Bundeli Ujiaro (Bundeli poetry collection) in Hindi Poems by Manoj kumar shukla books and stories PDF | बुन्देली उजियारो ( बुन्देली काव्य संग्रह )

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बुन्देली उजियारो ( बुन्देली काव्य संग्रह )

बुन्देली उजियारो ( बुन्देली काव्य संग्रह )


बुन्देली उजियारो

महाकौशल के ५७ बुन्देली सृजनशिल्पियों का बुन्देली काव्य संकलन

अखिल भारतीय बुन्देलखंड साहित्य एवं संस्कृति परिषद् जबलपुर का सामूहिक अभिनव प्रयोग

बुन्देली उजियारो (काव्य संग्रह )


अध्यक्ष जबलपुर इकाई

श्रीमती लक्ष्मी शर्मा


प्रधान संपादक

मनोजकुमार शुक्ल "मनोज "


संपादक

गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त


संपादन संयोजन

संतोष नेमा "संतोष "

संपादक मंडल

राजेश पाठक "प्रवीण "

श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा " शील "

प्रधान सम्पादकीय

मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’

हमारी बुंदेली भाषा में जहाँ प्रेम, सौंदर्य, श्रंगार एवं भक्ति का सागर भी उछालें मारता रहा है। अक्सर युद्ध भूमि में पुरुषों का ही पराक्रम देखने को मिलता रहा है, नारियाँ अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये जौहर करती रहीं हैं किन्तु बुन्देलखण्ड की बात ही निराली है, यहाँ पुरुषों के साथ नारियों ने भी अपनी युद्ध कौशलता दिखाई है। फिर चाहे वह मुगलकाल या अंगे्रजों का शासन काल रहा हो। गौंड़वाने की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इसकी मिशाल हैं।

बुंदेली भाषा हमारी सभ्यता संस्कृति साहित्य एवं इतिहास का बड़ा दस्तावेज है। ‘‘बुन्देली उजियारो’’ काव्य संकलन का प्रकाशन अपने वैभव को संजोने का एक छोटा सा उपक्रम है। वर्तमान रचनाकार अपनी कलम से बुंदेली भाषा में कैसे अभिव्यक्ति दे रहे हैं,यह आधुनिक पाठकों तक पहुंचाने का एक प्रयास है। जहाँ तक शुद्ध बुंदेली भाषा की बात है, तो हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि संस्कारधानी जबलपुर में बुंदेली एक खिचड़ी भाषा में प्रयुक्त है। सागर, छतरपुर, दमोह, पन्ना, नरसिंहपुर की बुंदेली भाषा को आत्मसात कर शायद और भी सुपाच्य बन गई है। इस काव्य संकलन में बुंदेली रचनाकारों की भावनाएँ एक गुलदस्ते की भांति हैं। जिसमें बुंदेली की महक, आकर्षण और कुछ मात्र भावनायें भी हैं। हमने तो इसे तैयार करने भर का काम किया है। नगर में ‘गुंजन कला सदन’ बुंदेली की पताका थामें चल रही है, बस हम भी उस प्रयास में शामिल हो गये हैं।


हमारी संस्था की अध्यक्षा श्रीमती लक्ष्मी शर्मा के विदेश प्रवास के समय कार्यकारी अध्यक्ष के दौरान हमारे कई अंतरंग साथियों नें हमें बुंदेली संकलन के लिये प्रेरित किया और सहयोग का आश्वासन भी दिया। उनमें हमारे प्रेरणा श्रोत बने श्री संतोष नेमा ‘संतोष’, श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त,श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा ‘शील’ के साथ ही श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ जी फिर इसके बाद आप सभी रचनाकार जिन्होंने इस गुरुत्तर भार को उठाने में हमारी मदद की। सच मानें तो हम केवल एक निमित्त ही बने हैं। आप सभी इस संकलन के प्रकाशन के सच्चे हकदार हैं। मैं तो केवल आप सभी का आभार ही व्यक्त कर सकता हूँ।

धन्यवाद......

मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’

58, ‘‘आशीष दीप’’ उत्तर मिलौनीगंज जबलपुर

अध्यक्ष की कलम से

श्रीमती लक्ष्मी शर्मा


हमाई बुन्देली बोली बड़ी मीठी और रसीली है। बुन्देलखंड के नाम सें इते की बोली बुन्देली कहाई। भाषा के जानकार हरें बता रये के सन् 2050 लौ अपने देश सें भौत सी लोक भाषायें

लुप्त हो जेंहें। जा बात बड़ी चिंता बारी है, ऐसें हमें अपनी बुन्देली बोलीबानी पे ध्यान दओ चैये। विद्वानन को कहबो है के बुन्देली की शुरूआत नौंवी सदी सें हो गई हती जी के डेढ़ दो सौ बरस बाद ई में लिखबो पढ़बो हो पाओ।

चार पांच सौ साल पहलऊँ बुन्देलखंड के राजाओं की राजभाषा बुन्देली रही है। राजा छत्रसाल के शासन को सबरो काम बुन्देली भाषा में होत हतो। राजा छत्रसाल बुन्देली भाषा में बाजीराव पेशवा कों चिट्ठी संदेशो भेजत हते और बे सुई बुन्देली भाषा में संदेशो को जबाब देत हते। ऊ टेम पे बुन्देली भाषा को बड़ो मान सम्मान हतो।

ई भूम ने भारत खों बड़े-बडे़ विद्वान दये हैं। संत शिरामणि तुलसीदास, बिहारी, केशव, मतिराम, पद्माकर आदि के नाम विख्यात रहे पे बुन्देली में विशेष लिखो गओ। घीरे-धीरे बुन्देली साहित्य समृद्ध होत गओ। बुन्देली में काव्य, महाकाव्य, नाटक, कहानी, हास्य-व्यंग्य, ललित निबंध, उपन्यास, गजल, लघुकथा लिखे जा रहे हैं।

हमें अपनी बुन्देली बोली के संरक्षण और संवर्धन के लाने सबखों जोर दओ चैये। ई बात खें अ.भा. बुन्देलखंड साहित्य परिषद् कें राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. कैलास मड़वैया जी भोपाल राज्य शासन और दिल्ली केन्द्र शासन सें संविधान में बुन्देली खों भाषा को दर्जा दुआबे के लाने जी जान सें सतत प्रयास कर रये हैं।

हमें भौतई खुशी हो रई आय के जो बुन्देली-उजियारो कविता संग्रह आप औरन के सामें है। सांचऊँ जा बात तो बड़ी अचरज बारी है के पहलऊँ जिन्ने बुंदेली में कछू छपाओ नें हतो, उन्ने सोऊ अबै कवितायें लिख के दई हैं।

नरबदा मैया की गोदी में बसो जो हमाओ जबलपुर, संस्कारधानी कहाउत है। ई कविता संग्रह को प्रकाशन पाथेय प्रकाशन से भओ है। हम सबखों आदरणीय

डा. राजकुमार ‘सुमित्र’ जू को आशीरवाद मिलत रहत है। श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ के उछाह और लगन के लाने हम उनखों बधाई देत हैं। नगर के सबई वरिष्ठ हरें, ज्ञानी, गुनी विद्वानन कों आशीरवाद, मार्गदर्शन हम औरंन खों मिलत रहत है।

संस्था के कर्मठ श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, श्री मनोज शुक्ल, श्री संतोष नेमा ‘संतोष’, श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा के साथई आप सबई ओरन को हिरदे सें धन्यवाद करत हों और नअे साल की मंगल कामना भी करत हों।


लक्ष्मी शर्मा

अध्यक्ष अ.भा. बुन्देलखंड साहित्य संस्कृति परिषद्

इकाई जबलपुर मो. 9174532218


सबई हरों को राम राम.....

सबई भइया हरों और बिन्ना हरों को राम राम!


और नये साल दो हजार उन्नीस की

आप सबखों बहुतई शुभकामनायें!!

श्री संतोष नेमा ‘संतोष’


आप सबई के सहयोग सें जो मौका हमें मिलो है कि हम महाकौशल क्षेत्र में ईहाँ के बुंदेली कवियन को एक काव्य संग्रह निकार सकें। जाके लाने आप सबई के उमंग और सहयोग खों बहुतई बहुत धन्नवाद। इते हम जा सुई बताउ देत हैं कि जाकी परिकल्पना हमार बड़े भ्राता श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ और हमार सुई मन में आई रही। बा बात अब जल्दई साकार होके आपसबन के हाथन तक पहुँच गई है। हाँ हम एक बात सुई बताये देत हैं कि जो काव्य संग्रह ठेठ बुंदेली तो नहीं पर हां जबलपुरिया बुंदेली में जरूर है। ऐ के प्रकाशन में हमारी अध्यक्षा श्रीमती लक्ष्मी शर्मा, श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा ‘शील’, श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’, श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी एवं हमारी संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कैलाश मड़वैया जी को बड़ो सहयोग रहो है।


हमारी बुंदेली बहुतई मीठी और नोनी भाषा है जा में बहुत से शोध भी भये हैं। जबलपुर में बुंदेली के उन्नयन और विकास के लाने ‘‘गुंजन कला सदन’’ ने लगातार काम करे हैं, ओखों कोई बिसरा नईं सके। हमारो प्रयास रओ कि बुंदेली के सबई रचनाकारों खों हम शामिल कर सकें। हमें जा बात की खुशी है कि शहर के सभी बड़े रचनाकारों की रचनायें जा काव्य संग्रह में शामिल हो गईं हैं। जिनसे हमारो संपर्क नहीं हो पाओ उनसें हम माफी चाहत हैं।

हमारो जो प्रयास आप सभी पाठकों के सामने है। आप सबइ से जा आशा सुई करत हैं कि आगे सुई ऐसई सहयोग देत रइओ। बुदेली भाषा खों बढ़ावे और ओके विकास के लाने आप सबई को सुझाव भी बड़ो महत्व रखत है। जई आशा और विश्वास के साथ हम सबई मिलखें बुंदेली विकास और उन्नयन को गति दे सकत हैं। सबई जनों को धन्नवाद......


संतोष नेमा ‘संतोष’

78, ‘‘अमन दीप’’ आलोक नगर, अधारताल जबलपुर

मोबाइल नं. 9300101799/7000361983

अनुक्रमणिका


क्र. बुन्देली कवि के नाम पृष्ठ क्रमांक


1 ‘‘सरस्वती-वंदना’’ श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त 8

2 डा. पूरनचंद श्रीवास्तव 9

3 श्री दीनानाथ शुक्ल ‘ महोबावारे’ 11

4 श्री लक्ष्मीचंद्र नीखरा 16

5 श्री सनातन कुमार बाजपेई ‘सनातन’ 18

6 श्री हेमराज नामदेव ‘राजसागरी’ 21

7 श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त 25

8 श्री राजकुमार ‘सुमित्र’ 27

9 श्री आचार्य भगवत दुबे 31

10 श्रीमती लक्ष्मी शर्मा 33

11 श्री भगत दुबे ‘दीप’ 37

12 डा. चन्द्रा चतुर्वेदी 40

13 श्री छाया नरगिस 43

14 डा. गीता गीत 46

15 श्रीमती रत्ना ओझा ‘रत्न’ 50

16 श्री इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव ‘इन्द्र’ 54

17 श्री सुभाष जैन ‘शलभ’ 57

18 डा.. सलपनाथ यादव ‘प्रेम’ 61

19 श्रीमती छाया त्रिवेदी 65

20 श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव 68

21 श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘ मनोज’ 71

22 श्री सुशील श्रीवास्तव 75

23 डा. विजय तिवारी ‘किसलय’ 78

24 श्री विजय नेमा ‘अनुज’ 82

25 श्री राजेन्द्र मिश्रा 84

26 श्री मोहन ‘शशि’ 88

27 श्री सलिल तिवारी 90

28 श्रीमती मिथलेश नायक ‘कमल’ 92

29 श्रीमती मीना भट्ट 96

30 श्री राजेन्द्र जैन ‘रतन’ 99

31 श्री मनोहर चौबे ‘आकाश’ 103

32 श्री अभय कुमार तिवारी 105

33 श्री संतोष नेमा ‘संतोष’ 109

34 डा. सलमा जमाल 113

35 श्री भारत भूषण साहू 117

36 श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ 121

37 श्री प्रमोद तिवारी ‘मुनि’ 124

38 श्रीमती अर्चना गोस्वामी ‘देवेश’ 128

39 श्री हेमन्त कुमार जैन 130

40 श्री ओंकार प्रसाद सैनी 132

41 श्री कालीदास ताम्रकार ‘काली’ 135

42 श्रीमती कृष्णा राजपूत 138

43 श्री नंद किशोर शर्मा 140

44 डा. अनिल कोरी 143

45 श्रीमती विनीता पैगवार ‘विधि’ 147

46 श्रीमती आशा श्रीवास्तव 149

47 श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा ‘शील’ 152

48 श्रीमती अर्चना जैन ‘अम्बर’ 156

49 श्री जयप्रकाश पाण्डेय 158

50 श्रीमती राजकुमारी नायक 160

51 श्रीमती ज्योत्सना शर्मा‘‘ज्योति’ 164

52 श्री सतीश शर्मा 167

53 श्री कोमल चंद जैन 169

54 श्री केशरी पांडेय ‘वृहद’ 173

55 स्व. श्री ओंकार तिवारी 175

56 श्री अनंतराम चैबे 177

57 डा. विनोद खरे 179

58 डा. डी. पी. ‘घायल’ 182

सरस्वती वंदना (बुन्देली)


सुन सरसुति मैया मोरी, कंठ बिराजौ स्वर खों सादौ,

विनय सुनों माँ ओरी, सुन सरसुति मैया मोरी....।


तेंईं कहाउत हंस वाहनी, बीना हांत संमारें,

सेत झकाझक चूनर पैरें, पोथी कर मैं धारें,

करी कृपा भक्तन कै लैनें, ज्ञान पुटरिया छोरी,

सुन सरसुति मैया मोरी....।


एक तुमईं हौ लय में बसतीं, हँसती हो छंदन सें,

रस भर देतीं हिये भीतरें, खुस होतीं बंदन सें,

बिना तुमारे मोरे लानें, और धरो अब कोरी,

सुन सरसुति मैया मोरी.....।


इडा पिंगला और सुषुम्ना, नाड़िन बीच रमीं हौ,

नाद जगावे खों हुमसाउत, चक्कर देत थमीं हौ,

झोल लगै ना तोय रती भर, माता गजब करो री,

सुन सरसुति मैया मोरी.....।


बेद ब्यास जिभ्या पै बैंठी, बालमीकि की बानीं,

तुलसी सूर कबीर सबई खों, तेंईं भई बरदानीं,

चन्दसखी रसखान औ मीरा, गिरधर ध्यान धरो री,

सुन सरसुति मैया मोरी.....।


सुमर सुमर जस तोरे गाऊँ, इत्ती दया तौ करियौ,

भूल चूक बस पांव दाबियौ, दास के संकट हरियौ,

‘गुप्तेश्वर’ कवि भोरौ-भारौ, ठाँड़ो है कर जोरी,

सुन सरसुति मैया मोरी.....।

(श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त)


पद्मश्री श्री कैलाश मड़वैया जी

अध्यक्ष अ.भा. बुन्देलखंड साहित्य संस्कृति परिषद् भोपाल (म.प्र.)

के सम्मान में कवि मनोजकुमार शुक्ल “मनोज” द्वारा रचित (हिन्दी )


श्री मड़वैया कैलाश जी........


श्री मड़वैया कैलाश जी, एक समर्पित नाम।

बुन्देली साहित्य में, लिखा बहुत अविराम।।

अमृत दिवस मना रहे, हम सब मिलकर लोग।

दीर्घ आयु होवें सदा, बनें सुयश का योग।।

पद्मश्री इनको मिला, हम सबको है हर्ष।

बुन्देली का मान हो, किया बड़ा संघर्ष।।

लोक संस्कृति के लिये, वर्षों किया है काम।

प्रतिफल सबको मिल सके, अर्पित सुबहो शाम।।

साहित्य सृजन में आपने, रचे नये इतिहास।

अंधकार को दूर कर, बिखरा दिया उजास।।

शिक्षाविद् गुणवान हैं,ये संस्था की जान।

दिल में प्रेम अपार है, मुख में है मुस्कान।।

वर्ष पछहत्तर पार कर, जीने का अन्दाज।

इस पावन शुभ पर्वपर,हम सबको है नाज।।

इनको जो जीवन मिला, जीवन में नित भोर।

नित नूतन संकल्प से, छुआ है नभ का छोर।।

प्रभु से करते कामना, हम सब रचनाकार।

जीवन मंगलमय रहे, आनंदित परिवार।।

इस जग में यश आपका,फैले चारों ओर।

दिक्दिगंत में आपको, मिले सफलता और।।

संस्कृति भाषा पर्व ही, जग में है अनमोल।

इनसे ही पहचान है, गुणवानों के बोल।।

बुन्देलखंड की यह धरा, हीरों की हैं खान।

एक से बढ़कर एक हैं, सबकी है पहचान।।

मील के पत्थर एक दिन, बने आप श्री मान्।

यही हमारी कामना, बढ़े जगत में शान।।

मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

कवि - स्व. डा. पूरनचन्द श्रीवास्तव

पुत्र - श्री प्रतुल श्रीवास्तव

जन्म तिथि - 1 सितम्बर 1916

विशेष - कृति, दुर्गावती (खंड-काव्य), भौंरहा पीपर,अप्रकाशित बुन्देली शब्द कोष, एवं नगर के

वरिष्ठ बुंदेली साहित्यकार एवं शिक्षाविद्, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।

पता - 473, टीचर्स कालोनी दीक्षितपुरा जबलपुर


पनघट पै की बातें.....


रमचंदे कै बड़े कुँअर की, पनघट पै की बातें।

कैसो खेलै छिबा-छिबौअल, कैसो जी बहलावै।

चढ़कें कच्ची डार बिही की, कैसी लाल खबावै।।

चंडी को मेला जब आवै, ल्यावै बड़ो खजैनो।

बने मुलम्मा की तरकुलियाँ, ल्यावै कसीं अरैनो।।

दिन भर सेवा करै कुटम की, नित ऊ पीर-पिरातें।

रमचंदे के बड़े कुँवर की पनघट पै की बातें।।


एक बेर ऊ हंस कें बोलो, ओ सरसुतिया भोरी।

बिसरैये ना मोखों एरी, फिरहों बनों अघोरी।।

तोरे काजें तें का जानें, मैंने का-का छोड़ो।

तैं का जानें कितनी सहकें, तोसें नातो जाड़ो।।

मैं तो तोरो नेह भिखारी, कित्तउ झकझोर गिरा तें।

रमचंदे कै बड़े कुँअर की पनघट पै की बातें।।


पनघट पै ऊ रोज मिले हम, भौजी मसकइ आईं।

बड़े भियाने भैयाजू ने, दो सौ बुराई सुनाईं।।

बड़े कुंअर को गैल छोड़ जा, नदी कुधाई जाबो।

बरिया तरें बैठबो ऊंसइ, ना पीबो ना खाबो।।

धक सें प्रान करत हैं अब लौ, कटें उनींदी रातें।

रमचंदे कै बड़े कुँअर की पनघट पै की बातें।


भोरे-भोरे रहे बहुत हम, सबने अरथ लगाओ,

लगा डटैयाँ जरुआ-बरुआ, मन में तरक जगाओ।

सबने अपनी-अपनी लैकें, बदलो खूब बहोरो।

जी के जैसी मनें समाई, ऊनें ऊसी जोरो।।

सोचत हौं जब बे दिन अपने, जो मन गिरत उछातें।

रमचंदे कै बड़े कुँअर की पनघट पै की बातें।


अरी कहाँ लौं समझाऊँ.....


अरी कहाँ लौं समझाऊँ, ओ मुनुवां की महतारी

बाजूबंद दावनी खुसमन- को अब गओ जमानों,

आसमान जा चढ़ी बजरिया, मोल-तोल पैमानों

दांत निपोरें फिरें अरी जे- मोसें पती पचासों

गदहन भाग पंजीरी पर गई, कूकुर लगे फरा सों

तैं मोपैं छौंकन सौ छावै, नेह-नेम धरया री!

अरी कहाँ लौं समझाऊँ.....


माथो भौत पचाउत है तें, तनक तनक सी बातन

अरी भैंस चढ़ गई बरा पै, लगीं चीकने पातन

अब अपनो है राज आज, धर ध्यान अरी छनकीली

नाव नवरिया राजनीत की, मंतक देख अड़ीली

तोरे मान गुमान खेल री, मालक जू पदधारी

अरी कहाँ लौं समझाऊँ.....


चूल्हो चकिया जाय भाड़ में, नोन तेल का करने?

धीर धरो मन मारें अपनों, चाँउर नैयां झरने

छोड़ो हरछठ तीजा अकती, इनसों अपन न पलिये

बिंदिया मिल है अरी दमकनूँ, चल भोपालै चलिये,

ताव करो तो कुतके उनके, वे भारी अधिकारी

अरी कहाँ लौं समझाऊँ.....


कवि - स्व. दीनानाथ शुक्ल “महोबावारे”

पिता - स्व. सरमन प्रसाद शुक्ल

जन्म तिथि- 1जुलाई1932

शिक्षा - एम. एड.

विशेष - ‘‘ईपै अधिक न सोचै’’, प्रपंचतंत्र/बुंदेली

साहित्यकार एवं शिक्षाविद्, गद्य-पद्य में वृहद लेखन

पता - 73, कटंगी मेन रोड, स्टार सिटी,,करमेता जबलपुर

मो. - 07898995519


आज जुड़ानी मोरी छाती......


आज जुड़ानी मोरी छाती, चोला भओ मगन।

पुन्नू ! उठा ढुलकिया, तन-तन गालें रामभजन।।

मालक ने कइ-चलो धरम पे, संकट सब मिट जेहें।

भलमानुष अबके जन सेवक, खबर तुम्हारी लेहें।।

आसमान से बिजुरी लाकें, घरन गाँव लिसबेंहें।

धन्धो करबे करजा देहें, कुआँ सोउ कुदवेहें।।

नोन तेल गुरयाई कपड़ा, सस्ते दामों पाहो।

जंगल से अब काट लकरियाँ, उठा मुफ्त में लाहो।।

खाद बीज पानी सब पाहो, खेती मन भर करियो।

घर बनवाबे जाँगा पाहो, फिकर ने तनकउ करियो।।

सुधरी नोंनी नयी चलन की, लरका शिक्षा पाहें।

ऊँची नाक उठाए अपनी, नई सदी में जाहें।।

जो जो कहत करत सब पूरो, बचन न पाहै काम अधूरो।

सदियन को है जमो गाँव में, उठहे गम्म खाव जो घूरो।।

सुन-सुन बातें बड़े दाउ की, जी की मिटी जरन।

पुन्नू ! उठा ढुलकिया, तन-तन गालें रामभजन।।


‘‘पुन्नू ! एपलीकेसन दे दे.....


‘‘पुन्नू ! एपलीकेसन दे दे, मोय खुशी भइ भारी,

घर बनवाबे जाँगा मिल रइ, बटत भूमि सरकारी।

बड़े दाउ सें कैहे तो बे, तोरो काम बनेंहें,

टीका कित्तो लगहे ईपे, जो सोउ तोय बतेंहंे’’।।


‘‘मालक के चक्कर में फँस कें, मोय भूमि नईं लेने,

एक बेर फँस गओ तो, अबकी मोय प्रान नईं देने।

तैं तो कहत मुफ्त में मिल रइ, फिर का टीका देने?

और गैल अब बतला होरी!, आफत ला दइ तेंने।।


कोरो कागद कीसें पाहों, कलम कौन से लेहों,

मैं अपढ़ा जा एपलीकेसन, कीसे बता लिखे हों?’’

जोशी जी’ से कागद लेले, कलम ‘लालजू’ देंहें,

‘परसाइजू’ एपलीकेसन, कैहे तो लिख देंहें।।


कीसे कौन मदद लइ ऊके, पीछे लिखवा लैये,

फिर तें एपलीकेसन जाकें, हाकिम हाथ थमैये।

व्यंग्य लिखैयन कों शासन के, सबरे हाकम मानत,

टीका में कमती हो जेहे, ‘होरी’ इतनो जानत’’।।


‘‘रेट फिक्स है’’ हाकम बोलो, पढ़के एपलीकेसन,

‘‘कम करवाबे लेन परत रे!, ऊपर से परमीसन।

इत्ती बड़ी सिफारिस पेभी, रेहे काम अधूरो,

कौन उठत है भूखो?, जबलों पेट भरत नईं पूरो।।


मान करत मैं लिखवैयन को, मोय लगत बे प्यारे,

पै बे हाकम उने पढ़त नईं, जौन करत बँटवारे।

ऊधो मान गओ तो का भओ, मान न पाहे माधो,

लो, अपनो मैं हींसा छोड़त, अब उनको दे आधो’’।।


मूड़ पकरके होरी बैठो, खूबई बहा पसीना,

हाथ जोर के बोलो भइया, धकधक करत है सीना।

‘‘मोरो काम बनादो भ्याने, जो बन पाहे देहों,

नरा गड़ो है ऐइ गाँव में, बसन कहाँ अब जेहों’’।।


अमरत-उत्सव आज ‘शरद’ को.....


अमरत-उत्सव आज ‘शरद’ को, मोय खुशी भइ भारी-

तन मन धन से जुटें ‘भारती’, हो तो ऐसी यारी?

धन्न गुनी जन ई नगरी के, जो कर रय सत्कार-

‘शरद-बसंत-हेमन्त’ धन्न भओ, मोझरकर परिवार।


पाती मिली सत्यमोहन की, ‘‘लिखो शरद के लाने-

सबकी खबर गजट में सोउ, जीवन परिचय छपवाने।’’

पढ़कें धक्क करेजो मोरो, हीरा की पहचान-

करत जोहरी, लोककवी नइँ, कूदत ई मैदान।


कम्बल से कम्बल की कव जू!, गाँठ बँधत है कैसे-

को, कीके गुन बरने जब हों, दोनउँ एकइ जैसे!

जैसे गुन के हते ‘उदइ’, ऊँसइ गुन के ‘भान’-

इनकी नइँ ती कहत चुटैया, उनके नइँ ते कान।


अथश्री करो न तुम तो, इतिश्री बिना करें हो जात-

ईसें अपनइ अंतरंग के, ढँके-मुँदे गुन गात।

देख कुंडली कहत ज्योतिषी, ऐसे बैठे जोग-

इनकी जोत अबै ना बुझहे, लगो रहन दो रोग।


दई पटकनी टीबी को, सँसधुकनी एक निकार-

बुधि विवेक साहस से लीला, कर रय सोच विचार।

कालबली सोउ ई रसिया को, हँस हँस राखत मान-

बरस पचहत्तर की उमर में, अब लों दिखत ज्वान!


मेरे शरद तनक बड़बुलिया, पै बातन में सार-

ढँको-मुँदो सोउ रहत, को है खोजन हार।

मंचों के संचालन में तो, सदा रहें जे आगे-

बड़े जतन से खोलत तन-मन, गुँथे गुनन के धागे।


गुन जैसो एकउ नइँ हम में, औसर देख बुलैया-

डमरू बजत मंच सें, नेचें नाचन लगत बँदरिया।

नैनन में अँसुआ भर देउत, पै टपकन नइँ देत-

‘‘लौह पुरुष नइँ रोत कभउँ’’,कह, ताली बजवा लेत।


अपनइँ स्वागत करवैयन की, घर में लगें कतार-

दस फुट के उपतइँ लाउत हैं, नोट गुँथे कोउ हार।

उनइँ से पूँछ लिखें गुन उनके, करवाबे गुनगान-

बाँचें ऐसें खेंचत जैसे, तानसेन हों तान।


सभापति, वक्ता विशेष, या मुख्य अतिथि के आसन-

कभउँ न चाहे सपने इनने, जे ऊँचे सिंहासन।

पलक पाँवड़े बिछा देत जे, अभ्यागत के लाने-

खबा पिबा कें सुबा देत, लोटा धरकें सिरहाने।


ऐयी गुनन सें ‘शरदभाउ’ के, मित्र ‘सुमित्र’ न खीझे-

चपरासी सें आला हाकम, सब, इन पै ते रीझे।

एक सभा में मैंने जानो, अंतस भाव तुमारो-

जब पदविन की माला पहना, गुनियन खों पुचकारो।


मिसरी घोलें मों में बोले, ऐसी मीठी वानी-

मरुभूमि में जैसे मिल गओ, हो प्यासे को पानी।

नरपुंगव, कुलश्रेष्ठ, मान्यवर, कह संबोधन नाना-

आदर योग्य विशेषण को सब, खाली करो खजाना।


रतन चुने अनमोल, नाम के, आगे ‘पुरुष’ लगाकें-

‘ग्राम्यश्री’ सें ‘नगरश्री’ तक, दइँ पदवीं मुस्काकें।

‘नगरश्री’ दे दइ ‘नारद’ को, पत्रकार वे खास-

‘विजयसिन्ह’ को ‘कलारत्न’ कह, पूरी कर दइ आस।


‘कंचनपुरुष’ ‘कामता’ को दइ, उनने राखो मान-

गले लगा अँसुआ टपका दय, अब को करे बखान?

मैंने सोउ माँगी वे बोले, ‘‘ सुनो, बुंदेला यार !

‘दीनानाथ’ स्वनाम धन्य नइँ, धरत मूँड़ जो भार’’।


औरन को कद बढ़ा-बढ़ा, कद अपनो कर-कर नाटो-

‘शरद भाउ’ ने संघर्षों मैं, हँस-हँस जीवन काटो।

गजरा डरो गरे में, सिर पे टुपिया.....


‘‘गजरा डरो गरे में, सिर पे टुपिया फब रही न्यारी,

सजे धजे ठाँड़े हो होरी!, काँ की है तैयारी ?’’


‘‘बड़ो जुलूस निकरहे भ्याने, अपनइँ हित के लाने,

बखरी ने जो कौल धराई, शहर मोय है जाने।

मुर्दाबाद उते चिचयाने, पुतला सोउ जराने,

हुकुम बजाने पड़हे ऐजू, ऐयी गाँव में राने।

ललन ! बचन न पाहो, अपनी भी कर लो तैयारी,

आज हमारी है पै आहे, काल तुम्हारी बारी।।


बड़े दाउ ने परण करो है, हक किसान को लेहें,

अन्दोलन छिड़वा दओ अब तो, जेलन को भर देहें।

अपनों कओ मनवाकें रेंहें, बे सरकार झुकेहें,

हिरदे की धड़कन बढ़ जेहे, सो बे जेल न जेहें।

मोपे निगाँ घुमाके कइ, होरी भर दे हंुकारी,

आज हमारी है पै आहे, काल तुम्हारी बारी।।


मालिक ने कइ- खर्चापानी, जो सब बखरी दैहे,

असल बाप को जो कोउ हूहै, बढ़के नाम लिखेहे।

बखरी के लरका सुन तनतन, बढ़न लगे जब आगे,

दद्दा ने तुरतइँ फटकारो, मरत हो काय अभागे।

भाग्वान होरी के आगे, का औकात तुमारी,

आज हमारी है पै आहे, काल तुम्हारी बारी।।


हामी भरन न पाओ, तुरतईं सँझले दद्दा बोले,

गांधी जू सों नाम कमा ले, सबसे आगे होले।

ललन! खीर में सोंझ, महेरी में ना रइयो न्यारे,

बलि को बकरा बना खीब, बातन के तिनका डारे।

तिलक लगा आरती मोरी, गजरा डाल उतारी।

आज हमारी है पै आहे, काल तुम्हारी बारी।।

कवि - स्व. श्री लक्ष्मीचंद नीखरा

पुत्र - श्री अरुण गुप्ता नीखरा

पता - 21, चेरीताल वार्ड जबलपुर

मो. नं. - 9425163183


कासमीरी चिरैया काय रोई.....


कासमीरी चिरैया काय रोई।

कासमीरी चिरैया काय रोई।।

काय रोई ? काय रोई..........


हमने तो पाली रे बडे़ जतन से,

फूलों के पिंजरो में केसर के वन में,

नापाक हथेली पे काय सोई।

कासमीरी चिरैया काय रोई......।।


माला के सोने के मुकुट लगे हैं,

पांवों मे मोती के घुंघरू बँधे हैं,

वीरन जवाहर के खून धोई।

कासमीरी चिरैया काय रोई.......।।


ऐ रे अहेरी, ओ सजना हमारे,

पैयाँ पडूं, कसम खाऊँ तुम्हारे,

बचैयो रे मैना दूध धोई।

कासमीरी चिरैया काय रोई.......।।


अरे राजा तुम हो रे आल्हा के भैया,

धरती तुम्हारी है, ऊदल की भैया,

बेला बुन्देलों को खूब बोई।

कासमीरी चिरैया काय रोई......।।


भैया ठाँढ़े सड़क पे शराब माँगे......


भैया ठाँढ़े सड़क पे शराब माँगे ।

इते भौजी धरे है बदाम पाँगे ।।


कक्का की कोठी पे भैया को झण्डा,

मुजरे पे पाये थे हौदा और हण्डा

पढ़बो भी छोड़ो और लिखबो भी छोड़ो,

गुन से है भैया री, बड़ी दूर भागें

भैया ठाँढे सड़क पे शराब माँगे....


सुन्नो गओ,चाँदी भी गई,गये भौजी के गहने

खेती भी चैपट सब टूटे सुख सपने

बोतल के पानी में शौरत भी डूबी

डूबी रे भैया के मन की भी खूबी

अध्धा पे अध्धा वे पीर दागें

भैया ठाँढे़ सड़क पे शराब माँगे....


सुनाव कोऊ भैया को गाँधी की बानी

डूबत गज उबरे जो ऐसी सयानी

देशी आजादी की बीत गई बरसें

भैया के बच्चे पे रोटी खों तरसें

अरी, डुकरा सी कँपती जुबान टाँगे

भैया ठाँढे़ सड़क पे शराब माँगे....


गाँधी जयंती के दिन भैया आये

गाँव खों सकेल खूब कसमें भी खाये

त्याग दी शराब और खराब सब आदत

छोड़ी सी छोड़ी ओं बीते पे लानत

बिगड़ी फिर बन गई री सुनाव फागंे

भैया भौजी के नैना शराब मेाँगें....


कवि - श्री सनातन कुमार बाजपेयी

पिता - स्व. यदुनंदन बाजपेयी

जन्म तिथि - 21 अप्रैल 1931

शिक्षा - एम.ए., साहित्य रत्न

विशेष - गद्य-पद्य की 12 पुस्तकें एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - पुराना कछपुरा स्कूल गढ़ा, जबलपुर.

मो. नं. - 9993566139/0761-2425137


सगरी खेती धोकौ दै गई.....


सगरी खेती धोकौ दै गई।

खाबै कौ है नईं ठिकानों।

साउकार तौ दै रओ तानों,

बैठी घर में मोंड़ी स्यानी।

आन निघा बा कै गई हमसें, सगरी खेती धोकौ दै गई.....


कैसें कटिहै साल हमारौ

अब का हुइहै हाल हमारौ

हम तौ ऐंसई पिसत हते ते,

विपत करोंटा लै गई, सगरी खेती धोकौ दै गई.....


ओरे पर गए पकी फसल में

आस लगी ती सबकी जा में

अब तौ खेतन डीमा दिख रअे

फसल दबारौ दै गई, सगरी खेती धोकौ दै गई.....


का खइहैं अब लरका बच्चा

फसल हमारी दै गइ गच्चा

कभूँ ना सोचो तो जो हमनें

आस धूर-मिल रै गई, सगरी खेती धोकौ दै गई.....


नातेदार नें फटकत कोऊ,

वैसें रैत आत रअे ओऊ

विपदा में नईं साथी कोऊ

बातन बात सिकै गई, सगरी खेती धोकौ दै गई.....


भगवन मैं तो तोरो दास......


भगवन मैं तो तोरो दास।

कहूँ नैं मोरो और ठिकानो, एक तुम्हीं से आस।।

जा जग नै मोये बहुत नचाओ।

सुख से कभूँ रैन नैं पाओ।।

ऊब गयो हों जीभर ईसे, मन मोरो रैत उदास।

काम क्रोध मद मान सबइ ये।

घेरत हैं अज्ञान सभी ये।।

बचन नैं पाऊँ इनसे तनकऊँ, करत रहत उपहास।

बौत कठिन है नाथ डगरिया।

दूर तुमारी बौत नगरिया।।

कबलौ मोये रुबैहौ भगवन, बुझन चहत अब साँस।।

तुम तो दीनन के हितकारी।

सबके भैया बाप मतारी।।

चरन की धूरा दे दो मोहे, पूरी कर दो आस।।

मैं तो दास ‘सनातन’ तेरो।

मोरे हिय में करो बसेरो।।

तर जाऊँ मैं भव सागर सें, नाथ नै दो अब त्रास।।


काये तैं मोसे करत ठिठोली.....


काये तैं मोसे करत ठिठोली।

मैं तोरी मातारी जैसी, समझ नेंमोयें भोली।।

तोरे जैसो मोरो लरका।

काम करत है दिन भर घरका।।

मोयें खाँसी बहुत चलत है, लेन गओ है गोली।।

तीन पाँच वो तनिक नैं जानें।

काऊ से नै झगरो ठानें।।

सीधो सादो है पै तगड़ो, तुमरो ही हम जोली।।

गीता को नित पाठ करत है।

कभूँ नैं काऊसैं झगरत है।।

भगवन खों नित तिलक लगावै, खुदइ लगावै रोली।।

भंग पिये बौराओ फिरत तें।

बातें नोंनी नईं सुनत तैं।

इतै उतै डोलत है दिन भर, गुंडन की लै टोली।।

कौनडँ से जब परिहै पालो।

बनिहै तब फिर नई संभालो।।

ऐंसन मार परेगी तोहै, बोलत बनै नैं बोली।।


अपनों नोंनो गाँव बनायें......


अपनों नोंनो गाँव बनायें।

रहै नैं कूरा-कचरा तनकउ, ओहे दूर हटायें।।

कचरा खों घूरे मां डारें,

खाद बनाकें फसल सँवारें।

सोनो है जो कूरा कचरा, नौनी फसल उगायें।।

जहाँ कहाँ नैं ईखों डारें,

नाली में तौ कभहूँ नें डारें।

ईसें मच्छर बढ़त गाँव में, सबखों बात बतायें।।

गंदे कपड़ा कभूँ नै धारें,

गलियाँ आँगन रोज बुहारें।

तन-मन सबई साफ सुथरें हों, प्रभु को बास बनायें।।

भारत देश स्वच्छ हो अपनों,

पूरौ हो बापू कौ सपनों।

नदी सरोबर सबई साफ हों, सबइ साफ जल पायें।।

अपनों नोंनो गाँव बनायें......


कवि - श्री हेमराज नामदेव ‘राजसागरी’

पिता - स्व. श्री गया प्रसाद नामदेव

जन्म तिथि -1 अप्रेल 1954

शिक्षा - बी.ए.

विशेष - कृति, पल भर की पारो, जाम-ए-गजल,

कदम-कदम, चलो अब घर खों चलिये तारे जमीन के, स्कूल चलें हम एवं अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में शिरकत।

पता - एच.आई.जी./बी 3, शिवम हास्पिटल के सामने सुभाष नगर महाराजपुर जबलपुर

मो. नं. - 9425655132


बुन्देली दोहे


नें गालिब बनहौं कबउँ, नें बन पैहों मीर।

जैंसी उननें पाइ ती, मोरी काँ तकदीर।।


सूरत सें भोले लगें, मन है करिया साँप।

ऐंसे भी तौ लोग हैं, भाँप सकै तौ भाँप।।


जनमानस में बैठ कें, जौ का सीखे आप।

खुद खा रय हलुआ पुड़ी, भूँको मर रव बाप।।


जिन्दा में तौ दइ नंईं, पानी की इक बूँद।

पानी अब दै रय उन्हैं, आँखें लइं जब मूँद।।


मिलने सें ऐसें रहे, हम दोई मजबूर।

तुम बगिया के फूल हौ, हम रस्ता की धूर।।


निस दिन ताकत है तुम्हें, हो कें जे मजबूर।

मौरे नैनाँ हो गये, ज्यों बंधुआ मजदूर।।


नैनों की तें छोड़ दे, नैनाँ होत कटार।

बार करें जे जोंन पै, कर दंय बंटाढार।।


घाम समय पै निकरै भइया ... (गीत)


घाम समय पै निकरै भइया और समय पै छाँव।

बोई हमारौ गाँव रे भइया बोई हमारो गाँव।।


कीचड़ में हम पाँव भिड़ा कें हाट बजारै जायें,

रोजी रोटी के चक्कर में रोजइ धक्का खायें।

नें मानों तौ देख लो मोरे सूजें हैं जे पाँव,

बोई हमारौ गाँव रे भइया बोई हमारो गाँव।।


बिजली पानी पेट खों रोटी तन खों उन्नाँ मिलहें,

जीवन की ई फुलवारी में फूल गजब के खिलहें।

आज कोई नेता लै लेबै गोद हमारौ गाँव।

बोई हमारौ गाँव रे भइया बोई हमारो गाँव।।


बिजली नंइंयाँ गाँव में ऐसें इंधयारे गर्रानें,

उजयारों में कबै सपरहें ऊपर बारौ जानें।

अच्छौ खासौ बना कें बैठे भंड़या अपनों ठाँव।

बोई हमारौ गाँव रे भइया बोई हमारो गाँव।।


भाग्य विधाता नें का लिक्खो भाग्य विधाता जानें,

पीवे कब लो पानी मिलहै कब लो मिल है खानें।

सूखी नदिया उजड़े पनघट प्यासी प्यासी छाँव।

बोई हमारौ गाँव रे भइया बोई हमारो गाँव।।


मोरे पिया की निशानी नथनियाँ हिरानी...(गीत)


मोरे पिया की निशानी नथनियाँ हिरानी

मोखों का हो गऔ जा समजई नें आयै

जब देखौ तब मारी चीजई हिरायै

हानी पै हो रई है हानी, नथनियाँ हिरानी

मैंने ननद सें कई कै ढुँढ़ा लै

लाँछन लगै नें, तें मोखों बचा ले

बा कर रई है आना कानी, नथनियाँ हिरानी


मैं जो गई ती भरन खों पनियाँ

मिल गई उतै मोरी नाक नथनियाँ

हो गई जा खतम कहानी, नथनियाँ हिरानी

मोरे पिया की निशानी, नथनियाँ हिरानी


बुन्देली गजल


लै लइ मोरी जान तुम्हारी डेस डेस डेस

बन रय हौ नादान तुम्हारी डेस डेस डेस


जोरू खों जब पाँव की जूती तुम समझत हौ

का करहौ उत्थान तुम्हारी डेस डेस डेस


खुद के शेर पढ़ौ पढ़नें तौ काय पढ़त हौ

दूजे कौ दीवान तुम्हारी डेस डेस डेस


भूँखे प्यासे हम मर गय पै तुम नें आये

कर डालो हलकान तुम्हारी डेस डेस डेस


दारू के पींछै आ सबरौ बेंच दऔ है

घर कौ जौ सामान तुम्हारी डेस डेस डेस


हमनें कइ ती तीन सवारी नें चलियो

हो गव नें चालान तुम्हारी डेस डेस डेस


राज’ सुनों अपनों घर भरबे के लानें तुम

काय बनें शैतान तुम्हारी डेस डेस डेस


बुन्देली गजल


ऐसें ओसें गाना गारय, गाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी

मोसें आ तुम भिड़बे आरय, आऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


लैला के चक्कर में फंस कें, बऊ दद्दा खों भूल गये

अब दर-दर की ठोकर खारय, खाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


जोंन दिनाँ जा लौन नें चुक है, घर के बर्तन तक बिक जैहें

फटफटिया पै उड़तई जारय, जाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


जा दुनियाँ भी मूरख नोंईं, सब जानत हैं गीत हमायै

हमरे गीत चुरा कें गारय, गाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


पाँच साल का कर लऔ तुमने, जा जनता सब जानत हैगी

हाँत जोर कें टिकिट आ लारय, लाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


का समझत हौ ई कुरसी खों, जा कुरसी फाँसी लटकाहै

भीक माँग कें कुरसी पारय, पाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


जोंन दिना बदहजमीं हुइये, पेट फाड़ कें बाहर आहै

आँख मींच कें कच्छू खारय, खाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी


‘राज’ अकेलौ जी लैहै गो, जा बोलौ तुम जानत नंइंयाँ

फिर भी ओसें ऐंठ कें जारय, जाऔ तुम्हारी ऐंसी तेंसी

कवि - श्री गुप्तेश्वर द्वारका ‘गुप्त’

पिता - स्व. श्री दशरथ प्रसाद गुप्ता

जन्म तिथि -7 अगस्त 1950

शिक्षा - हायर सेकेन्डरी,साहित्य रत्न पत्रकारिता, आयुर्वेद रत्न

विशेष - लगभग 108 पाण्डुलिपि, हिन्दी, गद्य-पद्य एवं नाटकों का लेखन, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।

पता - शांति नगर जबलपुर

मो. नं. - 07049219043


करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ....


करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ।

सुन्नें के लौटा गंगा जल पानी माइ दोइ बिरियाँ।।

अतर चढ़ें दो-दो सिसियाँ, माइ दोइ बिरियाँ।

करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ....।

ल्याये नंदन वन से फुलवा, माई दोइ बिरियाँ।

हार बनायें चुन-चुन कलियाँ, माई दोइ बिरियाँ।।

करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ....

पान सुपारी मैया धुजा, नारियल दोइ बिरियाँ।

धूप कपूर चढ़ीं चुरियाँ, माई दोइ बिरियाँ।।

करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ.......

लाल बरन सिंगार करें, माई दोइ बिरियाँ।

मेवा खीर सजीं थरियाँ, माई दोइ बिरियाँ।।

करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ......

पाँच भगत मिल तोरे जस गावें, माई दोइ बिरियाँ।

गुप्तेश्वर की पीर हरौ, माई दोइ बिरियाँ।।

काटौ बिपत की भईं जरियाँ, माई दोइ बिरियाँ।

करें भगत हो आरती, माई दोइ बिरियाँ.....


हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में..


ऐंसी बानी तौ गुरयानी, प्यारे लोकगीत की धुन में।

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


वेद ब्यास उर बालमीक से, पैदा भअे यहाँ पर,

सुक सनकादिक सोन तलैया, जाँ सें गअे नहाँ कर,

है भाव-भक्ति लासानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


सूरदास के पद हैं बांके, तुलसी की चैपाई,

चंदसखी के भजन निराले, फाग ईसुरी छाई,

ऐंसी धरनी है बरदानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


वीर शिरोमनी प्रन कौ पक्कौ, रओ शिशुपाल निरालौ,

आल्हा ऊदल जोधा जैंसे, छत्रसाल बल बालौं,

ऐंसौ पानीदार जौ पानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


रणचंडी बन देश की खातिर, रन में दुरगा कूँदै,

होंस हटीली उपजै ऐंसी, छाती दुष्ट की रूँदै,

बाँकी झाँसी बाली रानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


नईं अघाईं आज लौ गा गा, ई जलनीं की नारीं,

बड़े भाव सें गावें प्यारे, हरदौलन की गारीं,

एैंसे हो गअे हैं बलिदानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।


होन-ब्यान उर त्यौहारन के, लोकगीत तुम सुन लो,

खेती पाती रितुअन वारे, कम हैं नैयाँ गुन लो,

गावैं स्यानन संग जवानी, प्यारे लोकगीत की धुन में

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में.....।।

जात-पांत के अलग-अलग हैं, कहन अलग है सबकी,

गुप्तेश्वर कवि जुर-मिल गावें, राग की दै दै थपकी,

लगवै नोंनी बोली-वानी, प्यारे लोकगीत की धुन में,

हमने बुन्देली पहचानी, प्यारे लोकगीत की धुन में......।।

कवि - डा. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

जन्म तिथि -25 अक्टूबर 1938

शिक्षा - एम.ए. डिप.जे., पी.एच.डी.डी लिट्(मानद)

विशेष - बाल साहित्य एवं साहित्य की सभी विधाओं में सृजन 30 पुस्तकें प्रकाशित/साहित्यकार,

शिक्षाविद् एवं पत्रकार/पाथेय समूह के संस्थापक/अमेरिका, इंग्लैंड, रूस की यात्रा।

पता - 112, सिटी कोतवाली, सराफा, जबलपुर

गुजर बसर कैंसे हो राम .....


बच्चन की पलटन है घर में,

मनुआ अपनो परो फिकर में,

गुजर बसर कैंसें हो राम।


दो सें तीन, तीन सें तेरा,

कोल्हू के चक्कर सौं फेरा।

छोड़ी छैंयाँ, औढ़ो घाम,

गुजर बसर कैंसें हो राम।


घरवारी की कही नें मानी,

उतर गओ नदिया को पानी।

कौन जघा पै करें मुकाम,

गुजर बसर कैसे हो राम।


मेंगाई खों मौत न आबै,

गरो फार कें गारी गाबै।

मों पे नँइयाँ तनक लगाम,

गुजर बसर कैसे हो राम।


जीवन हो गओ नीम-निबौरी,

बरया कें जा अक्कल दौरी।

नसबन्दी को औरो नाम,

गुजर बसर अब हूहै राम।


जौ मन निपट हरामी.....


जौ मन निपट हरामी, जौ मन निपट हरामी।

दूधों धुबो बताउत खुद खों

पै है धूर धुँआरो

फूल पाँचारी रुचै न ए खों

जो है काँटिन कौ झारो

जूता खाय तमासा देखे, खुद न्यौते बदनामी।


ए की मंसा मंतर जैंसी

छन में आबै जाबै

पथरा जैंसो फेंक देत है

कमजोरन खों दाबै।

उल्टो सीधो करै कराबै, जबर भराबै हामी।


असर नें होबै कहा सुनी को

जाँ ताँ दंद बिसाबै

मौका पाकें सेंध लगाबै

बार के मलहम लगाबै

फनफनात जो नाग सरीखो, ढूँढ़ लेत है बांमी।


गउ जैंसो है हाल हमाओ

ठेंगुर परा गरे सें कइये

पर गओ लोन जरे में।

मन खों तनक चिताओ प्रभुजी, तुम ही पूरन कामी।


बुन्देली दोहे.......


बुन्देली खों कहौं मैं, इमरत की बहनौत।

जौन जघा जो बसे हैं, उतइ जला रय जोत।।


मूरख मालक के लिंघा, दुखी भये द्विजराज।

जुनरी मका मसूर में, मिला दओ दुबराज।।


जूँठन फाँकत आ गये, दैबे नये विचार।

अपनी नसल बिगार कैं, नसलें रये सुधार।।


नीचन बीचन जो परै, कहा करैं बुधमान।

जैसे बीच किमाच के, बिकल होय बलवान।।


काजर आदर पा गओ, भओ भाल सिंगार।

मन मुतियन सो डुल रओ, कब सें रहो निहार।।


एड़ी ऐंसी जँच रई, जैंसे लगे कपास।

अतर गुलाबी सोख कें, फेंकत रैत उजास।।


मानुस पंछी रूख पसु, सहैं जेठ उतपात।

जेठन की भौं देख कें, धीरज धीर गमात।।


आँखन में जौआ दिखौ, छिपो लतर की ओट।

जरुआ जरिया बीच में, लगी करेजे चोट।।


चौका बासन कर लली, चली भली कर पौंछ।

मुख चन्दा पे लग परी, एक रेख कालौंछ।।


सम्पत विपत समान गन, मन में नेह बसाय।

बखत परौसी जान कें, काँटन सें निभजाय।।


अमिया घाँईं उमर है, चम्पा जैसे पाँव।

निबुआ जैंसी गमकतीं, जामुन जैंसो नाँव।।

गोबर छापे हाँत सें, उँगराउत है सार।

डारो चारा मन भरो, ओहें जान गँमार।।


मिलत मिलत मन मिलत है, लगत लगत लग जात।

दधि मिसरी कितनउ मिलै, पै मन नईं अघात।।


जो बौड़ी फूलन लगी, लगी भैंर की भीर।

रितु राजा ने आय कें, बदल दई तासीर।।


कौनऊँ सें का कैनें.......


कौनऊँ सें का कैनें,

जौन भाँत सें राखें राम।

तौन भाँत सें रैनें।।


अपनी पीरा कयें कौन सें,

कैबे सें का होने।।

पीर को मारौ जगे रात भर,

बाकी सबखों सोनें।।


अपने मों सें कयें कायरवों,

ऊसर में का बौनें।

भैया खता आँग को अपने।

खुदइ परत हैं धोने।।


कैबे खों तो सबरे अपने,

कोउ काउ को नइँयाँ।

बखत परे पे बता देत हैं,

सब के सब कुतकैयाँ।।


ऐई सें हमने सोच लई अब,

हम खाँ चुप्पइ रैनें।।

कौनऊँ सें का कैनें।।


कवि - आचार्य भगवत दुबे

जन्म तिथि -18 अगस्त 1943

विशेष - गद्य-पद्य की चालीस पुस्तकों का प्रकाशन, मास्को की विदेश यात्रा

पता - 2672,‘विमल स्मृति’ पिसनहारी की मढ़िया के पास, गढ़ा जबलपुर 482003

मो. - 09300613975


परयावरन बिगार खें......(दोहे)


परयावरन बिगार खें, दओ प्रदूसन थोप।

सूखा तपन अकाल सें, प्रकृति जता रइ कोप।।


हरे-भरे वन काट खें, मूढ़ करें वीरान।

धरनी अब धधकन लगी, जैंसे रेगिस्तान।।


राख धुआँ पिटरोल की, भरै नाक में गंद।

बिरछा काटे मौत कौ, कर लओ खुदई प्रबंद।।


जड़ी रुखड़ियाँ फूल-फल, तेंदू महुआ चार।

बिन स्वारथ बिरछा करें, मानव पे उपकार।।


निरपराद परयाबरन, भओ जेल में बन्द।

आज प्रदूसन फिर रओ, जो बेधड़क सुछन्द।।


बूँदें नरतन नईं करें, खिलें नें नोने फूल।

निरपराद जंगल गये, जे फाँसी पे झूल।


खुशबू कौ खुद कर दओ, हमने नाका बन्द।

आबो-जाबो हो रओ, बदबू कौ निरदुन्द।।


रोगों के हथयार लय, ठाँड़ो दूसन काल।

पेड़ों के कसलो कवच, औ सफाई की ढाल।।


घटा नें घिर रई देख खें, कटे वनों कौ रूप।

पानी-पानी रट रये, नदी, तलैया, कूप।।


भारत हमखों प्रानों से प्यारा है......


भारत हमखों प्रानों से प्यारो है।

ये की रच्छा कौ जिम्मो हमाओ है।।


फूट सें देस अपनों भओ तो गुलाम,

फिन सहीदों नें लई थाम ई की लगाम,

कैद सें देस खें तब उबारो है।

भारत हमखों प्रानों से प्यारो है।।


अब उबर जाये सोसन अनाचार सें,

देस उन्नति करै सबके सहकार सें,

स्वर्ग श्रमकों ने भू पै उतारो है।

भारत हमखों प्रानों से प्यारो है।।


हम अहिंसा पुजारी अमन के लिए,

काल, बैरी के लाने वतन के लिए,

दुस्मनों की तरप जो इसारो है।

भारत हमखों प्रानों से प्यारो है।।

कवि - श्रीमती लक्ष्मी शर्मा

पति - श्री महेश शर्मा

शिक्षा - एम.ए. (हिन्दी साहित्य)

विशेष - हिन्दी बुंदेली में गद्य-पद्य की 23 कृतियों का प्रकाशन, अमेरिका कनाडा एवं नेपाल में साहित्यिक सहभागिता। अध्यक्ष, अखिल

भारतीय बुन्देलखंड साहित्य परिषद् जबलपुर ईकाई।

पता - 1020, शक्तिनगर, गुप्तेश्वर रोड, जबलपुर

मो. नं. - 0761-4010300, 9174532218


बारामासी


चैत मास में काम बड़ो है, सबरे लगे काम खें,

कटाई गहाई फसल की, नो देबन खौ पूजें मढिया में

रामजू को जनम उत्सव मनावें घरे और मंदर में ।।


बैसाख मास में दानपुन्न, आखा तीज ब्याओ बरातें,

भारी गर्मी तपे दिन रतियाँ, लगा रई दाह देह में,

भर दओ नाज बंडा में, घर की हो रईं छुयो नेंर।।


जेठ मास कुंआ, ताल सूखे, पानी की मची हा हा कार

आदमी जीव जिनावर मारे, लू थपेड़ा प्रान कड़े जात

पिया मोरे परदेस बसे हैं, अब कैसे होये निबाह ।।


आषाढ़ मास बदरा छा रये, नन्ही बुंदिया अमरित सी लागें

चल रये हर बखर खेतन में, खेती किसानी को काम बढ़े

पानी बरस दओ झमाझम, जीव जंतु मानुष सुखी भये ।।


सावन महिना चूड़ी मेंहदी हाट लगीं, सखियाँ झूला झूलें ,

नागपंचमी की पूजा होवे, राखी मनावे बूढ़े बारे भैया बैने,

कहूँ हो रई भारी बरसा, कहूँ परो है बेजा सूखो ।।


भादों मास बादरों की गर्जन, औ बिजुरिया की चमकार,

जनम अष्टमी कृष्ण की, पूरो महिना मना रये तेहार,

गैया ब्या गई भर बसकारे, पानी पानी हो रई सार ,

पानी की झिर लगी आल्हा गावें, संग ढोलक की ठनकार।।


क्वांर महिना पुरखन को तरपन, तिथि पे होवें न्योते,

नो दूर्गों के व्रत पूजा-पाठ, दसहरा खों उत्सव मनावें,

रामायन और रामलीला, हो रई है चैपालन में ।।


कातिक बड़ो सुहानो, छाब पोत ढिगधर अंगना लिपाये,

दिवारी खों लक्ष्मीजू की पूजा, करें मिठाई लाई बतेसा से

फटाका फुलझड़ी सजे बजार, घर-घर गोवर्धन पूजें,

देवठान से होने हैं, मुहूरत में, गोने और ब्याओ बरातें ।।


अगहन मास आवें खेतन को, पको धान सोने सो लागे,

बोनी हो रई खेतन में, बगरे नाज खलिहानन में,

नाती को ब्याओ रचे हैं, लगुनया पाहुनों से घर भरें।।


पूस की ठंड काटत है अंग, गुर्सी खों घेरे बूढ़े और बारे,

हिया थर थरारऔ ठंड के मारे, बिरहिन दुक्खन तड़पे,

मचान चढ़े खेत रखावे, कथरी में सोऊ ठंड नें जावे ।।


माघ मास फसल में पड़ गओ पालो, लग गओ रोग चनन में,

कैसे कड़वे बायरे घर के प्यांर, डार कथरी में गरमा रये,

दांत किटकिटा रये और मरन भई, ओला सोऊ पर गये,

तिलि-मूंग के लड़ुआ बंध रये, सकरांत के मेला भर रये।।


फागुन मास बड़ो सुहानो, कोयल कुहके बसंत छा गओ,

रंग अबीर उड़े होरी में, हुरयारो पे रंग चढ़ो,

महुआ फूले मादकता भरे, आमन पे मौर गमक रओ,

दहक-दहक के हो रओ लाल, टेसू भओ बाबरो ।।


कैसो आ गओ जमानो.....

कैसो आ गओ जमानो

का कहिये अबकी खों

ने कहूँ दिखावे कुआं बावड़ी

ने पानी भरती पनहारनी

ने दिखावे हरी-भरी हरयाली

सावन सूखो-सूखो बीतो जाये

आम नीम, बेरी सबई बिला गये

और बिला गये अंगना तुलसी चौबारे।।

दूध की नदियाँ बहत हती ई देश में

दूध दही की बात का करिये.

मही सोऊ कोऊ मुफत में नें देवे,

ताल तलैया, कुंआ बाबड़ी सूखे

पानी को चारऊ तरपी काल परे

महंगाई की मार से कोऊ बचो नें

असल चीज कहूँ ने मिलवे

नकली से सजे बजार भरे।।

मन की पीर घनेरी की से कहिये,

कोऊ नइयां है सुनने बारे

बिजली आंख मिचैली करे

कोठा अंगना इंधियारे डरे

खेत डरे हैं सूखे-सूखे

सुबधा निगोड़ी बिन बिजली के

आल्हा सोऊ सुनावे कहूँ नंे

नंे होवे चैपालन में

सुख दुख की बातें ।।


रंग रसिया


बड़े भोले भाले चलन में है, न्यारे ,

बड़े रंग रसिया है सैंया हमारे।।

रस से भरी करें मीठी बे बतियां,

सुन के चमक जाती, सांचऊ जे अखियां

हते भाग नोने, मिले एैसे सैंया,

सुनो कान देके, कहत तुमसे गुइयां,

छबीला रसीले, सजन मोरे प्यारे,

बड़े रंग रसिया हैं , सैंया हमारे।।

उदना कही हँस, गहो मोरी बहियां,

तुम बिन तो चैन अब पड़त नइयां

कही मैंने उनसे, ने बातें बनाओ,

उमरिया है बारी, ने घूंघटा उठओ

दबाहो चरन अब तो, रोजई तुम्हारे

बड़े रंग रसिया हैं, सैंया हमारे।।

सखियन संग तुमने, खेली है होरी

खेलो पिया संग बारी है मोरी

रंग देहो चंदा सों, तोरो जो मुखड़ा

हँस-हँस सुनैयो, गुइयों को दुखड़ा

दिन को दिखाने हैं, अब तोको तारे

बड़े रंग रसिया है, सैंया हमारे।।

रंग भरी गगरिया ननद ले र्के आइं

झपट के तुरंत मैंने ऊ सें छुडाई

उडेरो बलम पे भगन कहूँ ने पाये

गगन के सितारे, दिखा बे ने पाये

मोरो चंदा सो मुखड़ा, तकत रये ठाड़े

बड़े रंग रसिया है सैंया हमारे।।


बिटिया पुलस हो गई ........


बिटिया पुलस हो गई,

बड़वारी हो रई सबरे गांव की

दाऊजू की बिटिया पुलस हो गई,

निस्पेक्टर होंके हुइये एस.पी.

पुलस बारन के बा उन्हा पहर रई,

डिरेस पहन लोगन सी लग रई

सबरे ऊ की कर रये चिरौरी।।

दाऊजू बिचारे हैरान हो रये

अब ई को ब्याओ कैसे हुइये

बखत बेखत जा ड्यूटी जाबे

पुलस बारन संग गस्त लगावे

डंडा तमंचा संग में राखे

गुन्डा सबरे थर-थर कांपे।।

अपराधिन खों जेल में पेड़े

धाक बड़ी है शहर भरे में

कौन सो बर अब ईखों ढूंडिबे

मन भारी हो रओ चिंता में

जाने कौन गत सबकी होने

घर में बैठे बतिया रये स्याने।।

बड़वारी हो रई सबरे गांव की

दाऊजू की बिटिया पुलस हो गई।।

कवि - श्री भगत दुबे ‘दीप’

पिता - स्व. ओंकार प्रसाद दुबे

विशेष - जंगल हमारे भगवान, जागृति एवं पांडुलिपि पचरंग चूनर, सतरंग चूनर, गीत-संगीत में अभिरुचि

पता - कृष्णा नगर, पुराना शास्त्री नगर, जबलपुर

मो. - 9009856260


धरती पेरे हरी चुनरिया


वारी उमरिया पे हरी चुनरिया, ऐसी लगे गुजरिया।

देखन वारों की ने पूंछो, गड़-गड़ जाये नजरिया।।


वारी उमरिया पाँछे छोड़, जब ज्वानी में पग डारो।

दिन दूनों उर रात चैगुनों, अपनों रूप सम्हारो।।


तुम इतनी नोंनी हो तुमखों, जो देखे रै जावे।

टुटका कर दइऐ नईं कोऊ की, बुरी नजर लग जावे।।


जब कोनऊ सच्चे मन सें, तारीफ करत है तुमरी।

ऐंसो लगे बताऊत रेतो, प्यास बुझे ना हमरी।।


गर्भावस्था में खिल-खिल खें, कलि-कलि मुस्का रई।

भार बढ़ो सो लाज के मारें , नीचें खों झुकी जा रई।।


जब बसंत के दिन आये सो, पीरी पहनी चुनरिया।

रुन-झुन, रुन-झुन बाजन लागी, पाँओं की पायलिया।।


मोरो सरबस लगो दांव पै, ये अधीन हों ई के।

ठंड धूप बरसात कछू नईं, जानी ई के पीछे।।


जो-लो घरै लिवा नें लाऊँ, हे भगवान बचैयो।

दुनियाँ की सब रेढ़ छेड़, तुम कोसों सो दूर भगइयो।।


और कछु दिन रुको तुमें, सिर कांधे घर ले जेवी।

खुशी खुशी घर में ले जाखें, घी के दीप जलेवी।।

हम किसानों की जाई दशा, जो लो घर में ने आवें।

अपनी हम तो तबै केत हैं, जब भीतर हो जावे।।


कटु बेन पिया बोले हमसे.......


अपनो दुःख जाय कहों किनसें

मन ऊब गयो री सखी उनसें

हम जाँच सवै करवाय चुके

नहि खोर में साँची कहों तुमसे

अपने सब दोष छुपाउन खों

कटु बैन पिया बोले हमसें

मोरी उमर ढली गोदी नें भरी

पछताउत नैन फंसा ईनसें


कर्ता जो होए तो ऊसर भूम सें

गाहत नाज बढ़े दिन दूनों

धन होय न होय रुके न रुकाये

प्रतिभा को प्रभाव न होये बिहूनो

मर्दों के घरे खेलें ललना

तिरिया संग मेल परे नहिं ऊनो

घर नारी में दोष नें एक मिले

नकारा के घर पलना रहे सूनो


कठन भई बिटियों की रखवारी


चार साल की बिटिया खों हम, कैसे का समझइए।

आस्तीनों के सांपों से हम, कैसे इनें बचैये।।


बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, केबो बड़ो सरल है।

इनें दरिंदो हत्यारों की, का पेचान बतैये।।


अपनी अस्तीनों हे हमने, झरा-झरा खों देखो।

अब तन की हर रोंम रोंम की, का पेचान करैये।।


बेटी पढ़ाउन के लाने हम, तन लो बेंच लगेवी।

ये दुनियां की बुरी नजर से, कैसे इनें बचेवी।।


मन तो चाहत इने आसमां, छीबे खों पोंचा दऊँ।

कौन सगे हैं कौन पराये, के के संग पठाऊँ।।


भ्रूण बचेवो सरल, कठन है, बिटियों की रखवारी।

जो कैंसो कलिकाल आओ, मन कौन भांति समझइये।।


कहाँ गये वे गाल गुलाबी, कजरारे से नैना....


कहाँ गये वे गाल गुलाबी, कजरारे से नैना।

कारे केश घटाओं वारे, कोयलिया से बैना।।


ओंठ रसीले सूख गये, मुरझानी कलियों जैसे।

ऊँचे शिखर टूट समतल भये, रेत महल के जैसे।।


लट घुंघरारी उलझ खें रे गईं, सुलझे नईं सुलझाये।

चिन्ताओं में हँसी खो गई, हँसे नें लाख हँसाये।।


कम्मर में करधनियां कैंसी, खाउत हती बलैयाँ।

समर-समर खें पांव धरे, पे बाजतती पैजनियाँ।।


मुस्कावे तो फूल झरत्ते, नैनन तीर चलावे।

पनिया भरवे खों जब निकरै, पनघट लौ सज जावे।।


गाल पिचक गये छाहें पर गईं, खो गई मस्त जवानी।

पिया मिलन को मोह टूट गओ, रूठी रात सुहानी।।


जब-जब आय बसंती रानी, उर फागुन को फगुआ।

मरे सांप की मैर के जैसे, ऐंठे मन को मनुआ।।


‘दीप’ बुझन खें हो रओ, अब तो तेल बचो नंे बाती।

कोयलिया की कूक बढ़़ावे, हूक जरावे छाती।।


कवि - डा. चन्द्रा चतुर्वेदी

पति - डा. कृष्णकान्त चतुर्वेदी

विशेष - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - जे.डी.ए./एच.आई.जी./8/ शताब्दीपुरम, एम.आर. 4 रोड, जबलपुर 482002

मो. - 9425157873


या जग में कोउ, काऊ को नइयाँ.....


या जग में कोउ, काऊ को नइयाँ।

अरी मैया! कहने खों कछू नइयाँ।।


ध्यान लगा साधू सन्यासी।

पकरें सत की बैंयाँ।।

अलख निरन्जन जपत जोगिया।

पा गअे पिरभू नाम की छैयाँ।।

अरी मैया! कहने खों कछू नइयाँ.....


देह धरे के नाते-रिश्ते।

पिंजर सें उड़ जाय मुनैंयाँ।।

घरी पहर भर राख सकें ना।

जरतईं चिता कलप गईं छतियाँ।।

अरी मैया! कहने खों कछू नइयाँ.....


मोसें बड्डौ कौन जगत में।

छिटकीं धन की दिखें तरैयाँ।।

जमघट द्वारें लगो झमेला।

घरी लेत है स्यात बलैयाँ।।

अरी मैया! कहने खों कछू नइयाँ.....


हन्सा हिराय गओ पल भर में।

हिलबिलान हो गईं उरैयाँ।।

इतई पै छूटत काया-माया।

‘कृष्ण प्रिया’ कहबे खों कछू नैयाँ।।

अरी मैया! कहने खों कछू नइयाँ.....


गुइंयाँ नें दै दऔ बुलौआ.......


गुइंयाँ नें दै दऔ बुलौआ।

करें कछु बिसरी सी बतियाँ।।


भओ भुनसारौ चिरैयाँ चहकें।

गैया रँभा रही बाड़े बंध कें।।

चूल्हे की सौंधी रोटी महकें।

कढ़ी बटुआ की खूबहिं लहके।।


आगई झुलपट सँझा बिरियाँ।

करें कछु बिसरी सी बतियाँ।। गुइंयाँ नें दे दऔ......


पँहुने अपने घर जब आवें।

नोनें चच्चर-पप्पड़ खाबैं।।

तीज-त्योहारन औसर आवैं।

घर के घी की सौंध सुहावैं।।


अंगना चुगतीं दाना चिरियाँ।

करें कछु बिसरी सी बतियाँ।। गुइंयाँ नें दे दऔ......


तोपैं छूटैं, लड़ूआ लूटंै।

ढोल ढमाके बहुतई छूटैं।।

बजे ढोलकी, गवैं सोहरें।

दंधकाने को सगरे टूटें।।


जुगल-किशोर छाड़ि कछु नइंयाँ।

करें कछु बिसरी सी बतियाँ।। गुइंयाँ नें दे दऔ......


मंदिर सब जग जाहिर सोहें।

जगन्नाथ-रथ जत्रा मोंहैं।।

गाँव शहर में जत्रा होवैं।

बदरा उमग झमाझम होवैं।।


छतरिन की छवि बिसरत नइंयाँ।

सखि ! करें कछु ‘पन्ना’ की बतियाँ।। गुइंयाँ नें दे दऔ....


लग गई झरी जो सावन की।

सोचै विरहिन पिय आवन की।।

रुत आई रखियाँ बाँधन की।

घलें हिंडोले,सावन गावन की।।


कृष्ण-प्रिया ने दे दओ बुलौआ,

करें कछु बिसरी सी बतियाँ। गुइंयाँ नें दे दऔ......

कवि - छाया नामदेव ‘नरगिस’

जन्म तिथि - 12 मई 1963

शिक्षा - एम.ए.

विशेष - कृति ‘‘गुल-ए-नरगिस’’एवं विभिन्न पत्र पत्रकाओं में प्रकाशन, आल इंडिया मुशायरों, कवि सम्मेलनों में सिरकत

पता - 364, सराफा वार्ड, खटीक मोहल्ला, जबलपुर

मो. - 8989597869


बिड़ी सिगरिट तमाँखू नें छिइयो.....


बिड़ी सिगरिट तमाँखू नें छिइयो रे साँची कैरय भइया

मुऐ कैंसर खों मुँह नें लगइयो रे साँची कैरय भइया


लाल हरीरी नीली पुड़िया

देखत की चमकीली पुड़िया

कित्तउ चमकै कित्तउ दमकै

जा तौ है जहरीली पुड़िया

अरे ऐकी चमक में नें अइयो रे

साँची कैरय भइया, हाँ हाँ रे साँची ....


कौनउँ तमाखू खों पान में खायें

रगड़ा कोई मुँह में दबायैं

निर्धन हो या हो धनवाला

हो न तमाखू तौ माँग कें खायै

भीख माँगन की लत नें लगइयो रे

साँची कैरय भइया, हाँ हाँ रे साँची ....


सिगरिट जलत है बीड़ी जलत है

साँसों की अनमोल सीढ़ी जलत है

तुम तौ बीड़ी सिगरिट पियत हौ

तुम्हरी अगली पीढ़ी जलत है

जिन्दा अर्थी नें अपनी जलइयो रे

साँची कैरय भइया, हाँ हाँ रे साँची ....


बुन्देली गजल


जब सें घर सें न्यारौ हो गओ

बीवी खों वौ प्यारौ हो गऔ


प्यार सें ओनें मोखों हेरौ

मन मोरौ गुब्बारौ हो गऔ


भइयों खों तौ ओनें छोड़ौ

जान सें प्यारौ सारौ हो गऔ


योगी जी सत्ता में आये

गाँव गली उजियारौ हो गऔ


जबसें साथ दऔ नरगिस खों

आँखों कौ बौ तारौ हो गऔ


बुन्देली गजल


निस दिन तुम्हरी याद सता रई

का कै दंय हमें खा खा जा रई


तड़प रही मैं मछरी जैंसी

मोरी तौ अब जान पै आ रई


आँख झुका कें हम निकरत हैं

जा दुनियाँ जबरन गर्रा रई


एैटम बम कौ बाप है भारत

ऐइसें आ दुनिया थर्रा रई

काल परौं लौ खत्तम आँहैं

‘नरगिस’ तें काहे घबरा रई


बुन्देली गजल


काल उतै मरुआ नें मारौ

शेखी तुम नें आज बघारौ


उल्टे पाँओं लौट कें आये

जब भी तैनें मोय पुकारौ


बात करौ तौ भूंक प्यास की

गीत गजल खों माँय पबारौ


जैंसौ बनरव लिखतै रय हैं

बेमतलब नें बींग निकारौ


कैंसें तोखों भूल सकत हैं

जान सें ज्यादा है तें प्यारौ


कित्तरु मीठौ पानी पी ले

सागर तें रैहैगो खारौ


चद्दर जित्तौ हैगौ ‘नरगिस’

उत्तइ अपनें पाँव पसारौ


बुन्देली गजल


चाहे भूँके भले मर जइयो

हाँत अपनें नें तुम फैलईयो


बऊ दद्दा नें नाम कमाऔ

नाम उनकौ कहूँ नें डुबईयो


कोई सें कर्जा नें लेने तुम

जित्तौ है सो काम चलईयो


जा दुनियाँ मक्कार भौत है

हर कोई खांे घर नें बिठईयो


जौ जग ‘नरगिस’ भूल नें पायै

काम ऐंसे कोई कर जईयो


बुन्देली गजल


दो अक्षर जो लिख नंइं पा रय

बे देखौ मंचों पै छा रय


का कै दंय हम गजबइ ढा रय

मोरे गीत चुरा के गा रय


नेताओं की अब अटकी तौ

घर घर भीक माँगबे जा रय


एकइ बोट के लानें अब बे

फोकट में दारू पिलवा रय


‘नरगिस’ ऐं जब पटने नंइंयाँ

काय खों हाँत मिलाबे आ रय

कवि - डा. गीता गीत

पिता - स्व. जे. के. दास

शिक्षा - डबल एम.ए., एल. एल.बी.पी.एच.डी., डी.लिट. (मानद) विद्यावाचस्पति, विद्यासागर


विशेष - कृति, कविता का नहीं है कोई गाँव, हिन्दी साधक आराधक, जामुन का पेड़, चिप्पू,साई प्रताप,मासिक गीत-पराग की संपादिका

पता - 1050, सरस्वती निवास, शक्ति नगर, गुप्तेश्वर जबलपुर मो. - 9893305907


नओ बरस आओ बिन्ना......


नओ बरस आओ बिन्ना, नओ बरस आओ बिन्ना।

हो जाय ताक धिना धिन धिन्ना।।...


नई चमक के साथ सूरज दद्दा आए

बागन में बीथिन में घर अँगना छाए

देखो तो अंधियारो कहाँ गओ सन्ना

नओ बरस आओ बिन्ना, हो जाय ताक धिना धिन धिन्ना।।...


इते हँसी उते खुशी, मौं मीठे हो रए

झौअन बधाई के बोल मीठे बो रए

देखो री बुलाए नानी खें नन्ना

नओ बरस आओ बिन्ना, हो जाय ताक धिना धिन धिन्ना।।...


बेजई हरकतें कर रओ बेईमान

कुत्ता की पूंछ हो रओ पाकिस्तान

चीड़ फाड़ खें धर दो जो रद्दी पन्ना

नओ बरस आओ बिन्ना, हो जाय ताक धिना धिन धिन्ना।।...


देश के किसानन जवानन की जै जै

तुम्हारी भी जै जै हमारी भी जै जै

आप खूब कविता छपाओ पुथन्ना

नओ बरस आओ बिन्ना, हो जाय ताक धिना धिन धिन्ना।।...

नाचत हैं बदरा मतवारे ....


नाचत हैं बदरा मतवारे

सखि री! अँगना द्वारे-द्वारे

नाचत हैं बदरा मतवारे


आठ महीना लो सागर सें,

भरत रहत जे गागर

प्यास बुझावे खों धरती की

बन आए नटनागर

समर्पित परहित में जे प्यारे, नाचत हैं बदरा मतवारे......


बिजुरी की आतसबाजी में

जियरा धक-धक होवे

जे घन घोर नगाड़े पोरें

भय को भूत भिगोवे

लेत हैं पुरवैया चटकारे, नाचत हैं बदरा मतवारे......


कम जादा को धंधो छोड़ो

बरसो सदा बराबर

देत रहो गुड़-धानी मेघा

मेघ मल्हार सुनाकर

हरो अंधियारे दो उजयारे, नाचत हैं बदरा मतवारे......


गीता कह रई गीता पढ़ लो....


गीता कह रई गीता पढ़ लो, मन की खोल किवरिया मूरख

मरम जान लो सिखरन चढ़ लो, गीता कह रई गीता पढ़ लो...


अमरत सों आध्यात्म भरो है, चमकत चक्र सुदर्शन

धरम धुजा लहरा रई ईमें, समझ परे है दर्शन

जितने डूबो उतनइं बढ़ लो, गीता कह रई गीता पढ़ लो....

हाड़ मांस को जो तन गारो, करम करो फल छोड़ो

जिननें जा दुनिया दिखलाई, उनसे नाता जोड़ो

मन्तक - मन्तक मोती जड़ लो, गीता कह रई गीता पढ़ लो....


पढ़त-पढ़त जे दिन बस जेहें, मन में किसन कन्हैया

ओ दिन समझो पार लग गई,

भव सागर से नैया, कान्हा भजो जगत सें कढ़ लो,

गीता कह रई गीता पढ़ लो......


बे तौ बस बक-बक कर रये हैं.......


देखत सुनत कान पक रए हैं,

जिनके हाँतन में दई चाबी,

बे तो बस बक-बक कर रये हैं।

देखत सुनत कान पक रये हैं।।

छप्पर फाड़ पाप बरसत है,

जिनके बैठे रहे भरोसे,

वे बैरी बन जात डसत हैं,

मुटा रहे खा पी छक रए हैं।

बे तो बस बक-बक कर रये हैं।।

पालो पोसो बड़ो करो है,

वे हो रए छाती के पीपर,

वृद्धाश्रम में बाप डरो है,

वे तो अपनों घर तक रए हंै।

बे तो बस बक-बक कर रए हैं।।

सुरसा के मों सी महंगाई,

जीवो मरवो दूभर हो रओ,

इते कुंआ तो उते है खाई,

लाज आये कैसे ढंक रए हैं।

बे तो बस बक-बक कर रये हैं।।

कलयुग है प्रानन पै भारी,

जितै आस है उजयारे की,

पसरी मिलत उतै अंधियारी,

अब का गिनिए का हंक रए हैं।

बे तो बस बक-बक कर रये हैं।।


दैवे खबर तुमई खों आये.......


दैवे खबर तुमई खों आये,

सुन लो गुइंयाँ कान लगाये

बिसर नें जइयो बात जा मोरी

सुन लो भैया कान लगाये

प्यासे ताल तलैया गेरऊँ

प्यासी धरती कहे पुकार

प्यासे प्यासे गाँव गमैयाँ

प्यासे दिख रअे हार पहार

वन बिरछा काटे हैं जिननें

जिननें जंगल दओ मिटाय

उनकै नाम उजागर कर दें

एकऊँ क्याऊँ बचन नें पायें

पानीं खें दूषित कर बओ

फैक्टरिन कौ कर विस्तार

डार के मल-जल माल तलैयन

कूड़ा करकट नदियन डार

झूठई के सब करत दिखावा

पानी सकोरन में भरवात

समवा बारौ ढोंग रचत हैं।

छपवाबे फोटो खिंचवात

आपस में सब जरत भुंजत हैं

इक दूजे की खींचत टाँग

हमसे आगे बढ़ गये कैसे

अब दे रअे मुरगा की बाँग


कवि - श्रीमती रत्ना ओझा ‘रत्न’

पति - श्री टी. सी. ओझा

शिक्षा - एम.ए. बी.एड.

विशेष - कृतियाँ गद्य-पद्य में बटवारे का दर्द,गीत रामायण, 54 दोहा संग्रह, जरा याद करो कुर्बानी, रत्न मंजूषा, उजास, साहित्यकार एवं शिक्षाविद्

पता - 2405/बी/गाँधी नगर, न्यू कंचनपुर, जबलपुर

मो. नं. - 9479847006


तुलसीदास गोसाँईं


हरे रामा तुलसीदास गोसाँई,

रचदई मानस रे हारी।

कि हरे रामा शिवजी ने गाई,

गौरा सुनाई हाँ-हाँ रे सांवरिया रामा।

कि हरे रामा संतो ने फैलाई,

रचदई मानस रे हारी। कि हरे रामा तुलसीदास.....

सुन्दर-सुन्दर श्लोक लिखे हैं,

बाँचत पंडित लोग है रामा। हाँ-हाँ रे सांवरिया रामा

कि हरे रामा, दोहा और चैपाई,

रचदई मानस रे हारी। कि हरे रामा तुलसीदास ....

सोरठा और छंद रचे हैं,

गावें पढ़ो-लिखो अनपढ़ रामा। हाँ-हाँ रे सांवरियारामा

कि हरे रामा, स्वर्ग चंदन की सीढ़ी,

रचदई मानस रे हारी। कि हरे रामा तुलसीदास.....

सज्जन भी तो पाठ करत हैं,

दुर्जन भी सम्मान करत हैं। हाँ-हाँरे सांवरिया रामा।

कि हरे रामा, मरजादा की ज्योति जगाई,

रचदई मानस रे हारी। कि हरे रामा तुलसीदास......

अवधि में सोई ग्रन्थ लिखो है,

समझत लोग लुगाई रामा। हाँ-हाँ रे सांवरियारामा।

कि हरे रामा समता को पाठ पढाई,

रचदई मानस रे हारी। कि हरे रामा तुलसीदास....

रचदई मानस ‘रत्न’ हारी।


राष्ट्र भाषा हिन्दी बनवाने


राष्ट्र भाषा हिन्दी बनवाने रे,

सुनियो मोरी बहना, हाँ-हाँ रे सुनियो मोरे भइया।

भारत की पहचान जा हिन्दी,

हिन्दुस्तान की जान जा हिन्दी,

जाकी अलख जगाने रे, सुनियो मोरी बहना,

हाँ-हाँ सुनियो मोरे भइया, राष्ट्र भाषा हिन्दी बनवाने.....


पूरब से पश्चिम की भाषा,

उत्तर से दक्षिण की भाषा,

देश-विदेश समानी रे सुनियो मोरी बहना,

हाँ-हाँ रे सुनियो मोरे भइया।राष्ट्रभाषा हिन्दी बनवाने......


भारत की बोलियो की माता,

एक सूत्र में सब खों बाँधा,

हिन्दी का मान बढ़ाने रे, सुनियो मोरी बहना,

हाँ-हाँ रे सुनियो मोरे भइया। राष्ट्र भाषा हिन्दी बनवाने.....


जा संकल्प ‘रत्न’ सबई खों लेने,

राष्ट्र हिन्दी बनवाने,

विश्व भाषा खों दर्जा दिलाने रे, सुनियो मोरी बहना

हाँ-हाँ रे सुनियो मोरे भइया।

राष्ट्रभाषा हिन्दी बनवाने रे,

सुनियो मोरी बहना, हाँ-हाँ रे सुनियो मोरे भइया।


होरी (बुन्देली)


अर र रा होरी आई रे,

बिरज मे धूम मचाई रे।

मथुरा मे लटृठ लिये गुजरियाँ,

घूंघट काढ़े घूमैं।

ग्वाल-बाल खों लट्ठ पड़ो है,

और बरस रहो रंग।

अ र र रा होरी आई रे.....

बरसाने मे राधा जी की,

भीजै सतरंग चूनर।

कान्हाजी की पिचकारी सों

बरसे चहुदिश रंग

अ र र रा होरी आई रे,....

गोकुल सब ग्वाल-ग्वालिनें,

खेलैं आबीर-गुलाल,

किसउ की भीजै चोली चूनर,

किसउ की भीजैं पाग,

अ र र रा होरी आई रे....


वृन्दावन मे धूम मची है,

खेलो फूलन की होरी,

राधा-किशन तो फूल में ढक गये,

नयना भये अभिराम।

अ र र रा होरी आई रे,.....


होरी की तो धूम मची है,

खेलो तिलक गुलाल।

कलुष भेद सबई तोम त्यागो,

‘रत्न’ गले लग जाव।

अ र र रा होरी आई रे.....


पर्यावरण (बुन्देली)


अब खत लिख रई बहन बिरन को

पर्यावरण बचईयो रे।

पर्यावरण बचईयो रे भईया विरक्ष लगईयो रे।

अब खत लिख रई बहन बिरन को.....

शहर विकास के नाम के खातिर,

पेड़न खों कटवाँये।

अब जे मेघ कहाँ से आयें,

कैसे जल बरसाये।

अब खत लिख रई बहन बिरन को....


कंकरीट के महल उठारये,

खेत हो रये नाश।

धरा में पानी कैसे पहुंचे।

कैसे उपजे अन्न।

अब खत लिख रई बहन बिरन को....

नदी-ताल मे गंदगी भर दई,

स्वच्छ जल कहाँ से आय।

रोजई-रोज बढ़त बीमारी,

जनता मरती जाय।

अब खत लिख रई बहन बिरन को.....

यूरिया कीट-नाशक दे रये,

घर-घर केंसर रोग।

अबई समय है चेत जइयो।

लौटो प्रकृति की ओर।

अब खत लिख रई बहन बिरन को.....

नदी-ताल ने गंदो करो,

चाहत पे लगाम लगाओ।

जीवो चाहो सुखी जीवन तो

बिरक्षा ‘रत्न’ खीब लगाओ।

अब खत लिख रई बहन बिरन को।

बिरन मोरे विरक्ष लगईयो रे।


कवि - श्री इन्द्रबहादुर श्रीवास्तव

पिता - स्व. श्री अवधेश प्रसाद श्रीवास्तव

जन्म तिथि - 14 मई 1947

शिक्षा - मेकेनिकल इन्जीनियरिंग में डिप्लोमा

विशेष - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का

प्रकाशन, कवि सम्मेलनों में सहभागिता

पता - 416, जयप्रकाश नगर, अधारताल, जबलपुर 482004

मो. नं. - 9329664272


मोरी बात सुनत वो नइयाँ.....


मोरी बात सुनत वो नइयाँ,

जानें कैसे मोरे सैयाँ।

कछु भी काम करत वो नइयाँ,

जानें कैसे मोरे सैंयाँ।

पाँव पसारे बैठे दिन भर,

मोसे रै ते एंठे दिन भर।

खेलें घर मैं चइयाँ-मइयाँ,

जाने कैसे मोरे सैंयाँ।

मीठे बोल न बोले मोसें,

बातन मा वो मोहे कोसें।

कैसे समझाऊँ मैं गुइयाँ,

जाने कैसे मोरे सैंयाँ।

कबऊँ नें मोहे प्यार जतावै,

मोड़ा-मोड़ी दूर भगावै।

मैं तो हारी पड़ पड़ पइयाँ,

जाने कैसे मोरे सैंयाँ

घूमे दिन भर करत छिछोरी,

कैसे चले गृहस्थी मोरी।

उनखों फरक पड़त कछू नइयाँ,

जाने कैसे मोरे सैंयाँ।


मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जै हो .....


मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों,

बात करत मोहे लाज लगत है।

उनसे मैं भौजी का कैहों,

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों......

छोड़ के अपनी संग सहेली,

कैसे अकेली मैं रैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों.....

लाड़ प्यार से पली यहाँ पै,

कैसे जुलुम उनके सैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों.....

बडे़ विचित्र दिखत घरवारे,

कैसे मैं संग उनके रैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों.....

कैसे खबरिया मिल है सबकी,

कैसे खबर अपनी दैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों,,,,

बड़ी-बड़ी मूंछें सैंया जी की,

देखई मैं भौजी डर जैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों.....

मैं नादान लगे डर मोहे,

भौजी तुम्हें संग लै जैहों।

मोरे आ गए लिबउआ मैं नै जैहों ......


मोरी कोऊ नै खबर ले भैया.......


मोरी कोऊ नै खबर ले भैया

मैके गई मोड़न की मइया.....

बैरन हो गई रात निगोड़ी,

संग में ले गई मोड़ा मोड़ी।

मोरी कटत रात अब नइयाँ,

मैके गई मोड़न की मइया.....

घर आँगन सब सूनो पड़ो है,

सूखो औंधा घड़ा पड़ो है।

कोऊ नई पानी भरवैया,

मैके गई मोड़न की मइया.....

सबई पड़ोसी दूर से ताकें,

अपनी-अपनी खिड़किन से झांके।

कोऊ अब पूंछत तक नैया,

मैके गई मोड़न की मइया.....

घर को बेलन पड़ो है खाली,

खाली चूल्हा, खाली थाली।

कोऊ नई जयोनार बनैया,

मैके गई मोड़न की मइया.....

मोरी कोऊ नै खबर ले भइया

मैके गई मोड़न की मइया.....


कबऊँ हमारे घर आ जइयो.....


कबऊँ हमारे घर आ जइयो,

दिल खों बिन्ना समझा जइयो।

देखबे मोखों प्यास लगी है,

कबऊँ हमारे घर आ जइयो.....

झूला अमवा डार झुलैहें,

किसम किसम ज्यौनार खिबैहें।

आ के दरश दिखा जइयो,

कबऊँ हमारे घर आ जइयो.....।

मेला में हम तुम्हें घुमेहैं,

प्रेम भरे हम गीत सुनेंहैं।

आ के दिल खों बहला जइयो,

कबऊँ हमारे घर आ जइयो.....।

भेजी नहीं कबऊँ खबरिया,

दिल की सूनी है नागरिया।

कबऊँ तो हाल बता जइयो,

कबऊँ हमारे घर आ जइयो.....।


कवि - श्री सुभाष जैन ‘शलभ’

पिता - स्व. सिंघई छेदीलाल जैन

जन्म तिथि -7 जुलाई 1948

शिक्षा - एम.ए.अर्थशास्त्र

विशेष - 7 काव्य संकलनों एवं 6 काव्य संग्रहों का प्रकाशन, जागरण संस्था के संस्थापक

पता - 748, जैन मंदिर के पास, गढ़ा, जबलपुर 482003

फोन नं. - 9329815000


सावन गीत लान्गुरिया


मोरे भइया से कहियो, जाय लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में।


अरी हाँ री लान्गुरिया, बहुत दिनों से देखे नैयाँ,

अब तरसत नैन, हमार लान्गुरिया,

आ जैहंे लिवावन, अब के सावन मंे....।


अरी हाँ री लान्गुरिया, मम्मी पापा खो मोरी प्रणाम कहो,

दादा-दादी की आवै है याद लान्गुरिया,

आ जैहे लिवावन, अब के सावन में...।


अरी हाँ री लान्गुरिया, काहे पठायो परदेश हमें

काहे हमारी न आवै तोकों याद लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में....।


अरी हाँ री लान्गुरिया, गाँवों में सावन के झूले,

सारी सखियों की आवै है याद लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में....।


अरी हाँ री लान्गुरिया, बरसों से भीगे नैंयाँ सावन में,

मोहे मइया की आवै है याद लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में....।


अरी हाँ री लान्गुरिया, काहे खों इतने कठोर भये,

लेके राखी तकूं तोरी बाट लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में....।


अरी हाँ री लान्गुरिया, सावन जो मुश्किल से कटै,

रोके रुकती न अंसुअन धार लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में ...।


अरी हाँ री लान्गुरिया, भेज रही हूं रक्षा सूत्र तुम्हें,

इसमे है बहिना का प्यार लान्गुरिया,

आ जैहें लिवावन, अब के सावन में....।


रक्षक कोई दिखत नईयाँ......


मोहे, देखत चैन पड़त नईंयाँ।

जा दुनियाँ खें गोल कहत हैं, ढूढ़त गैल मिलत र्नइंयाँ।

ये दुनियाँ में का का हो रओ, काहू खें कोई खबर र्नइंयाँ।

कहत देश में बेकारी है, ढूढ़ें बनिहार मिलत र्नइंयाँ।

देश में सब नाकारा हो रहे, कोई काम करत नईयाँ।

बाबू सबरे अफसर हो गये, अफसर देखो तो सब सो रहे।

जौ लौ उनकी जेब न भरहौ, तौ लौ काम होत नईंयाँ।।

भ्रष्टाचारी, चोर बजारी, के बिन पेट भरत नईंयाँ।

इमली की खोखट गौशाला, और करिया नाग जपै माला।।

चाहे करियो लाख जतन तुम, ऐसो कहूँ होत नईंयाँ।

नाक बढ़ा लई बीता भर की, ईन खें तनक शरम र्नइंयाँ।।

देश बड़ो है गाँव खें देखो, गाँव छोड़ खें घरखों देखो।

घर खों क्या, जरा खुद खों देखो, चोखो कोई दिखत र्नइंयाँ।।

मर्दों खें नाहर सी दौडे़ं, लै खें झाडू घर-घर तोड़ें।

जबसे इनको राज भओ है, मर्दों की चलतै नईंयाँ।।

बिन राजा की फौज है सारी, जैसें सबरी है बरबादी।

चोरइ चोर दिखाएं सबरे, रखवारो कोई दिखत नईंयाँ।।

रक्षक सबरे भक्षक हो गये, रक्षक कोई दिखत नईंयाँ।

मोहे देखत चैन पड़त नईयाँ।।


शलभ के सवैये


मीत बिना दिन, कैसे कटे,

अरू रात की बात को कौन सुनावै।

यादों के साथ, जियें कब लौ,

अरे बेहतर जासें, तो है मर जावै।

बैरन सी. तनहाई लगै,

मनमीत खों आकर, को समझावै।

अब काहे को दूर, खड़ी सजनी ,

आके काहे न प्रीत, की रीत निभावै।।


लगता है जवानी, को भूत चढ़ो,

अब लौ वो बसंत, न भूलेहि लाला।

याद पुरानी खों ताजा करौ तुम।

चाहे जहाँ मिल जावत लाला।।

अवसर देख के बात करौ तुम,

नातर फिर पछतावहु लाला।

कब्र में जे लटके पग हैं,

कछु उम्र को ख्याल करौ तुम लाला।।


तुलसी सम काहे, को पीछे पड़े,

दिन रात तुम्हें, बस ये ही सुहावै।

जग में कछू, और भी काम करो,

तुम खों तो पिया, बस प्यार दिखावै।

मोंड़ा और मोंड़ी भी, सियाने भये,

बड़े वो हो पिया, कछु शर्म न आवै।

मै भी राह तकूं, अब तोरी पिया,

बिन तोरे पिया, कछु नाहिं सुहावै।


शलभ की कुण्डलियाँ


नेता की पहिचान का, का ओ की औकात,

काम-धाम नें कछु करै, करै बहुत जे बात।

करें बहुत जे बात, काँध झोला लटकावे,

अरे मरें हजारों लोग, तुम्हें हम कैसे बतावें।

कहे ‘शलभ’ कविराय, दिखत बगुला सो श्वेता,

इस युग का अभिशाप, एक है तो बस नेता।।


अच्छाई के सामने, गई बुराई हार,

मना रहे हैं हम सभी, होली को त्यौहार।

होली को त्योहार, साल भर में हैं आने,

मान भी जाओ यार, अबै लौ काये रिसाने।

कहें ‘शलभ’ कविराय, इसी मैं आज भलाई,

छोड़ो बैर-विरोध करौ जा में अच्छाई।।


पाबंदी के बाद भी, सब मस्ती में चूर,

ठर्रा हो या भंग का, सब पै आज सरूर।

सबपे पै आज सरूर, छाओ है ऐसो भैया,

लंगड़ा-लूला भी नचें, देखो ता-ता थैया।

कहें ‘शलभ’ कविराय करी थी नाकाबंदी,

पीने पर क्या आप, लगा पाए पाबन्दी।।


दारूखोरी के लिये, करते चंदा आज,

बाप ने मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज।

बेटा तीरंदाज, तीर तरकश में नैयाँ,

जबरईं रौब जमाए, घरों मे आके सैयाँ ।

कहें ‘शलभ’ कविराय, करत फिरहें वरजोरी,

दारूखाने बंद, मिटी न दारूखोरी।।


मामा सोवें रात में, तो ऐसे गुर्राएँ,

माईं झट्टे सें उठें, और बाहर भग जाएँ।

और बाहर भग जाएँ, शोरगुल खूब मचावें,

भैंस रही पगराय, पडे़ हम बीन बजावे।

कहें ‘शलभ’ कविराय, चीखते जैसे गामा,

क्यों नाहक चिल्लाय, माईं से पूछें मामा।

कवि - श्री सलपनाथ यादव ‘प्रेम’

पिता - स्व. राजाराम यादव

जन्म तिथि -3 फरवरी 1949

शिक्षा - बी.ए.एल.एल.बी.

विशेष - काव्य संग्रह किलकारी, अनुराग, धरती की धरोहर (कहानी संग्रह), अनेक संस्थाओं से सम्मानित

पता - 2451, आदर्श भवन, अनुराग मार्ग, गांधी नगर,न्यू कंचनपुर, अधारताल, जबलपुर

मो. नं. - 09302189724, 09300128144

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा का का हो रव थाने में


एक हजार रुपया लग गए, मोरे रपट लिखाने में ।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


देश भक्ति को बोर्ड लगो है, लिखी उतई है जनसेवा,

बालाओं की अस्मत लूटैं, इनसें डर रये दई देवा

डरन के मारे मैं तो मरगओ, लागे शरम बताने में।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


नें मैं लबरी कभूं कहत हों, भोगो जो मैं ओई कहत हों,

लओ रूपइया तबौ बिठालव, रोंके तोसे कई डरत हैं,

बड़ो जुलम भव मोरे संगे, इतनों नये जमाने में।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


कई जनों खों दर बइठा दव, चलबो फिरबो सबइ छुड़ा दव,

कितनन से संसार छुड़ा दव, मार-मार के सरग पठा दव,

सबइ दिना बे दारू पीएँ, बैठ-बैठ मयखाने में।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


जेखों चाहें बंद करें बे, जेखों चाहे बरी करें बे,

जेखों चाहें पुलिस बनायें, जेखों चाहें अंत करे बे,

पहरेदारी पुलिस करावें, सुनियो जुआँ खाने में।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


हाथ तोड़ दव गोडे़ तोडे, रुपया लेकें मुजरिम छोड़े,

जेकों चाहे जा घर घेरो, सज्जन खां वे कभऊँ नें छोड़े।।

‘प्रेम’ कहे बे गाली बकते, सच-सच बात बताने में।

सुनियो दद्दा, सुनियो वीरा, का का हो रओ थाने में......।।


आफत हो गई दूनी, सैइयाँ मिले परचूनी..


आफत हो गई दूनी,

मोहे सैइयाँ मिले परचूनी।


उठि भुन्सारे खोलूं दुकनिया,

ग्राहक आएं बेचूं समनिया।

साँची मैं ही करों बोहनी,

आफत हो गई दूनी, सैइयाँ मिले परचूनी......।।


लागी नजरिया बजरिया में,

काँटा सो लागे बढनिया में।

सैइयाँ बिना सेज सूनी,

आफत हो गई दूनी, सैइयाँ मिले परचूनी....


मिर्ची, धनिया, हल्दी बिचाय रई,

फुर्सत मैं तो तिपाई बिछाय रई,

मोरे बलमा लगा बैठे धूनी।

आफत हो गई दूनी, सैइयाँ मिले परचूनी.....।।


कंगना बचोना, चूड़ी बची ना,

कंगा बचो ना चोटी बची ना,

अल्ता बचो है नाखूनी।

आफत हो गई दूनी,सैइयाँ मिले परचूनी....।।


लालच मेंये चलाती दुकनिया,

घूमूं इते-उते जैसे मथनिया,

‘प्रेम’ की तो आदत बातूनी।

मोरी आफत हो गई दूनी, सैइयाँ मिले परचूनी.....।।


दरिया लगत नइयाँ नोनी.....


दरिया लगत नइयाँ नोनी।

सैइयाँ मँगा दो सलोनी।।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....


रोटी कच्ची मोटी बन गई।

बा धुआँ में कारी पर गई।।

दार खाऊँ कैसे अलोनी।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....।।


खेतों में नींढा उग गओ है।

नींढा से मन ऊब गयो है।।

फिर जाना है करबे निदांेनी।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....।।


मुर्गा बोलो मैं उठ बैठी।

खटिया उठाखें टिकाई पछेठी।।

मौं धोके मैंने करी दतोनी।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....।।


हर बाली में दाना निपस गये।

मसुरी-बटरा खेतों में पक गये।।

अब तो लगा दई कटोनी।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....।।


मेहनत करी मैंने खेतों में जाकें।

ऐसो करो मैंने तोय बताके।।

सूरत भई जा ‘प्रेम’ रोनी।

दरिया लगत नइयाँ नोनी....।।


दद्दा लरका कों पुचकारे,,....


दद्दा लरका कों पुचकारे.......

ई मोडी से ब्याह करारे।


रोटी पकी पकाई मिलहै,

तोय सुघर लुगाई मिलहै।

गूंगी हैगी बोल-बता रे ?

ई मोड़ी से ब्याह करारे।।


घर के द्वारे खोल तें सकहे,

मन के द्वारे बंद वो रख है।

लड़की नइयाँ काम बना रे,

ई मोड़ी से ब्याह करारे।।


सुनती नें वो कितनों टेरो,

पैसा मिलहे बेटा ढेरों।

देखेगी ने पता लगा रे,

ई मोड़ी से ब्याह करारे।।


हाथ ने ओखें-पाँव नें आँखें,

पेट-पीठ दोऊ नें ओखें।

आँखें उसे तैईं लड़ा रै,

ई मोड़ी से ब्याह करारे।।


कम्मर गर्दन ओकी नइयाँ,

‘प्रेम’ ने केदई कच्छू नइयाँ।

ऊखों तेंईं ले अपना रे,

ई मोड़ी से ब्याह करारे।।

कवि - श्रीमती छाया त्रिवेदी

पति - श्री उमेश त्रिवेदी

जन्म तिथि - 21 मई 1949

शिक्षा - एम.ए., बी.एड.एल.एल.बी.

विशेष - गद्य-पद्य में यशोदा हार गई, मन एक तारा मन एक बनजारा, जुबेदा खाला की खीर एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

मो. - 09479644909


मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया....


मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया।

लाड़ो रानी को पढ़वे भिजवा दो पिया।।


उके वीरा गये, उकी गुईयाँ गईं,

गाँव-पुरवा की सबरी बिटियाँ गईं,

उनखों देख के मोड़ी को ललचे जिया।

मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया.......।।


स्कूल में पुस्तक मिले,बस्ता सोई मिले,

संगे भोजन मिले और साइकिल मिले,

नौनी आदत बहिनजी सिखाये पिया।

मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया.......।।


उतें योगा सिखायें, कम्पूटर सिखायें,

खेल-कूदन के संगे जीवो सिखायें,

साफ सफाई बहनजी, सिखायें पिया।

मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया.......।।


ज्ञान विज्ञान की सारी बातें सिखाये,

तरक्की की सीढ़ी पे बढ़वो सिखाये,

मोड़ी को जीवन उजरो हो जाये पिया।

मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया.......।।

मोरे मन में भी इच्छा आई पिया,

मोड़ी संगे मैं स्कूल जाऊँं पिया,

मोरी मोड़ी को शाला भिजवा दो पिया।

लाड़ो रानी को पढ़वे भिजवा दो पिया......।।


गुइयाँ बुंदेली से कर लो प्यार .....


सबई के मन में एकई बात,

बुंदेली से कर लो प्यार।

गुईंयाँ बुंदेली से कर लो प्यार....


बुंदेलखंड है गहरो सागर,

बुंदेली की भरी है गागर।

बुंदेली में नोंनी बात,

गुईंयाँ बुंदेली से कर लो प्यार......


आल्हा ऊदल भये महान,

छत्रसाल की नोंनी शान।

बुंदेली को बढ़ गओ मान।

गुईंयाँ बुंदेली से कर लो प्यार....


ऊँचें परवत शारदा मैया,

अमरकंटक से नरबदा मैया।

मैया की होवे जय जयकार,

गुईंयाँ बुंदेली से कर लो प्यार.....


बुंदेली के कवि निराले,

कानों में अमृत रस डाले।

अमर बेल सी बढ़े बुंदेली,

गुईंयाँ बुंदेली से कर लो प्यार....


मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया....


मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया।

लंदन पैरिस की सैर करवा दो पिया।।


मोखों हार नें लाओ, मोहे बंुदिया नें लाओ।

मोखों कंगना नें लाओ, मोहें मुंदरी नें लाओ।।

फैशन वालो वो चश्मा दिलवा दो पिया।

मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया...।।


मोखों कजरा नें लाओ, मोहे गजरा नें लाओ।

मोखों ईंगुर नें लाओ, मोहे टिकुली नें लाओ।।

फैशन वाले वो बाल ,क्टवा दो पिया।

मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया...।।


मोखों पायल नें लाओ, मोखों बिछुआ ने लाओ।

मोखों महावर नें लाओ, मोखों लच्छे नें लाओ।।

ऊँची ऐड़ी की सेंडिल, दिलवा दो पिया।

मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया...।।


मोरी गुईंयाँ विदेशन में घूमे पिया।

उनखों देख के मोरो जरे है जिया।।

लंदन पैरिस की सैर करवा दो पिया।

मोरी इतनी अरज सुन लीजो पिया...।।

कवि - श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव

पिता - स्व. श्री प्रेमशंकर श्रीवास्तव

जन्म तिथि - 9 मई 1951

शिक्षा - एम.ए. बी.एड.

विशेष - कृति, मन का साकेत, गीत नवगीत, संवेदना के गीत, “शब्द वर्तमान” नवगीत संग्रह, महाकौशल प्रान्त की 100 प्रतिनिधि रचनाएँ संपादन समवेत संकलन, समकालीन गीतकोश - संपादन- नचिकेता

पता - 1641, जयनगर, यादव कालोनी, जबलपुर.

मो.नं. - 9303939890


सूखे विरवा कैसे सींचें......


सूखे विरवा कैसे सींचें,

पानी नहीं बचो आँखों में ।


गर्राहट में ऐसे भूले,

याद रहे ने बाप मतारी।

बेपेंदी के लोटा हो गए,

लुड़कत खात फिरत हैं गारी।।


फेर कै पानी उम्मीदों पे,

ढूँढ़ रहे तिलगा राखों में।


पढ़े लिखे मूरख ही ठहरे,

समझदार को ढोंग हैं पालें।

एकउ काम नें आई हिकमत,

खिंचवा के बैठे हैं खालें।।


तो सुई शान बघारत फिर रए,

करजा लादे मूडे़ लाखों में।

बेंच खाई सब लाज शरम,

फैसन में डूबे फिरें उघारे।

बड़े बूढ़न की धोकें जर से।

बदनामी में नाव उछारें।।

बँदरा जैसे लगें नकलची,

ठाँड़े खुजा रहे काँखों में।

बच ने पाहें भ्रष्टाचारी..(बुंदेली गजल)


बच ने पाहें भ्रष्टाचारी, कर लो जो करने हैं।

याद आ जेंहें बाप मतारी, कर लो जो करने हैं।।


उचक रहे थे कल तक जो बे, अब फंदे में आये।

बनत फिरत थे बड़े शिकारी, कर लो जो करने हैं।।


रिश्वत को बाजार गरम है..(बुंदेली गजल)


रिश्वत को बाजार गरम है।

उतईं जितै सरकार नरम है।।


रामई जाने का हू है जब।

सबको भ्रष्टाचार करम है।।


लाज हती सो बेंच खाई सब।

दईमारी लाचार शरम है।।


भों पसार हो रही दंडवत।

चमचों की भरमार चरम है।।


छप्पन भोग लगा कै कह रए।

भूखों को उद्धार धरम है।।


बगिया-बगिया महक रही है ...


बगिया-बगिया महक रही है, लहके क्यारी क्यारी।

तनक और मेरे मालिक, करियो तुम रखबारी।।


अभे दुधमुँहीं मोरी फसलें, मौसम से अनजानी।

ढोर बछेरू रोंद ने जावें, आँखों की निगरानी।।


आँचर में दुलराए सपने, जा धरती महतारी।

बगिया-बगिया महक रही है, लहके क्यारी-क्यारी...


जित्ती मोरे पास जमा थी, पूँजी दाँवों पे लगाई।

बाँटे झोरी भर भर के सुख, झेली पीर पराई।।


पलभर के उजयारे मद्धे,चुनी रैन अँधियारी।

बगिया-बगिया महक रही है, लहके क्यारी-क्यारी...


जब पक जेंहें मोरी फसलें, नरियल धूप चढे़हों।

पूनो और अमाउस खों मैं, घर में कथा करेहों।।


लँहगा फरिया लै के आहों, माता मैहर बारी।

बगिया-बगिया महक रही है, लहके क्यारी-क्यारी...


आँखें सेंत रहीं हैं सपने, आसा बाट निहारे।

घर की मँगरी ऊपर बैठो, कौआ सगुन उचारे।।


दो सालों से कँकना काजे, मचली है घरबारी।

बगिया-बगिया महक रही है, लहके क्यारी-क्यारी...

कवि - श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’

पिता - स्व. रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’’

जन्म तिथि - 16 अगस्त 1951

शिक्षा - एम. काम.

विशेष - क्रांति समर्पण, याद तुम्हें मैं आऊँगा, एक पाव की जिन्दगी, संवेदनाओं के स्वर (गद्य-पद्य) विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन, टोरेन्टो (कनाडा) कार्यक्रमों में सहभागिता। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में रचनाओं की प्रस्तुति।

पता - 58, ‘आशीषदीप’ उत्तर मिलौनीगंज, जबलपुर 482 002

मो. - 9425862550


पश्चिम हवा चली जा ऐसी....


पश्चिम हवा चली जा ऐसी, ईनें सबकी नींद उड़ा दई।

नाते रिश्ते सबरे खो रये, घर आँगन की लाज लुटा दई।।


दादी कहत रहत तीं कबसे, बेटा बहू से हर दिन भैया।

मोड़ा-मोड़ी बड़े हो गये, फैशन में नें डूबो भैया।।


कपड़ों को अकाल पड़ो नें, बित्ता भर कपड़ा पैना रये।

गली सड़क में आँखें घूरें, काये बुरी नजर लगवा रये।।


दादी के पिरवचन खों सुनखें,घर के मुखिया मुँह बिदका गये।

मोड़ों खों तो बोल्ड बनावे, दद्दा खों भी आँख दिखा गये।।


मोड़न खों मोबाइल थमा के, नाक खों अपनी ऊँची कर गये।

चोरी छिपे फिल्म खों देखें, सरे राह में नाक कटा गये।।


शैतानी आँखन में बस गई, मन से सबरे दूषित हो गये।

हवा बेशर्मी ऐसी बै रई, रिश्ते नाते डूब खें मर गये।।


कैंडल मार्च से कच्छू नइयाँ, फोटो खों जबरईं खिचवा रये।

राजनीति के लोग लुगाईं, सत्ता खों ऊँसई भरमा रये।।


सड़कों पे चलवे की खतिर,,नियम कायदे सोई बने हैं।

ऊँसे हटके अगर चले तो,जोखिम सोई बड़े खड़े हैं।।


हर जुग में तो राम के संगे, रावण भी पैदा होतई हैं।

मरजादा के संगे बढ़ हो,तभई राम भी रक्षा कर हैं।।


वातावरण बनाने मिल खें,मन में जब उजियारो भर हो।

जो अंधियारो जबई तो भग है, तबई सड़क पर निर्भय चल हो।।


सबई के दिल में राम बसत हैं.....


सबई के दिल में राम बसत हैं, मन में रावण सोई रहत है।

जीने जीसे नेह बढ़ा लओ, ऊको दिल में राज चलत है।।


ऊँसई मन बौरात फिरत है, इन्द्रियन खों उकसात फिरत है।

जीने ऊपै गाड़ो झंडा, नोंनों जीवन सोइ जियत हैं।।


संस्कार ऐसो बिरवा है, ऊसे फल तो खूब मिलत है।

जीने दिल में रोप लओ है, सबई दिलों में राज करत है।।


बचपन जो अनमोल रहत है, कुम्भकार आकार गढ़त है।

जैंसो साँचन में तुम ढालो, ऊँसई ऊको रूप ढलत है।।


राम के संगे रिश्तो जुड़ है, दुख पीड़ा सब दूर भगत हैं।

जब रावण की लंका जरने, सच्चो सुख तो तबई मिलत है।।


बुंदेली धरती जा न्यारी........


जा बुंदेली धरती न्यारी, हिन्दुस्ताँ खें बहुतइ प्यारी।

देशप्रेम रग-रग में ईके, आजादी की, की रखवारी।।


ई धरती की माटी ऐसी, बड़े-बड़े जोधा हैं हारे।

रन में कौनउँ टिके हैं नइयाँ, उलटइ पैर भगे हैं सारे।।


आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया, कभऊँ हार नें मानीं।

बावन गढ़खों जीत कै भैया, गढ़ दई नई कहानीं।।


छत्रसाल महाराजाजू ने, सीमा खूब बढ़ा लई।

औरंगजेब से जोधा तकखों, उन्नें धूल चटा दई।।


वीरांगनाएँ रहीं नें पाँछे, देश की शान बढ़ा गईं।

मुगलन बारी आनबान बा, दुरगावती घटा गईं।।


रानी लक्ष्मीबाई सांचऊँ, जग में खूबई छा गईं।

अंग्रेजन खों छकाखें उन्नें, नानी याद दिला गई।।


कौनउँ भेदनें नर-नारन में, सबईकी शान निराली।

आजादी की फुलबगिया के, सबइ बने हैं माली।।


बुंदेलखंड की धरा गजब की, झरना नदी पहाड़।

मुनईंयाँ सी हरयाली बिखरी, गूँजे सिंह दहाड़।।


बुंदेली बोली के भीतर......


बुंदेली बोली के भीतर, ऐसी भरी मिठास।

रसगुल्ला सीरा में डूबो, बनी मिठाई खास।।


मुनईंयाँ सी मोहे है मनखों, सबइ खों आवे रास।

लोगन खोंतो बहुतइ भावै, रसयानों परिहास।।


साहित्त संस्कृति और सम्पदा, कण-कण बसो अपार।

लोकगीत संगीत भरो है, जी को नइयाँ पार।।


बैजूबावरा, तानसेन जू, और गुरु हरिदास।

कौनउँ इनसे बड़े हैं नइयाँ, जो दिख जावे खास।।


कलमकार तो भरे पड़े हैं, नों रस के अनमोल।

सबरे जग में धूम मचा दइ, गूँज रये हैं बोल।।


रहीम, बिहारी, बलभद्रमिसरजू, हरिराम जू ब्यास।

छत्रसाल महाराज खुदइ तो, कवियन में हैं खास।।


जगनिक, ईसुरी, विष्णुदासजू, मधुकर से अनमोल।

भूषण,मैथिलीशरण गुप्त जू, इनको नइयाँ मोल।।


वृन्दावन उर चंद्रसखी संग, भये हैं गोविन्दास।

गंगाधर उर ख्यालीराम से, लोककवि रये खास।।


रीति शृंगार काव्य को झरना, सबखों लागे नोंनों।

केशवदास और पद्माकर, नइयाँ इन सों कोंनों।।


तुलसी, कबिरा की बानी नें, दओ जगत खों ग्यान।

भक्ति प्रेम की जोत जला दइ, हटा दओ अग्यान।।


बुंदेलखंड की माटी खों रे, माथे तिलक लगा लो।

बारम्बार जनम खें लाने, ईसुर सें लिखवा लो।।

तीन रंग को झंडा ऊँचो.......(बुंदेली)


तीन रंग को झंडा ऊँचो, जगह जगह फैरा रये।

लोग-लुगाई खुशी हो रये, फूले नईं समा रये।।


सैंतालिस सें आज तलक हम, आजादी मेंजी रये।

आजादी से साँस लै रये, हर अमरित खोंपी रये।।


बरसों बरस कष्ट हैं भोगे, जी को नइयाँ पार।

काला-पानी,फाँसी-फंदा, संग कोड़न की मार।।


अत्याचार सबई ने झेले, की को करें बखान।

कलमकार खुबइ हैं लिखगये, बन गये कइ पुरान।।


कबऊँ शहीदन खेंने भूलें, उननें फाँसी चूमी।

जीवनअर्पन करदओ उनने, जागी भारत भूमी।।


चंदशेखर आजाद भगत ने, क्रांति मशालें थामीं।

सुभाषचंद,सावरकरजू ने, तोड़ीं साँप की बामीं।।


गाँधीजू ने आन्दोलन कर, पूरो देश जगा दओ।

अंग्रेजन खों परेशान कर, घर से उनें भगा दओ।।


तीन रंग को झंडा प्यारो, ऊपर रंग केसरिया।

बलिदानों की याद कराती,शौर्य की गाथा भैया।।


श्वेत रंग जो बीच बसो है, प्रेम शांति को भैया।

प्रगति चक्र को चिन्ह उकेरो, यहीहै देश खिवैया।।


नेंचे रंग हरीरो छाओ, जींसें रौनक पाली ।

फहरायें हम झंडा ऐसो, सदा रहे खुशहाली।।


ई में देश समाओ भैया, नतमस्तक अभिनंदन।

आओ सबइ जनें फहरायें, करें राष्ट्र का वंदन।।

कवि - श्री सुशील श्रीवास्तव

शिक्षा - एम. काम.

विशेष - प्रेरणा, वर्तिका एवं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशन एवं सम्पादन, जागरण संस्था के अध्यक्ष एवं नगर की अनेक संस्थाओं से संबद्वता, गायन अभिरुचि

पता - ‘‘हरसिद्ध विला’’ 100, पूर्वी करियापाथर, विनोबा भावे वार्ड, जबलपुर 482 001


जिंदगी


सुरजावों कित्तो चाओ, पे जे कबऊँ नें सुरज पाई।

जीवन डोरी ऐसी उरझी, ठूंढ़े मिले ने सिरो जेको।।


नें कर हिय में आस काऊकी, रीत एई ए दुनिया की।

अपनों अपनों सबई सोचें, को खें होत है दुख कोउ को।।


जबे दुनिया खुश होउत है, हिय संदके संदके रोउत है।

कोनऊँ ऐंसो संगी होतो, हाल हवाल लेतो हिय को।।


मरबे की हम आस में जी रयें, जीबे की जब आस नरईं।

जीते जी बो सुई ने आओ, सपनो देखों तो जे को।।


सांची सांची


बखत पे गर कोऊ ने संभरे।

बखत की चोट सोई जरुरी है।।


गर भरम कोऊ पाल रक्खो हे।

आँखें खुलबों सोई जरुरी है।।


याद गर कोऊ कर रओ हे तोय।

आँख फड़कबो सोई जरुरी है।।


याद गर कोऊ आ रओ हे तोय।

दिल धड़कबो सोई जरुरी है।।


दूर गर तोसें जा रओ हे कोऊ।

आँख भरबो सोई जरुरी है।।


प्यार गर हो गओ जमाने से।

दिल को टूटबो सोई जरुरी है।।


बीज नफरत के नें बोइओ कोई।

दोस्ती बैरी सें सोई जरुरी है।।


तुमायें बिना


अखियों से जबसे हमरे, रिस्ते बिगर गए।

होतई नईयाँ सुबह हमाई, तुमाओं नाँव लये बगैर।।


मान लई कि बगिया में फूल, खिले हैं हजारों हजार।

आतई कहाँ है खुशबू बिनमें, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


मानत हैं हमने जमाने में, काम करे हैं बोहोत।

पहचानत है कौन हमें मगर, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


याद तो करत हैं रोज हम, भगवान खें बार बार।

बनत कहाँ है काम गुरु, तुमाओं नाँव लये बगैर।।


करीं थीं कई बेर कोशिशें, मंजिल नईं मिली।

मिलि ने कोऊ सफलता अम्मा, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


पड़त है जब मुसीबत कोऊ, आत हो याद तुम।

सूझै नें कोऊ रास्ता दद्दा, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


खड़ी है जा घर गृहस्थी बस, बिनई की दम पै।

आये ने कोऊ बरक्कत भौजी, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


आन पड़त है बोझ जब भी, कंधों पे नओ नओ।

हिम्मत र्नइं जुटत है भैया, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


राखी को हो त्यौहार, और बा घर पे नें हो।

त्यौहार, त्यौहार ने लगे हैं बिन्ना, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


मान लई कि बा खुश है, ससुराल में बोहोत।

जो दिल कहाँ मानत है बिटिया, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


कितनउ उमदा घर हों, महल हों और हों चैबारे।

महकत कहाँ है बगिया बच्चों, तुमाओ नाँव लये बगैर।।


चकल्लस


धोखे में दिल की चोट उनखें दिखा दई

बिनने हमाये घाव में मिर्ची भुरक दई ।।


फूलों की बड़ी चाहत लये फिरत ते हम

लोगों ने उल्टी सीधी बातें सिखा दई ।।


चले थे हम सींचबे खेती जा प्यार की

लोगों ने हमसे खेत में नफरत बोआ दई ।।


आत थीं वे खूबई सपने में रात दिन

सांची में जो आईं सामने, बत्ती गुल हो गई ।।


भेजो तो बिनखें सीखबें कछु नओ नओ

लौट के हमरो बेई, पानी उतार गईं ।।


इक दिन भई जा गल्ती, गाये ने गीत बिनके

बे भुकर के हमसे, मयके चली गईं ।।


मरे तो जा रहे थे कराबे खें ब्याव अपनो

ब्याव के बाद सबरी, “शेखी निकर गई ।।


कमा कमा के रक्खों थो खूबई रात दिन

आई जब मौत सामने, बोलती बंद हो गई ।।


कवि - श्री विजय तिवारी ‘किसलय’

पिता - स्व. श्री सूरज प्रसाद तिवारी

जन्मतिथि - 5 फरवरी 1958

शिक्षा - एम.ए. पी.जी. डिप्लोमा उन जर्नलिज्म

विशेष - काव्यकृति ‘किसलय के सुमन काव्य’, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन एवं सम्पादन, पत्रकारिता, समीक्षक एवं वर्तिका संस्था के अध्यक्ष

पता - ‘‘विसुलोक’’, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, जबलपुर

मो. - 09425325353


आँगे बढ़तई रहियो


तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।

जा धरती खों स्वरग बनईयो मोरे भईया।


खेती से सारी, दुनियाँ चलत है,

कौन कहत जा, बात गलत है,

कोउ की बातन में नें अईयो मोरे भईया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।।


अच्छे किसम के, बीज उगईयो,

नई मशीनन, खों अपनईयो,

खूबई फसलें पैदा करियो मोरे भईया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।।


नदी-नहर सें, पानी लईयो,

खाद-रसायन, पौधन में दईयो,

अपने खेतन खों लहरईयो मोरे भईया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।।


रोज बहा तन,-वदन पसीना,

बने धरा के, असल नगीना,

अपने श्रम सें नें कतईयो मोरे भईया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।।


खेतन में श्रम, करबे बारे,

जा माटी के, पूत प्यारे,

हर घर खुशियों से भर दईयो मोरे भैया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।।

श्रम के साधक, श्रम के आदी,

तुम्हरी दुनियाँ, सीधी-सादी,

अपने श्रम की कला बतईयो मोरे भईया।

तुम सब आँगे बढ़तई रहियो मोरे भईया।

जा धरती खों स्वरग बनईयो मोरे भईया।।


बुन्देली दोहे


फटी फतूही, परदनी, चलते नंगे पाँव।

जब तुम इनखें पूछहो, तभई सुधरहें गाँव।।

पढ़ा-लिखा जिन्नें हमें, गढ़ो काम के जोग।

करहें ने उनके बिना, भले हो छप्पन भोग।।

ए खें, ओ खों, छोड़ खें, खुद खों भी तो देख।

किस्मत में कित्तो बदो, भले-बुरे को लेख।।

भर बसकारे सींड़ में, सकरा-कुकरी होय।

खपरों सें पानी चुँये, मनखे कैसे सोय।।

उरिया से भर बालटी, भैया उन्हाँ धोय।

सपरखोर चूल्हे ढिंगा, जिज्जी रोटी पोय।।

भींगें सब बौझेर सें, कोठा, परछी, दोर।

अड़चन बेजई बढ़े जब, बाव चले झकझोर।।

बारी को छेंका खुलो, घुस गए डंगर-ढोर।

खड़ी फसल चैपट भई, किस्मत पे नई जोर।।

फाके जब तब पडत हें, बचो नें घर में अन्न।

भोर, दुफेरी, रात तक, रहें जे दरुए टन्न।।

खेतन में तन पेर खें, पैदा करें अनाज।

व्यापारी पेटी भरें, कृषक चुकाएँ ब्याज।।

बदरा बस बदरात हैं, बरसाउत नें नीर।

भासे, फिर देहे दई, सब कृषकों खों पीर।।

उघरे तन श्रम जे करें, गोड़े-हाँत भिड़ायँ।

बेचें अपनी चीज तो, कीमत सही नें पायँ।।

बिथा सुनाएँ गाँव की, सबई करें उपहास।

चलो एक दिन देखबे, हो जेहे बिसवास।।

बिरथा धुनके बरदिया, जबरई को अपराध।

बीच-बिचारो का करो, गरे लिपट गई ब्याध।।

पेट पीठ से चिपक रओ, दुबरे, पिचके गाल।

भूख-गरीबी नें इन्हें, बना दओ कंकाल।।

दोंना, पत्तल, पंगते, गारी, गम्मत, फाग।

पगडंडी, पनघट, नदी, जेइ गाँव के भाग।।


उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर नें खो दें


जे नेता लोभी उर अंधे, चला रयै सब गोरख धंधे,

बेशरमी खों लादन बारे, ऐसे इन सबरों के कंधे,

छोड़ धरम-ईमान, नीर बिन नाव डुबो दें।

उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर नें खो दें।।


सालों से जा देखत हो गए, सब सड़कन के धुर्रे उड़ गये,

गिरत-भिड़त गाड़ी, नर-नारी, अंजर-पंजर टूटत जुड़ रये,

अब नें लेंहें चैन, तुम्हारी नींद उड़ो दें।

उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर नें खो दें।।


बारिश में कीचड़ की होरी, सब सह रई जा जनता भोरी,

जब तक जे ने खुदई भिड़ेहें , काय समझहें अपनी खोरी,

दिखें इन्हें हालात, हम इनकी आँखें धो दें।

उखड़ी सड़कें देख , कहीं जन धीर ने खो दें।।


अब तो रेलमपेल मचत है, चाहे जब-तब जाम लगत है,

घर दफ्तर खों देरी होवे, दोई तरफउँ डाँट परत है,

जे नेता बेईमान, माथे गुदना गोदें।

उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर ने खो दें।।

अफ्सर कोउ देखत नईयाँ, लगें उपट्टा सबकी पईंयाँ,

चार कदम बे चल नें पाहें, लेंनें परहे उनखों कईंयाँ,

देख सड़क के हाल, खुद खों लगहे रो दें।

उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर ने खो दें।।


सड़कें लगें नरक की सैर , मँजा रहे जैसे जे बैर,

जनता भड़के ऊ से पहलउँ, बनवा दो जा में है खैर,

उनकी बातें ईख, लगे कोल्हू में पिरों दें।

उखड़ी सड़कें देख, कहीं जन धीर ने खो दें।।


फाग


परिच्छा आई पास में, पढ़बे खों अरे हाँ। रहियो अब तैयार।।

साल भर घूमे, खेले। गए तमाशा देखबे, उर, घूमे सबरे मेले।।


जाऊत हैं उस्कूल में, बनकर जंटलमेन।

अँखियों पे चश्मा चढ़ो रे, रखें नें कापी-पेन।।

परीक्षा आई पास में .....


कौनउँ से नें डरते।

चोरी, झूठ, फरेब सें, अपनन खों भी ठगते।।


पढ़बे की सोचत नईं, जे भए अक्सर फेल।

नासमझी करतई फिरें रे,, जे किस्मत के खेल।।

परिच्छा आई पास में ....


अधबीच पढ़ाई छोड़ी।

फिर इनखों भी नें मिली, पढ़ी-लिखी कोउ मोड़ी।।


अकल ठिकाने लग गई, रहे अँगूठा छाप।

मजदूरी कर जी रहे रे, रहें जे अब चुपचाप।।


परीक्षा आई पास में, पढ़बे खों अरे हाँ -2

रहियो अब तैयार ...


कवि - श्री विजय नेमा ‘‘अनुज’’

पिता - स्व. श्री शंकर लाल नेमा

जन्म तिथि - 1 जुलाई 1956

शिक्षा - बी. काम.

विशेष - संस्थाओं के अनेक काव्य संकलनों का संपादन, एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 24/बी, शंकर कुटी, विवेकानंद वार्ड, जानकी नगर जबलपुर

मो.नं. - 09826506025, 0761-2640769


मोरे घर के खपरा भौजी.......


मोरे घर के खपरा भौजी।

टप-टप चुअन लगें हैं।।

घर के सबरे बरतन भाँड़े।

जाँ ताँ पै उतरान लगे हैं।।

मोरे सइंयाँ घर में नइयाँ।

कीं सें दरद बखानों।।

चूँ रओ घर खें छावै खों।

कोऊ नईं दिखानों।।

घर को छप्पर भओ पुरानों।

काल के गाल समानों।।

ऐ भौजी जो घर को दुखड़ा।

कैंसे जाय बखानों।।

सावन भादों को जो महिना।

मोरो बदन जुड़ानों।।

रात-दिना जे सुरत में डूबे।

नैं कछू लगे सुहानों।।

कारे-कारे बदरा घिर रयै।

संग में बिजुरी चमकै।।

कौनऊँ नइंयाँ संगै भौजी।

जी सैं बतियाँ कर लैं।।

सावन आयो रे......


सावन आयो रे,सावन आयो रे।

सावन आयो रे......


उमड़-घुमड़ कैं कारे बदरा

पानी लाओ रे।

सावन आयो रे......


मेंहदी हाथन बीच रचा कैं

सखियाँ झूला झूलें

पायल पाँव की छन छन बोलें

उड़कें बादल छू लें

पीऊ पीऊ रट रहो पपिहा

शोर मचाओ रे।

सावन आयो रे.....


सर-सर, सर-सर उड़े चुनरिया

बैहर दौड़े सन सन

रिमझिम रिमझिम बरसै पानी

भींचे सबको तन-मन

सबरी सखियाँ राग अलापें

सावन आयो रे.....


बहको-बहको मौसम छाओ

रितु मिलिन की आई

सबरी सखियाँ तीज मनावें

जग हरियाली छाई

जी के पिय परदेश बसे हैं

चिठिया पत्री आई रे

सावन आयो रे.....

कवि - श्री राजेन्द्र मिश्रा

जन्म तिथि - 1 नवम्बर 1951

शिक्षा - एम.काम.,एम.ए.

विशेष - विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 1141-1 गजानन मंदिर के पास, यादव कालोनी, जबलपुर

मो. नं. - 9399841732, 7697530566


निबुआ के बाजार में


गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में


मम्मा आये, र्र्माइं आइं, आ गये भाई भतीजे

झगड़ परे रस्ता में मम्मा, निबुआ के बाजार में

गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में


बड़ी जोर सें भूख लगी तो, बेला में घोरो सतुआ

और सुड़क खें सतुआ पी गये, निबुआ के बाजार में।

गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में।।


आना के सोला नीबुंआ दये, गिनती में थे पन्दरा,

गोरस में नीबुंआ जा टपको, निबुआ के बाजार में।

गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में।।


चार दिनों की चटख चांदनी, फिर इंधियारी रात,

प्राण पखेरू कब उड़ जे हें, निबुआ के बाजार में।

गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में।।


राम नाम की उजरी चादर, हमने खूब सम्हारी,

जानें कब जा मैली हो गयी, निबुआ के बाजार में।

गोरस लैके आ गये कक्का, निबुआ के बाजार में।।


सबकों अपनी राम राम है, हो गयी संझा बेरा,

अपने-अपने धाम निकर गये, नीबंुआ के बाजार में।

गोरस लेकर आ गये कक्का, निबंुआ के बाजार में।।


पंडत जी को गाँव


धरें मुड़ीसो बाबा सो रये, दादा पाँव दबायें,

हर-बखर को काम करें, चार बखत वे खांयें।


बाबा को सब कहना मानत, सब हैं आज्ञाकारी,

है मजाल के नजर मिला के, बात कर जो भारी।


देउर-जेठ सब भाई भतीजे, एकई साथ रहत हैं,

त्यौहारों की पावन गंगा, एकई साथ बहत हैं।


हमरे घर बत्तिस झन हैं, एकई पकत रसोई,

दारभात चुरबे अनमासे, बटुआ और बटलोई।


दादा हमरे पंच प्रमुख हैं, बाबा माल गुजार,

दोनों देवर लठा-पठा से, बन गये थानेदार।


चार गाँव में नाम हमारो, लगत रोज दरबार,

झगड़ा झंझट पंच फैसला, सबको है स्वीकार।


गाँव हमारो जग जाहिर है, जो पंडत जी को गाँव,

घुसबे के पहले मिल जै है, सबको ठंडी छाँव,


राम लखन बिच सिया बिराजी, गदा धरे हनुमान,

पाठ करन को धरी सामने, तुलसी कृत रामान।


संझा बेरा हो गई भैया, अपनों है परनाम।

अपने-अपने घर द्वारे में, प्रस्थान करो श्रीमान।।


गरमी


दो जेठों के बीच पड़ गई,

तपन ताप की गरमी आज।

सूरज को मौं धरती पे है,

सब जगहों लग गई आग।।


ठेठ दुपहरी गोला बरसें,

सबई बिगड़ गये हमरे काज।

कितनों तप है ताप मान अब,

नींद उड़ा दई ऊनंे आज।।


चरा-चिरैय्या सब व्याकुल हैं,

सबरे वृक्ष रहे कुम्हलाय।

बिन पानी सब सूनो-सूनो,

घर की गैया खड़ी रम्हाय।।


दार-चाँवर से मों फेरत हैं,

लपक-लपक के सतुआ खाँय

गुड़ घोर के पना पी गये,

जूठो बेला दओ सरकाय।।


दो-दो बेरा सपर खोर कै,

लगे पसीना पोंछत आयें।

साबुन की बट्टी सब घुर र्गइं,

कपडा लत्ता तबई बसायें।।


खूब-खूब जब गरमी पर है,

तब बारिश अपनी झड़ी लगाये।

राम-भजन भैया तुम कर लो,

हर मौसम के जेई उपाय।।

बरखा रानी


धरती के हाथों में रच गयी, मेहँदी लाल गुलाबी,

फिर पुरवैया झूम के निकली, जैसे चलें शराबी।


दल बादल के रंग बिरंगे, चमक-दमक के बरसे,

ढोल बजाते गाते आये, चंचल मन खों हरषे।


जब बरसे अंगना में बदरा, मधुर-मधुर मन भाये,

चार हाथ चैबीस गज की, धानी चुनर उढ़ाये।


घुटना-घुटना पानी भर गओ, खेतों और खलिहानों में,

कभऊँ ललात थे बूंद-बूंद खों, अब बैठे मंच-मचानो में।


दुल्हन बन गई धरती रानी, ओड़ी हरी चुनरिया,

झूम-झूम के बरखा नाची, पहने पग पायलिया।


बारिश की जब भोर भई, तो मन में हूक जगावे,

कुहू-कुहू बोले कोयलिया, प्यासा मन ललचावे।


जब आषाढ़ की बारिश बरसे, चढ़ी घटा घन घोर,

पी-पी करके बोल पपीहा, नाचे मन का मोर।


श्याम घटा बदरा की छाई, फटो परो आकाश,

कोंध-कोंध के बिजुरी चमकंे, खूब होय बरसात।


पुलकित होती है वसुंधरा, खुशियाँ संग-संग लाती,

अमवां की डाली पे बैठी, कोयल गीत सुनाती।


नव आकाश की किरण जगाती, बरखा रानी आई,

स्वागत के नव पुष्प बिछा दें, धरा आज मुस्काई।

कवि - श्री मोहन ‘शशि’

जन्म तिथि - 1 अप्रेल 1937

विशेष - वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार, मिलन संस्था के सूत्रधार, वल्र्ड यूथ केम्प यूगोस्लाविया में काव्यपाठ पर उदारनिक पदक प्राप्त, लंदन,रोम, पैरिस की यात्राएं, कृतियाँ- सरोज, तलाश एक दाहिने हाथ की, राखी नहीं आई, हत्यारी रात, दुर्गा महिमा, अमिय, बेटे से बेटी भली, एवं जाग बुंदेलाः जगा बुंदेली प्रकाशनाधीन

पता - गली नं. 2, शांति नगर (दमोह नाका) जबलपुर

मो. - 9424658919


‘शशि’ खों सोई ले लो संग.....


नरसंगपुर, पचमढ़ी, पिपरिया ओर हुसंगाबाद,

झांसी, दतिया सुनो ओरछा को माने परसाद।

खजराहो की देख पुतरियां, नचे छतरपुर बारी,

पन्ना, सागर सें दमोह लो, सबमें रिश्तेदारी।

जा जब्बलपुरिया बुन्देली, छिटका रई कछु रंग,

वीर बुन्देलन सें अरजी,‘शशि’ खों सोई ले लो संग।

‘तेरासी’ की डेवढ़ी झांकें, ‘त्रेसठ’ से हुंदरायें,

अपनी बांकी बुंदेली पै, हम तो बलि-बलि जाएं।।


कुछ दोहे


कागद की लेखी नईं, गिरह गहे अरमान।

आंखन देखी कहन में, कबिरा परम सुजान।।

तन कबीर मन साधू सो, तुलसी सो सतसंग।

नामदेव निकसें गरे, जीतो जग की जंग।।

हे कबीर ! हंसा उड़े, छोड़-छाड़ सब गांव।

देखन खों नैं आयंगे, बदनामी ना नांव।।

मरत-मरत मोरी कलम, कबिरा नें थक पाय।

आखर निकरे एक ना, कभउँ अकारथ जाय।।

कबिरा तोरी कहन को,‘शशि’ बस नईं हिसाब।

इक तोरे दोहा तुलीं, मोरी सबइ किताब।।


‘शशि’ की फागें मचीं गलयारे में ....


अरे! साहित्य, कला लला..... ओर संस्कृति के रंग,

इनके बिना तो व्यर्थ रे..... ए जीवन की जंग।

ए जीवन की जंग..... जे जेंसे तीनऊं देवा,

ब्रह्मा, विष्णु ओर रजऊ..... एई महादेवा।

जे महादेवा यार..... ‘शशि’ की फागें मचीं गलयारे में।।


अरे! त्रिवाक, त्रिकाल जे..... मनसा वाचा कर्म,

तंत्र, मंत्र ओर यंत्र जे..... जेई सृजन को धर्म।

जेई सृजन को धर्म.....सुधीजन मंथन करिओ,

नित नए रतन निकार..... खजानो इनको भरिओ।

भरो खजानो यार...‘शशि’ की फागें मचीं गलयारे में।।


अरे! जे जुड़े त्रिकोण सें..... नीर-क्षीर सो संग,

नदी-नाव संजोग रे..... डोरा ओर पतंग।

डोरा ओर पतंग..... रजऊ जे दियरा बाती,

अलग देखहो इन्हें..... सुनो फट जेहे छाती।

फटहे छाती यार.....‘शशि’ की फागें मचीं गलयारे में।।


अरे! शबदन की पिचकारियां..... शबदई रंग अबीर,

शबदई भंग छना रहो..... मोहनलाल अहीर।

मोहनलाल अहीर..... दागबे आओ होरी,

बाबा कह कढ़ जाए..... बगल सें बांकी गोरी।

बांकी छोरी यार.....‘शशि’ की फागें मचीं गलयारे में।।


कवि - श्री सलिल तिवारी

पिता - स्व. श्री परमेश्वर प्रसाद तिवारी

जन्म तिथि - 7 सितम्बर 1960

शिक्षा - विज्ञान स्नातक

विशेष - दो पुस्तकें मुक्तक संग्रह एवं गजल संग्रह अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों एवं मुशायरो में सहभागिता, राष्ट्रीय कवि संगम के प्रांतीय महामंत्री

पता - 1767, श्यामागिरी, पारिजात भवन के पीछे, चेरीताल, जबलपुर

मो. - 9893302253/9407155203


बेमतलब दूकान सजा रए काय खें लाने....


बेमतलब दूकान सजा रए काय खें लाने ।

मुतके लो सामान दिखा रए काय खें लाने ।

जा ग्रुप में भी चिपका दई है बा ग्रुप में भी ।

कविता हैं अखबार बना रए काय खें लाने ।

जाके बाके तरुआ चाटे मंच दिवा दो ।

मंचों पे भए हूट जा रहे काय खें लाने ।

जौन रायता सबई जगह बगरात फिरत हैं ।

बेई हमें अब ज्ञान बता रए काय खें लाने ।


बाहर बब्बर शेर बने से घूमत फिर रए ।

घर में जा के लातें खा रए काय खें लाने ।

नोन चाट के देसी के संग रातें कट रईं ।

अंग्रेजी बोतल दिखला रए काय खें लाने ।

सलिल भी बड्डे जई माटी में पलो बढ़ो है ।

जबरन अपनी शान बता रए काय खें लाने ।

हमसे बड़ो तो शायर कौनो पैदई नईं भओ ।

मौड़ मोड़ियों को समझा रए काय खें लाने ।

काय खें लाने आस रखें इन ओरों से......


काय खें लाने आस रखें इन ओरों से ।

नेता हैं जे कमती नई आएं चोरों से ।

गेल मोहल्ले पट गए ढोर लुटेरों से ।

मोरनी भग रईं नाचवे वारे मोरों से ।

आओ जमानो अब का कैसो बतलाएं ।

बुलबुल फंस रईं कौआ घाईं चकोरों से ।


बऊ दद्दा पे अपनी आंख तरेर रहे ।

लातें खा रए घर के छोरी छोरों से ।

पिए डरे थे हवलदार ने बा कुचरो ।

गांठें उठ रईं तन की इक इक पोरों से ।

देख दुर्दशा बड्डे नए जमाने की ।

सरम के मारे आंसू बह रए कोरों से ।

फूल तो फूल कली भी आस लगाए हैं ।

सलिल घाईं दिलफेंक कलूटे भौरों से ।

कवि - श्रीमती मिथलेथ नायक ‘कमल’

पति - श्री गौरी शंकर नायक

जन्म तिथि - 19 अक्टूबर 1952

शिक्षा - (डबल) एम.ए. खैरागढ़ संगीत

महाविद्यालय से लोकगीत डिप्लोमा

विशेष - कृति बुंदेली लोकगीत भाग 1 एवं 2, नदिया सूखी जो डरीं एवं आकाशवाणी,पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

पता - 839/1480 द्वारका नगर, घमापुर, जबलपुर

मो. - 9300077289


बुंदेले हरदौल लला खौं ......


बुंदेले हरदौल लला खौं, पूजत हैं सब सीस नवाय।

हर गाँवन सहरन मैं भईया, बनैं चैतरा हमैं दिखाय।।

दोनउं भईया बारे हते वे, उठ गई मात-पिता की छाँव।

कुंजावती बैन रई एकई, भरे दुक्ख सै मिली नैं ठांव।।

नामी वीर ओरछा के रयै, राजा जूझारसिंग कहांय।

राज महल कीं मिल रईं खुशियाँ, भौतई चाटुकार जुर जांय।।

भौतई चाव से राज चलत रओ, होत बड़ो आनंद उछाव।

लाला हरदौल हते छोटे सैं, भौजी करतीं सबई उसार।।

दूद, दवाई, कपडा, लत्ता, सपर के बेटा होंय तैयार।

लालन-पालन सबई करत र्रइं, धीरे-धीरें भये हुशियार।।

नौंनौं हो रओ, काल कसाई, देखत नइयाँ बनत वे बात।

दिन खों चैन उनैं नैं आवे, नींद उड़त हैं उनकीं रात।।

राजा के चाली चुगलन नैं, एैंसी एक चली है चाल।

भौजी रईं मताई जैसीं, फिर भी चरित लगाओ दाग।।

भड़के राजा, राज कौ लालच, पानी फिर गओ सब अरमान।

इतनी सुन राजा जुझार नै, सुना दओ अपनों फरमान।।

तुरतई रानी खों बुलवाये, हमरी बात खौं मानों आज।

खीर बना दो जैर मिला खें, देव देवर खौं अपने हाथ।।

इतनी सुनखें रानी कांपी, जौ का कर रये हो भरतार।

कसम दई कायें सुहाग की, मोंसे का बिगरो करतार।।

चिंता में लख भौजाई खें विनय करत बोले हरदौल।

खीर परस दो हमखें माता, नैं तोड़ो भईया की कौल।।

हाथ पकर भौजी के उनने, भोजन करतई गिरे पछार।

अमर भये हरदौल जगत में, ‘कमल’ रूप वे स्वर्ग सिधार।।


नदियां सूखीं जो डरीं


नदियाँ सूखीं जो डरीं, कुइयाँ सूखीं जो परीं,

गुइयाँ जितै हेरिये पनियाँ, दुनियाँ आगी सी तपीं।

दुनियाँ साँची जौ कही, दुनियां साँची जौ कही......

खेत अंगन और गाँव घर मोरे,

फटी धरा की छतियां, फटी धरा की छतियाँ।

मोड़ा-मोड़ी ले मटका दौरें, खोंसंे कम्मर धुतियाँ,

नदियाँ सुखी जो डरी........

विरछा रों रयै, फसलै रो रईं,

जंगल रों रयै आज-जंगल रों रयै आज।

सहमे-झाड़ पेड़ सब कै रये,

मोये नै काटो आज, मोये नै काटो आज।

नदियाँ सुखी जो डरीं, कुइयाँ सुखी जो परीं......

जहर धूआँ सौ भरो हवा में,

जीवो है दुसवार, जीवो है दुसवार।

अपनौ जीवन नौंनौ करवे,

जंगल दये हैं उजार, जंगल दये हैं उजार,

नदियाँ सुखी जो डरीं, कुइयाँ सुखी जो परी......

अपने मानुष तन के लाने,

प्रकृति रूप नै समझो, प्रकृति रूप नै समझो।

विषय, विलास, विभव हित अपने,

काट करेजौ उसखों, काट करैजो उसखों,

नदियाँ सुखी जो डरीं, कुइयाँ सुखी जो परीं.......

अगली पीढ़ी खौं का दइये,

तप रई धरती मइया, तप रई धरती मइया।

अब तौ बचो है थोरो पानी,

छोटी सोन चिरईया, छोटी सोन चिरईया।

नदियाँ सुखी जो डरीं, कुइयाँ सुखी जो परीं........

आस की डोर बंधी मोरी गुइयाँ,

जंगल जीव बचा लो, जंगल जीव बचा लो।

वन के प्राणी धरती माता,

जल में ‘कमल’ खिला लो,जल में ‘कमल’ खिला लो।

नदियाँ सुखी जो डरीं, कुइयाँ सुखी जो परीं.........


जय जय भारत भूम जू .....


जय जय भारत भूमजू, जय जय भारत भूम जू

लक्ष्मी, दुर्गा जैसी भवानी आ गई, भारत भूम जू-२

लाखों गोदी सूनी हो गई लाल बिना महतारी-२

लाखई बैने बिछुड़ कै रै गईं-२लाखों माँग सिंदूरी जू-२

जय जय भारत भूम जू, जय जय भारत भूम जू

लक्ष्मी, दुर्गा जैसी भवानी आ गई, भारत भूम जू-२

राणा शिव ने तीर चला दयै,

चारो घास की रोटी खा गये -२

भारत मइया की कौख में खेले-२

वैसई सांचै रूप जू-२ जय जय भारत भूम जू.......

वीर भगत ने फांसी सजाई,

प्यारो सुभाष ने टेरी लगाई

बापू हमारे राष्ट्रपिता भये-2

चमकी भारत भूम जू-2 जय जय भारत भूम जू......

चाचा नेहरु बाल सुलभ भये

देश के लाने प्राण जो तज दये -२

खिलो गुलाब अब ऐंसौ नईयां-२

रओ रई भारत भूम जू -२ जय जय भारत भूम जू......

लक्ष्मी, दुर्गा, कम्मर कटारें,

सज गई जैसे साज सजाखें -२

वीर नारायण आ गये समर में

चंडी गदर मचाई जू -२ जय जय भारत भूम जू.......

इंदिरा जैसी परधान नारी हो गई,

हो गई अपने देश में -२

खून-खून की बूंद ‘कमल’ सी

कतरा दओ है देश में -२ जय जय भारत भूम जू.......

छलनी करखें उड़ा दओ है -२

भई नइयां कछू पीर जू -२

जय जय भारत भूम जू, जय जय भारत भूम जू

लक्ष्मी, दुर्गा जैसी भवानी आ गई, भारत भूम जू - २


अँसुआ पौंछ कराहत है......


नारी लिपट रईं घुंघटा सैं, पर्दा पांछू लये विधान।

ब्रम्हा नै सबरी रचना करखें ओईखें सौपे सब संग्राम।।

जा बैदेही नारी भी है, जीने सब संग्राम लये।

पूरौ तन, मन, धन भी दैखें, जीवन पूरे राख भये।।

तौ भी निरदयी हिरदयों ने, दो पांव बढ़ाखें नै झांको।

जीनै सबरी दुनियाँ त्यागी, उखौं छिन भर नै आंको।।

तनकऊ बढ़ी जोनजर उठा खैं, थोड़ऊ सौकछू करवे खांै।

दुनियाँ ने देखो घूरो, और फैंको खाई में उसखौं।।

चायें बिटिया सी रत्ना हो, या बंैना सी क्षमता हो।

पत्नी सती सावित्री हो या, माता सीं ममता हो।।

सब नाते नारी के रोउत, ढोउत ढोउत हो रये बलदान।

पुरुष बली पौरुष कौ है, जौ कैसांे अपमान।।

सबरे गूंगे, पशु पंछी भी, करखें पियार निभाउत हैं।

पर पसार खैं उड़त जात वे, अपनौ पियार जताउत हैं।।

मन पीर सैं होत है भारी, आंसुआ पौंछ कराहत है।

आजऊ नंै बन सकी सबल वे, साँसऊ गैल निहारत है।।

जनमधात्री बन जा नारी, देवी मइया कहाउत है।

करम परधान रहैं वा आंगू, तौ भी रौंदी जाऊत है।।

कवि - श्रीमती मीना भट्ट

पति - श्री पुरुषोत्तम भट्ट

जन्म तिथि - 30 अप्रैल 1953

शिक्षा - एम.ए. एल.एल.बी.

विशेष - कृति-‘पंचतंत्र में नारी’ आकाशवाणी से कविताओं एवं वार्ताओं का प्रसारण।

पता - 1308, कृष्णा हाईट्स, ग्वारीघाट, जबलपुर

मो. - 9424669722, 8461881080


पुंगरिया पहन पहन उकतानी......


पुंगरिया पहन पहन उकतानी

दिला दो नथनिया राजा जानी

पहनंे नथनिया पड़ोसन इतरावे

घूंघट खोल बार-बार दिखावे

शरम से होत में पानी-पानी

सोने की नथनिया लाओ

जा में हीरा मोती जड़ाओ

जल जाये देख जिठानी

मांग नथनिया अब मैं थकानी

कंजूसी तोरी जाये न बतानी

अब न मिलहे रोटी पानी

हेमा लंगूगी पहन नथनिया

रिझाऊँगी तुम्हें बन दुल्हनिया

करोगे याद रातें जवानी


बीबी मेरी है सयानी.........


बीबी मेरी है सयानी

याद दिलावे हमखंे नानी

खर्च करे वो मन मानी

बीबी हो जैसे अंबानी

खा-खा के वो है मुटानी

लोग कहे टुन-टुन रानी

ब्यूटी पार्लर की बा दीवानी

हरकत करें बा बचकानी

बोले ना कभी मीठी बानी

बुढ़े हो गये भरी जवानी

हुकुम चलावे हम पे ऐसे

जैसे हो विक्टोरिया रानी

खुद खें समझें हेमा बोरानी

हमखें समझत है असरानी

इत-उत फिरे इतरानी

मेला में बा गई हिरानी

आफत है अब न बुलानी

दोहरानी न बीती कहानी


भोतो नोंनो बलम हमारो ......


भोतो नोंनो बलम हमारो

मोये लागे जिया से प्यारो

होत भुनसारे जलेबी खिलावे

केसर डाल गरम दूध पिलावे

धन भाग हैं हमारे

फट-फटीया में बजरिया ले जावे

तीज त्यौहार पर मोकों घुमावे

वो है हमें प्राण से प्यारो

करत मांग मेरी सब पूरी

बात में उसके घुली मिसरी

बढ़ात नहीं कभी पारो

रहत है मोरे आस-पास

बसो है मेरी साँस-साँस

तन-मन उस पर है वारो

हृदय में मूरत है सजनवा

देख लो चीर मोरो करेजवा

मोहनिया हम पै डारो

सोने से हैं दिन चम-चम

चांदी सी हैं रातें छम-छम

उड़ा दओ प्रेम हम पै सारो

लक्ष्मी मोहे घर की मानत

हमको रानी सो है राखत

दुख सुख में है हमरे ठारो

रुतबा उनको शहर में भारी

मान बढ़ा रहो दद्दा महतारी

सजन सलोनो हमारों


करम फूट गये दैया .........


करम फूट गये दैया

बलम मिलो निठल्लो गुईंयाँ

भुंसारे मन भर तेल लगाये

अठारह रोटी कलेवा में खाये

चाय पिये भर भर लुटिया

काम धंधा कुछ करत नैया

उंगली पकड़ चलत बस मैया

तोड़त रहत बस खटिया

पी के मचाये बो बवंडर

उचके कूदे जैसे बंदर

भरे खर्राटे सोवे रतिया

नम्बर एक को वो जुआरी

हार गओ नोटन की गड्डी सारी

पड़ी अकल में पथरिया

तन्ना सी बात में मुंह फुलावे

मोखों खरी खोटी सुनावे

जीवो दूभर भयो रे भईया

सास ननद समझावत नईंयाँ

कोई ठोर और मोहे नईंयाँ

रोत-रोत पथराई मोरी अंखियाँ

कवि - श्री राजेन्द्र जैन ‘‘रतन’’

पिता - स्व. श्री हुकुम चंद जैन

जन्म तिथि - 19 सितम्बर 1939

शिक्षा - पत्रकारिता पत्रोपाधि

विशेष - काव्य कृति ‘मन रतन है’,समय की पुकार, अध्यक्ष अनेकान्त संस्था

पता - ‘रवि विला’,14/अनुश्री एपार्टमेंट, गोलबाजार,जबलपुर

मो. - 9425866865


हमें मड़ैया घुमा दो जीजा......


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

रंग रंगीली मड़ई सजी है, झूला डरे हैं अलबेला।


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

धनिया भी गई है टमाटर भी गयौ है, आलू गये हैं अलबेला।


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

चोली भी लैहं,ै चुनरिया भी लैहंै, लंहगा रंगीला है अलबेला।


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

नथनी भी लैहैं, झुमका भी लैहें, नवलखा हार हैं अलबेला।


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

चकरी भी झूले फिरकी भी झूले, हिंडोला झूले अलबेला।


काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा,

सबरी सखियाँ झुला झूले, ‘रतन’ झुलाये जो अलबेला,

काय जीजा अरे काय जीजा, हमें मड़ैया घुमा दो जीजा।


चिड़ियाँ चुग गई खेत......

आँखें फटी निरखती गेरऊँ, खेत में रेतई रेत

चिडियाँ चुग र्गइं खेत रे मितवा, चिड़ियाँ चुग गई खेत


बिगड़ी में कोऊ काम न आवै, तैं ने लाख पुकारो

टूटी भई नैय्या खों भैय्या, मिलतई नईं किनारौ

दुनिया सबरी जगतई रई उर, वो कैसो परो अचेत


किसई सुनाउत अरे बावरे, अपनी दुखद कहानी

बखत परे पै बह जाउत है, पोखरन सें पानी

भरम में झूलौ रे ते की कौ खौ देत


अंधा और भिखारी बन के, दौरन-दौरन को डोले

प्रभु नाम की खेती कर लें, ‘रतन’ बीज निराले बोले

खेती तेरी हरी भरी रय, मन में रहियो चेत


श्याम बिन सूना सावन.......

जब तुम्हीं नहीं ब्रज में कान्हा,

तब मधुवन रास रचायें क्या?

सावन बिन श्याम सुहाये ना,

झूला हिंडोला भायं ना

पीड़ित मन श्याम तुम्हारे बिन,

मन भावन गीत सुहायें क्या?

तरसे मन मीत तुम्हारे बिन,

हिय को प्रिय गीत सुहायें ना

पल-पल प्रिय कैसे बीते दिन,

बैरन यह रात सुहायें ना

प्रिये नींद न जाने कहाँ गई,

सपने मन के तरसायें ना

स्वर लहरी कान्हा वंशी की,

रह-रह कर शोर मचायें क्या?

रहकर भी प्रिय जब साथ नहीं,

तब तुम बिन रास रचायें क्या?

सूना ब्रज कान्हा है तुम बिन,

पनघट गागर छलकायें क्या?

हे ‘रतन’ तुम्हारे बिन सावन

संगत बिन साज सुहाए क्या?


गुंजन की आई बारात......


गुंजन की आई बारात, डूबौ रंग हो रसिया....


भांति-भांति के उन्हा पहरे, बहुरुपिया रूप बनायें रसिया,

अजब-गजब को करे सवारी, गधा ऊँट मचकें रसिया।.....


बंदरन को भारी कूंद फांद, ओ ढोल ढमक्का रमतूला

किन्नर को देखो नाच कि मटकैं उनको कूल्हा


चढ़ी अटा पे निरखे भैना, हुलस हुलेल जिया छाई

खिरकिन झांकें बहुऐं भौजी, गुँजन बारात मन कौ भाई


बैंड ढोल सहनइया को रंग, ओई होई कर ठुमकें रसिया

सुनो गधा की रेंपो चेंपों, देखो करतब रीछ हुलसिया


भेंटत सब इनखों उनखों, मूडे मुकुट धरे हैं

तेल फुलेल लगो अलबेला, झेला गरे परे हैं


बिना भांग के पिये भंग से, महुअई छके रंग रच पलसिया

धूरा उड़े अबीर बिरंगी, उड़े कि बढ़के चढ़े अकसिया


बंधौ-बंधौ संकल्प की डोरी, अदलौ बदलौ रस रंग कलसिया

गुंजन की आई बारात, डूबौ रंग रस हो रसिया

कवि - श्री मनोहर चौबे ‘‘आकाश’’

पिता - स्व. श्री रजनीकांत चौबे

जन्म तिथि - 20 अगस्त 1953

शिक्षा - एम.ए. बी.एड. एल.एल.बी.

विशेष - आकाशवाणी एवं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशन

पता - प्लाट नं. 19,/ऐ साईं मंदिर के पास पावन भूमि, शक्तिनगर जबलपुर।

मो.नं. - 9893023108


सैंय्या बड़ो नादान रे मोरो........


सैंय्या बड़ो नादान रे मोरो-सैंय्या बड़ो नादान।

समझा समझा हार गई मैं-ले लई मोरी जान।।

करत बड़ी हठ,बात नैं मानत-रार करत दिन रैन,

घर बाहर हर बात बिगारत-मोहे करत बेचैन।

ओ पै जब मैं रूठ जाऊँ तो-बन जाए अनजान।।

मोरो सैंय्या बड़ो नादान......

पढ़बो लिखबो कछू नै जाने-खेलइ खेल करै,

इतै बुलाऊँ समझाबे जब-तो वा गैल धरै।

बाप महतारी कोई को भी-देतइ नइयाँ मान।।

मोरो सैंय्या बड़ो नादान......

घर को गोकुल मोहे राधा-खुद को कान्हा माने,

बिन बंसी बिन गैय्या माखन-आए रास रचाने।

गोप ग्वाल खुद ही बन मोहे-छेड़े बेईमान।।

मोरो सैंय्या बड़ो नादान.....


बाट जोहतो बैठो अब लौ.....


बाट जोहतो बैठो अब लौ,

आँगन को तुलसी को चैरा।

जा दीवारी में सोइ कौनऊँ,

ओ पै दीप जरा नैं पाओ।।

कौन लीपतो और पोततो,

माटी नई चढ़ातो ओ में।

जा दीवारी में सोई कौनऊँ,

ओ पै हाथ लगा नें पाओ।।


खाँस रहे हड्डी के पिंजर, घर बैठे चुपचाप अकेले,

बिनखैं पानी दवा करै जो, कोई साज संभार करै को।

घर माँ ऐसो कोऊ नइयाँ, टुक टुक देखें सूनी आँखें।।

बिन खें कोऊ नें मिल पाओ.....


दीवारी तो आई लेकिन, उसकी बात कहाँ आपाई,

भला कौन के लाने आती, यहाँ बतासा और मिठाई।

बारे होते तो का बचती, घर में बा दो मुट्ठी लाई।।

दिया न अंगन में जल पाओं....


ए ही खातिर हौं जो कोई......


ए ही खातिर हौं जो कोई, कछु सामान बुलालेबे खों,

आसपास मेंके औरों से, सोच बताके अरज कर लई।

पर का कहें इते जो काई, दिया तेल बाती के काजे।।

शहर गओ तो लौट न पाओ....


खेतन में खलिहानन में अब, काम बहुत सारो बाकी है,

इसीलिये तो गाँवखोर में, मिल पाएं मजदूर कहाँ से।

बोलबता के जिन्हें बुलालें, ए ई से जा बरस भीत पै।।

सोई चूना चढ़ ना पाओ.....


जितनैं पास परौसी हैं सब, उरझे हैं अपने कामों में,

एई सें अब दूर-दूर से, सबसे राम-राम हो जाती।

को से कोई बात करें अब, कोहे मन की पीर बतावें।।

उ अच्छो है चुप ही रह जाओ....


सब अपने कामन में उरझे, कोई अपने पास बैठकर,

सुन लेतो शायद कुछ समझे, सुन्दर चित्र बनी जे चिट्ठी।

दो दिन हुये शहर से आई, कौनऊँ नें फुरसत न पाई।।

अबलौं ओ हे पढ़ ना पाओ....


कवि - श्री अभय कुमार तिवारी

पिता - कवि पं. गोविंद प्रसाद तिवारी

जन्म तिथि - 1 फरवरी 1956

शिक्षा - एम.ए. बी.एड.

विशेष - कृति ‘यादों की छाँव’ शिक्षाविद् एवं साहित्यविद्, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी में प्रस्तुति।

पता - 1641,जयनगर, यादव कालोनी, जबलपुर

मो.नं. - 9303939890


टुकुर-टुकुर इक-टक, निहार रहीं गुइंयाँ.....


टुकुर-टुकुर इक-टक, निहार रहीं गुइंयाँ,

मीठी सी मुसकाबे, तन्नक सी मुइंयाँ।


कक्का के टुरवा से, इतरा के बतया रई,

अपने बऊ-दद्दा खों, धरम-करम समझा रई,

सगरे में फुदक रईं , पर-कतरी टुइंयाँ...


ढिग लगाय लीप रईं, परछी अरु अंगना,

गोबर में लथर रए, पायल अरु कंगना,

खोद-खोद लाईं, खदनियाँ से छुइंयाँ....


फसक-पसर फिचक रईं, घर भर के उन्ना,

खिलखिला रईं चुरियां, खन-खन-खन-खुन्ना,

अंग-अंग की सुध बिसरी, चुभन लगीं सुइंयाँ....


गबरू ने गैल छैंक, तनक हाथ मांगो,

बिफरी बाघन जैंसी, गुइंयाँ ने डांटो,

समझ रही अपने खों, अब लो लरकइंयाँ....


टुकुर-टुकुर इक-टक निहार रईं गुइंयाँ,

मीठी सी मुसकाबो, तन्नक सी मुइंयाँ।


कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै......


कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!

घर के बाहर, देहरी परले, ऊबर खाबड़ पथरा,

पाँव तुमारे कौरे गुइंयाँ, गड़-गड़ जैहें कंकरा,

अपनी हँसी न करवा लैयो, दद्दा खों पुकार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


गली के बाहर तुमखों मिलहें, संग-सखा बचपन के,

कैहें गुइंयाँ हम तो प्यासे ठाड़े हैं दर्शन कै!

कुल की लाज गवां नै दैयो, उनकी ओर निहार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


तनकउं आगे अमराई में, टुरवा-टुरिया मिलहें,

लुका-छिपउअल, छुला-छुलउअल, खेलत कूदत दिखहें,

बालापन की याद आये तो, रह जैयो मन मार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


गोधूली में तुमरी डोली, गाँव के बाहर जैहे,

पीपर के डिंग करुण तान में, कोई कबीरा गैहे,

मन को दरद बता नै दैयो, नैनन नीर निकार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


पिया के घर में सबसें पेलऊँ तुलसी सीस नवैयो,

तुलसी बब्बा की सीता खों, पल भर नंै बिसरैयो,

पनघट पे तुम कभउं नै जैयो, घूँघट खों उघार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


फाग में गुइंयाँ तुमखों साजन, अपने पास बुलैहें,

धुतिया, बिंदिया, घंघरा-चुरिया, सबकी लालच दैहें,

उनसे झपट नैं भेंटन लगियो, दोनों बांह पसार कै!

कदम राखो देहरी के बाहर संभार कै!


मन बिलमो बलम के गाँव में......


मन बिलमो बलम के गाँव में!

कैसे जाऊँ देस पिया के! लाज की पायल पाँव में!


पुरवैया से खिड़की खटकै, आहट से खटकै जियरा!

अब आये, आये, अब आये, अब आये, आये पियरा!

रैन कटत है तारे गिन-गिन, दिन यादों की छाँव में!

मन बिलमो बलम के गाँव में!


कित्ते-कित्ते स्वाँग धरत ते, हमसे मिलवे के लाने!

तनक देर में धीर तजत ते, देत रए कित्ते ताने!

जी हिलकत है, नैना छलकत, सूनी-सूनी ठाँव में!

मन बिलमो बलम के गाँव में!


कोयल बनकें कूकी मारें, छिरिया से मिमियात रए!

तिनकी बोली सुनबे काजे, हम देरी से जात रए!

अब कोयल-छिरिया की बोली, टीस भरत है घाव में!

मन बिलमो बलम के गाँव में!


झूलों की पैगों पै पैगें, लहरों के संग हिचकोला!

फागुन के सतरंगी मेला, सावन वारे हिण्डोला!

कैसे पार उतरहैं बिन्नो, इन सुधियों की नाव में!

मन बिलमो बलम के गाँव में!


मन बिलमो बलम के गाँव में!

कैसे जाऊँ देस पिया के! लाज की पायल पाँव में!

जैयो जब परदेस.....री बहिना....


जैयो जब परदेस.....

री बहिना.... जैयो जब परदेस!

कोयल से पाती भिजवैयो!

सगुना से संदेश!... री बहिना!

जैयो जब परदेस!.....


बहिना तुम पाहुन आँगन कीं,

बाबुल की जननी के मन कीं,

पिय घर तुमरो देस!.... री बहिना...

जैयो जब परदेस!....


पिय के घर में धीरज धरियो,

मत नैन से जल ढरकैयो,

जपियो उमा-महेश!... री बहिना...

जैयो जब परदेस!....


अपने कुल को मान बढ़ैयो,

पिय के कुल की आन निभैयो,

जोई जगत परिवेश!... री बहिना...

जैयो जब परदेस!....


हम राखी टीका पै आबी,

धरहु भरोसो बचन निभाबी,

मत रखियो अंदेश!... री बहिना...

जैयो जब परदेस!....


कवि - श्री संतोष कुमार नेमा‘‘संतोष’’

पिता - स्व. श्री देवी चरण नेमा

जन्म तिथि - 15 जुलाई 1961

शिक्षा - बी.काम. एलएलबी

विशेष - भजन एवं आरती संग्रह की सी.डी., विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 78, ‘अमनदीप’ आलोक नगर, अधारताल, जबलपुर

मो. - 9300101799, 7000361983


बहुतई आस लगा खें बैठे.....


बहुतई आस लगा खें बैठे,

जबरन मुंह फैला खें बैठे।

वक्त परे कोउ काम न आवे,

जबरन खास बना खें बैठे।


अपनी अपनी परी है सब खों,

औरन की सुध भुला खें बैठे।

कहबे खों तो मुंह पै आ रही,

फिर भी बात दबा खें बैठे।


जाने जुग कैसो जो आ गओ,

खुद खों हम समझा खें बैठे।

सीख बड़े बूढ़न की अब तो,

सब कोऊ बिसरा खें बैठे।


खटिया पै ही पड़े पड़े वो,

बिड़ी, चिलम सुलगा खें बैठे।

मेहमानों की कदरई नइयाँ,

बस मोबाइल थमा खें बैठे।


पढ़वो लिखवो गओ चूल्हे में,

यार से दिल लगा खें बैठे।

महँगाई जा जियन नें दे रइर्,

‘संतोष’ दिल बहला खें बैठे।


डॉक्टर पास जब पहुँचे बड्डे.....


डॉक्टर पास जब पहुँचे बड्डे,

देख खें डॉक्टर हो गए खड्डे।


आज का हो गओ तुम्हे सयाने,

सुनतई सें वो यूँ लगे बखाने।


छाती में आंधी सी उठ रई,

जे आंखे सुई बहुतै गड़ रई।


पेट जो हमरो ऐसो जरत है,

डकार कछु खट्टी सी परत है।


कान आपहुं सन सना रहे हैं,

हाथ गोड़े झुन झुना रहे हैं।


पेट हमरो खूब भड भड़ा रओ,

जो माथो भी बहुतै भन्ना रओ।


हम खों कछु समझ नें आ रओ,

बताओ डॉक्टर जो हो का रओ।


सुन बीमारी की लंबी गाथा,

डॉक्टर ने पकड़ो खुद माथा।


बोले तुम्हरी हम का करें दवाई,

बीमारी चैतरफा घिर आई।


अब तुम घर खों जाओ भाई,

‘संतोष’ सेवा करहै लुगाई।


ऐसो काम कबहुँ ने करियो,......


ऐसो काम कबहुँ ने करियो,

खोटे काम कबहुँ ने करियो।


मां बाप की इज्जत खों तुम,

जग बदनाम कबहुँ ने करियो।


झूठी चकाचोंध में दुनिया की,

खुद गुमनाम कबहुँ ने करियो।


दुनिया तुम खों जीन ने देहे,

तुम कोहराम कबहुँ ने करियो।


झूठ यहां पुज रओ खुशी सें,

सच बदनाम कबहुँ ने करियो।


जमीन सारी पड़ी है पड़ती....


जमीन सारी पड़ी है पड़ती,

खेती अब खेती सी न लगतीं।

बखरोनि कब कर है हरवारो,

लो अब जो आगओ बसकारो।।

घर में कोउ अब सुनतइ नइयां,

खीचला पापड़ बिलतइ नइयां।

अथानो सुई अबलो ने डारो,

लो अब जो आ गओ बसकारो।।

कह कह के हम बहुतई पक गये,

बंदरों से सब छप्पर फट गये।

चू रओ घर अब तो छप वालो ,

लो अब जो आ गओ बसकारो।।

सियानों की कोउ सुनत नइयां,

मन में आउत लगाएं पन्हइयाँ।

समझ रहे खुद खों अतकारो,

लो अब जो आ गओ बसकारो।।

राशन पानी धर लो भईया,

लेत कोउ बसकारे नईयां।

मसाले सुइ ज्यादा पिसवालो,

लो अब जो आ गओ बसकारो।

गइया सुइ बियावन को ठाड़ी,

गइया सुइ बियावन को ठाड़ी।

सब्जी भाजी लगी ना बाड़ी।

‘संतोष’ कैसो काम तुम्हारो,

लो अब जो आ गओ बसकारो।


घर में भूखी परी डुकरिया......


घर में भूखी परी डुकरिया,

कोनउं नें ले रओ खबरिया।


बाहर खूब भंडारे कर रये,

घर की सुथ नें लें संवरिया।


फैशन में तो खूबई खो रये,

जा फैशन में लगे लुघरिया।


तुनक मिजाजी खूबई बढ़ गई,

कोन बोल खें फोड़े खपड़िया।


जोरू भी अब आंख दिखा रई,

कभऊं हमें ले जाव बजरिया।


माल घूमवे सब खों पड़ी है,

संगे समय खें बदलो नजरिया।


गर्म कुत्ता प्रेम सें खा रहे,

बर्गर,पिज्जा,पचे जबरिया।


मोड़ी कपड़ा मौ में बाँधे,

चल रईं मटकात कमरिया।


भैया एई खों कलियुग कहवें,

‘संतोष’ नहीं अब कोनो जरिया।


कवि - डा. सलमा ‘जमाल’

पति - स्व. डा. जमालुद्दीन

जन्म तिथि -7 जून 1956

शिक्षा - (ट्रिपल) एम.ए., बीएड, एलएलबी, पीएचडी, डीलिट (मानद)

विशेष - गद्य-पद्य की दस पुस्तकें प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में प्रस्तुति, अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।

पता - 298, प्रगति नगर, चैथा मील मंडला रोड, तिलहरी, जबलपुर

मो. - 9300044498


बदरा आये.....(बाल्रगीत)

बदरा आये, बदरा आये, संगे ढोल मजीरा लाये।

चारऊँ और घनों अंधियारों, बिजुरी टारच रहै जलाये।।

मेघा झम-झम बरसा रओ है,

जी भींजे को तरसे रओ है,

हमें बाहर नें जान देत हैं .

पानी में नें सपरन देत हैं,

कागद की इक नाँव बना कें,

हम नदिया में तैरा आये,

बदरा आये, बदरा आये, संगे ढोल मजीरा लाये।

चारऊँ और घनों अंधियारों, बिजरी टारच रहै जलाये।।

मिंदरा टर-टर है टर्राने

सबरे चलियो अब मौज मानने,

देख के बदरा नाचत मोर,

तूफानन को रुकत न सोर,

सूरज डर कें मारे लुक गओ,

चंदा-तरैयाँ लुक छिप जायें ,

बदरा आये, बदरा आये, संगे ढोल मजीरा लाये।

चारऊँ और घनों अंधियारों, बिजरी टारच रहै जलाये।।

उखार फैंकें पेड़न के गोडे़,

बजत झांझ से पत्ता थोड़े,

भौजी सेंकत प्याज पकौड़ी,

खात चटनी से मोड़ा-मोड़ी,

खेतन में रोपा हैं लग रये ,

‘सलमा’ चाकर आला गायें,

बदरा आये, बदरा आये, संगे ढोल मजीरा लाये।

चारऊँ और घनों अंधियारों, बिजरी टारच रहै जलाये।।


खेलें चैइंयाँ-मईयां .....(बालगीत)


संजा-सारन बंधे पड़ेरु, आम-नीम की छईयाँ।

सबरी बिटिया भईं इकट्ठी, खेलें चैयां चैइंयाँ-मईयां।।

दिन में खेलें पिट्टुक चपेटा,

और घोर-घोर रानी,

पुतरा-पुतरिया रोज सजावैं,

दिन-छन भरवैं पानी,

तिनगांवे मनचले गैल में,

लाज सरम है नईयाँ,

संजा-सारन बंधे पड़ेरु, आम-नीम की छईयाँ।

सबरी बिटिया भईं इकट्ठी, खेलें चैइंयाँ-मईयां।।

गुल्ली डंडा लरका खेलत,

कंचा और कबड्डी,

मोड़िन के आंगूँ जै मोड़ा,

हरदम रहत फिसड्डी,

पढ़ाई-लिखाई में पाँछु दिखवैं,

चरात फिरत है गईयाँ,

संजा-सारन बंधे पड़ेरु, आम-नीम की छईयाँ।

सबरी बिटिया भईं इकट्ठी, खेलें चैइंयाँ-मईयां।।

बड़े सयाने रोजाई लड़ाबैं,

मुर्गा, तीतर, बुकरा,

कुसती के हैं सजे अखाड़े,

जोस में आ गये डुकरा,

पतंग ओ चंदा-पऊआ खेलो,

‘सलमा’ ई में खरचा नईयाँ

संजा-सारन बंधे पड़ेरु, आम-नीम की छईयाँ।

सबरी बिटिया भईं इकट्ठी, खेलें चैइंयाँ-मईयां।।


जे नैन तोरे मतवारे.....


मोरो जियरा ले गये गोरी, जे नैन तोरे मतवारे,

लेत करोंटा रात बितानी, जे हो गये भुनसारे....


तुमने कर दई बड़ी अबेरा, तक रयै गैल तुमाई,

पुरा-पड़ोसन करैं मसकरी, हंसी उड़ाई हमाई,

गैल तकत अखियाँ पथरा गईं, थक गई पांवहमारे।


मोरो जियरा ले गये गोरी, जे नैन तोरे मतवारे,

लेत करोंटा रात बितानी, जे हो गये भुन सारे....


संगी-सखा-सबई-समझावैं, प्रेम रीत बतलावे,

अनुभव अपनों सबई बखानत, ऊँच नीच दरसावें,

कछू नें आवे समझ में मोरी, जीवन कैसे गुजारें ,


मोरो जियरा ले गये गोरी, जे नैन तोरे मतवारे,

लेत करोंटा रात बितानी, जे हो गये भुन सारे....


बिरह की पीड़ा कबलौ सहबी, मौसम बदले सारे,

बाँहन में अब आ जा गोरी, दिल में बजत नगारे,

प्राण-परवेरू उड़ नें जावें, ‘सलमा’ जै मतवारे,


मोरो जियरा ले गये गोरी, जे नैन तोरे मतवारे,

लेत करोंटा रात बितानी, जे हो गये भुन सारे....


सदा सुहागन रहियो.....


मोरे अंगना में सुकुमार नवेली, संभर-संभर पग धरियो।

मोरे लालन की प्यारी सी गुईंयां, लाज हमाई रखियो।।


जनम लिओ है साजे कुल में, आज ब्याह जो भओ है,

तुम तो बहुआ बहुतई प्यारी, बखरी-अनंद भओ है,

हार सिंगार हो अमर तुमाओ, सदा सुहागन रहियो,


मोरे अंगना में सुकुमार नवेली, संभर-संभर पग धरियो,

मोरे लालन की प्यारी सी गुईंयां, लाज हमाई रखियो....


भर गओ हृदय खुशी से हमाऔ, भाग से जो दिन आओ,

बांको सजीलो है मोड़ा हमाओ, बहू ब्याह के लाओ,

वंस बेल हैं हाथ में तोरे, ऊखौं बढ़ातई रहियो,


मोरे अंगना में सुकुमार नवेली, संभर-संभर पग धरियो,

मोरे लालन की प्यारी सी र्गुइंयां, लाज हमाई रखियो...


नंदी, देवर, केंह-केंह के भौजी, उनके मौं हैं सुखाने,

रंग रूप और सुघरता के, बड़ाई करत हंै सियाने,

सुखी के आंसूआ ससुर बहावें, सेवा खीबई करियो,


मोरे अंगना में सुकुमार नवेली, संभर-संभर पग धरियो,

मोरे लालन की प्यारी सी गुईंयां, लाज हमाई रखियो....


बिछुआ, कंगना, पायल बाजे, किलके मोरो अंगना,

कल से तैं घर बार संभारियो, मैं खिलाऊँ तोरे ललना,

हज करबे को ‘सलमा’ जाबे, हिलमिल सबसे रहियो,


मोरे अंगना में सुकुमार नवेली, संभर-संभर पग धरियो,

मोरे लालन की प्यारी सी र्गुइंयां, लाज हमाई रखियो...

कवि - श्री भारत भूषण साहू भूषण’

पिता - श्री जी.एल. साहू

जन्म तिथि - 25 जून 1956

शिक्षा - एम.काम.

विशेष - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 2199, महर्षि सुदर्शन वार्ड, अमर नगर,

रांझी, जबलपुर

मो. - 9424323331, 6264983191


पल-पल निस दिन तोहे ध्याऊँ.....


पल-पल निस दिन तोहे ध्याऊँ, मैया बस तोरे गुन गाऊँ।

देओ ऐ सो सद्ज्ञान, मन साहित्य को नित्य बढ़ाऊँ।।

मैया बस तो रे गुन गाऊँ....

ज्ञान को देओ वरदान, लेखनी खों दे दइयो स्याही।

वाणी खों सुर भावनाएं, मन खों दइयों मनचाही।।

जो लों चले लेखनी तो लों, तोरी अलख जगाऊँ।

मैया बस तोरे गुन गाऊँ...

चिन्तन खों विस्तार, मनन खों दइयों माँ गहराई।

दमके सूरज और चंदा सी, लेखन में सच्चाई।।

गीत, छंद, रस, अलंकार, को, तोहे भोग लगाऊँ।

मैया बस तोरे गुन गाऊँ...

फूल खिलैयो गीतन के माँ, अंतस की बगिया में।

ओत-पोत कर दइओ अपनी,ममता की नदियाँ में।।

तुमरी किरपा के ‘भूषण’ से अपनों जनम सजाऊँ।

मैया बस तोरे गुन गाऊँ...


चलियो कदम से कदम मिला के.....


चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे लगा कें ।

मानवता, सद्भाव प्रेम के, जेवर अंग सजा कें ।।


पीर पराई जो पहचाने, मनुज बोई है सच्चो,

बुरो कबहूँ नहिं करियो, कोऊ को, करनैं पाओ जो अच्छो।

परहित पर सुख की सेवा खों, रखियो लक्ष्य बना के।।

चलियो कदम से कदम मिला कें , सबखों अपने गरे ...


काम कोऊ ऐसो नें करियो, गरे परै बदनामी,

अंत बुरे को बुरो ई होत है, हाथ रहत नाकामी।

ठाँव कहूँ ने पा हो जग में, अपनी नाक कटा के।।

चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


फीकी-फीकी ईद लगत है, नीरस लगैं दिवारी,

नफरत, दहशत, भूख, गरीबी, फैली है बदहाली।

करियो सोच-विचार तनक, स्वारथ से ध्यान हटा के।।

चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


टारे टरे ने टारी कबहुँ, करमन की गति न्यारी,

बो लये बीज बबूल के, कैसे फूले-फूल फुलवारी।

जै दिन पाप को घड़ा छलक है, रे जेहो मों बाके।।

चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


तरुवर फल नहिं चखे रे, नदिया पिये ने अपनो पानी,

दिया उजारो बाँटे सब खों, कह गए ज्ञानी ध्यानी।

लै बे से अच्छो, देबे की रखियो सोच बना के।।

चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


बेर-बेर नहिं मिलै मनुज को, जनम धरा पे भैया,

कर लो नीके करम, जनम की पार लगा लो नैया।

धन दौलत कम रहे भले, रखियो ईमान बचा के।।

चलियो कदम से कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


मन अपनों तुम साफई रखियो, घातें कबऊँ ने करियो,

सच के लाने जिईयो ‘भूषण’ सचई के लाने मरियो।

मान कबहंु नईं मिले रे भैया, पर को मान घटा के।।

चलियो कदम सैं कदम मिला के, सबखों अपने गरे......


प्यारो भारत देश हमारो......


भगत सिंह, आजाद, बोस, बिस्मिल को राज दुलारो,

तिलक, गोखले, गांधी, सावरकर की आँख को तारो,

प्यारो भारत देश हमारो......


जा धरती है राम, किसन की, साधु, संत, महंतन की,

धरती है जा महावीर, गौतम, नानक से संतन की,

जिनई के ज्ञान दीप से जग को दूर भओ अंधयारो,

प्यारो भारत देश हमारो......


माथे मुकुट हिमालय साजे, सागर पाँव पखारें,

दोर-दोर साजे रे बलिदानों के वंदन-बारे,

चमकत है चांदी सी रातें, सोने सो भुन्सारो,

प्यारो भारत देश हमारो.....


ओढ़े है रे धरती-मैया, चूनर धानी-धानी,

चंदन सी महके रे माटी, पुरवा चले सुहानी,

दिग-दिगंत तक गूंज रओ, भारत माँ को जयकारो,

प्यारो भारत देश हमारो.....


विंध्यांचल, सतपुड़ा, मलयगिरि, और केसर अंगनाई,

कावेरी, कृष्णा, गोदावरी हैं, जागीर हमाई,

नीलमणी सो दमके, जब लहराए तिरंगा न्यारो,

प्यारो भारत देश हमारो......


गंगा, जमना, सरस्वती की, बहत है पावन-धारा।

घाट-घाट खुशियों को मेला, मठ-मंदिर, गुरुद्वारा,

संस्कृति और संस्कार को फैला रये उजयारो,

प्यारो भारत देश हमारो......


गूंजत हैं बंसी की तानें, निसदिन साँझ सकारे,

तुलसी के बिरवा पुज रये रे, घर द्वारे-द्वारे,

पीपल की छैयाँ में बैठे, पंच करे निपटारो,

प्यारो भारत देश हमारो....


बाजें ढोल, मजीरा, झांझर टिमकी, और रमतूला,

अमरैया की छाँव में झूलत, पेंग मार के झूला,

रंगीलो फागुन-मन-मोहे-सावन घन कजरारो,

प्यारो भारत देश हमारो......


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर की पहचान इते,

होरी, ईद, दिवारी, क्रिस्मस त्योहारों को मान इते,

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिलकें करत गुजारो,

प्यारो भारत देश हमारो।।......


वन्दे-मातरम् बोल-बोल के, पा लई जा आजादी,

क्रान्तिकारियों की टोली के, अगुआ बन गए गाँधी,

अंग्रेजी सत्ता को ‘भूषण’ कर दओ रे मों कारो,

प्यारो भारत देश हमारो।।.....


तुमरोई हाथ पकर के चलने.....


तुमरोई हाथ पकर के चलने, संगे जीने संगई मरने ,

तुमरोई हाथ पकर के चलने।

मीत मिलो जब संग तुमाओ, दुनिया से का डरने

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।


प्रेम हमाओ गंगा-जमना, नेह बसंती बगिया।

हमें भरोसो पूरो रामा, पार लगाहें नैया।।

धरम-करम हम कछु नईं जाने, संग तुमारे तरने।

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।


मेहनत और मसक्कत से जो, मिलहे बोई कमाने।

जित्ती चद्दर है उत्तई में, पाँव हमें फैलाने।।

साँझ-सकारे नाम राम को, निस दिन हमें सुमरने।

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।


दारई-दरिया जो कुछ मिल जेहे, हँसी-खुशी हम खाहें।

दुख, अभाव, पीड़ा, आँसू, जीवन में आहें जाहें।।

आफत, विपदा, कितनऊ आवे, नियत साफ हैं रखने।

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।


धन-दौलत, सोना-चाँदी में, भले कमी रह जाए।

प्रेम हमाओ जनम-जनम को, जा में कमी नें आए।।

तन-तन सी बातन में, एक दूजे से नईं भुकरने ।।

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।


परहित, परसुख, परसेवा की सोच के संगे जीने।

लालच, लोभ, कपट, छल, माया-मोह को विष नईं पीने।।

फूलन नाँई खिलाने ‘भूषण’ खुशबू जैसो बिखरने।

तुमरोई हाथ पकर के चलने।।

कवि - श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’

पिता - स्व. श्री भवानी प्रसाद पाठक

जन्म तिथि -29 सितम्बर 1962

शिक्षा - एम.काम. एलएलबी

विशेष - कृति ‘स्मृति गुलाब’, पाथेय प्रकाशन के संयोजक सचिव, सिद्धहस्त कुशल कार्यक्रम संचालक एवं संयोजक

पता - ‘सनाढ्य संगम’ शताब्दीपुरम, एम.आर फोर रोड,जबलपुर,

मो. - 9827262605


हिरदय शिवालय बनैं हमारो.....


हिरदय शिवालय बनैं हमारो।

तौ फिर फैलै जग उजियारो।।


संत बना लेव अपनें मन खों।

दूर भगा देव हर उलझन खों।।

उम्दा नोंनें मन भावों सें।

खूबई सजा लेव जीवन खों।।

तर्बइं तौ पाहौ रोजइ फिर तुम।

निरमल पिरेम सुधा रस बारौ।।

तौ फिर फैलै जग उजियारो......


सपनें सजें नये अँखियन में।

जरैं दिया सुई मानवता के।।

जा दुनिया बगिया सी महकै।

खिलें फूल ई में ममता कै।।

जग में कोऊ नैं हारै कोऊ सैं।

पैहरें सबई हार जय बारौ।।

तौ फिर फैलै जग उजियारो......

छुट-बड्डे कौ भेद नैं रहै।

खिलै तबइ पूनों को चन्दा।।

होवें काम काज नित नये-नये।

मिले सबई हाँतन खों धन्दा।।

मैनत करें कौ पूरौ पावैं।

कौर सबई घी बारौ खाबैं।।

तौ फिर फैलै जग उजियारो.....


काँच घांईं रन-बन कर डारो.....


हमने बड़े जतन सें पालो।

खूब सहेजो खूब समारो।।

मनों तुमईं नैं टोर प्यार खों।

काँच घांईं रन-बन कर डारो।।


करो याद जब खूब मिलत्ते।

पोंच के लुक-छिप नदी किनारे।।

कभऊँ रेत के महल बनावें।

कभऊँ गिनें बदरई के तारे।।

नेह कौ पौधा सींच-सींच फिर।

जर सें ओखों काये उखारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......


कभऊँ घुसत्ते अमरइयन में।

चूसत्ते बे आम दशहरी।।

कभऊँ जामुनों पै चढ़ जावैं।

तकवैया खें दें कनबहरी।।

आज उनईं डारों खों तुमनें।

सूनो बिन पत्तन कर डारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......

अबै सोई पूनों आउत है।

और अमावस सुई वा काली।।

अबै सोई हम याद करत हैं।

अमरइयन की डाली-डाली।।

बौ सोने सा समव रामधईं।

जानें काये गबन कर डारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......


हमने तौ जा सुन राखी ती।

पैली प्रीत कभऊँ नईं टूटै।।

जनम जनम के रिश्ते-नाते।

पलभर में जे परैं नें झूठै।।

मनों तुमई नें विश्वासन कौ।

पूरौ चमन हवन कर डारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......


तिल-तिल भर सुख जोरो हमने।

तिनका-तिनका बुन लई चादर।।

तबई जिन्दगी रची कै जैसें।

रचबै मेंहदी और महाउर।।

जौन जँगा पै रचो सुअंबर।

मंडप तुमने उतईं बिगारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......


कैसें बजे प्रेम की बंशी।

जब सुनबै नें आवै राधा।।

जोंन तान खों सुनबे पहलऊँ।

जुट जाउत तो गोकुल आधा।।

महारास रचबे सैं पहलऊँ।

खुद कौ निरवासन कर डारो।।

काँच घांईं रन-बन कर डारो......

कवि - श्री प्रमोद कुमार तिवारी ‘मुनि’

पिता - स्व. देवीप्रसाद तिवारी

जन्म तिथि - 6 जून 1956

शिक्षा - एम.ए.

विशेष - गजल कृति, राहे जिन्दगी विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 53, राजुल सिटी, गंगानगर गढ़ा, जबलपुर

मो. - 9584022030


महंगाई (आल्हा)


पहलऊ सुमरौ नारायण खौं, निरंकार को ध्यान लगाए,

लिखी मुसीबत महंगाई की, मौं कौ थूक बंद हो जाय।

सुरसा सी महंगाई बढ रई, कुम्भकरण हो रईं सरकार,

कौनऊँ नैंया सुनबे वारो, नें कौनऊँ ऐसो दमदार।

बिजली बिल ऊपर से मारे, खींसा खाली दये करवाय,

फीस भरी नइयाँ लड़कों की, कहाँ पे कैसे नाम लिखांय।

महिना भर की सौदा बाकी, बनियाँ अब नईं देय उधार,

बड़े सबेरे पैसा लै गये, डेरी वाले बे सरदार।

मुंह बिदरा खें बाहर निकरे, बगल में झोला लओ दबाय,

घरवारी ने धरे रूपैया, उननें पुरजा दओ पकराय।

घर की रानी पाँछू बैंठी, राजा गाड़ी रहे चलाय,

पीं-पीं कर खें गाड़ी चल रई,गचा पेल जा भीड़ दिखाय।

बड़े शौक से गाड़ी लई ती, लोन बैंक ने दओ बनाय,

पैट्रोल अस्सी को हो रओ, आँखें तिरर मिरर हो जाय।

साठ रूपैया केरा बिकरये, अनानास खें पंूछो नाय,

सेव, संतरा, लीची देखौ, अनार देख लो भूक बुझाए।

तीस रुपैया आलू बिकरये, लेव टमाटर दस के चार,

गिनती करबे आमा लैलो, अबई बनाने नओ अचार।

तनक सी धनिया मिरची लै लई, इनके बिना स्वाद नें आय,

अदरक, लहसुन, भाजी, भिण्डी, लाल प्याज भी आँख दिखाये।

नुहरा गड़ा दओ लौकी में, कुजरा हो रओ लाल अंगार,

अब तो लौकी लेनई पर है, नइतर हो जैहे तकरार।

हरदी, मिरचा, जीरा, मैथी, शक्कर पन्नी दानेदार,

जब घर आहैं पही पाहुने, गलन लगी राहर की दार।

घर में लकड़ी कंडा नैयाँ, कैसे भटा गकरिया खांय,

महंगी गैस की चोरी हो रई, महिना भर बा चलतई नाय।

बयाव, बराते, चैक चलाये, सबरे कारड रहे थमाय,

कैसे अपनी लाज बचावे, कैसे खें व्यवहार चुकाय।

महंगाई में लगी लुघरिया, हमने लिख दये हाल हवाल,

गलती हो तौ माफी दइयो, अब तो ‘मुनि’ चले ससुराल।

आजादी के पहलऊ हम सब.....


आजादी के पहलऊ हम सब, ओ दुश्मन से रोज लड़तते,

गाँधी बब्बा के कहने पे, घर-घर सें हम सब निकरतते।

खुदीराम आजाद की बातें, हमसे दद्दा रोज कहतते,

ढाका से लाहौर, जबलपुर, तक हमनें ललकारो तो।

गोरों की सेना नें हम खें, घेर-घेर खें मारो तो,

जलियांवाला तिलक भूमि की,माटी सर पर रोज रखतते।

कस्तूरबा, कमला, सरोजनी, दुर्गा भाभी भी आईं तीं,

सुभाष, पटैल, नेहरू, गुलाब नें, कसम देश की खाईं तीं।

अश्फाक, गुरुसुखदेव, भगत, बिस्मिल फाँसी रोज चढ़त्ते,

आजादी का एसईं मिल गई, खून बहो तो सड़कन पै।

कई ने करिया पानी देखो, तोप घटी ती गरदन पे,

कौनऊँ ने हिम्मत नईं हारी, भारत की जयकार करतते।

दूध, मलाई, मिसरी खा रये, कई-कई कहैं अलौनी है,

आंय इतईं के खांय इतर्इं को, बातें जहर मिलौनी है।

अपने भारत में पहलऊँ सें, जाफर और जयचंद रहतते,

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी बौद्ध धर्म है।

सबकी अपनी-अपनी रीति, सबके अपने नित्त नियम,

झंडा ऊंचा रहे हमारा, ‘मुनि’ को तो है येइ धरम।


गजल

पता नईं बे काय जरत हैं,

मोरी चुगली रोज करत हैं।

मोरो घुटना इतै पिरा रओ,

वे चैथी पे हाथ धरत हैं ।

बजे ढोल खीबई नाचें,

नेंग की दारै दूर भगत हैं।

ओधा छावे-छावे मरे जात वे,

घटिया देखत पाँव कंपत हैं।

उनखें नौनी गैल बताई,

तऊँ वे उल्टी गैल चलत हैं ।

ऊँसई मूँछ उमेठत फिर रये,

घरवारी से घरे दबत हैं ।

घर में खा रये नौंन गकरियाँ।

‘मुनि’ के घर की खीर चखत हैं।


बहूरानी (आल्हा)


पहलऊ सुमरौ नारायण खौ, निरंकार को ध्यान लगाए,

माता सुमरौ अन्नपूर्णा, रखियो लाज शारदा माय।

सबसें पहलऊँ उठीं सकारे, धरती के दये चरन दबाय,

फिर बहुआ ने बहरा लै लओ, घर आँगन सब दये झराय।

स्नान करे जल्दी र्से आइं, पूजा थारी लई सजाय,

दई देवता घर के पूजे, जल तुलसी खें दओ चढ़ाय।

मुनिया मुन्ना पढ़वे बैठे, सास, ससुर पढ़ रये अखबार,

चाय, नाश्ता दओ बना खें , अब मंडी जै हैं भरतार।

सबरी रात पढे़ है दिवरा, उनकी नींद खुली है नाय,

बड़े जतन से उन्हें जगा दओ, बना खें काफी दई पिलाय।

तनक बना दये पतरे चांवर, राहर दार बघारी जाय,

आटा माड़ लओ कोपर में, रोटी बेलत सेंकत जाय।

मुनिया ने आवाज लगा दई, माँजी सुनो हमारी बात,

फीस जमा करने हैं आजई, फिर हम खें पढ़ने दिन रात।

झटपट अलमारी खोली, दये रुपैया पाँच हजार,

टिफिन लगा दओ है मुन्ना को, बो सोई जाबे खें तैयार।

कापी, पेन, बैग में धर दये, इते अम्मा जी रहीं बुलाय,

कहाँ धरी है माला उनकी, पूजा घर में मिलतई नाय।

दौर खें उनकी माला ढूंढी, फिर हाथों में दई पकराय,

दादाजी खें डबिया दै दई, कितनी बेर तमाखू खांय।

दार, भात को भोग लगा दओ, गौ की रोटी दई खिलाए,

किसम किसम के भोजन बन गये, सबके पटा दये लगवाय।

एक पटा पर दादा बैठे, एक तरफ बैठे भरतार,

जबरई बिठा दओ अम्मा खें एक पे छोटे राजकुमार।

बरी, बिजौरे, पापर, चटनी, छोला चना मसालेदार,

आलू गोभी की तरकारी, ओई में दये टमाटर डार।

खीर बना दई है कुम्हडा की, पनों बना दओ है रसदार,

बुंदी डार खें कढ़ी बना दईं, कड़क हींग को लगो बघार।

घी में भींजे चावल परसे, राहर दार परोसी जाय,

मिरचा, नौंन, अथानों धर दओ, दूध में रोटी दई डुबाय।

करें बड़ाई सब भोजन की, खातई खात पेट भर जाय,

पाँव परे सबने टठिया के, पानी पी खें रहे अघाय।

फिर चैंका में अम्मा पहुंची, बहू की थारी दई लगाय,

पूरे भोजन करई नें पाई बाहर हल्ला परो सुनाय।

जीजा आगये सागर वारे, जिज्जी सोई परीं दिखलाय,

दौर खें लिपट गई जिज्जी से,जीजा खें दओ शीश नवाय।

तनक देर में भोजन हो गये, सबरे करन लगे आराम,

हाल चाल जिज्जी से पूछें, कैसी उनकी माताराम।

शिकन नईं आई माथे पे, सदा रही एंसई मुस्कान,

जैसी बहू ‘मुनि’ ने लिख पाई, एंसई सबखें दे भगवान्।


कवि - श्रीमती अर्चना गोस्वामी ‘देवेश’

पति - श्री देवेश गोस्वामी

जन्म तिथि - 27 सितंबर 1966

शिक्षा - एम.एस.सी., एम.एड. (अंग्रेजी)

विशेष - आकाशवाणी जबलपुर से सुगम संगीत प्रसारण, एम.ए. कंठ संगीत में निष्णात

पता - उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, अध्यापक आमाहिनौता, जबलपुर


अमुआ की डारी घले.....


अमुआ की डारी घले झूला हजार।

सावनवा में नाचे है जियरा हमार।।

उमड़-घुमड़ बदरा छावें डरावें,

चम-चम बिजुरिया मोरा जियरा कपांवे।

टिप-टिप बुंदरियां भी गावें मल्हार,

सावनवा में नाचे है जियरा हमार।।

घरी-घरी मयके की याद सतावें,

पल-पल में पलकन की कोरें भिजावें।

लुक-छिप निहारूँ मैं अँगना द्वार,

सावनवा में नाचे है जियरा हमार।।


कोनऊँ न जाने राम......


कोनऊँ न जाने राम, कोनऊँ न जाने राम।

अपने जीवन की विथाखें, कोनऊँ न जाने राम।।

बालापन खों खेल गंवाए

भर जौवन आरस उरझावे

देख बुढ़ापो काहे न चेते

व्यर्थ समय नें गंवाएँ

हिल-मिल के सब संगई रै रए

दुख विपदा खों संगई सै रए

अपने-अपने करमन सीचें

अपनी-अपनी ठाँव

कोनऊँ न जाने राम,

मो पै रंगा ने डारो सांवरिया.....

मो पै रंगा ने डारो सांवरिया

स्याम पैयाँं परूँ तोसे बिनती करूँ

देखो भींज ने जाये चुनरिया

बाट तकत मोरी मग रोकत हो

छलिया-छैलन संग छलवत हो

देखो रोके है हमरी डगरिया

मो पै रंगा ने डारो सांवरिया

लाल ने भावे गुलाल ने भावे

सतरंगी संसार ने भावे

रंग दो अपने ही रंग रंगरेजवा रे

मो पै रंगा ने डारो सांवरिया


सब मिल वृक्षन खों पूजें चलो गुईंयाँ.....


सब मिल वृक्षन खों पूजें चलो गुईंयाँ।

धरती खों स्वरग बनावें मोरी गुईंयाँ।।

तुलसी कि बिरवा खें द्वारे लगाएँ

भोर भए जल ढारन जाएँ

संजा खों दियरा उजारें मोरी गुईंयाँ

मंगल भोग लगायें मोरी गुईंयाँ

निरोगी काया सबैं पायें मोरी गुईंयाँ

बटअमावस बरगद पूजन जाएँ

चंदन रोरी अक्षत, फेरी लगाएँ

चना गुर आम गूलर उनखें चढ़ाएँ

सौभाग्य दीरघ आयु पाएँ मोरी गुईंयाँ

आमा और निमुआ डारी झूरा डराएँ

हरियाली तीज मोरे मन खों रिझाएँ

हिलमिल पेंग भरायें मोरी गुईंयाँ

सुख संतोष रस पाएँ मोरी गुईंयाँ

आंवरा नवमीं आंवरा पूजन जाएँ

पीपर तरे तेल दियरा जराएँ

अनत सुख सुद्ध प्रान-वायु पाएँ

परियावरन सुद्ध बनावें मोरी गुईंयाँ

वृक्षन सी उमर पावें मोरी गुईंयाँ

कवि - ई. हेमन्त कुमार जैन

पिता - स्व. विजय कुमार जैन

जन्म तिथि - 14 जनवरी 1960

शिक्षा - बी.ई. सिविल

विशेष - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 522/पी/97, दुबे आटा चक्की के पास जगदम्बा कालोनी, जबलपुर


गईया मईया


वा इते उते

आवारा घूमत,

कचरा के

ढेर में से

खावे की चीज

ढूंढत ।


मुहल्ला वारे

ओखों बुलावें

रात की

बियारू की

बची जूठन

ओखों खिलावें।


वा हमाय

मुहल्ला की

गईया थी,

कैसे कहें

मईया थी ??


बुंदेली चुनावी रचनायें

-1

जा बेर के चुनाव में

नेता ओर ठलुआ ,

कछु जादईं से

दिखा रय हैं।


पाँच सालों सें

जो हिरा गय ते

वे रोजई घरे

चले आ रय हैं।


-2

उनकी बातों में ,

ने रह जइयो ,

उनके पुटयावे में

ने आ जइयो।


उनको पेलें को

काम देखकें

सई जगहा में

बटन दवईयो।


जो कैसों बखत आ गव है......


जो कैसों बखत आ गव है ।

कछु समझ में नई आ रव है ।।

जोन येक हाथ से पानी लेत थे ।

ओई कुंआ को तला दिखा रव हे ।।

जो कैसो बखत .....

पैदल चलवो सब भूल गये हैं ।

जब से जा फटफटिया आ गईं है ।

पेले तो कोस भर चल लेत त्ते ।

अब पसीना तनक में आ रव है ।।

जो कैसो बखत .....

पेले मोड़ा की बारात खों हम

आन गांव ले जातते थे ।।

अब तो मोड़ी खों इतई बुला केँ

मोड़ा फेरा पड़वा रव है ।।

जो कैसो बखत .....

पेले मों दिखाई को देके नेग ।

बहु की मुइयाँ देख पात ते ।।

अब तो पेलई से ओको

सवई कछु दिखा रव है ।।

जो कैसो बखत .....

दतोन अब कोई नईं करत है ।

पेड़ नीम को कटवा दव हैं ।।

दांत अवई से सड़न लगे हैं ।

टूथ पेस्ट जबसे आ गव है ।।

जो कैसो बखत .....

घर में पाहुने आ केँ बैठे ।

कोई नईं उनसे बतिया रव है ।।

आवो जावो सब भूल गय हैं

जब सें जो टी वी आ गव है ।।

जो कैसो बखत ....


कवि - श्री ओंकार प्रसाद सैनी

पिता - स्व. श्री मुकुन्दी लाल सैनी

जन्म तिथि - 30 जून 1952

शिक्षा - मेकेनिकल इंजीनियर

विशेष - एक टिफिन इंसान के लिए एवं दो सी.डी.

पता - मधुवन कालोनी, बल्देवबाग, जबलपुर

मो. - 9516642435


माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम.....


माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम,

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम।

इस माटी की ऐसी शान,

इस माटी की ऐसी शान।

इस माटी में राम बसे हैं,

इस माटी में श्याम चले हैं,

शंकर बाबा बसे देखो जागेश्वर धाम।

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम....

इस माटी के लाल कैसे कैसे,

केशव तुलसी पदमाकर जैसे,

बिंद्रावन लाल वर्मा माटी की जान।

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम....

इस माटी ने बीर दिये हैं,

छत्रसाल से लाल हुए हैं,

झांसी की रानी बढ़ाई शान।

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम....

इस माटी में कैसे मोती जड़े हैं,

खजुराहो मंदिर, कलिंजर दुर्ग खड़े हैं,

पन्ना की भूमि देखो हीरों की खान।

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम....

बस सैनी की कामना इतनी,

फैले खुशबू इसकी इतनी,

दुनिया निहारे इसे सुबहो शाम।

माटी बुंदेली तुझे सौ सौ प्रणाम....

खजुराहो मोकों नीको लगे......

सारो जगत मोहे फीको लगे।

खजुराहो मोकों नीको लगे......।।

ई खजुराहो चैरासी मंदिर,

सारे रस समा रहे अंदर,

गोरी दुलइया खों मीठो लगे।

खजुराहो मोकों नीको लगे......

ओई समय को वर्णन कर गये,

हर पथरा में जीवन भर गये,

शाल भंजिका प्यारी लगे।

खजुराहो मोकों नीको लगे......

शिल्प समुद्र का अद्भुत संगम,

सारे मनीषी कर रहे मंथन,

कैसे कैसे मोती जड़े।

खजुराहो मोकों नीको लगे......

काम समुद्र प्रेम की पूजा,

रचा न कोई ऐसा दूजा,

प्रेम समर्पण प्यारा लगे।

खजुराहो मोकों नीको लगे......

रीति कुरीति कर्म की गीता,

रचा न कोई ऐसा दूजा,

हर दर्शन अनूठा लगे

खजुराहो मोकों नीको लगे......


मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....


मन गा रओ, मोरो मामुलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....।।

एक बाड़ी से बाड़ पटाई,

फिर फूलों से उसे सजाई,

रंग लागरओ झिलमिलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....

हलदी टीका महावर बिंदी

फिर पूजा की थाली धर ली

जल रही कैसे झलमिलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया....

गावत डोलत चल रहीं सखियाँ,

जा इनकी छवि भा रहीं अंखियाँ,

गा रहीं देखो मामुलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....

चलत-चलत लो सरवर आ गओ,

जैसे जीवन को सुख पा लओ,

सिरा दईं देखो मामुलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....

शीश नवाया ईष्ट मनाया,

सब देवन खों भोग लगाया,

सदा सुखी रखे मामुलिया।

मन गा रओ, मोरो मामुलिया.....

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना.....


गोरी मिलना अब तो लगे फगुना।

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना।।

मेड़ों में टेसू फूलन लागे,

मन में उमंगें जागन लागे

जी में परे न अब चैना।

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना......

सोला बरस की तोरी उमरिया,

चलने में तोरी लचके कमरिया,

तोसों लागे मोरे नयना।

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना ......

सैन इशारे तू न समझे,

भेद जिया के तू न समझे,

कैसे कटे मारी रैना।

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना ......

आशा मोरी पूरी कर दे,

खुशियों से मोरो जीवन भर दे,

प्यार करूं जब लगे जीना।

गोरी मिलना अब तो लगे फगुना....


कवि - श्री कालीदास ताम्रकार ‘काली जबलपुरी’

पिता - स्व. कवि सूरज प्रसाद ताम्रकार

जन्म तिथि - 12 नवम्बर 1960

शिक्षा - मैकेनिकल इंजीनिरिंग

विशेष - प्यार की तरंग, उजाले की सैर,तीसरी आँख,सूरज की कविता,एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

पता - 461/40 अ एकता चैक,विक्रमादित्य कालेज के पास विजय नगर जबलपुर

मो. - 9826795236


जो घर तुम्हारो भी है बिन्नी .....


जो घर तुम्हारो भी है बिन्नी

ये खें अपनों घर ही समझियो

ससुरे से आ जइयो बिन्नी

मायके खों आ जईयो।। जो घर तुम्हारो भी....


देवरा नन्द संग हिलमिल रहियो

सास ससुर की सेवा करियो

अपने बलम खों संग ले आईयो

तनक सोच न करियो।। जो घर तुम्हारो भी....


रिमझिम-रिमझिम बरसे पानी

टिप-टिप चुअन लगे जब छानी

तंग न कोऊ खें करियो

सावन में आ जइयो।।जो घर तुम्हारो भी....


बचपन के दिन संग सहेली

दद्दा बउ न बिसरईयो

रस्ता भूल न जईयो पहेली

सुनबे खों आ जईयो।। जो घर तुम्हारो भी....

चंैय्या-मैंय्या खेलत-खेलत

रक्षा बन्धन निभैयो बिन्नी

‘काली’ पलक लगाये रैहें

मायके खों आ जईयो।। जो घर तुम्हारो भी....


राम राज के झूठे सपने.....

राम राज के झूठे सपने

जब आदमी घी दूध पियत्ते

बड़ा भरोसा देश भक्ति का

जहाँ में सीना ताने रहत्ते

लड़ाई की कछु बात ना पूछो

अकाश में जा के लड़त्ते।।

कहियो नें के ऐसीं कहत्ते.....


मान मर्यादा बढ़ी चढ़ी थी

भीष्म से ग्रम्हचारी रहत्ते

सतवादी और समय की कीमत

हरीश चंद दानी ने बिकत्ते

प्राण जाय पर वचन ने जाये

राजा दशरथ रघुकुल में रहत्ते।।

कहियो नें के ऐसीं कहत्ते....


सांकल ताला खुला छोड़ घर

पहले मानव यात्रा नें करत्ते

काम क्रोध लोभ मोह से

सचमुच भाई बड़ी दूर रहत्ते

सारी दुनिया ढूढ़ी ‘सूरज’

बिना राम कल्याण ने भयते।।

कहियो नें के ऐसीं कहत्ते.....


उत्तम विद्या मध्यम खेती.....


उत्तम विद्या मध्यम खेती

अपनों चरित्र गिरइयो ना

भरोसे की भैंस पड़ा बिया गई

कोई के भरोसे रहियो ना।। भरोसे.....


सब खें ओको रूप जानियो

कोई खों छोटो समझियो ना

सबसे मीठी बानी बोलो

पत्ती कोई की कटईयों ना।। भरोसे......


समझ सोच खें काम बनइयो

झटके में तुम अइयो ना

सादा खाना सादा रहना

टिप्पई टाप पै जइयो ना।। भरोसे.....


नाम अमर कर इस दुनियाँ में

रोगी काया बनइयो ना

जे में नाक, कान फट जावंे

ऐंसो सोनों पहनियो ना।। भरोसे....


अपने काम में लगे हैं ‘सूरज’

ओखें रस्ता बतइयो ना

राम नाम खें ‘सूरज’ गावें

ओखें कभउँ भुलइयो ना।। भरोसे.....

कवि - श्रीमती कृष्णा राजपूत

जन्म तिथि- 26 जनवरी 1961

शिक्षा - एम.ए.

विशेष - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी में प्रस्तुति

पता - 713/6 अग्रवाल कालोनी जबलपुर

मो. नं. - 9329685135


दे दो दर्शन हमखों आये.....


दे दो दर्शन हमखों आये, त्रिपुर सुन्दरी माय।

मनसा पूरन कर दो आय, त्रिपुर सुन्दरी माय।।


उठ भुनसारे बड़े सकारे, सपर खोर कैं आई,

नारियल फूल, सुपारी चुरिया सेन्दुर संग ले आई

आज चढ़ाखे जेहो माय त्रिपुर सुन्दरी माय

दे दो दर्शन हमखो आये, त्रिपुर सुन्दरी माय

मनसा पूरन कर दो आय, त्रिपुर सुन्दरी माय.....


चलत-चलत बड़ी दूर से आई, छालन भर गये पाँव

धूप दीप नैवेद्य आरती, दर्शन कर हो माय

मैं तो बैठी आस लगाई त्रिपुर सुन्दरी माय

दे दो दर्शन हमखो आये, त्रिपुर सुन्दरी माय

मनसा पूरन कर दो आय, त्रिपुर सुन्दरी माय.....


बालक कन्या अंधे लगंड़े, कोढी टेर लगाये

सबकी तुम ने झोली भर दई, हमरी सुनी न माय

अब तो हद कर दयी है, माय त्रिपुर सुन्दरी माय

दे दो दर्शन हमखो आये, त्रिपुर सुन्दरी माय

मनसा पूरन कर दो आय, त्रिपुर सुन्दरी माय.....


छोटो मुखड़ा बड़ी सी बातें कह दयी तो माफी हो माय

चमडी की छोटी सी जिव्हा बोलन लग गई माय

करियो माफी दइयो दर्शन त्रिपुर सुन्दरी माय

दे दो दर्शन हमखो आये, त्रिपुर सुन्दरी माय

मनसा पूरन कर दो आय, त्रिपुर सुन्दरी माय.....


ने काटो, ने काटो, ने काटो सारे......


ने काटो, ने काटो, ने काटो सारे।

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे।।

ं पेड़दवारन के तुमने काटे,

पीपल, अश्वगंधा, बरगद सारे

नीम, चंदन, तुलसी के पेड काटे सारे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे.....

सुन्दर फूलों की बगिया उजारी

चम्पा, गुलाब, गेंदा और चमेली

जारूल, पलास और कमल उजारे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे.....

बांस, बबूल, शीशम इमली, निबुआ

आम, बिही, केला, तरबूज, तेंदुआ

पानी ने मिल पाओ मिट गये सारे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे .....

काट-काट पेड़न खों, हवा पानी रोक लये

कहां रुके बदरा कहां-कहां पानी बरसे

उड़-उड़ निकार गये, विखर गये सारे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे.....

निपटा लओ सबई हाथन हाथ धरे बैठे

चिंता फिकर अब का हू है प्यारे

देशन में मच गयी हाहाकार रे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे.....

अब धरती बोली तनक सुन लइयो

पेड़ और पौधन खों फिरसे लगइयो

छोटन से बूढ़े लौ लग जाओ सारे

धरती की पीर सुनो ओ काटन बारे.....

कवि - श्री नन्द किशोर शर्मा

पिता - श्री तुलसीराम शर्मा

जन्म तिथि- 29सितम्बर 1965

शिक्षा - हायर सेकेंडरी

विशेष - आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में काव्य पाठ, साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - धूप खेड़ा, तहसील तेंदूखेड़ा नरसिंहपुर

मो. - 9981738372


शहद से जादा है मिठास, अपनी बुन्देली.....

शहद से जादा है मिठास, अपनी बुन्देली बोली में।

बात सुनो तुम खो नैं दइयो, ऊँसइ हँसी ठिठोली में।।

शहद से जादा है मिठास, अपनी बुन्देली बोली में.....


भाव भरी भोली भाली जा, बोली प्रेम पगी सी है।

मरजादा को घुंघुट घाले, जाखों लाज लगी सी है।।

हिंदी, अवधि, भोजपुरी जा, सबकी बहन सगी है।

दमके भारत भव्य भालपे, दुनियाँ देख ठगी सी है।।

ने मानों तो आखैं देख लो, ईद, दिवाली, होली में।

शहद से जादा है मिठास अपनी बुन्देली बोली में.....


बोली के बीजन सें उपजे, संस्कार बारी फसलें।

जो कऊ बीज भयो खिबरा, तो ने रहै न्यारी नस्ले।।

सुंदर फूल खिले कैसे जब हम खुद कली-कली मसलंे।

मान बढ़ा निज बोली को हम, पीढ़ी-दर-पीढ़ी रस लें।।

भली चढ़ी अंग्रेजी मूड़े, तुम जाये बिठारो ओली में।

शहद से जादा है मिठास अपनी बुन्देली बोली में.....


कुंआर करे ने कच्छू, कटवा करिया बार करे ठुटिया।

भुंसारे से पूरो घर खां, कीच मचा धो-धो कुटिया।।

बहू से पकरो जाये ने बैहरा, बेटा से हर को मुठिया।

बैठे-बैठे खाए दोई, उर डुबो रहे घर की लुटिया।।

जो सब सत्यानाश भयो है, माई डियर की बोली में।

शहद से जादा है मिठास अपनी बुन्देली बोली में.....


बात सुनो मोरी तुम खो नैं दइयो,ऊँसइ हँसी ठिठोली में।

शहद से जादा है मिठास अपनी बुन्देली बोली में।।


बदरा-बरस रहे घनघोर .....


बदरा-बरस रहे घनघोर ।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू, ढोर।।

आसों ऐसी लगी झड़ी जा, तनक रुकत है नैंया।

कैसे के का कर हो री, परदेश बसत है सैंया।।

सावन आग लगा र व तन में, मन में उठत हिलोर।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर।।

बदरा-बरस रहे घनघोर.....


तनो उसारे पाल मनो जब पवन झरोका आवे।

भई भीतर बौझार अरगनी, तोखो कहाँ लुकावे।।

भीज गये सब उन्ना लत्ता, देय कौन खो खोर।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर।।

बदरा-बरस रहे घनघोर.....


घर की नव गई छानी, खपरा नही रहे अब बसके।

पीछे बारे दोई चूरिया, बीता-बीता धसके।।

चूल्हे टपका परों रातभर, नरबा आ गव दोर।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर।।

बदरा-बरस रहे घनघोर.....


तीन दिनों से कटो नें चारो, भूसा भींज गव पूरो।

गोबर कैसे होय रिपटनू गैल, दूर है घूरो ।।

गैया छनक गई लुटिया भर, दै रई दोई जोर।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर।।

बदरा-बरस रहे घनघोर.......


जो मौसम है बीमारी को, करियो नैं नादानी।

जादा नई तो बऊ-दद्दा खें, लगा दो मच्छरदानी।।

हर दिन डूबे धुँआ नीम को, कर रये ‘नन्दकिशोर’।

हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर।।

बदरा-बरस रहे घनघोर.....


हो रये सब हैरान आदमी और बछेरू ढोर


कर्जा की मार

टेक -

पिया कर्जा की मार कठिन भारी।

पिया कर्जा की मार कठिन भारी।।

का देसी ? का सरकारी !

पिया करजा की मार कठिन भारी......

चिंता में देह सूक रई ऐसे।

जैसे लगी कोनऊ बीमारी।।

पिया कर्जा की मार कठिन भारी......

जेई दिना करो सो लग गव तगादो।

रात के नोनी लगे ने ब्यारी।।

कच्छु में ले गिर हो, फिजुलखर्ची में

चार दिना की है बढ़वारी

पिया कर्जा की मार कठिन भारी....

जोरत चलो कछु आगे के लाने

खरचत ने जईयो कमाई सारी

पिया कर्जा की मार कठिन भारी....

वकत परे कोउ, कामे नैं आहे

स्वारथ की दुनियादारी

पिया कर्जा की मार कठिन भारी......

कहे ‘किशोर’ फेर दई रोटी

सुगर मिली है घरवारी

पिया कर्जा की मार कठिन भारी......

कवि - डा. अनिल कोरी

जन्म तिथि- 1 जून 1967

विशेष - कृति-मेरी प्रेरणा विनीत, मन का प्रवाह, एवं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 1083, संजीवनी नगर गढ़ा जबलपुर

मो. - 9425356998


गाँव, कस्बा, बस्ती


जिते जीवन खों जीवो जानें,

परायों के लाजे मरवो जानें।

ओखोंई अपन बस्ती समझें,

ओई खों गाँव, कस्बा जानें। जिते जीवन.......


भलो बुरो सबई हाल में भईया,

जिते दुख को कहुं नाम ना होत।

सबई इते पे खुशी लुटात,

होत ने कहूं दुख को हालात।

एखों अपन स्वर्ग कह सकत,

एई खों सबई जन्नत मानत। जिते जीवन........


सोना जैसो खेत इते है,

हरोभरो सो सबई किते है।

बादर बरसत जबई जोर सें,

तबई जोर खें नचत मोर हैं।

त्यौहारन की जिते धूम मचत है,

मंदर हम ओखोंई मानें, जिते जीवन........


बेहर शुद्ध बहत इते पे,

चिरईयाँ करत हुदड़ंग इते पे।

ताल तलैयों पे तो भईया,

सपरें खोरें सबई इते के।

देहाती जीवन इते को,

खूब लुभानों ऐखों जानें। जिते जीवन...........


तोहे भवानी पूजें हम........


तोहे भवानी पूजें हम,

नवरात्रों में मैया।

हां हां रे नवरात्रों में मैया।। तोहे भवानी..............


मैया खों जल ढारन के लाने,

ढारन के लाने जल ढारन के लाने

मैया खों जल ढारन के लाने

नर्मदा जल ले आई रे

नवरात्रों में मैया

हां हां रे नवरात्रों में मैया, तोहे भवानी..............


लाल चुनरिया मैया के लाने

मैया के लाने मोरी मैया के लाने

लाल चुनरिया मैया के लानें

बजाज से मोल ले आई रे

नवरात्रों में मैया

हां हां रे नवरात्रों में मैया, तोहे भवानी..........


चुन चुन कलियाँ हरवा बनाये

हरवा बनाये मैने हरवा बनाये

चुनचुन कलियाँ हरवा बनाये

बगिया से फूल ले आई रे, तोहे भवानी..........


गहना जेवर पहरे मैया

पहरे मैया पहरे मैया

गहना जेवर पहरे मैया

सिंहासन पे बैठी रे

नवरात्रों में मैया

हां हां रे नवरात्रों मे मैया, तोहे भवानी ..........


अनिल खड़ो है दोरे तुम्हारे

दोरे तुम्हारे मैया दोरे तुम्हारे

अनिल खड़े है दोरे तुम्हारे

भक्तों के कष्ट निवारो रे

नवरात्रों में मैया

हां हां रे नवरात्रों में मैया, तोहे भवानी.......

शिव भोले को ब्याह


शिव भोला संग ब्याव करन खों

ठांड़ी हैं गौरा रानी

कोऊ की एक नईं मानी


मात पिता सब रये समझाउत

भोले की भईं दीवानी

कोऊ की एक नईं मानी


अपने मन की कर रईं गौरा

सुधबुध खो भईं बेगानी

कोऊ की एक नईं मानी


परबस मे भये माई बाबा

बिटिया के आगे भये पानी

कोऊ की एक नईं मानी


गौरा झूम रहीं आज

वे तो नाच रहीं आज

शम्भू पिया के काजें

वे तो नाच रहीं आज

भोला पिया के काजें


शंकर भोला राख लपेटे

गरे में अपने नाग समेटे

भूत पिषाच खों लेके संग

चले ब्याहने गौरा संग


बड़े बड़े अघोरी चल रये

गंजेड़ी चले भंगेड़ी चल रये

खूबई मचा रये हड़दंग

चले बायहने गौरा संग


बारात दोरे पे आई

बारात दोरे पे आई

होन लगी जग हँसाई

बारात दोरे पे आई

होन लगी जग हँसाई


रानी मेना रो रई जमखें

गौरा धीर बंधायें लिपटखें

माँ वे हैं औघड़दानी

कोऊ की एक नईं मानी


भांवर पड़ रई है आज

भांवर पड़ रई है आज

राजा हिमांचल द्वारे

भांवर पड़ं रई है आज

राजा हिमांचल द्वारे


देवता खूब सुमन वर्षा रये

किन्नर नाचें सब नर गा रये

पिट गई जगत मुनादी है

शिव गौरा की शादी है


तुम हो दीनों के नाथ

तुम हो दीनों के नाथ

हम सबके पालन हारे

तुम हो दीनों के नाथ

हम सबके पालन हारे


शिवरात्री में अनिल खड़ो है

शिवरात्री में अनिल खड़ो है

तुम्हरे दर्शन के लाने

हम दर्शन के दीवाने


झूला पड़ गये गुंइयाँ री......


झूला पड़ गये गुंइयाँ री

मोरे कहाँ हिरा गये सइयाँ


सावन की पड़ रई फुहार

बदरा बरसें धारई धार

नांचे मयूरा पंख पसार

तनकई जियरा मानत नइयाँ

मोरे कहाँ......


नीम डार पे बंध गये झूला

खुशमन से झूलें सब झूला

कोई रहे ना फूला फूला

उनको पता चलत है नइयाँ

मोरे कहाँ.......


सखियाँ मचा रहीं हुड़दंग

झूलें अपने पियाजू संग

मैं तो आ गई उनसे तंग

अब जाने जे का हैं करइयाँ

मोरे कहाँ......


कवि - विनीता अनिल कुमार ‘विधि’

पति - डा. अनिल कोरी

शिक्षा - एम.ए. बी.एड.

विशेष - रेणु की दिव्य ज्योति,अस्तित्व की बहार, सुखसागर एवं कविता लेख कहानीयाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 1083, संजीवनी नगर, गढ़ा, जबलपुर

मो. - 9424726827


स्वभाव


भाव मेरो नीको राखो

मनवा मां धीर धारो

नेकी मुखरे में दमके

शीतल स्वभाव राखो


सांसन की डोर भी

मिजाज में बहकत है

नीले पीले तेवर से

घिरना के बढ़ात है


अच्छो सुभाव जाको

लगहे सबई को प्यारों

बोली ओकी मिसरी सी

बरसत है नेह न्यारो


टापू बन गयो मोरो गाँव.....


टापू बन गयो मोरो गाँव

चारो ओर जल की है छांव

परलय में हमरी है नांव

प्रभु बचाओ परती हूँ पांव


पानी रौद्र रूप न धरियो

सूरज के भी छिपा न दैयो

कड़क कड़क दहारे बिजुरी

हिलोरे मार मोके न डरैयो


बड़े पियारे तुम जल देवा

तोसे फीके है सब मेवा

संकट आन परी है द्वारे

तुम ही मोरी नांव के खेवा


कैसन पड़ी जा मौसम की मार.....


कैसन पड़ी जा मौसम की मार

हम तो खूबई हो गए बीमार

कैंसो आओ जो बुखार


हाथ पाँव तो खूबई पिरायें

ठाढ़े हो तो गिर गिर जाएं

रोटी कौन बनाये आज

बड़ो बेदर्दी लगड़ा बुखार


होत भुनसारे डाक्टर कें गये थे

द्दा हम तो खूबई कंपे थे

सड़क तलक रोगी भरमार

कईसे भगायें लगड़ा बुखार


मच्छर को भी चैन हैं नइयाँ

रक्त बीज ये बने हैं गुईंयाँ

धुँआ से बे तो डरतइ नैयाँ

बड़े जबर जो आओ बुखार

मों कें हो गओ लंगड़ा बुखार

कवि - श्रीमती आशा श्रीवास्तव

पति - श्री विजय श्रीवास्तव

शिक्षा - एम.ए. पी.एच.डी.

विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रकिाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 1321, छोटी उखरी, यादव कालोनी जबलपुर

मो. - 9303966335, 9179136335


सदा भवानी दाहिने.....


सदा भवानी दाहिने, सम्मुख रहे गणेश।

पांच देव रच्छा करें, ब्रम्हा, विष्णु, महेश।।


वीर बुन्देलन की जा माटी, जी में रओ नारी सम्मान।

दुर्गा, लक्ष्मी और सारन्धा ने, भोत बढ़ाओ मान।।


ऊ धरती पे आज हो रओ, नारी को कितनों अपमान।

देखो तो हरदौल लला ने, भोजी खातिर दै दई जान।।


सो बिटियन की रच्छा के लाने, सगरी जनता भई तैयार।

खेदि-खेदि मारो बैरिन खां, जो बिटियन पे करे प्रहार।।


बिटिया हँसे खिले औ पढ़बे, सब कोइ मिलकें करें प्रयास।

कोऊ बिटिया की आंख न रोबे, न तो टूटे ऊकी आस।।


बदले सब अपनों मन तो, नारी-नर हो एक समान।

मान के बदले मान मिलत है,जान के बदले जाबै जान।।


यहाँ की बतियाँ यहाँ पे छोड़ो, अब आगे का सुनो हवाल।


पानी पेड़ बचाबे खातिर, जन-जन खों होने तैयार।

आर-पार की जा है लड़ाई, आहै समव न बारम्बार।।

सो भईया, जब पानी बचहै, तब बचपै हैं सबके प्रान।

सो पानी बरबाद करो नें, बचा के राखो ऊको मान।।

पेड़ फूल धरती को गहनों , ऊको रुचके करो सिंगार।

प्रेम भाव बाढे़ आपुस में, सबरे करें बात ब्यौहार।।

धरती नोनी लगे जबई तो, सबके जीवन में संतोष।

सबरे मिल जुल रहें तो भैया, न कहूं न झगरा नहिं कलेस।।


वीर धरा पै वीर डटे हैं, सीमा पे झेल रयै हैं वार।

आशा की विनती है माता, निशदिन बढ़ै सूरमा त्वार।।


होरी के हुरयारे भईया,.....


होरी के हुरयारे भईया, कीच गिलाव नै डारौ।

छाँडो भांग, शराब को खैबो, जिनगी को खतम करबो।।


होरी में मेहनत को पैसा बहाके, परिवार खां दुखी करबो।

साल भर को त्यौहार, मोड़ा-मोड़िन को मौं देखो।।


काये के लाने अपनी, जिनगी से खेल रये।

खुसी की चाह में, दुःख घर में भर रये।।


बाद में पछतैबे को, मोका न मिल है।

पूरो कुनबा जब, भुकमरी की कगार पै हूँ है।।


अबहूँ चेत जाओ, हुरियारे भईया।

ऐसो न हो चिड़िया चुग जाबे खेत, हतेरी में बचे रेत।।


आँखन में आंसू, त्यौहार में मनुहूसियत।

काये के लाने बिना मोल की, विपदा मोल ले रये।।


बाई मोरी मोय बना दओ बिजूका.....


बाई मोरी मोय बना दओ बिजूका।

बाई मोरी मैं बन गओ बिजूका।।

मारो-मारो फिरत सहर में।


मिलो न एकऊ दूका।।

दद्दा मोरे मोय बना दओ बिजूका।


बाई मोरी मोय बना दओ बिजूका।।

मोय देख सब हँसी उड़ाबें।


मिलके मोरी फिलम बनाबें।।

परो करम में फूंका,

बाई मोरी मैं बन गओ बिजूका।

दद्दा मोरे मोय बना दओ बिजूका।।

अम्मा मोरी मोय बना दओ बिजूका।

जाने को जो छोटो सो डिब्बा।

कान लगाके जे बतलाबें।।

जो जादू तो नोनो लगो मोय।

पाऊँ कहाँ से ई खां।।

बाई मोरी मैं बन गओ बिजूका,

दद्दा मोरे मैं बन गओ बिजूका।

बाई मोरी मोय बना दओ बिजुका।।


उलटे-पुलटे हो गये, रितुअन के खेल......


उलटे-पुलटे हो गये, रितुअन के खेल।

गरम हो रई धरती, परदूषन झेल-झेल।।

बाढ़, भूकम्प, सुनामी सब रये हैं घेर।

सुन लो पुकार मोई, रई तुमें टेर।।

पंक्षी, पेड़, पानी सब खां बचाने को करो फेर।

जीवन बचे तुमाओ, जतन करो ढेर-ढेर।।

रीतो खजानों मोरो, अब कहूं नईयाँ।

सबको जीवन जुरो, एक दुसरे पै आश्रित।।

बाद में पछतैहो, रीत गई मोरी भरी गागर।

हरियाली की छिन गई मोरी सुंदर सी चादर।।

लालच की भूक कभऊँ न मिट है।

तुम धरती को पूरो-पूरो खतम कर दैहो।।

हरियाली लाओ, हरयाली बढ़ाओ।

जिन्दगी बनाओ, जिन्दगी बचाओ।।

चेत जाओ सुनो मोरी टेर बार-बार।

बुला रई धरती माता अनसुनी नें करो पुकार।।

आशा कै रई, धरती माता बचहै तो सब बचहैं।

तबई सबके जीवन में, हँसी खुशी प्रेम भरैगो।।


कवि - श्रीमती प्रभाविश्वकर्मा ‘शील’

जन्म तिथि- 5 जुलाई 1ं969

शिक्षा - ट्रिपल एम.ए.,डी एड.,बी एड. एम.एड.

विशेष - बूंदावारी, (बुंदेली काव्य संग्रह) एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन एवं आकाशवाणी में कृषि एवं गृह एकांश विभाग में उद्घोषिका

पता - अघ्यापक शा. माध्यमिक शाला अंधुआ तेवर, जबलपुर

मो. नं. - 9098005769


समदन मैं ठहरो पटवारी,.......


समदन मैं ठहरो पटवारी, नापूँ, खेत जमीं सारी। समदन मैं ठहरो पटवारी....

तोरी सकल देह में नापूँ, दै दै उन्हारी।।

इंच फुटा को काम कछू नर्इं, नैंनों से भापूँ । समदन मैं ठहरो पटवारी....


मुइयाँ तोरी चकबन्दी सी चांदा धर नापूँ।।

धर परकाल नाक पै नापूँ, मुँह की गोलाई। समदन मैं ठहरो पटवारी....


नाक के दो नलकूप हैं जिनकी, भारी गहराई।।

कान नाव के खुदे कुआँ, पाताल कोट गहरे। समदन मैं ठहरो पटवारी....


दो जादूगर जादू डारै, नैनों के पहरे।।

ओंठ तला की पार से गीले, बीच जीभ रसना। समदन मैं ठहरो पटवारी....


बत्तीस दाँत तला के मोती, तन्नक हँस दो ना।।

गोल-गोल दोई गलुआंे पें, के गुदना है नीके। समदन मैं ठहरो पटवारी....


सब जेबर तोरी नीक बनक के आँगू है फीके।।

घने जवारों कैंसी वारी, लटै हैं जे कारी। समदन मैं ठहरो पटवारी....


मुनगा की कोंसों के जैंसीं, दो चोटी डारी।।

पतरघिचु तूमी के जैंसीं, गरदन है तोरी। समदन मैं ठहरो पटवारी....


बरसाती परमल के जैंसीं बाहें लमछीरी।।

भूर चढ़े कुम्हड़ों के ऊपर, पतरी करहाई । समदन मैं ठहरो पटवारी....


मूसर के जैंसीं बनोय दोई, पिड़रिन की पाई।।

कछू जगहा लागानी जे में लगी है बरवारी। समदन मैं ठहरो पटवारी....


दो खूंटा बज्जुर के जिनकी है लंबरदारी।।

खरबूजा खों देख-देख, खरबूजा रंग बदलें। समदन मैं ठहरो पटवारी....


रूपरंग की खोल किबरियें, कामदेव मचलें।।

बीस ऊंगरिये हाथ पांव की, बटरा की कोंसें। समदन मैं ठहरो पटवारी....


जा छबि को बरनन अब आंगू, नई होवे मोसें।।

मैं ठहरो पटवारी....

हे भगवान् गरीबी हमरे.....


हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी।

हम तो खा कें, सो रये सेंगी, कभऊँ खाय बस आधी।

घरै नंद के आये लुबौआ, मेले तीन दिना सैं।

कन्डा, लकड़ी, राशन-पानी, लाऊँ उधार कहाँ सें।

बड़े घराने बडे़ चोचले, बड़ी दूर सैं आये।

बिनई संदेशे, बिनई खबर दयें, गौना खों बौराये।

पहलऊँ पहल आये हैं पौहनई, भई है जब सें शादी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सें बाँधी ।

पहले दिना आउतई बोले, चिकन चंद नन्दोई,

डारौ दार-बरा की भौजी, चिकनी तपौ रसोई,

दार-भात खा खूब अघाने, खीर लुचँईं को मन है,

डुभरी महुआ फरा ठड़ूला, खाबें आये सजन हैं।

मित्र हमारे कहत रहत ते, होय सुसरार में चांदी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी।

दिना दूसरे बोले भौजी, तुम सोई हौ कंजूसन,

तुमसै तो साजी बा निकरी, तुमरी दोर परौसन,

ओंनें हमखों गुर डारे, गुलगुला खुआये बनाखें,

पहलऊँ तो हम नाँहीं कर दये, तो सुई खुआये मनाखैं।

कम सै कम ओने सुसरार में, इज्जत मोरी बढ़ा दी

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सें बाँधी।

उर इक तुम हौ तीसरे दिन, लौ बरादार नई डारी,

नैं आते हम घरै तुम्हारे, नंद बैठती कुंवारी ,

कम सै कम तुम पुहना कैसी, आवभगत तौ करतीं,

सीरा लपसी मालपुआ उर, पापर भूंज खैं धरतीं।

कौन बरन के कंजूसों सैं, हो गई मोरी शादी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी।

हाथ जोर खें विनती करखें, मैं बोली पौहनाजी,

कम सैं कम हमें मोहलत दे दो, दो दस आठ दिना की,

पहलऊ पहल विदा में लग हैं, चुरियाँ धुतिया फरिया,

बंश बहोरबे सूपा डलिया, मीठा भरी गघरिया,

बड़े विफर खें बोले तुमखों, जुरी नें अब लौ-खादी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी ।

हमरी इतै नै पूंछ रीझ कछु, हम आखैं पस्ताने,

पहुँचा दइयो खत्तम भौजी, चलैं नें कोऊ बहाने,

दो दिन बाद पठै दइयो, तुम अपनी छोटी नन्दी,

करत-रहत दिन रात बड़ाई मयके की फरफन्दी।

हमरे बऊ दद्दा नैं तो सुई, कौन गरीबनी नांधी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी।

दौर खैं मैंने बैग छुडा लओ, तौऊ नन्दोई नैं मानें,

बात-बात पै गुलचा मारें, तानें जड़ैं अहाने,

तीन दिना में तीन सौ रंग के, लच्छन से बगरा गये,

आये लुआबे झूठ-मूठ खों, खोटी खरी सुना गये।

भलमनसाहत बेई बता गये, जना गये करतूतें,

कैसै नंद है नंद हमारी, रहैं कौन के बूतैं,

भूखी प्यासी करत रात दिन, टैनटान घर भर की,

जबरा मारैं, रोन न देवैं, जल में प्रीत मगर की।

चार दिना लौ रह नईं पावै, बना लई ज्यों बाँदी,

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी

मोरे मन में रंज बड़ो है, भूँकई पेट चले गये,

बर दिखाई मैं ऐंसे नैं ते, हमई गरीब छले गये,

कौर भरो तौ खा लो बिन्नू, अब अंसुआ नै ढारो,

लिखो नसीब ‘शील’ को जैसई लिख दओ दई तुम्हारो।

कहखैं गये हैं, पठवा दइयो, रहियो बचन की बाँधी

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी।

हे भगवान् गरीबी हमरे, काय गरे सैं बाँधी

हम तो खा कै सो रये सेंगी, कभऊ खाएँ बस आधी


कृषि जगत रोजीना रात में (आकाशवाणी जबलपुर)


कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै।

बरन-बरन की जानकारियों सैं चौपाल सजावैं। 2


दिन के ऊँगैं पुहुप के फाटैं सुन लो कृषि सामायिकी,

चूक जाओ तो सुन-सुन संगै, रोटी खाओ दुफर की।

संजा बिरिया तुलसाने में, जब सब दिया जराबैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


हराँ-हराँ हारे हरवारे, चले हार सै आवैं,

लौलइयाँ की बेरा गइया, बच्छा देख रंभावैं।

तबई बजा बैलों की घंटी, मोहक तान सुनाबैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


सात बीस पै जब चौपाल में, आबै बहनें भइया,

सब पंचै सै राम-राम कर, गाबै खूब गबैया।

राम भलाई के संग मीठी, बुन्देली सुनवाबै।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


सबरे भैया बहनें जुर मिल लिंघा रेडुआ धर लो,

दवा मात्रा विधि समझवे कागज पेन भी धर लो।

बीच-बीच में अटका उत्तर, और पता लिखवाबैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


बातागोती नोकझोंक संग, नई-नई बातें नोंनी,

कबऊँ बीज और कभऊँ खाद तो, कभऊँ बताबैं बोनीं।

कभऊँ परीक्षण माटी को, करबे की बात सुझावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


फसलचक्र और अंतरवर्ती, फसलों खें अपना लो,

समय पै बोओ समय पै सींचो, समय पै फसल कटा लो।

उचित भंडारण कर लैबे की, सबरी विधि बताबैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


कोई दिन बसदेवा बन-बन खैं, किसा सुनाबैं नईं -नईं ,

निवते कवि करें कविताई, बुन्देली में नईं -नईं ।

छिपे प्रश्न जुन किस्सा में सुन, उत्तर बूझ रिझावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


गुनो कहानी गाँव गैल की, गम्मत गूढ खजाना,

बेद लबेद कथा किवदंती, खोल-खोल समझाना।

चिठियों में आये अटकों के उत्तर सोई सुनावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


पायल छनक खनक चूड़ी की, खेत निरावैं गोरी,

सावन कजरी, धूर धुड़ैरी, खेलें छोरा छोरी।

बुन्देली के लोकगीत सुई, कई-कई रस बरसावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


बरन-बरन की सरकारी योजनाओं खें समझाबैं,

ज्ञान मनोरंजन की नदिया सातई दिना बहाबैं।

महिना में इक बेर गाँव में आकाशवाणी जावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....


‘शील’ बहन की बात नियारी, अटकों में उरझाबैं,

बातों में करबी सी कतरें, रूई सी धुनकत जावें।

विषय कोई भी हो चर्चा को, कविताई मे गावैं।

कृषि जगत रोजीना रात में सात बीस पै आवै.....

कवि - श्रीमती अर्चना जैन ‘अम्बर’

जन्म तिथि - 22 अगस्त 1977

शिक्षा - एम.ए. बीएड.

विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - डी/5 एस. आनंद आश्रम आनंद कालोनी, जबलपुर, मो. - 8269946341


चुनरिया

लाली है, लाल चुनरिया पिया।

लग जै है, नजरिया राजा पिया।।


पनघट में निहारत सखियाँ मोरी।

लग जै है, नजरिया राजा पिया।।


खेतन में जाऊँ देखत हमई कों ।,

सबही को लग गई, नजरिया राजा पिया।।


सज-संवर कर मिलवे में जाऊँ।

सबही देखत राजा पिया।।

लग जै है, नजरिया राजा पिया ....


छम-छम, घंुघरू, पैजनिया बजत हैं।

हाथ भर घूंघट निकलो सो जाऊँ।।


सबही निहारत राजा पिया।

लग जै है, नजरिया राजा पिया।।ला


लाल (बेटा)


मोरे लाल नीलो-पीलो।

अखियाँ निहारत अंगना सूनो।।


एक ही बार लिपटा लियो सीनो।

जन्मों की प्यास दूर कर दीनो।।

मोरे लाल नीलो-पीलो......


छम-छम बजत पैजनिया।

छम-छम करत करधानियाँ।।

मेरी अखियां नीर तरैया।

मोरे लाल नीलो-पीलो।।


लाल कहत मैया तुम बिन,

अंगना मेरो सूनो।

मैया मेरी कहत निहारत अँखियाँ।

मोरे लाल नीलो-पीलो।।


कवि - श्री जयप्रकाश पाण्डेय

शिक्षा - इंजी. कालेज से स्नातकोत्तर,

विशेष - व्यंग्य कहानी एवं कविताएँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में

प्रकाशित एवं दो व्यंग्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन

पता - 416/एच/जयनगर, जबलपुर

मो. नं. - 9977318765


सड़क बनी है बीस बरस से.....

सड़क बनी है बीस बरस से,

मोटर कबहुं नैं आई।


गाँव के गेवड़े खुदी नहरिया,

बिन पानी कें शरमाई।


टपकत रहो मदरसा कबसें,

धूल धूसरित भई पढ़ाई।


कोस-कोस से पियन को पानी,

ऊपर से हैं खड़ी चढ़ाई।


बिजली लगत रही बरसन सें

पे अब तक घर लगनैं पाई।


तुम आये हो बतलईयो नें,

बे का जाने पीर पराई।


कविता काए खें लाने हैं,.....


कविता काए खें लाने हैं,

मिलकें सब जन करें विचार।

नित कविता में सूरज ऊगे,

नओ भुनसारे सबजन देखें।


कविता में हों सपन सलोने,

उम्मीदन के उपवन महकें।


कविता पढ़कें जनमानस में,

तन-मन में उजियारो भर दे।


आशाओं की ज्योत जले तो,

अंधियारो जग से हट जावे।


चिरैया


फुदकती चिरैया को देख ,

कोऊ नैं पूछे ओकी जात।


चहकती चिरैया को देख,

कोऊ नैं पूछे उकौ धरम।


पंख पसारती चिरैया को देख,

कोऊ नैं पूछे ऊकी उड़ान।


चिरैया सबई खों सिखाऊत है,

कठिन मेहनत करबो


और घोंसला बनाबे की कला।

चिरैया कोई धरम नैं मानें,


सबई के छत आंगना पै बैठ

चुगती है दाना बनाके झुंड,


जीवन खों कैंसे जीने हैं,

और उड़ानें कैसे भरने हैं।


कवि - श्रीमती राजकुमारी नायक

पति - श्री एल.एल. नायक

जन्म तिथि- 15 अगस्त 1954

शिक्षा - एम.ए. फाइन आर्ट

विशेष - यगाना (लघु कथा), सफ़क (काव्य संग्रह)

पता - 4, आजाद चैक, रामपुर, जबलपुर

मो. - 9425386262


बऊ री कबै बजे रमतूला.....


बऊ री कबै बजे रमतूला

कबै बनो मैं दूल्हा ......

कल्लू ब्याह गओ, लल्लू ब्याह गओ,

बचे न गाँव में कोनऊ लंगड़ा लूला,

मैं अबे तक निठल्लो बैठो,

तोहे तनकऊ नइयाँ चिंता....

भूरी ब्याह गई, कल्ली ब्याह गई

गाँव में बची ना कोनऊँ कारी-गोरी

आन गाँव से लादे मोहे

चाहे हो मोटी ठिगनी......

मोरे मन में भी आस बनत है

अंगना में सूखे हरी, पीली, लाल

नीली चुनरिया

मोरी धोती मोरो चड्डा

देखत-देखत हो गओ मैं बुड्डा.....

कल्लू के हो गये दो दो टुरवा

लल्लू की मोड़ी और टुरवा

मोरे कान तरस गये हैं ,

सुनवे को दद्दा......

मोरे घर में कब बजहे

पायल की रुन झुन और

चुरियों की झंकार

तोरी गारी सुन-सुन के

पक गये मोरे कान। बऊरी.......

हो गओ में निढाल

मोरे खेत में कब कोई आहे

लेके खेत में कलेवा यार

उकी आस देख देख के

हो गई आँखें बेकार

बऊ री कब होये तें समझदार। बऊ री कबै......


समय उंसई नईं गवाने हैं......


बनत हो बड़े निशानेबाज

करत हो नित नई नई चूक

औरन के कांधों पे धर

चलात हो बंदूक

दिन को कहत हो रात

रात को कहत हो दिन

खरी को समझत नईं

पचात हो खोटी

उठ गओ है सब पे से भरोसा

खरी खोटी को केस

लगा दई है सरकार ने

नई-नई तरकीब की मशीन

झाड़ पे बैठी मैना

पड़ी भारी सोच में

कहाँ बनाये अपनों घोंसला

बन गये हैं पक्के सीमेंट के छत

येई माटी में फूल खिलत हैं

येई माटी में खिलत हैं, कांटे

समझत नइयाँ कोई जे बात

समय ही ढालत है माटी के अनुकूल

लोभ लालच को ध्यान

दिन रात जपत रहत हो

भाई-भाई आपस में लड़त रहत हो

अरे खाली हाथ आये हो

खाली हाथ जानें हैं, मोरो तारो करत

पूरी उमर खतम भई,माटी में जनम लओ है

एक दिना माटी में ही मिल जानों है

येई सोच सबखों बताने हैं,

समय उंसई नईं गवाने हैं.


नसा नें करो रे.....


ने करो, ने करो, ने करो रे

मोरे राजा भईया नसा नें करो रे

इमें है हजार बुराई भईया

कोनऊ अच्छाई नें करो....

नसा है महाकाल

जे की गिरफ्त में होओ बेहाल

मात पिता को मिटाओ सम्मान

बिक जैहे पूरो सामान

नै बचहे थाली और लुटिया

रोहो दिन रात मोरे भईया

औलाद होजै दर-दर की

हो जैहे जिद्दी और बेकार

छूट जैहे शिक्षा और प्यार

ने करो, ने करो रे, बच्चन के साथ खिलवाड़....

स्वास्थ्य से टूटो

बीमारी से घिरो

गरीबी हो जैहे सवार

मिट जैहे सुंदर जीवन साकार

ने करो, ने करो रे, जीवन से खिलवाड़....

क्षणिक सुख की खातिर

चैपट हो जैहे धन धान्य

कोंड़ी कोंड़ी को तरसो, करो जघन्य अपराध

ने करो, ने करो रे, स्वतंत्र जीवन को नास

जेल में काटो पूरो जीवन

रोज-रोज की लड़ाई झंझट

रहो मेरे यार प्यार मुहब्बत से

जियो और सबखें जीयन दो

करो अपने जीवन में सदाचार को व्यवहार

ने करो, ने करो रे, सुखी परिवार को नास

अब तो मान लो मोरी बात

सरकार ने जगह-जगह

खोले हैं नसा मुक्ति के प्रावधान

एक बुराई को छोड़ो

पाहो लाखों अच्छाई

शरीर स्वस्थ्य परिवार खुश

बच्चा ने होयें बरबाद

मात-पिता को मान बढ़ाओ

ले लो गुरुओं का ज्ञान

सुखी रहो खुश रहो मोरे भईया

ले लो बहनों को आशीर्वाद।


ओ भोजी, ओ भोजी (खुशहाल जिंदगी)


ओ भोजी, ओ भोजी, ओ भौजी, मोरी हां........

तू चैथा पलना मत बांध अंगना

बिक जैहे भौजी तोरो कंगना ....तू.......

तैनें गलती पहलई कर लई

जल्दी-जल्दी करलै तीन बच्चा पैदा

नईं करो है बरस कोउ अंतर

खुदई है बहुतई कमजोर

और बच्चा भी कमजोर

कैसे करिये घर और बाहर को काम

ऊपर से बच्चन की देखभाल

ओ भौजी ओ भौजी बात मोरी मान...............

जब जे बड़े हुइयें कैसे करिये इनकी लिखाई

पढ़ाई लालन-पालन में सब खतम हो जैहे पूरी कमाई

दुखी तुम रेहो और मोरे भईया

आपस में दोनों लड़हैयो और

मारो पीटो बच्चन को

बचालो अपनों सुखी जीवन

घर में ने मचे अशांति

मोड़ा-मोड़ी दोनों हैं तोरे पास

अपनों भईया और बच्चन को रखो ध्यान

जी लो खुशहाल जिन्दगी

तू चैथा पलना मत बांध अंगना

बिक जैहे भौजी तोरो कंगना

ओ भोजी ओ भोजी ओ भौजी मोरी हां........


कवि - श्रीमती ज्योत्सना शर्मा ‘ज्योति’

पति - श्री प्रमोद शर्मा

जन्म तिथि- 2 अगस्त 1976

शिक्षा - बी.एस.सी., एम.ए., बी.एड.

विशेष - आकाशवाणी एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

पता - 264, बी.एस.एन.एल. आफिस के पास, गोपालबाग मिलौनीगंज, जबलपुर

मो. - 9165291670, 8319905260


कलजुग में राम.....

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो,

देख खें कलजुग की करतूतें, मूड़ मटक मर जैहो।

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो......


इतै गद्दी की होड़ लगी है, तुम्हें गद्दी को लोभई नईयाँ,

मौं में मिसरी लट्ठ बगल में, जो जुग तुम्हरे बस को नइयाँ।

पक्की दारू, पक्के वोटर, मुर्गा-मुर्गी बने सपोटर,

कंबल पैसा बाँट दओ तो,वोट मिलैं भर-भर खैं मोटर।

लबरे वादे नें कर पाये तौ, तुम तो हारई जै हो।।

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो......


मात-पिता खों मानन वारे, नारिन के तुम हो रखवारे,

इत मौड़िन की हो रई दुरगत, गैल-गैल दुःसासन ठांड़े।

बऊ-दद्दा खौं कर रये बेघर, भाई-भाई खांे काटन लागे,

किलपन लगहो नै सह पैहो, चाल इते की जो देखन लागे।।

औछोपन कलजुग को देख खें, लाजौं से मर जैहो,

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो......


तुम तौ हो प्रेमन के भूखें, खा लाये सबरी के बेर भी जूठे,

इतै तो बैहर ऐसीं चल गई, सबरे बस पैंसन पै टूटे।

फल-तरकारी में विष भर दओ है, स्वारथ मानवता डस रओ है,

हार-पहार सोई जहर उगल रये, रोग को दानव पसर रओ है।

धोके-धंधे आय गये तुम, भूखों से मर जैहो,

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो......


तुम्हारी मनसा है आवे की तौ, छल की गैल पकरने परहै,

छोड़ खें सबरी मरजादा खें, छल को मोल बिसरने परहै।

तन्नक सी मोरी सुन लईओ, जी पक्को तुम करखें अईओ,

कोई उरझन आ जाये तौ, मोंसे तुम निष्फिकर बतईओ।

ऊँसई राम बने रह गये तो, तुम तो नें टिक पै हो।।

अरे रे रामा नै अईओ, इते नै तुम नंद पैहो......


समझ नैं पाये मात पिता को.....


समझ नैं आये करौं कैसे, ई बानी से उनको बरनन।

जिनको है अशीष सदा हम पे, उन मात-पिता खों करें नमन।।


पिता छाँयरो आसमान को, रात दिन जे में पल रये।

धरती घांईं सहनशील माँ, सबरे सुख-दुःख अँचरा भर लये।।


भुनसारे को उजियारे से, पिता उन्नति को प्रतीक।

साँझा की दिया-बत्ती सी माँ, शांति सरल मीठी सी गीत।।


पिता पेड़ो पिपरा को, कररै मनो हिया से हितकारी।

अँगना की कौंरी तुलसी, हर मरज को मरहम महतारी।।


घामों, जाड़ो, बसकारो सह पिता नै, करी बखरी थांड़ी।

मुतकी अलसेटे सह खें बी, माँ की ममता नै हारी।।


मनो कहे का अब के मौड़ा-मोड़ी, निरदयी और अत्याचारी।

करो का तुमने हमाये लानें, मारे ताना देअें गारी।।


पकर उँगरियाँ चढ़ गये सिढ़ियाँ, जस, पैसा खूबई जोर लाओ।

बिसर गये सब समझो बोझो, वृद्धा आश्रम में छोर दओ।।


नें माँगे वे हीरा मोती,नैं माँगे कोई पकवान।

चाहै दोई जून सुखी रोटी देओ, पर खूब करो उनको सम्मान।।


भओ नैं जानें का सकारें,.....


भओ नैं जानें का सकारें, सब देख खें रह गये दंग।

बाजू वाले शरमा जी के, बदले-बदले ढंग।।


पहरें खादी को कुरता, और नील करी नई धोती।

खूब जँच रई ती मूड़ पै, उधारी की सुफेद टोपी।।


मौं बिचका खें चलत ते जोन, अब मुस्कया-मुस्कया चलत हैं।

नेहुर-नेहुर खें पाँव परत हैं, बात बी हाथ जोर खें करत हैं।।


देख-देख खें शरमाइन को, हाल भओ बेहाल।

काये बदल गये इनके तेवर? काये बदल गई चाल?


भाँप खें शरमाईन के मन खों, शरमा जी मुस्कराये।

जान गओ मैं भागवान, का चिंता तुम्हें है खाऐ।।

कहन लगे नै पालो शंका, देख खें ढंग हमाओ।

सुनहो जब तौ खुश हो जै हो, मिटहै भरम तुम्हाओ।।


गिरधौना सो मैं बन जैहों, तुम बनियो कोयल सी।

में मिसरी और तुम बन जईयो, शरबत की बोतल सी।।


तुम भी साथ हमाओ दै दो, मान लेओ बात हमारी।

काय कि जा तौ आय, विधानसभा चुनाव की तैयारी।।


गुईंयाँ देखी नें बरात ऐंसी,.....


गुईंयाँ देखी नैं बरात ऐंसी, हो रओ बड़ों अचम्भो।

धरीं फूल सी मोरी गोरा, और बड़ों विकट है दूल्हा।।

कैसो रचो विधाता ब्याव, मोखों हो रओ बड़ों अचम्भो।

गुईंयाँ देखी नैं बरात ऐसी, हो रओ बड़ों अचम्भो.......


वो अंगे भभूत लगा खों और, बैठो है बैला पै

लपटंे करिया-करिया नाग मोखों हो रओ बड़ो अचम्भो

गुईंयां देखी नै बरात ऐसी, हो रओ बड़ों अचम्भो......


सब देव लगे हैं नचावे, और भूत पिशाच मटकवे

संगे जीव-जंतु विकराल, मोखों हो रओ बड़ो अचम्भो

र्गुइंयां देखी नै बरात ऐसी, हो रओ बड़ों अचम्भो.....


रोअें मोड़ा-मोड़ी किकिआ खें, लुके पलका तरें डरा खें

बंद करे सबरे जंगला-किवाड़, मोखों हो रओ बड़ों अचम्भो

गुईंयाँ देखी नै बरात ऐसी, हो रओ बड़ो अचम्भो......

(गुईयाँ का जबाब)

संगम शिव और शक्ति को आज, गुईयाँ करो ना ऐसो अचम्भो,

एक जगत पिता त्रिपुरारी, एक जग जननी गोरा री

मिल जुर रचहैं नओ संसार, गुईंयाँ करौ ना ऐसो अचम्भो,

चलो चलें हिमाचल अंगना, जहाँ कन्या विआहें मैना

खुशी से गाये गारी-ब्याव, गुईंयाँ करो ना ऐसो अचम्भो,

र्गुइंयाँ देखी नै बरात ऐसी, हो रओ बड़ों अचम्भो

संगम शिव और शक्ति को आज, गुईंयाँ करो ना ऐसो अचम्भो,


कवि - श्री सतीश शर्मा

पिता - श्री मनोहर लाल शर्मा

जन्म तिथि- 24 जुलाई 1971

शिक्षा - एम.ए. संस्कृत डी.एड.

विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - गरहा, तहसील गाडरवारा, नरसिंपुर

मो. - 9424635372


मही माँगवे जा रय हो.....


मही माँगवे जा रय हो।

डुबला काय लुका रय हो।।

जब तुमको कोई झुकतई नैया।

जबरई काय झुका रय हो।।

रोज चिड़त हो बिना कछु के।

काया काय सुका रय हो।।

खुद के घर की पिसी छोड़ के।

उनकी काय नुका रय हो।।

कह सतीश जो तुमरो नई वो।

कर्जा काय चुका रय हो।।


बहुत जरूरी काम अपन सब......


बहुत जरूरी काम अपन सब,

मिल कर लइये होली में ।

दुख दर्दों में आग लगा कें,

सुख भर लइये झोली में।

दुनिया भर की चिंता करके,

तन रोगों को घर हो गव।

जीवन को आनंद बिखर कें,

जानें कहाँ कहाँ खो गव।

कड़वाहट को छोड़ मधुर रस,

फिर झर लइये बोली में ।

दुख दर्दों में आग लगा कें,

सुख भर लइये झोली में ।

तनातनी और बैर भाव सें,

मन में टेंशन मत पालो।

छप्पन भोग खों मत दौड़ो,

घर की रोटी सुख सें खालो।

पर हित करके पर पीड़ा को,

दुख हर लइये रोली में ।

दुख दर्दो में आग लगा कें,

सुख भर लइये झोली में ।


बात सयाने की नें मानें.....


बात सयाने की नें मानें, खुदई बने होशियार फिरत हो।

बीड़ी माँग जा बा सें पी रय,संग लपटुआ चार फिरत हो।।


इक कोठा किराय को लेकें, जाकें बसन लगे शहरन में।

कर्जा लेके काम चला रय, कारी अकड़ आठ पहरों में।।


अच्छे लच्छन एक बचे नैं, बनके साहूकार फिरत हो।

डरी रहत है अब तो कोरी,खूब पजत थी जब बा खेती।।


उल्टे सीधे धंधे कर रय, बेंच रहे रेवा की रेती।

दसक दिनों तक घरे जाव नईं, काय छोड़ परिवार फिरत हो।।


मोड़ी बैठी भरी जवानी, बूढ़े माँ-बाप माँग रहे पानी।

घरवारी बीमार धरी है, तुमने बरबादी की ठानी।।


सीख दूसरों खों दे खुद कों, अनदेखे परिवार फिरत हो।

बात सयाने की नें मानें, खुदई बने होशियार फिरत हो।


कवि - इंजी. कोमल जैन

शिक्षा - बी.ई. (आनर्स)

विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन एवं 30 वर्षीय विदेश प्रवास

पता - 242, उत्सव विहार, नेपियर टाऊन जबलपुर

मो. नं. - 9630582601


अंगरेजी में पट-पट कर रयी.

तें इत्ती काय मटक रयी .......

अंगरेजी में पट-पट कर रयी,

बुन्देली में चुप्पी साध रयी,

बऊ दद्दा की बोली भूली,

तोखों शरम नें कच्छू लग रयी।

तें इत्ती काय मटक रयी .......


तीज और तेबहार न जाने,

पूजा पाठ सबई बिसराने,

अंगरेजी गानों पे ठुमक रयी,

भजन गाबे खों डर रयी।

तें इत्ती काय मटक रयी .......


अपने रीत-रिवाज न जाने,

बड़े-बड़ों की सीख न माने,

टी. वी. सीरियल देख-देख कें

मन में कूरा भर रयी

तें इत्ती काय मटक रयी.......


एक दिना जब उपटा लग है

मन को कूरा तबई जो हट है

लौट खें तब आने की कर हो

शरम के मारे मों ढके लैहो

तबईं तुमें जा अक्कल आहे

कै, मैं इत्ती काय मटक रयी........


बे बने फिरें धर्मात्मा.....


बे बने फिरें धर्मात्मा

बहुयें बिटियें तकत फिरत हैं

गाँव भरे के नाँव धरत हैं।

ई की ऊ की चुगली करबे

नेताओं के कान भरत हैं।


मंदर जा कें मूड़ पटक रये,

परमात्मा से प्रार्थना कर रये,

अपनी कृपा हमें बरसैयो

बे बने फिरें धर्मात्मा......


रात-रात भर जुआ खिलाबें

घरे पतुरिएँ मुजरा गाबें

जो को धर लओ, कबहू न देवें

माँगे जो सो आँख तरेरें

उगा उगा खें चंदा हड़पें

का लई कारी अपनी आत्मा

बे बने फिरें धर्मात्मा......


ऐ भैया, नोने सें बतिआओ,.....


ऐ भैया, नोने सें बतिआओ,

सबसे भैया हँस कें बोलो,

सबके मन खों भाओ,

ऐ भैया, नोने सें बतिआओ...


बोली ऐसी बोलो भैया,

जग में तुम छा जाओ,

जो कोऊ एक बेर मिल लैबे,

ओखों याद तुम आओ,

ऐ भैया, नोने सें बतिआओ....


एई बोली से घाव होत हैं,

एई बोली से फूल झरत हैं,

उलटो सीधो बोल खें भैया,

नै अपने हाथ-पांव तुड़वाओ,

ऐ भैया, नोने से बतिआयो....


सबसे मीठो बोलो भैया,

ठंडक सी पोंचाओ,

कबऊँ नें खाओ, ताव रे भैया,

लेओ न कोऊ सें न्याव,

ऐ भैया ,नोने सें बतिआओ.....


भरी दुपरिया, आगी बारें, जो का करअै.....


भरी दुपरिया, आगी बारें, जो का करअै!

अधरतिया खों काय सपर रये, जो का करअै!


पीने खों तो पानी नैंयाँ, जे घर पानीवारी टट्टी बनवा रअे,

जो का कर रअे !


अपने घर को कूरा कचरा, गली फेंक रअे,

जो का कर रअे !


अंधाधुंध पनी और प्लास्टिक जैं देखो तो उतई फेंक रअे

जो का कर रअे !


सहर गाँव के नरदा नाली सबईं नदी खों जाखें मिल रअे,

जो का कर रअे !


ढोर बछेरू पन्नी खा कैं जैं तें मर रअे,

जो का कर रअे !

सबरे झाड़ पेड़ काट डारे,

जो का कर रअे !


मोटर फट-फट चला चला खें, गाँव सहर में धुआँ भर रअे।

जो का कर रअे !


फसल तो कट गई, अब खेतन में आग लगा रअे।

जो का कर रअे !


रस्ता बन रइ, धूरा उड़ रइ, ओई हवा में साँसे ले रअे।

जो का कर रअे !


नाली-नरदा रोक-रोक खें, अपनी दुकानें बनवा लईं हैं।

जो का कर रये....


बाग बगीचों की हरियाली सभी उजाड़ है डाली

और ऊतई पे कचरा फेंक रये,

जो का कर रये.....


ताल तलैया सब पुरवा दये, उते कालोनी नई बना लई

जो का कर रये.....


भैया हरो, तनक कछु सोचो, ऊपर बारो, देख रओ है।

देख देख के सोच रओ है, नई सदी के सब ज्ञानी हैं।

जो का कर रये.....


नई सुधरे तो मजा भुगत हो, ऊपर बारो दण्ड देत है

फिर ओसे हम बिनती कर हैं,

हे भगवान् क्षमा कर दैयो

जो का कर रये.....


कवि - श्री केशरी प्रसाद पाण्डेय ‘वृहत’

विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

पता - ‘सृजन कुटी’ 527/25/अर्पण नगर,

न्यू जगदम्बा कालोनी, जबलपुर.

मो. नं. - 9424746534


ओ मोरि जेठ की सुमन सयानी.....


ओ मोरि जेठ की सुमन सयानी,

ननदी रानी तुम आ जइओ।

डोकरिऊ नईआँ तुमईं सयानी,

दद्दा जी को कछु समझइओ।।


डगर प्रदूषित बहुतय हो गई,

कड्डोरा खों पहिन न अइओ।

छीन न ले कोई चैन डगर माँ,

ननदोई सोई संगय लइओ।


बड़ो बुरो है हाल जगत को,

रिजरब करखें सीट खों अइओ।

जबहिं करो रुख आपने आँगन सें,

इक मिसकाल हमें दे दइओ।


डगर-डगर मुरहा बिचरत हैं,

तनिकों मुंह उनखों ने लगइओ।

लइके नाम विरन खों अपनो,

मुड़बारे से टेर लगइओ।

बिपत हमारी जान के बिन्ना,

साधन कछुक बना ही लइओ।

डोकर सयाने सूझत नइंआँ,

बिना बुलौआ के आ जइओ।


अपने छोटकू घिरनू भइआ।

को संदेश बता तुम दइओ।

सूनो घर कोऊ नईं सयानो,

आके जतन कछु कर जइओ।


जबसे गये परदेश खों ‘‘ए’’ सोई,

चुपकी साध लिए बतलइओ।

कहिओ बिन्नू सूनी बखरिया,

तुम रुख घर खों तब करिओ।


ओ मोरी जेठ की सुमन सयानी,

ननदी रानी तुम आ जइओ।

डोकरिऊ नइआँ तुम्हईं सयानी,

दद्दा जी खों कुछ समझइओ।


कवि - स्व. श्री ओंकार प्रसाद तिवारी

पुत्र - मंचीय कवि मनीष तिवारी

जन्म तिथि - 1 अप्रेल 1943

विशेष - लोकप्रिय मंचीय कवि साहित्यकार, पत्रकार, कानूनविद् एवं शिक्षाविद् पूर्व सहसंपादक नई

दुनिया, नवभारत, दैनिक भास्कर, नवीन दुनिया एवं साप्ताहिक समाचारपत्र ‘नर्मदा के स्वर’ के प्रकाशक उनकी प्रकाशित कृति ‘धरती नांचे’

पता - 324, श्री हनुमत सरकार मंदिर, महात्मा गांधी वार्ड,

दीक्षितपुरा, जबलपुर

मो. - 9424608040


गोरी अटरिया में जाके चिठिया खों बाँचे.....


गोरी अटरिया में जाके, चिठिया खों बाँचे।

अँखियों में बाँचे

सखियों में बाँचे

अरे, गजरा बनाकें

कजरा लगाकें, चिठिया खों बाँचे।

बन- बन के सोनचिरैया, अमरैया में नाचें।

अंगनिया में नाचें

चंदनिया में नांचे

अरे, घुँघटा हटा कें

बिंदिया सजाकें, चिठिया खों बाँचे।

गोरी कुठारिया में जाके, सगनौती जाँचे।

अँधरिया में जाँचे

दुपहरिया में जाँचे

अरे, कंगना बजाकें

कागा उड़ाकें, चिठिया खों बाँचे

आबे की पाकें खबरिया, भर रई कुलांचें।

चिठिया खों बाँचे


मैना जा बोल रही अँगना.....


मैना जा बोल रही अँगना,

ने आहें पूनों लो सजना।

बसंत ने भेज दयी है सेना,

काटे कटे नई जा रैना

ढरका रये अंसुआ जे नैना

मुस्कावे आपई से ऐना

बैरी से लग रये हैं गहना।

मैना जा बोल रही अँगना।

बलमा परदेशों में उलझे

सौतनिया लावे वे विरझे

जुड़ना के ने जराओ दियना

हाथों के ने बजाओ कंगना

आंखों में ने अजाओ अंजना।

मैना जा बोल रही अँगना।

अपनी तो किस्मत में तपना

पावों में विरह को संधना

विधना ने कौन रची रचना

जीवो भओ नदिया के बंधना

सपनों के फुर्र भये सुअना।

मैना जा बोल रही अँगना।

बिसरो अमरैया की छैंया

खेली ती डारे गलबैंया

यादों के ने झुलाव झुलना

गालों में ने गुदाब गुदना

चुटिया में ने गुहाव फुँदना।

मैना जा बोल रही अँगना।

कवि - श्री अनंतराम चौबे

पिता - स्व. श्री रामदयाल चौबे

जन्म तिथि- 21 फरवरी 1952

शिक्षा - हाई स्कूल

विशेष - कृति मौसम के रंग, ममतामयी माँ एवं सुनहरा कल। देश विदेश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

पता - 113-ए नर्मदा नगर, ग्वारीघाट, जबलपुर

मो. - 9770499027


भौजी काय रिसानी है..


भौजी काय रिसानी है

भैया बिना मुरझानी है

भैया बिना नई अच्छो लगत है

देखत में कुम्लानी है

भौजी काय रिसानी है......

जल बिना जैसे मछरिया तड़पै

जैसे पानी बिना पेड़ पौधा सूखे

पानी बिना हैरानी है

भौजी काय रिसानी है......

भैया चार दिनों से गये हैं

नौकरी में ऐसेई होतई रेत है

ऐसे भौजी मुरझानी है

भौजी काय रिसानी है.....

दिन भर सबई के साथ रेत है

शाम को टी वी देख लेत है

अब रात अकेली बितानी है।

भौजी काय रिसानी है.....

भैया बिना सब सूनो लागे

ननद केरई भौजी से आके

भौजी काय रिसानी हो

भैया नईयां मोखों बुला लेती

मोरे संग थोड़ो समय बिताती

अकेली बिछोना में काय डरी हो

कछु हंसते उर कछू बतयाते

इते-उते की बातें करते

भौजी ननद बतयानी है

भौजी काय रिसानी है.....

देखत में कुम्हलानी है

मोरे संग थोड़ो समय बिताती

अकेली बिछोना में काय डरी हो

कछु हंसते उर कछू बतयाते

इते-उते की बातें करते

भौजी ननद बतयानी है

भौजी काय रिसानी है.....

देखत में कुम्हलानी है


मोड़ा गवो है बहु लुआबे.....


मोड़ा गवो है बहु लुआबे......

तवई से पानी गिर रवो है

कबे लोट के आ रओ वो

घर में बऊ बतिया रई है

बहू खो कबे लूआ लाहे

चार दिना पूरे हो गये हैं

चिंता भोतई हो रई है

रातों मोरी नींद उड़ गयी

का....का काम करें घर को

कछु समझ नईं आ रई है

मोड़ा गवो है बहू लुआबे......

जान बड़ी आफत में पढ़ गई

मोटर बस चलत नईंयाँ

पैदल भी ऐसे में कैसे आये

गिलाये मैं घुटनों तक खप जैहै

गली भर कीचड़ हो गवो है

मोड़ा गवो है बहू लुआबे....

सबई जगा कीचड़ हो गवो है

कीचड़ में सबरे भिड़त हैं

रिपट-रिपट सबरे गिरत हैं

आफत ऐसी आ गई है

कबे बहू जा आपेहे

मोहे शांति मिल पेहे

कछु समझ नईं आ रई है

मोड़ा गवो है बहू लुआबे......

जबसे गवो है बहू लुवाबे

तब ई से पानी गिर रवो है

कोन ऊ काम नईं हो रवो है

मोड़ा गवो है बहू लुआबे......


अच्छी बऊ


बऊ खो तड़फत

सिसकत कराहत देख

मन घबरा रवो है

आँखों में आँसू नई

मन तड़पजात है

बऊ की जिंदगी के

आखिरी वक्त मैं जो

हाल देखो नई जात है

दिल भोतइ घबरात है

जो दर्द देखो नई जात है

खावो पीवो मोह माया

सबई छोड़ दई है

मानो सांसों ने जकड़ लओ है

मौत के ऐसे समय

ने झकझोर दओ है

ये मौके पे न कोनऊं

तोरो है न, मोरो है

रुपइया न पैसा जमीन

न जायजाद न मोड़ा न मोड़ी

आदमी न रिश्तेदार

न डॉक्टर न दवाई

काम कर रई है

वाह रे ऊपर वाले, बाहरी मौत को

सामने देख सबरे निहत्ते हो गये हैं

जे वक्त इते अजीब सो देख कै

इनर्इं बऊ ने पाल पोस के

इत्तो बड़ो करो साहसी बनाव

यह पे बऊ की जा हालत देख

कछु नईं कर पा रए हैं

सबरे अपने खों असहाय पा रए

उनर्इं बऊ खौं सौ साल जीवे की

भगवान से प्रार्थना करत हते

अब तो पल भर देखवो

अच्छो नईं लग रवो

बस पल भर में बऊ के

परान पखेरू उड़ गए

तनकई में सबरे चीखन

चिल्लान लगे

बुजुर्ग सियाने अर्थी

सजावे में लग गए

बस कछुई देर में

बऊ खों सबने

मिलके पंच तत्वों

में मिला दओ

उर क्षण भर में बऊ की

आखिरी बिदा हो गई

ऐसी मोरी बऊ अब नई रई है

अच्छी बऊ अब मर गई है


कवि - डा. विनोद कुमार खरे

जन्म तिथि - 13 मार्च 1940

शिक्षा - एम.एस.सी.,एम.ए.,एलएलबी, आयुर्वेद रत्न

विशेष - बुंदेली में गीता,सुंदर,किष्किन्धा एवं लंकाकाण्ड,सहित हिन्दी, अंग्रेजी की 6 पुस्तकें प्रकाशित

एवं 4 पुस्तकें प्रकाशनाधीन, रिटायर प्रोफेसर जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर

पता - 66, आलोक नगर, दुर्गानगर पार्क, अधारताल, जबलपुर

मो. - 9425159607


लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ.....


लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयो हौ।।

लाला के रथ की डोरी तौ देखौ। कृष्ण अर्जुन की जोरी तौ देखौ।।

सफेद घोड़े हैं सोने के रथ में। लोर रये वौ हवा के पथ में।।

घोड़न की डोरी सम्हाल लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

जबई रनबीच में कृष्णने रथखों रोको। अर्जुन नें रथ में अपननखों देखो ।।

कृष्ण सैं,अर्जुन बोलन लागे। मैं अपनन खौं, न मारिहों रोवन लागे।।

अर्जुन के आँसू सम्हाल लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

कृष्णा बोले, तू डर नईं पार्थ। मोरो काम कर होके निस्वार्थ।।

मोही स्वार्थी रोवत है ऐसई। मोह में पड़के सोचत है ऐसई।।

अपने भक्तन की सोच, सम्हाल दइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

अर्जुन, रओ तो बहुतई बहादुर। सबई रन, जीते नई भओ हताहत।।

कुरुक्षेत्र में, अपनों सौं मोह भओ भारी। मोह ने,ऊकी हालत बिगारी।।

मोह की माया,निवार दईयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

आफत की, जड़ जा, मोह पिटारी। ईनै फैलाई बहुतई बीमारी।।

मोह के कारन प्रदेश नष्ट भये। समाज भ्रष्ट औ देश नष्ट भये।।

माया मोह सें, बचाय लइयो हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

भूल चूक चरन तरे दाब लइयौ हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।

नंद खौ, गीता कौ,ज्ञान, सिखाय दइयौ हौ।

लाला गोपाल विनती मान लइयो हौ।।


राम वन गमन का दृश्य एवं माता कौशल्या का विलाप


माता पिता ने बनवास दे दओ।

चौदा बरष कौ बन कौ राज दै दओ।।

बन जाने को मैंने जौ देखौ, साज सजा लओ।

हाथ में धनुष औ बाण भी लै लओ।।

चऊदा बरष मां वनमें मैं रइहौं।

शृषि मुनियों की, ऊहाँ सेवा करिहौं।।

तापस भेष बना लओ मैंने।

सिर पै जटा बंधवा लओ मैंने।।

बक्कल पैन लपेटो मृगछाला।

मैया देखो, मोरो जौ, भेष निराला।।

(कौशल्या जी बोलीं)

राम मोरे बेटा तुम बहुतई कोमल हौ।

मोसो जा बात बेटा काये कैत हौ।।

छोड़ो जौ भेष मोरे साथ में आओ।

नहाय धोय फल फूल खाओ।।

राजतिलक की तैयारी भई है।

पूरे नगर खौ जा बात पतई है।।

गुरु वशिष्ठ जी ने मूहरत निकाल लओ।

सबई खौ समाचार जौ उनने भिजवादओ।।

बेटा तुम नई करौ बन की तैयारी।

जाबात मोये है बहुतई दुखकारी।।

ऐसो कह माता ने लईं बलइयाँ।

मोरे बेटा राम, लखन ते तुम भइया।।

भरत शत्रुघन जब ऊ अइहैं।

पड़के गोड़ तुमै गले लगई हैं।।

मैं तुमै बन खों जाने नई दूंगी।

जौ तुम गये मैं रो-रो मरूँगी।।

तुमरे सिवा अवध कौ नाथ कोऊ नइयाँ।

भरत शत्रुघन ऊभी आये हैं नइयाँ।।

ऊदौनो तुमै बन जाने न दै हैं ।

जौ तुम गये वे तौ जान दे दैहैं।

ई तुमरौ भेष मोये बिलकुल नईं भावै।

जो तोरो भेष मोय बहुतई रुलावै।।

छोड़ो जौ भेष तुम सन्यासी कौ। मानो कहा अपनी माँ जननी कौ।।

अब तुम नई जाव वन, राजा बन जाऔ।

राज तिलक कौ, सब सजगओ सजाऔ।।

छोड़ो मजाक राम, जौ भेष मिटाओ।

चलो मोरे साथ, कछू कंद मूल फल खाओ।।

(रामजी बोले)

मजाक नई, माँ मोये, वन जाना है।

उहाँ मोये वन कौ राजा बनना है।।

माता पिता ने वन जाने खौ कओ है।

मोय वन कौ उनने राज दओ है।।

(कौशल्या माँ बोली)

राम मोरे लल्ला तुम काय कहत हौ।

काये मोरे दिल पै जा चोट धरत हौ।।

मैं भी संगे चलिहौं वन में तुमारे।

इहाँ न रैहो मोरे प्रानन के प्यारे।।

(रामजी बोले)

आपखो पिता के पास रहना है। बहुतई दुखी वे उन्हें समझाना है।।

हमें माँ आज्ञा दो वन जाने की। माता पिता के वचन पालन की।।


(कौशल्या नें खूबई रो रो के कई)

पिता ने कओ हो तो वन जाने खौ।

मैं नई जान देती, बड़ी मान माता खौ।।

पै जब दौनऊ ने तुमै बनवास दओ है।

तौ तुम जाव, वन बैटा, मोरो आशीष बड़ो है।।


कवि - डा. डी.पी. कछवाहा ‘घायल’

पिता - स्व. श्री सुखदेव प्रसाद कछवाहा

जन्म तिथि - 1 जून 1945

शिक्षा - वैद्य विशारद आयुर्वेद रत्न

विशेष - दीवानगी एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

पता - सब्जी मंडी लटकारी का पड़ाव,

महात्मा गांधी वार्ड, जबलपुर

मो. - 9302245686


शहरन-शहरन गलियन गलियन....


शहरन-शहरन गलियन गलियन, धूम मचो तोरो ही उजालन है

घास-फूस मंदिर मढ़िया बनाओ, गजब रहत बसेरन है

कैसे करूं पूजन आरती, आखियन में छायो अँधेरन है

कैसे करूं दरशन माँ, देखत अंखियन तोरो उजालन है

झिलत-मिलत दिया जलत, भक्तन को मिलत तोरो सहारन है

कला रूप अनेक है तोरे, रूप सुनहरो सबेरन है

मार गिरावत पाखंडियन को, धर्मों को तोरो ही सहारन है

छाई जात खुशियाँ आकाशन में, साधू संत करत बसेरन है

शहरन-गलियन गाँव में, रहत हरदम तोरो ही बसेरन है

जगत जननी माता अम्बे, कर उपकार तोरो ही सहारन है

तू जानत-पह्चानत माता, ज्ञानी अज्ञानी भक्तन तोरन है

चारो तरफ धूम मचत है, गुंजत रहत नाम तोरन है

करत रहत पूजा आरती, डूबत संसार तोरो ही सबेरन है

नन्हें-मुन्ने बच्चे तोरे, देखत रहत सूरत तोरन है

नादान-मूर्ख अज्ञानी,झुकावत शीश ‘घायल’ करत बसेरन है


लिखत रहत कोरन कागज पर,....

लिखत रहत कोरन कागज पर, सपने आवत तोरे हैं

मालूम नहीं अन्जान हाथन में, कलम स्याही सब तोरे हैं

लिखत कैसे भी क्या, अक्षर-शब्द सबन तोरे है

लिखत रहत शब्दों में, बोलत आवाज भी तोरे है

देखत रहत जमाना, न समझत-समझत भी सबन तोरे है

दुखन-दर्द मिलत हरदम, घाव-जख्म भी मिलत सबन तोरे हंै

जिन्दगी भी कहत रहत, दया की बरसात होत सबन तोरे हैं

नजरन भी कहत रहत, नजरन मिलत नजरन सबन तोरे है

आरजू अरमान भी, ऐ खुदा, आंसूयन बहत सबन तोरे हैं

मोहब्बत में घुमाए दिलन में, आवत सपने दिलन में सबन तोरे हैं

देखत रहत जिंदगी भर, टूटत सपने सबन तोरे हैं

आइना समझत देखत रहत, बिखरत टूटत टुकड़े सबन तोरे हैं

बिखर के कहत-रहत, प्यार से टुकड़े भी सबन तोरे हैं

बिखर गया टूट के, ‘घायल’ जख्म मरहम मिलत सबन तोरे हैं


चिराग जलत रहो.....

नजरन की खुशियन महकता, तोरे नाम लिखत रहो

बयार चलत रहो, चिराग जलत रहो

गैरंन लाखों कानून, मै भी कहत रहो

एक जमाने से रोवत नाही, पत्थर दिल भी कहत रहो

पलकन पे आंसूयन, फूलन पे मोती चमकत रहो

सपना भी देखत रहत, रोत जात कहत रहो

साँझ भिनसारे देखत, बुझत चिराग प्यार से कहत रहो

रहत हरदम उजालन में, अँधेरान में कहत रहो

शमा जलत रही चैपालन में, दिल परवानो से कहत रहो

रोशन हुए न हुए हम, जलत रहे दिल हंसत रहो

तोरे प्यार में मिलत जमाने में, बदनाम होत हंसत रहो

पुराने रिश्ते नाते, दस्तूरन कायदे जोडत रहो

बुलंदी से कहत हैं, नजरन से कहत रहो

तकदीर पर यकीं कर, भगवन से प्रार्थना करत रहो

अकेले कौन रहत ‘घायल,’ खुदा से दुआ करत रहो


ग्रह भी होत लाभकारी


रवि

रब ने बनावत लिखत गये भुलत बिसरत कवि

रोशन करत नाम जगत गावत, नाम पुकारत रवि

मिलत सुख शांति, बच्चो की खुशियन के संग

दिल दिमाग मस्त रहत ऐसो आराम करत कहत-रविवार

सोम

समुंद्र मंथन देवताओं ने किया

खूब झुमत मस्ती में रहत, सोम रस झूम-झूम के

सोम पान मान सम्मान, दिल से दिल मिलावत

जहाँ न मिले बदनाम, अपमान करत कहत आज सोमवार

मंगल

मंगल हारी दुखन विपदा हारी

गणेश पूजा विघन हारी, बजरंग दुखों के बलिशाली कहावत

सुबह शाम करत पाठ, प्रसाद बांटो गुण चना होत है गुण कारी

बनत सभी काम मंगलकारी, गुणगान गावत बनत बलशाली

बुध

बुद्धि से करत काम, जग में होत है नाम

जग के करो काम, करत सबन तुम्हारा सम्मान

काहे की फिकर करत, करत सबन सफल करे भगवान

आज दिन महान, नाम सबन पुकारत आज बुधवार

गुरु

गुरु बिन जगत सुना, ज्ञान सभी अधुरा रहत

पूजा पाठ ज्ञान सुना, गुरु करत सबन अधुरंन काम

पहनत पीला कपडा, मीठा प्रसाद भोग लगावत रंग पीला

बिगड़त काम काज बन जात, गुरु देव गुरवे नमरू जगत कहत

शुक्र

आकाश में अनेक ग्रह है, शुक्र तारा नाम जगत है

एक डूबत जाये जगत के, सबन बिगड़त काम बिगड़ा

इस्लाम धर्म लगत कहत, जगत में नाम प्यारा

कहत सुनो नवाजियो, वुजू कुरान पाक नाम तुम्हारा

होत अजान शुक्रवार जुम्मा की, खुदा को सबन पुकारा

शनि

सूर्य पुत्र कहत बेटा क्रोध गुस्सा बलिहारी

शनि बिगड़त राजपाट, रोटी के बना देत भिखारी

दान पुन्य लोहा तेल कहत, सदा रहत बने सुखन हारी

सबन ग्रहों देवता से, शनि दिन रहत बलशाली

सारांश

खुदा भगवान कहत बनाये जमीन-आसमान तारा

नक्षत्र ग्रह नील गगन, लगत सबन को प्यारा

कबहू न करत अपमान-बिगड़ जात घर द्वारा

मान-सम्मान करत रहो, देवी-देवता मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा

करत रहो गुरु ध्यान, उतारें आरती सुबह शाम दिल से एक बार

‘घायल’ की कलम लिखत, सदा रहत एक बारा

मानव का जन्म मिलत, कबहू नाही दोबारा