Emperor Kanishka in Hindi Biography by Mohan Dhama books and stories PDF | सम्राट् कनिष्क

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 52

    નિતુ : ૫૨ (ધ ગેમ ઇજ ઓન)નિતુ અને કરુણા બંને મળેલા છે કે નહિ એ...

  • ભીતરમન - 57

    પૂજાની વાત સાંભળીને ત્યાં ઉપસ્થિત બધા જ લોકોએ તાળીઓના ગગડાટથ...

  • વિશ્વની ઉત્તમ પ્રેતકથાઓ

    બ્રિટનના એક ગ્રાઉન્ડમાં પ્રતિવર્ષ મૃત સૈનિકો પ્રેત રૂપે પ્રક...

  • ઈર્ષા

    ईर्ष्यी   घृणि  न  संतुष्टः  क्रोधिनो  नित्यशङ्कितः  | परभाग...

  • સિટાડેલ : હની બની

    સિટાડેલ : હની બની- રાકેશ ઠક્કર         નિર્દેશક રાજ એન્ડ ડિક...

Categories
Share

सम्राट् कनिष्क

कनिष्क कुषाण वंश का तृतीय एवं सर्वाधिक प्रतिभाशाली शासक था, जो विम के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ। कनिष्क इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा यशस्वी सम्राट् था, जिसे भारतीय इतिहास में एक महान् योद्धा, साम्राज्य निर्माता तथा प्रजापालक सम्राट् के रूप में याद किया जाता है। अशोक महान् के उपरांत बौद्ध धर्म को संरक्षण देनेवाला वही महत्त्वपूर्ण शासक था। उसके शासनकाल में ही कुषाण राजवंश समृद्ध हुआ। उत्तरी भारत के सांस्कृतिक विकास में कुषाण युग की गणना, जो एक महत्त्वपूर्ण चरण के रूप में की जाती है, उसका श्रेय कनिष्क को ही है।

कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि इतिहास के कुछ अत्यधिक उलझे हुए प्रश्नों में से एक है। डॉ. स्मिथ एवं सर जान मार्शल ने कनिष्क के शासन को 125 ई. से प्रारंभ होकर उस शती के उत्तरार्ध तक माना है, परंतु जूनागढ़ और सुई विहार अभिलेख इसके खंडन में साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में उसके इस प्रदेश में एकाधिकार का पता चलता है, फिर एक स्वतंत्र प्रदेश पर एक ही समय में दो शासकों का नियंत्रण किस प्रकार स्वीकार किया जाए। डॉ. रमेश चंद्र मजूमदार ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 248 ई. मानी है, जिस वर्ष कनिष्क ने त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि संवत् का प्रारंभ भी किया, जबकि आर.जी. भंडारकर ने यह तिथि 278 ई. मानी है, परंतु विभिन्न साक्ष्यों से इन दोनों तिथियों का खंडन होता है। तिब्बती साक्ष्य कनिष्क को खातान के विजयकीर्ति का समकालीन बताते हैं, जो 248 ई. से बहुत पहले हुआ था। इसके साथ ही यह निश्चित है कि कनिष्क के सिंहासनारोहण के लगभग 100 वर्ष पश्चात् वासुदेव मथुरा पर राज्य कर रहा था। यदि डॉ. मजूमदार के अनुसार कनिष्क की तिथि 248 ई. और डॉ. भंडारकर के अनुसार 278 ई. मान ली जाए तो वासुदेव का शासन 348 ई. अथवा 378 ई. सिद्ध होता है, परंतु इस समय में मथुरा में कुषाणों के शासन का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सर्वाधिक प्रमुख मत टामस, रैप्सन एवं डॉ. रावल दास बनर्जी का है, जिनके अनुसार कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ई. थी। अपने मत के पक्ष में इन विद्वानों ने कुछ तर्क प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार चीनी साहित्य के विभिन्न उल्लेखों से कनिष्क के 78 ई. में राज्यारोहण का अनुमान लगाया जा सकता है। मार्शल द्वारा तक्षशिला में की गई खुदाइयों से भी यह स्पष्ट हो गया है कि कनिष्क कुषाण वंश के प्रथम दो कैडफाइसिस शासकों के बाद शासक बना। चूँकि दोनों कैडफाइसिस शासकों का शासन प्रथम शताब्दी में ही समाप्त हो गया था, इसलिए कनिष्क भी इस शताब्दी के उत्तरार्ध में ही कभी सिंहासनारूढ़ हुआ होगा। इससे भी 78 ई. की तिथि की ही पुष्टि होती है। अपने मत के पक्ष में इन विद्वानों ने कुषाण अभिलेखों में मिली हुई अग्रलिखित तिथियों का उल्लेख किया है—
कनिष्क—11 से 23 तक।
वासिष्क—24 से 28 तक।
हुविष्क—28 से 60 तक।
वासुदेव प्रथम—64 से 98 तक।

विद्वानों के अनुसार यह किसी संवत् की तिथियाँ हैं, जिसे कनिष्क ने प्रारंभ किया था और इन तिथियों का एक क्रम है। उनके अनुसार यह 78 ई. का संवत् है, जिसका प्रारंभ कनिष्क ने किया। इस आधार पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कनिष्क 78 ई. में ही सिंहासन पर बैठा और इस वर्ष प्रारंभ किए गए शक संवत् का प्रवर्तक कनिष्क ही था—

प्राचीन भारतीय साम्राज्यवादी शासकों में कनिष्क का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह एक महान् विजेता तथा साम्राज्यवादी शासक था, जिसने अपने शौर्य से न केवल प्राप्त राज्य की रक्षा की, वरन् भारत से बाहर भी आक्रमण करके अनेक विजय प्राप्त कीं। इसके लिए कनिष्क को अनेक युद्ध करने पड़े। उत्तर, दक्षिण तथा पूर्व तीनों दिशाओं में उसने अपनी विजयों के द्वारा अपने साम्राज्य की सीमाओं में वृद्धि की। उसने सर्वप्रथम कश्मीर को विजित किया। कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगरी बसाई। यहाँ उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी किया तथा चतुर्थ बौद्ध संगीति भी आयोजित की। चीनी और तिब्बती प्रमाणों के आधार पर कहा जाता है कि उसने पाटलिपुत्र तथा साकेत पर आक्रमण कर उन्हें भी जीत लिया। पाटलिपुत्र से ही वह प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् एवं दार्शनिक अश्वघोष को अपने साथ अपनी राजधानी लाया था और संभवतः उसी के संपर्क के कारण उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उसने उज्जैन पर भी अपना अधिकार कर लिया। कनिष्क ने भारत से बाहर भी आक्रमण किए। चीनी साहित्य से पता चलता है कि नान-सी (जिसका समीकरण पर्थिया से किया जाता है) के शासक ने देवपुत्र कनिष्क पर आक्रमण किया, जिसमें कनिष्क ने उसको परास्त कर दिया। कनिष्क का पर्थिया पर आक्रमण स्वाभाविक भी लगता है, क्योंकि व्यापारिक दृष्टिकोण से मध्य एशिया के व्यापारिक मार्गों को अपने प्रभाव में लेने के लिए भी यह आवश्यक था। कनिष्क का चीन से भी युद्ध हुआ। चीन में कनिष्क का समकालीन हान वंश था, जो बड़ा शक्तिशाली था। इस वंश के सेनापति पान-चाओ की साम्राज्य-प्रसार की नीति के कारण चीनी साम्राज्य का विस्तार होने लगा और उसकी सीमाएँ उत्तर में कनिष्क साम्राज्य के कश्मीर प्रांत को छूने लगी। चीनी ग्रंथों से पता चलता है कि कुषाण सम्राट् ने चीनी सम्राट् के समक्ष चीनी राजकुमारी से अपने विवाह का प्रस्ताव रखा। चीनी सेनापति पान-चाओ ने इसको अस्वीकार कर दिया, जिसके विरोध में कनिष्क ने युद्ध घोषित कर दिया। इस युद्ध में कनिष्क हारा और उसे चीन को प्रतिवर्ष कर भेजने का भी वचन देना पड़ा। चीन के हाथों कनिष्क की हार की पुष्टि के प्रमाण के रूप में एस. लेवी ने एक लोक कथा का संदर्भ दिया है, जिसमें कनिष्क कहता है, ‘मैंने तीन प्रदेशों को जीत लिया है, सभी मेरी शरण में हैं, परंतु केवल उत्तरी प्रदेश के लोगों ने मेरी आधीनता स्वीकार नहीं की है।’ इस आधार पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि उत्तरी क्षेत्र चीन ही होगा, जिससे कनिष्क पराजित हुआ होगा, परंतु ह्वेनसांग के एक वर्णन के आधार पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कनिष्क ने अपनी पराजय का बदला लेने के उद्देश्य से चीन पर दोबारा आक्रमण किया। इस बार वह विजयी हुआ, उसका अधिकार चीनी तुर्किस्तान पर हो गया तथा उसका साम्राज्य पश्चिम में यारकंद, खोतान और काशगर तक हो गया, परंतु टॉमस आदि विद्वानों ने इस विवरण को स्वीकार नहीं किया है। उनका कहना है कि कनिष्क के चीन पर दूसरे आक्रमण का उल्लेख केवल मात्र ह्वेनसांग ने ही किया है और किसी ने नहीं। इस कारण इस आक्रमण की प्रामाणिकता संदिग्ध है। कनिष्क ने अपने शौर्य से एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उसके सिक्कों और अभिलेखों से पता चलता है कि उसका साम्राज्य उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत से लेकर बनारस, पाकिस्तान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार तक फैला हुआ था। उसका राज्य मध्य एशिया तथा अफगानिस्तान तक विस्तृत था। उसके इस विस्तृत साम्राज्य की राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। कनिष्क ने अपने विशाल साम्राज्य के प्रशासन की भी समुचित व्यवस्था की। उसने पुरुषपुर को राजधानी बनाया, परंतु संभवतः मथुरा कुशाणों की दूसरी राजधानी थी। शक शासकों की ही भाँति कनिष्क ने भी क्षत्रपीय व्यवस्था को बनाए रखा और साम्राज्य के विभिन्न भागों में महाक्षत्रपों के शासन की व्यवस्था की। उसके अभिलेखों में विभिन्न क्षत्रपों का उल्लेख हुआ है, जैसे सारनाथ अभिलेख से उसके महाक्षत्रप खरपल्लान और क्षत्रप बनस्पर का नामोल्लेख हुआ है।

कनिष्क का धर्म
भारतीय इतिहास में कनिष्क की प्रसिद्धि एक विजेता की अपेक्षा बौद्ध धर्म के अनुयायी के रूप में अधिक है। विद्वानों के अनुसार कनिष्क यदि एक ओर चंद्रगुप्त मौर्य की तरह साम्राज्यवादी था तो दूसरी ओर अशोक और हर्ष की तरह एक धर्म-प्रचारक। कनिष्क की मुद्राओं से उसके धर्म और धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं के विकास का परिचय मिलता है। बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त उसकी मुद्राओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। उसकी पहली कोटि की मुद्राओं में सूर्य (हेलिओज) और चंद्रमा (मयो) आदि यूनानी देवताओं के चित्र अंकित हैं। दूसरी कोटि की मुद्राओं पर ईरानी देवता अग्नि (अतशो) का चित्र है। तीसरी कोटि की मुद्राओं पर बुद्ध (बुद्धो) का चित्र है। कुछ विद्वानों ने इस मुद्रा-क्रम के आधार पर कनिष्क की धार्मिक मान्यताओं में परिवर्तन की कल्पना की है कि कनिष्क पहले यूनानी धर्म को मानता था। इसके बाद ईरानी धर्म को मानने लगा और अंततः बौद्ध हो गया। कुछ विद्वानों ने इस विभिन्न कोटि की मुद्राओं के आधार पर कनिष्क की धार्मिक सहिष्णुता एवं समस्त धर्मों के प्रति समान आदर की बात कही है, परंतु इतना स्पष्ट है कि अंततः वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और अशोक के ही समान इस धर्म के प्रचार में उसने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बौद्ध अनुश्रुतियों ने अशोक के ही समान कनिष्क के भी दो परस्पर विरोधी रूपों का चित्रण किया है। जिस प्रकार बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान एवं महावंश अशोक को कलिंग युद्ध से पूर्व एक क्रूर एवं निर्दयी व्यक्ति बताकर उसे ‘चंडाशोक’ कहते हैं, उसी प्रकार संयुक्तरत्नपिटक भी कनिष्क को प्रारंभ में नर-पिशाच एवं रक्त-पिपासु बताता है। संभवतः कनिष्क के विचारों में परिवर्तन पाटलिपुत्र पर आक्रमण के बाद आया, जब वह अश्वघोष के संपर्क में आया और बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया।

कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार के उपाय
बौद्ध धर्म का अनुयायी बनने के बाद अशोक के ही समान कनिष्क ने भी इसके प्रचार के लिए विभिन्न उपाय किए। विभिन्न बौद्ध ग्रंथों से कनिष्क के बौद्ध होने तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए किए गए कार्यों की पुष्टि होती है। सूत्रालंकार, धर्मपिटकनिदानसूत्र आदि कनिष्क को बौद्ध मानते हैं एवं तिब्बती इतिहासकार तारानाथ भी उसे एक बौद्ध धर्मानुयायी तथा प्रचारक कहता है। राजतरंगिणी में कनिष्क के द्वारा कश्मीर में बौद्ध धर्म के प्रचार तथा उसके द्वारा अनेक बौद्ध बिहार बनवाने का उल्लेख मिलता है। पेशावर कास्फेट भी कनिष्क के बौद्ध धर्मानुराग की पुष्टि करता है। कनिष्क ने अपने राज्य में विभिन्न स्थानों पर बहुत से विहार भी बनवाए थे। पुरुषपुर में उसने 400 फीट ऊँचा और तेरह मंजिल वाला एक बुर्ज भी बनवाया था। जिसका उल्लेख चीनी यात्रियों फाहिएन एवं ह्वेनसांग ने भी किया है तथा 11वीं शताब्दी में आए मुसलमान यात्री अल्बरूनी ने, जिसका ‘कनिष्क चैत्य’ के नाम से उल्लेख किया है। विद्वानों का विचार है कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् एक ओर तो बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना प्रारंभ हो गई थी और दूसरी ओर मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ब्राह्मण वंशों का उदय। ऐसा लगने लगा था कि ब्राह्मण वंशों के संरक्षण में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान होगा तथा बौद्ध धर्म निर्मूल हो जाएगा। ऐसी परिस्थिति में बौद्ध धर्म में नवजीवन का संचार करने का श्रेय कनिष्क को है।

चतुर्थ बौद्ध संगीति
कनिष्क के बौद्ध होने का सबसे बड़ा प्रमाण है, उसके द्वारा चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन। कनिष्क के समय तक बौद्ध धर्म में अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ अस्तित्व में आ गई थीं, जिन्होंने बौद्ध धर्म में अनेक मतभेदों और त्रुटियों को जन्म दिया था। इन मतभेदों से चिंतित होकर और इनके निवारण के दृष्टिकोण से ही कनिष्क ने बौद्ध संगीति का आयोजन किया था। इस संगीति के आयोजन स्थल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ के अनुसार यह कश्मीर में कुंडलबन में हुई और कुछ के अनुसार पंजाब के जालंधर शहर में, परंतु अधिकांश विद्वानों ने कश्मीर को ही अधिक मान्यता दी है, क्योंकि ह्वेनसांग, जो जालंधर गया था, ने उसे संगीति का आयोजन स्थल नहीं बताया है। इस संगीति में 500 भिक्षुओं ने भाग लिया तथा इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की। इसमें सम्मिलित होने के लिए प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अश्वघोष को भी आमंत्रित किया गया। चतुर्थ बौद्ध संगीति में कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य हुए एवं निर्णय भी लिये गए। इसी संगीति में संस्कृत को बौद्ध धर्म ग्रंथों की भाषा बनाने का निश्चय किया गया। इसी संगीति में बौद्ध ग्रंथों के ऊपर टीकाएँ लिखी गई, जो विभाषा अथवा भाष्य कहलाती हैं। इस संगीति में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात हुई, वह थी बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अस्तित्व में आना। इस मत के अनुयायियों ने प्राचीन रुढ़िवादी सिद्धांतों के माननेवालों को हीनयान कहकर पुकारा।

महायान एवं हीनयान में मूलतः कोई अंतर नहीं था, क्योंकि दोनों का ही महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में पूर्ण विश्वास था। मूलतः एक होते हुए भी दोनों संप्रदायों में दर्शन एवं सिद्धांतों के आधार पर विभिन्न मतभेद हैं। हीनयान संप्रदाय बुद्ध को एक मनुष्य मात्र मानता था, जबकि महायान संप्रदाय ने महात्मा बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी मूर्तिपूजा प्रारंभ कर दी। हीनयान केवल बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित है, जबकि महायान में महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अतिरिक्त प्रत्येक बुद्ध एवं बोधिसत्वों की भी शिक्षाओं का समावेश कर लिया गया है। हीनयान का उद्देश्य स्वयं निर्वाण-प्राप्ति है, जबकि महायान स्वयं निर्वाण प्राप्त करके अन्य व्यक्तियों को निर्वाण-प्राप्ति में सहायता प्रदान करना जीवन का अंतिम लक्ष्य मानता है। हीनयान संप्रदाय भारत तक ही सीमित रहा, जबकि महायान का प्रचार विदेशों में हुआ। बौद्ध धर्म के हीनयान संप्रदाय को जो देन अशोक की है, महायान संप्रदाय को वही देन कनिष्क की है। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के साथ कनिष्क का नाम अविन्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बौद्ध धर्म के अधिकांश प्रसिद्ध विद्वान् कनिष्क के समकालीन थे। डॉ. हेमचंद्र राय चौधरी ने लिखा है, “शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण देने के कारण जितनी प्रसिद्धि उसकी है, विजयों के कारण कदापि नहीं।” कनिष्क विद्यानुरागी, साहित्यप्रेमी एवं कलाओं का संरक्षक भी था। वह कला एवं विद्वत्ता का आश्रयदाता था। उसने अपनी राजसभा में विभिन्न विद्वानों को आश्रय दिया, जिससे भारतीय विद्याओं का पर्याप्त विकास हुआ। बौद्ध धर्म के प्रसिद्धतम विद्वान् उसके समकालीन थे। अश्वघोष एक कवि, दार्शनिक, उपदेशक एवं नाटककार था, जिसकी तुलना विश्व के महानतम् साहित्यकारों में की गई है। उसके द्वारा रचित बुद्धचरित एक अद्वितीय महाकाव्य है एवं संस्कृत साहित्य की एक अमूल्य निधि। उसका दूसरा काव्य सौंदरानंद है। उसने सारिपुत्र प्रकरण नामक एक नाटक भी लिखा। कनिष्क का समकालीन दूसरा प्रसिद्ध विद्वान् नागार्जुन था, जिसे शून्यवाद का प्रचारक कहा जाता है। जिसके विचारों ने शंकराचार्य के मायावाद को भी प्रभावित किया। उसका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है—प्रज्ञापारमितासूत्र, जिसमें उसने सापेक्ष्यवाद का प्रतिपादन किया है। वसुमित्र भी कनिष्क का समकालीन था, जिसने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की। उसके द्वारा लिखी गई बौद्ध धर्म-ग्रंथों की टीकाएँ अत्यधिक साहित्यिक महत्त्व की हैं। पार्श्व एवं संघरक्ष भी इसी युग के विद्वान् थे। कनिष्क के राजवैद्य चरक की चरकसंहिता भारतीय आयुर्वेद की अमूल्य कृति एवं निधि है। उपर्युक्त समस्त विद्वानों ने संस्कृत साहित्य की विभिन्न विधाओं, ग्रंथों, काव्य, नाटक तथा साथ ही साथ दर्शनशास्त्र एवं आयुर्वेद की समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कनिष्क के संरक्षण एवं प्रोत्साहन ने इसमें विशेष योगदान दिया।

अशोक की भाँति कनिष्क की भी कलाओं में विशेष अभिरुचि थी। उसने विभिन्न नगरों का निर्माण करवाया तथा पेशावर, तक्षशिला एवं मथुरा आदि नगरों को सुसज्जित करवाया, जो उसके साम्राज्य के प्रसिद्ध कला-केंद्र थे। उसने अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में 400 फीट ऊँचा और 13 मंजिलों वाला एक बुर्ज (Tower) बनवाया था, जिसके समीप एक सुंदर बौद्ध विहार का भी निर्माण कराया, जो नवीं एवं दसवीं शताब्दी तक बौद्ध शिक्षा का केंद्र रहा। बड़ी संख्या में विहार एवं प्रस्तर मूर्तियाँ बनवाकर कनिष्क ने मथुरा की सुंदरता में वृद्धि की। तक्षशिला का सिरमुख नगर भी उसी ने स्थापित किया, जिसमें एक बड़ा भवन, विहार तथा अन्य भवन थे। मथुरा के निकट माठ की खुदाई में उसकी एक आदमकद मूर्ति मिली है। कलाओं के विकास के दृष्टिकोण से कनिष्क का काल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। मूर्तिकला की विभिन्न शैलियों का विकास इसी युग में हुआ। शिल्पकला की गांधार शैली का विकास इस युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, जो भारतीय एवं यूनानी कला पद्धतियों का सम्मिश्रण है। महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ सर्वप्रथम इसी शैली में बनना प्रारंभ हुई। कनिष्क के समय में स्थापत्य, मूर्तिकला एवं चित्रकला का विकास विभिन्न स्तूपों, विहारों एवं अजंता गुहा-चित्रों में परिलक्षित होता है।

व्यापारिक उन्नति
कुषाणों, विशेष रूप से कनिष्क के समय में व्यापार एवं वाणिज्य की विशेष उन्नति हुई। इसका एकमात्र कारण यह था कि कुषाण साम्राज्य से होकर उस समय के दो प्रमुख राजमार्ग उत्तरापथ और रेशम मार्ग (Silk route) गुजरते थे। इन मार्गों से होनेवाले व्यापार तथा व्यापारियों से कुषाण शासन को बड़ी आय होती थी। इस युग में भारत का रोम तथा मध्य एशिया के साथ व्यापार काफी उन्नत अवस्था में था। भारतवर्ष रोम साम्राज्य को वस्त्र, आभूषण और प्रसाधन की सामग्री का निर्यात करता था, जिसके परिणामस्वरूप व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था। प्लिनी नामक विद्वान् ने इस स्थिति पर बड़ी चिंता भी व्यक्त की थी। कुषाण युग में बहुत बड़ी मात्रा में एवं सुंदर सिक्के भी ढलवाए गए। कनिष्क ही वह पहला सम्राट् था, जिसके समय में भारतीय टकसाल में पहली बार रोमन प्रणाली पर सुंदर स्वर्ण-मुद्राएँ बनना प्रारंभ हुई। उसके शासनकाल की बहुसंख्यक मुद्राएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार कनिष्क एक महान् विजेता ही नहीं था, वरन् एक धर्मानुरागी, विद्यानुरागी एवं कलाप्रिय शासक भी था। उसके समय में न केवल साम्राज्य का ही विस्तार हुआ, वरन् कलाओं की भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। यद्यपि मौर्यों के पतन के पश्चात् का काल राजनीतिक विशृंखलता का काल माना जाता है, परंतु कलाओं के विकास के दृष्टिकोण से यह युग महत्त्वपूर्ण था। इसमें कनिष्क का योगदान विशेष रूप से सराहनीय है। व्यापारिक गतिविधियों के विकास और उनके माध्यम से भारत की समृद्धि में वृद्धि करने के दृष्टिकोण से भी कनिष्क का योगदान महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि बौद्ध धर्म को दी गई सेवाओं के आधार पर कुछ विद्वानों ने कनिष्क की अशोक से तुलना को उचित नहीं माना है और कनिष्क को द्वितीय अशोक मानने में भी उन्हें आपत्ति है, परंतु भारतीय इतिहास के महत्त्वपूर्ण शासकों में तो उसका स्थान निश्चित रूप से अद्वितीय है।