला दुसरो से बिलकुल अलग था। उनका मसला परिस्थिति के अनुरूप था। बड़े वाले का नाम घनश्याम है और छोटे वाले का सोनू। सोनू घनश्याम से कहता, "भाई अर्थी का सामान तू ले आ। मैं शमशान मे लकड़ी की पर्ची कटवा दूंगा दोनों का खर्चा बराबर हो जाएगा"।
"फिर दाह संस्कार कराने वाले पंडित को कौन देगा?, और ट्रक वाले का हिसाब कौन करेगा?" घनश्याम ने गुस्से मे कहाँ
उनकी तू-तू मैं-मैं तब तक जारी रही जब तक एक परिवार के बुजुर्ग ने उनका राज़ीनामा ना करवा दिया। अब राज़ीनामा किन शर्तो पर हुआ ये तो भगवान ही जाने।
वहाँ आसपास बहुत कुछ दुनियादारी से जुडा हुआ चल रहा था। कोई अपनी परेशानी किसी दूसरे को सुना रहा था, तो कोई किसी की खुशकी ले रहा था। लेकिन इन सब के बीच ये समझ मे आ रहा था कि यहाँ सब बस इसलिए उपस्थिति है की अगर वो आज यहाँ नहीं आएंगे तो जब वो खुद स्वर्ग की यात्रा पर निकलेंगे तब उनके लिए भी कोई नहीं आएगा। इस बात से अनभिज्ञ कि अदले का बदला आपकी कहीं उपस्थिति से नहीं होता, ये सब आपके आचरण का काम है। मीठा बनने और मीठा होने मे फर्क होता है।
लोग आते जा रहे थे। रोना धोना भी बदस्तूर जारी था। दोपहर का समय निकट ही था। घड़ी साढ़े ग्यारह बजा रही थी। लोगो मे से कुछ ने पूछना शुरू किया "कितना समय लगेगा दोपहर होने आई है, तैयारी कर लो?", लोगो मे ये सुनते ही फुसफुसाहट शुरू हो गई। तभी एक आवाज़ आती है "भाई सामान ले आओ"। विवेक अपनी कुर्सी से उठा और जा कर वही पास मे खड़ा हो गया जहाँ आगे का कार्यक्रम होना था। धीरे धीरे सारा काम चल रहा था और विवेक सब कुछ ध्यान से देख रहा था। लेकिन सबसे जरूरी सवाल वही था, जिसका जवाब वह ढूंढ़ रहा था।
"ये पूरा होना क्या होता है?"
अर्थी को सजाया गया और राम का नाम लेके ट्रक मे रखा गया। मंजिल शमशान ही थी। कुछ लोग ट्रक मे सवार हुए और कुछ ने अपनी सवारी का सहारा लिया।
मात्र बीस मिनट के सफर के बाद मै शमशान मे था। ट्रक अभी पहुँचा नहीं था। ट्रक आने से पहले मे वहाँ का जयजा लेने अंदर आ गया।
शमशान बहुत ही विचित्र स्थान है। यहाँ की गन्द बिलकुल अलग होती है। देह और हवन सामग्री दोनों के साथ जलने पर आती गन्द। इस गन्द से किसी को कोई दिक्कत नहीं होती, ना ही यहाँ कोई आपको मास्क लगाए मिलेगा। अब देह को तो एक दिन नष्ट ही होना है, चाहे किसी के लिए वो वायु प्रदुषण हो या किसी के लिए भूमि प्रदुषण इससे कोई फर्क वैसे भी पड़ता नहीं।
शमशान प्रवेश करते ही मनुष्य का कुछ समय के लिए हृदय परिवर्तन भी हो जाता है। परिवर्तन सिर्फ अल्पकालिन ही होता। मानसिक विकास मे एक प्रशंसनीय सुधार देखा जाता है। वो भूल जाता है दुनिया की भाग दौड़ को, उसको याद नहीं रहता कि उसको यहाँ से निकासी के बाद फिर से उसी दुनिया की थपेड़े खानी है। वो एक महान दार्शनिक मे परिवर्तित हो जाता है। उसे सत्य के ज्ञान की आपूर्ति होती।
वहीं ऐसा ना था की विवेक पहली बार शमशान आया हो। लेकिन इस बार कुछ अलग था। क्यूंकि उसने कुछ ही दिन पहले एक उपन्यास पढ़ा था। उस उपन्यास का नाम था, "हाउ वी डाइ लेखक शेरविन नुलैंड"। इसी वजह से उसके आस-पास जो भी घट रहा था उसे वह बहुत बारीकी से देख रहा था। उसने शमशान को पहली बार नजर भर के देखा। वहाँ की दीवारे, पेड़, चिताये, नल से बहता पानी, इधर उधर लौटते कुत्ते, बहुत ज्यादा व्यस्त लोग, दीवारों पर लिखें श्रीमदभागवतगीता के कुछ श्लोक आदि।
ये सब देखते हुए उसकी नज़र दिवार पर लिखें श्लोक पर पड़ी..
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अर्थार्त:- आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
ये श्लोक विवेक ने स्कूल समय पर संस्कृत वाले अध्यापक के द्वारा सुना था। पर तब उसे ये श्लोक याद नहीं हो पाया। वह उस श्लोक वाली दिवार के सामने थोड़ी देर के लिए खड़ा हो गया और श्लोक याद करने की असफल कोशिश मे लग गया। क्यूंकि ऐसे ही उसने स्कूल के दिनों मे अपने कमरे की दिवार पर लिख कर गणित के सूत्र याद किये थे. तभी ट्रक के आने की आवाज आई. विवेक दिवार से हटा और सीधा ट्रक के पास पहुँच गया।
पार्थिव शरीर को ट्रक से उतारा गया और अंतिम क्रिया के लिए मरघट पर रखा गया। सभी नाते रिश्तेदार वहाँ बिलकुल शांत खड़े हो गए। पंडित को आवाज़ लगी तो पंडित थोड़ी दूर से आता हुआ दिखाई दिया।
इस कार्य मे थोड़ा समय लगना ही था। तो सभी लोगो ने वहाँ रखी हुई बेंचो पर अपनी तसरीफ को सहारा दिया। नाते रिश्तेदार थोड़ा सुस्ता ही रहे थे वैसे ही शमशान के स्पीकर पर एक गीत बजने लगा, "ओ अकेले आने वाले, तू अकेला जाएगा"। बड़े शहरो के कुछ शमशानो मे स्पीकर भी है जहाँ गीत भी बिलकुल विलीन करने वाले ही बजाये जाते है।
कई लोग गाने के शब्दों मे कहीं लापता हो गए। तो कुछ दो-दो चार-चार के समूह मे अध्यात्म और मोक्ष की बातों से समय को काट रहे थे। चार लोगो के एक समूह मे चालीस वर्ष का एक व्यक्ति अपने से लगभग बीस वर्ष बड़े चार लोगो को समझा रहा था कि, "दुनिया मे आदमी हाय हाय करता ही मर जाता है। पूरा जीवन पैसो को रोता रहता है। लूट खसोट करता, समाज को परेशान करता फिरता है। अंत मे क्या लेके जाता है अपने साथ! ऐसे ही एक दिन राख हो जाएगा। देखो यहाँ बड़े बड़े फन्ने-खा छोटी-छोटी चिताओं पर लेटे है"। विवेक ये सब पास खड़ा सुन रहा था। उसके मन को ये वार्तालाप मोहक लग रही थी। तभी विवेक के कंधे पर एक परिचित व्यक्ति का हाथ महसूस हुआ।
"अरे भाई, इनको इतनी गंभीरता से ना ले", सोनू बोला. वहीं सोनू जो सामान के लिए लड़ रहा था.
सोनू बोला-"ये हमारे फूफा का छोटा भाई है। रोज़ के पैसेंजर है।"
"रोज़ का पैसेंजर मतलब?" विवेक ने विस्मित हो कर पूछा
"अरे भाई रोज़ की शराब, रोज अद्धा चाहिए होता है महाराज को. थाने के सभी पुलिस वाले जानते है। सबको पता है महाराज कौन से डंडे से चुप होंगे। ये ज्ञान बस यही तक का है। एक नंबर के कपटी आदमी है और जो बेचारे सुन रहे है वो इनको जानते नहीं तभी इतनी तवज्जो दी जा रही है। महाराज का चेहरा देख, ऐसे लग रहे है जैसे किसी सिद्धपीठ के पीठाधीश हो"। सोनू ये सब बता कर "हाँ, आ रहा हूँ!" कहता हुआ किसी आवाज़ के साथ चल दिया।
विवेक वहीं खड़ा सोचता रह गया कि कैसे दुनिया का सबसे कपटी व्यक्ति भी शमशान मे खड़े हो कर त्याग, मुक्ति व मोक्ष पर व्याख्यान दे रहा होता है। लोग सही कहते है शमशान एक जादुई जगह है। यहाँ जो भी आता है दार्शनिक हो जाता है।
विवेक ने जो उपन्यास पढ़ा उसका सब कुछ उसके दिमाग़ मे ही चल रहा था. वो इस सब मे इतना खो गया था की एक अजनबी के बगल मे खड़ा हुआ कहने लगा, "इस शमशान के पास कितनी ही दुःख, तकलीफ और पीड़ा की कहानियाँ होंगी। अगर ये शमशान जीवित होता तो हमें कितनी ही कहानियाँ सुनाता"
"शमशान जीवित ही है भाई. यहाँ जो मृत हो जाते है उन्हें लाया जाता है। अगर कहानी ही सुन्नी है तो यहाँ आराम से बैठ जाओ और ध्यान दो अपने आस पास मे, शमशान कहानियो की झड़ी लगा देगा बशर्ते तुम्हे अपना समय खर्च करना होगा। शमशान से कहानियाँ भी सुनने को मिलेंगी और उसकी पीड़ा भी समझ आएगी"। ये कह कर वो अजनबी मेरे पास से चला गया।
विवेक को कहीं दूर अकेले खड़े हुए अपने वही मेरठ वाले चाचा दिखे जो उसके पिताजी को उसके भविष्य के लिए कुरेद रहे थे या सरल शब्दों मे कहे तो उसके पिताजी की खुशकी ले रहे थे। विवेक मौका पा कर उनके पास जा कर खड़ा हुआ और अपना अभिवादन दिया।
"नमस्कार, चाचा जी! कैसे है आप?".
"नमस्कार बेटा बहुत अच्छे बहुत अच्छे" चाचा अभिवादन स्वीकार करते हुए बोले।
"और चाचा जी आशीष कैसा है? सुनने मे आया कहीं नौकर हो गया है?"
"हाँ बेटा, किसी टेल्को इंटरनेशनल नाम की कंपनी मे है"
अब विवेक की बारी थी। चाचा जी ये नहीं जानते थे कि उनके बारे मे भी खबरे सहेजी गई है। उनका भी बायोडाटा विवेक के पास है।
"चाचा जी, अब आशीष आपके साथ ही रहता है या अभी भी लीविंन मे ही है?", विवेक ने चाचा द्वारा की गई पिताजी की बेइज्जती का बदला एक ही वाक्य से ले लिया था।
"तुझे कैसे पता विवेक?" चाचा जी ने झेंपकर पूछा..
"जैसे आपको पता है कि चौबीस साल की आयु मे कोई सरकारी नौकरी नहीं देता!" इतना बोलते ही विवेक चाचा जी की नज़रो से ओझल हो गया। लेकिन चाचा समझ गए और शिक्षा भी ले बैठे. उनका भी हृदय परिवर्तन हो गया होगा। शायद? जिससे किसी दूसरे या तीसरे की खुशकी कभी ना ले पाए। जगह और वक़्त की नजाकत को समझे।
मरघट का काम खत्म हो गया था। मटकी फोड़ी जा चुकी थी। अब पार्थिव शरीर को संस्कार के स्थान पर लाया गया। लकड़िया वहाँ पहले से ही मौजूद पड़ी थी। तब जान पड़ा की अम्मा के दोनों बेटों मे कोई समझौता हो गया होगा। तभी कार्य बिना किसी विलम्ब के हो रहे है।
विवेक का वैसे कोई महत्वपूर्ण कार्य वहाँ नहीं था। इसलिए अब उसने बैठने की सोची। वो थक भी गया था। ऊपर से रात की नींद की आहुति भी दी जा चुकी थी। उसकी आँखे कोई शांत जगह ढूंढ़ रही थी। वह ऐसी जगह तलाश रहा था जहाँ से वह सभी को देख पाए लेकिन कोई दूसरा उसे ना देखे।
थोड़ी दूर कोने मे उसे एक बेंच मिल ही गई। वह आराम से वहाँ अपने दोनों पेरो की पालती लगा कर बैठा गया।
ऐसे ही एक कोना पकडे विवेक ने कुछ कुत्तो का रुदन सुना। कम से कम बीस कुत्ते एक स्वर मे रोने लगे। उनका रुदन इतना तीर्व था जिसकी आवाज़ पुरे शमशान मे गूंज रही थी। इस रुदन के परे विवेक देखता है कि किसी को कुत्तो के रुदन की कोई परवाह नहीं है। सब लोग अपने-अपने काम मे लगे हुए है। पंडित अपने मन्त्र पढ़ रहे है, कुछ लोग एक दूसरे के गले लग कर रो रहे है और कुछ लोग चिताये सजा रहे है लेकिन वहीं कुत्तो का रुदन बदस्तूर जारी है।
कुत्तो को किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। वो सभी एक साथ एक दूसरे का साथ दे रहे है जैसे कोई गायन प्रतियोगिता हो और उसमे सभी को एक ही समय पर एक ही गाना दे दिया गया हो। इनमे सभी मुख्य गायक है, कोई भी कोरस नहीं कर रहा है। पुराने लोग कहते है कि कुत्तो को आत्मा दिखती है, कुत्तो को किसी अशुभ समाचार से पहले ही पता लग जाता है जो भी होने वाला हो लेकिन शमशान मे तो आत्माओ का बुफ़े लगा रहता है। दिखने की तो बात ही जाने दो। समाचार जब अशुभ होता है तभी शमशान मे लोगो का मेला लगता है।
सदियों से आज तक कुत्तो के रुदन को शुभ नहीं माना जाता और कुछ संस्कृतियों मे तो कुत्ते को ही नापाक माना जाता है। कुत्तो का रुदन एक अशुभ समाचार की और इशारा करता है। लोग उनकी पीड़ा को किसी अनहोनी का इशारा समझते है। आज भी कही भी कुत्तो का रुदन सुना जाता तो उन्हें चुप करवाने के लिए कुछ लोग अपने हाथो मे लाठीयाँ, ईंट व कोई भी मारक वस्तु लिए उनके पीछे दौड़ पड़ते। इस बात से अनभिज्ञ कि चोट किसी को भी लगे लेकिन दर्द बराबर ही होता है। आप उस श्रेणी मे किसी पशु को रखे या मनुष्य को। जैसे मृत्यु सभी को बराबर मात्रा मे मिलती है। ना कम ना ही ज्यादा।
कुत्तो के तीर्व स्वर विवेक के मस्तिष्क मे किसी तीर की तरह धस रहे थे। शमशान ऐसी जगह है जहाँ मानुस थोड़ी शांति चाहता है। हालांकि शांति एक भटकते को कहाँ ही मिलती है। उसपर सभी कुत्तो का एक ही स्वर और एक ही ताल मे रुदन. तभी एक विचार विवेक को घेरता है। वह सोच मे पड़ जाता है कि, "कुत्ता या तो रोता है या भौंकता है"। इसके अतरिक्त क्या कोई कुत्ता हँसता भी होगा?, क्या किसी ने उनकी हंसी सुनी होंगी?, क्या किसी ने सुना होगा उनका चिड़ियाओ के जैसे हँसता हुआ मधुर स्वर?, वही स्वर जिसको सुनकर कोई उसे अशुभ समाचार का आमंत्रण ना समझा जाए!. वही स्वर जिसे सुन कर कोई उन्हें दर्द ना दे क्यूंकि कुत्ता चाहे भौंकें या रोये दोनों ही सूरतों मे उसको पीड़ा होना संभावित है।
मनुष्य की प्रवृत्ति है वो अपने दर्द, अपने दुख और.... इन सब को दुसरो से ज्यादा या बड़ा मानता है। वो डरता है किसी अनहोनी से, किसी दु:ख के प्रवेश से। इसलिए वो कुत्तो को मारने की लिए दौड़ पड़ता है।
लेकिन इसके उपरांत भी यहाँ शमशान मे किसी भी व्यक्ति ने कुत्तो को कुछ नहीं कहाँ। सब आराम से बैठे रहे क्यूंकि सभी किसी ना किसी शव को उसकी मुक्ति के लिए लाये थे और इसी सोच मे होंगे की "इससे बुरा क्या ही होगा" ये जो यहाँ घट रहा है वो भी तो किसी ना किसी के लिए अशुभ ही है। इसमे कुत्तो के रुदन ने भी अपना स्थान बना ही लिया था। ये रुदन कुछ समय बाद खत्म हो गया लेकिन अगर यही कुत्ते किसी कॉलोनी या किसी घर के बाहर भी एक ही स्वर मे इसी तरह रोते तो इनमे से आधो को मानव निर्मित अस्त्र व शस्त्र से या तो खंडित कर दिया जाता या सीधा परमात्मा से मिलन करवाने के लिए किसी ना किसी दिव्य वाहन मे बैठा दिया जाता।
मनुष्य के जीवन मे स्थान विशेष महत्व रखता है। जो कृत्य एक जगह सभ्य है, वही दूसरी जगह असभ्य भी हो सकता है। जैसे कुत्तो का रुदन।
मुखाअग्नि देने के लिए पंडित जी ने बड़े बेटे घनश्याम को आगे बुलाया। घनश्याम ने एक फेरा लिया और अम्मा को अग्निदेव के हवाले कर दिया। आग अपना काम कर रही है जिसके लिए उसे जाना जाता है। अग्नि शुद्ध होती है उर्दू मे बोले तो ख़ालिस। अग्नि जिसमे भी मिलती है उसे शुद्ध ही कर देती है. मनुष्य देह को भी वो शुद्ध राख मे परिवर्तित कर देती है.
ये सबकुछ होते हुए विवेक देख रहा था। उसको अब धीरे-धीरे जान पड़ रहा था कि अधूरापन क्या होता है! क्यों पूरा होना होता है। जैसे जैसे लपटे तेज़ हो रही थी वैसे-वैसे समझ का भी विकास देखा जा रहा था।
विवेक ने पिताजी को एक जगह अकेले पाया तो सोचा क्यों ना ये सवाल जो इतना परेशान कर रहा है उसका जवाब वही से लिया जाए जहाँ से ये उत्पन्न हुआ था.
विवेक पिता जी के पास जा कर खड़ा हो गया। मुश्किल से पाँच मिनट ही बीते थे उसने हिम्मत कर के पूछ ही लिया।
"पिताजी जी ये "पूरा होना" क्या होता है?"
विवेक की सीधे आँखों मे देखते हुए पिताजी कहते है "इंसान जब दुनिया मे आता है तो उसके आने पर उत्सव मनाया जाता है। धूम होती है, मिठाईयाँ बाँटी जाती है। लेकिन जैसे जैसे वो बड़ा होता रहता है तो इस दुनिया के मायाजाल मे फंस जाता है। उसके भीतर हमेशा सब कुछ अधूरा रहता है जैसे बचपन के कुछ खिलोने छुठ जाते है, कभी जवानी का प्रेम अधूरा रह जाता है। शादी होते ही वो परिवार के चक्कर मे खुद अधूरा रह जाता है और अंत मे जब बुढ़ापा आता है तो वो अपने ही घर मे अधूरा ही बैठा रहता है क्यूंकि उसके लिए सभी के पास समय का आभाव हो जाता है। लेकिन जब मृत्यु आती है ना तब वो इन सभी आशाओं-निराशाओ को पूर्ण कर देती है। मृत्यु सभी को पूर्ण लेके जाती है अधूरा कुछ नहीं रहने देती!"
अपने पिताजी के व्याख्यान को सुन कर विवेक बिलकुल अचंभित था। वो बस पिता जी को आँखों से निहार रहा था। सवाल के जवाब से मिली ख़ुशी उसके मुखमण्डल पर देखी जा सकती थी। लेकिन वह सोच रहा था की कैसी "विचित्र जगह है शमशान व्यक्ति को दर्शानिक बना देती है"।