Kisse Veer Bundelon ke - Raj Dharm - 5 in Hindi Adventure Stories by Ravi Thakur books and stories PDF | किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 5

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किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 5

किस्से वीर बुंदेलों के-राज धर्म
(वीरसिंह देव आख्यान)
5
इसीलिए बृसिंगदेव का शासनकाल बुंदेलखंड का "स्वर्णयुग" कहा जाता है। उनके राज्य में साहित्य, संगीत तथा ललित कलाओं के साथ-साथ, हिंदू धर्म के संरक्षण एवं उत्थान मूलक उपक्रमों का पर्याप्त विकास हुआ। काशी, मथुरा, अयोध्या, हरिद्वार, प्रयाग, नासिक, उज्जैन, पुष्कर, सहित विभिन्न तीर्थ स्थलों पर मंदिर, घाट, धर्मशाला निर्मित कराने वाले, धर्मप्रेमी, न्यायमूर्ति, आदर्श राजा बृसिंगदेव द्वारा ही कृष्ण जन्मभूमि मंदिर मथुरा, काशी विश्वनाथ मंदिर तथा कनक भवन मंदिर अयोध्या का उद्धार किया गया। आचार्य बल्लभ हरि की प्रेरणा से 81 मन स्वर्ण का तुलादान कर, ब्रज में गोवर्धन परिक्रमा का निर्माण कराया।

प्रजावत्सल महाराजा बृसिंगदेव, अनुशासन प्रिय तो थे ही, पशु पक्षियों, वन्य जीवों से भी उतना ही प्रेम करते थे जितना अपनी प्रजा एवं परिवार से। इसी तारतम्य में, उन्होंने पशु-पक्षियों, वन्य-प्राणियों के पालन-पोषण, संरक्षण के साथ-साथ, तपस्वियों आदि को आहार की चिंता से मुक्त, निर्भय साधना हेतु प्रश्रय देते हुए, अनिवार्यतःराज्य तथा स्वेच्छा पूर्वक प्रजा की ओर से आहार अवदान आरंभ कराया (यह प्रथा, ओरछा में आज भी वर्तमान है)।

उनके द्वारा, राज्य की जीवनधारा, शक्तिमती वेत्रवती सलिला के प्रवाह से आप्लावित, ओरछा के समीपस्थ, तुंगारण्य के समस्त वन प्रांतर को अभयारण्य की मान्यता प्रदान करके, संरक्षित-सुरक्षित वन परिक्षेत्र घोषित किया गया था (यह भी वर्तमान है)।

इस वन प्रक्षेत्र में किसी भी प्रकार का आखेट, वन क्षति, उत्खनन अथवा अनधिकृत प्रवेश, अक्षम्य, दंडनीय अपराध था और यही दीवान सोने जू की चिंता का विषय था।

राजाज्ञा उल्लंघन, अनुशासन भंग, अनधिकृत राज्य प्रवेश, कुल मिलाकर राजद्रोह की श्रेणी। सोने जू की देह में शीत की लहर, सिहरन बनकर आभासित हुई। महाराज जितने दयालु हैं, उतने ही सख्त भी। सोने जू की रीढ़ में उठी विद्युत तरंग, उनके ललाट पर स्वेदकण बनकर अवतरित हुई।

राजकुँवर बाघराज अपने संरक्षक सोनेजू, दोनों अंगरक्षक श्याम वर्णी श्याम दउआ एवं दीर्घकाय जगम्मन गौड़, स्वान प्रशिक्षक चतुर्भुज तथा अल्पवयस्क सेवक फत्ते बारी सहित, संक्रांति पर्व की परंपरा के निर्वाह हेतु, आज प्रातः, टहरौली के वन में प्रविष्ट हुए और मृगया की खोज में भटकते हुए, सघन वनों में मार्ग भटक कर, इस ओर निकल आये थे।
जब निराश होकर, वे लौटने ही वाले थे, तभी वहाँ उन्मुक्त विचरते एक "कृष्णमृग" पर उनकी दृष्टि पड़ी, फिर क्या था, उन्होंने अपने घोड़े उसके पीछे लगा दिये। जिस विशाल कृष्णमृग का वे पीछा कर रहे थे, वह इसी स्थान पर पहुँचकर, यहीं किसी कुंज में अदृष्ट हो गया था।
सघन वनों की भूलभुलैया में उन्हें ज्ञात ही नहीं हो सका कि वह कहाँ से कहाँं पहुँच गए हैं।

विंध्य क्षेत्र में प्राचीन मान्यता है कि तिलईयाँ से आरंभ होने वाले त्रिदिवसीय मकर संक्रांति पर्व का समापन, आखेट क्रीड़ा द्वारा संपन्न होना चाहिए। इस मान्यता के परिपालन के लिए, परंपरागत रूप से संक्रांति के द्वितीय दिवस भव्यांति पर, जिसे लोकभाषा में भरभरांती अथवा भभराँत कहा जाता है। समस्त सक्षम जन, आखेट पर निकलते हैं तथा मृगया लेकर संध्या/रात्रि तक वापस लौटते हैं। जो सक्षम नहीं होते, वह अन्य आखेटकों पर आश्रित होकर, उनकी प्रतीक्षा में आमिष भोज की तैयारियाँ करते हैं।

राजकुमार की हठ से, दुविधा में जकड़े सोनेजू के अधरों पर, वर्जना के कठोर शब्द आने को हुए, तभी,
'हुजूर, मालक, कुँवर जू', के तीव्र स्वरों के साथ, फत्ते बारी, ढलान के ऊपरी सिरे पर स्थित, वृक्षों, लतागुल्मों के पीछे से, बुलावे का संकेत करता दिखाई दिया। बाघराज का अश्व, उस ओर मुड़ते ही शेष सभी उनके अनुगामी हो गये।
ढलवान के शीर्ष पर पहुँचते ही, उनके दृग, विस्मय जनित आह्लाद से भर उठे। उनके समक्ष, एक विस्तृत, सुरभित, सुरम्य, स्वर्गोपम उपवन उपस्थित था। भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार, रंग-रूप के पुष्प, फल, लतागुल्मों के अलावा, सुरुचि पूर्वक झाड़ियाँ काट-छाँट कर निर्मित की गई आकृतियाँ। व्यवस्थित दूर्वाच्छादित मग वीथिका। यत्र-तत्र सहज वितरण करते मृगछौने। शशक। सुगंधित पुष्प विटपों, लघु पादपों पर उछलते चहकते शुक-सारिका-खंजन इत्यादि।

उपवन सदृश इस भूभाग के मध्य केंद्र में निर्मित एक द्विपार्श्व पर्णकुटी एवं सबसे पृथक स्वरूप में उपस्थित, वातावरण में व्याप्त, अलौकिक सुगंध तथा दिव्य शांति। अद्भुत। अनुपम। मनमोहक। क्लांंतिहरण।
अश्वारोहियों के श्रमिक गात, उल्लसित तथा मन-प्राण प्रफुल्लित हो उठे।

'ये कौन सा स्थान है काका जू' राजकुँवर का विमुग्ध स्वर, जैसे स्वप्नलोक से धरातल पर ले आया उन्हें।

'नहीं जानता रजऊ, परंतु यह उपवन किसी वनवासी का ही बसेरा हो सकता है। संभवतः यह किसी सन्यासी अथवा ब्रह्मचारी साधक का आश्रम है। प्रतीत तो ऐसा ही होता है'। सोनेजू ने अपने अनुभव एवं ज्ञान के अनुरूप राय प्रकट की।

'हुकुम, लगता है आपका शिकार भी इसी आश्रम में है। इतने सारे हिरण शावक यहाँ हैं, बड़े हिरण आश्रम की पिछली ओर होंगे'। श्याम दउआ ने तत्परता से कहा।

'वयस्क हिरणों के झुंड में ही होगा वह काला हिरण, जिसका पीछा करते हुए कुँवर महाराज के साथ हम सब यहाँ तक आ पहुँचे हैं।' जगम्मन ने सहमति जताई।

'ऊ झुपड़िआ में कौनऊँ ढुकरिया की झाँईं सी दिखा परत। हुकुम होय, तौ ऊ सैं पूछें हजूर'। फत्ते की तरुण चपलता दर्शनीय थी। बाघराज या अन्य कोई, कुछ भी कह पाता, इसके पूर्व ही वह अश्व से उतर कर, शीघ्रता से लपकता हुआ सा, पर्णकुटी की ओर चल पड़ा।

लयबद्ध चहचहाहट एवं गुंजन से पृथक, अश्व पदों से उत्पन्न आहट श्रवण कर, पर्णकुटी के अंतःभाग से निकलकर, वृद्धा ब्राह्मणी गोमती, वाह्य द्वार पर, ओसारे में आ खड़ी हुई।

'कौन हैं आप।' सौम्य शालीन स्वर में, गोमती ने, निकट आ पहुँचे फत्ते से प्रश्न किया।

'मैं फत्ते बारी हौं माई मर्हाज।' फत्ते ने वृद्धा के चरण स्पर्श करने का उपक्रम करते हुए उत्तर दिया। उतै, बे, (उँगली से इंगित करते हुए) 'राजा बाघराज जू ठाँड़े, घुरवन नौं। हमन पचन एक हिन्ना खैं आ ढूँड़ रए। इतायँं दिखानौ का। करिया है, खूब मुचंडा।' फत्ते ने वर्णनात्मक प्रश्न किया।

'मुझे ज्ञात नहीं, परंतु संभव है इस विशाल आश्रम में ही कहीं हो भी। तो भी, क्या आपको यह ज्ञात नहीं, कि इस वन में समस्त आरण्यक अभय हैं। आखेट तो राजाज्ञा से प्रतिबंधित है न।'

'मैं का जानों माई मर्हाज। मैं तो सेवक हौं। राजन की बातें राजई जानैं। बैसें अपन को हैं मर्हाज।' फत्ते ने निर्लिप्त भाव से स्कंध उछालते जिज्ञासा प्रकट की।

'यह परिव्राजक ब्रह्मचारी व्योमकेश का आश्रम है और मैं उनकी माँ हूँ, गोमती। बैकुंठवासी तपस्वी राघवाचार्य की विधवा सहधर्मिणी।

'जै हो मैया। जै हो आपकी।' साष्टांग दंडवत प्रणाम करते फत्ते को लक्ष्य कर, कुँवर बाघराज, सोनेजू तथा शिकारी चतुर्भुज वहाँ आ पहुँचे।

'हम अपना आखेट, इस परिसर में ढूंढने आये हैं।' कुँवर बाघराज के स्वरों से छलकते दंभ एवं तिरस्कार को अलक्षित कर, गोमती ने कर तल ऊँचा करके आशीर्वचन उच्चारे।
'माता हरसिद्धि आपका कल्याण करें राजन। यह आपकी पितृसंपदा है। आपका आगमन मेरे लिए हर्ष उत्पादक हुआ। आज्ञा करें, आपका क्या प्रिय अभीष्ट करूँ। आप आसन ग्रहण करें। मैं आपकी सेवा में फलाहार अर्पित करती हूँ।' विनत गोमती ने अपनी तथा आश्रम की गरिमा संरक्षा करनी चाही।

जिस प्रकार अनर्जित संपदा, जन्म मात्र के फलस्वरूप प्राप्त होने पर, कुसंस्कारी व्यक्ति मद में चूर, कदाचार में लिप्त होकर, समस्त मर्यादाओं सहित स्वयं को विनष्ट कर लेता है, उसी प्रकार बाघराज भी उस कुपथ पर प्रवृत्त हो चुका था।

'इस पाखंड पूर्ण आचरण की आवश्यकता नहीं है। हमें अपना कार्य करने दीजिये।' रुक्ष स्वर से गोमती की अवहेलना करते, बाघराज आश्रम के पश्च पार्श्व की ओर प्रस्थान को उद्धत हुआ।

'किंतु, कुँवर महाराज, यह एक आश्रम है। यहाँ....
गोमती ने बाघराज को वर्जना देने का प्रयास किया।

'रहने दे भिक्षुणी, हमारे ही अन्न पर प्राणवान रह कर, हमारा ही मार्ग बाधित करने का प्रयास मत कर।' मदांध बाघराज विष वमन करता हुआ आगे बढ़ गया।

'विनाश काले, विपरीत बुद्धिः।' हृदय में विचार करते, चिंतातुर सोनेजू, चतुर्भुज एवं फत्ते ने भी कुँवर का अनुसरण किया।

कुटिया की अर्ध परिक्रमा पूर्ण कर, आश्रम के पश्चिमी भाग की ओर बढ़ते बाघराज एवं उनके सहयोगियों के पग सहसा ही थम गए। सन्मुख ही मिट्टी के एक पीठिकाकार, चौरस आधार पर, ब्रह्मचारी व्योमकेश, तेजोमय स्वरूप लिए, पद्मासन मुद्रा में अवस्थित थे। उनके चक्षुपट बंद थे। वे गहन समाधि की अवस्था में प्रतीत होते थे।

'यह कौन है। हमारे आगमन की आहट पर भी इसके नेत्र नहीं खुले।' कुँवर के अहम को जैसे ठेस लगी।

'हजूर, हमें लगत जेई हैं बरमचारी मर्हाज। ऊ डुकइया के लरका।' फत्ते ने अनुमान व्यक्त किया।

अस्ताचलगामी सूर्य की अंतिम स्वर्णाभ किरणें ब्रह्मचारी व्योमकेश के मुख्य मंडल को आभा मंडित कर रही थीं। सघन साधना एवं गहन समाधि के तेज पुंज की प्रभा ने उन आखेटकों के हृदय को क्षणांश के लिए विमोहित किया। किंतु जिस प्रकार अत्यंत तीव्र क्षुधा ग्रसित मनुष्य, आभूषण को अनदेखा कर देता है तथा मिट्टी में सने खाद्य की ओर भी आकृष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार, ब्रह्म स्वरूप साधक के दर्शन मात्र से कृतकृत्य होने के स्थान पर, आखेट की उत्कट लालसा से उद्वेलित राजकुँवर बाघराज का स्वाभिमान, दंभ की पराकाष्ठा को स्पर्श कर, आक्रोश में परिवर्तित होने लगा।

'सचेत करो इस ढोंगी को, यह एक राजपुरुष की अगवानी और उसे प्रणाम न करके, अक्षम्य अपराध कर रहा है। क्या यह इतना गर्वोन्मत्त है, कि राज्याधिकारी इसे तुच्छ लगते हैं।'

'पंडत जू, ओ पंडत जू मर्हाज। उठ जाऔ। राजा जू ठाँड़े हैं अपुन के सामूँ । आँखें खोल कैं देखौ।' फत्ते ने हाँक लगाई। लेकिन समाधि में अंतर्लीन ब्रह्मचारी का ध्यान खंडित ना हुआ।

'छोड़िए इन्हें, हम कुछ और आगे चलकर अपना कार्य पूर्ण कर लें, तत्पश्चात यहाँ से प्रस्थान करें। संध्या हो चुकी है। अंधकार घना होता जा रहा है और हमें अभी यहाँ से बहुत दूर पहुँचना है।' सोनेजू का ह्रदय किसी अमंगल की आशंका से आंदोलित हो रहा था।

'उचित है। हम बस अभी यहाँ से प्रस्थान करते हैं काका जू।' बाघराज का कथन, सोनेजू के कर्णरंध्रों में जैसे अमृत वर्षा कर गया।
'परंतु हमारे प्रस्थान से पूर्व, एक बुंदेला राजकुँवर के अपमान का दंड तो इस पाखंडी ब्राह्मण को भोगना ही होगा।' विषधर की तरह फुफकारते बाघराज ने अपना वाक्य पूर्ण किया।

चिहुँक पड़े सोनेजू, यकायक हुए कुँवर के स्वर परिवर्तन से। आसन्न विपत्ति की आहट ने उन्हें व्यग्र कर दिया।

'नहीं कुँवर जू, हम यहाँ ऐसा कुछ नहीं कर सकते, जो राजमर्यादा को भंग कर, किसी आपदा को आमंत्रण दे। हमें तो यहाँ कदापि होना ही नहीं चाहिए था, चलिए हम यहाँ से प्रस्थान करें।' सोने जू के प्रकंपित स्वरों को पूर्णतः अनसुना करते हुए बाघराज ने, अकस्मात् आगे बढ़कर, शिकारी चतुर्भुज के करों से, आखेट के लिए प्रशिक्षित श्वानों की चर्मराशि छीनते हुए, उन्हें ध्यानमग्न ब्रह्मचारी व्योमकेश पर हुलकार दिया।

'अब तो खुल ही जाएँगी इसकी आँखें। इसे भी तो ज्ञात होना चाहिए कि हम यहाँ हैं।' बाघराज की वितृष्णा, उसके स्वर विकृत कर रही थी।

निमिष मात्र में, ध्यानावस्थित ब्रह्मचारी के दारुण आर्तनाद एवं स्वान गुर्राहटों से आश्रम तथा वन का वातावरण गुंजायमान हो उठा। निद्राउन्मीलित पखेरू चौंक कर, फड़फड़ा उठे। समाधिस्थ ब्रह्मचारी के संज्ञायित होकर सम्हलने के पूर्व ही उन पर चँहुओर से सांघातिक प्रहार होने लगे।

मृगया में हिंस्र वन्यजीवों को भी दुर्दांत मृत्यु से साक्षात्कार करा देने वाले चारों स्वान, ब्रह्मचारी के अंग-प्रत्यंगों को अपने लौह जबड़ों (फौलादी) से भँभोड़ रहे थे, ब्रह्मचारी की चीखें आकाश का हृदय छलनी कर रही थीं।

पराक्रमी क्षत्रिय होकर भी, इस लोमहर्षक दृश्य को देखकर, सोनेजू का हृदय प्रकंपित हो उठा। उनके कंठ से चीत्कार निकल गई। अल्प वयस्क फत्ते बारी तो, मानव आखेट का यह हृदय विदारक दृश्य देख, 'ओ मताई ईईई', की किलकारी के साथ बेसुध होकर भूमि पर गिर पड़ा था।

सहस्त्रों वन्य पशुओं का आखेट कर चुके शिकारी चतुर्भुज भी किंकर्तव्य विमूढ़ होकर, हतप्रभ खड़े रह गए थे।

एक, मात्र बाघराज ही ऐसा व्यक्ति था, जो इस जघन्य रक्तलीला और दारुण दृश्य को देखते हुए भी ठहाके लगा रहा था।

निर्दोष ब्रह्मचारी का आर्तनाद, अगले कुछ क्षणों में ही मंद पड़ चला था। अहेरी स्वान उनकी देह को अपने जबड़ों में भींचकर, अलग-अलग दिशाओं में खींचते-घसीटते तीव्रता से दौड़ रहे थे। उनके लिए तो यह भी मृगया क्रीडा ही थी। परंतु एक उच्च कुलीन ब्राह्मण कुल का दीपक, उनकी इस क्रीड़ा का माध्य बना, अपनी अंतिम स्वांस लेकर बुझने को था।

सोनेजू के नयन अश्रुपात कर उठे। उनका उर्मिल हृदय आकांक्षित हो रहा था, तत्क्षण इस अपराध के लिए बाघराज को दंडित करने के लिए, परंतु राजमर्यादा की विवशता ने उनके बाहु थाम रखे थे। आज वे स्वयं को कौरवों की सभा में उपस्थित, पितामह भीष्म की स्थिति में पा रहे थे। अंतर्आक्रोश में उन्होंने अपने अधर दाँतों से चबाकर रक्तरंजित कर डाले थे।

तभी, एक तीव्र चीत्कार उन्हें अपने पार्श्व से सुनाई दी। ब्रह्मचारी की वृद्धा माँ, गोमती, 'हाय मेरा लाल, मेरा प्राण' की टेर लगाती, गिरती-उठती आ पहुँची थी।
ब्रह्मचारी की धूल धूसरित, क्षत-विक्षत देह पर, पछाड़ खाकर गिरती वृद्धा को देख, स्वान चौंक कर पीछे हट गए थे।

असहाय और अनाथ माँ के करुण क्रन्दन ने समूचे उपवन-कानन को शोक निमग्न कर दिया। आश्रम के पक्षियों का कलरव, श्रांत होकर, वेदनामय नीरवता में परिवर्तित हो चुका था।

एक सूर्यवंशीय राजकुमार के इस निकृष्ट, अधम कृत्य पर लज्जित होकर, भगवान आदित्य ने संध्या के आँचल में अपना मुँह छुपा लिया। व्योम मंडल भी जैसे सहमकर विवर्ण हो गया था।
संपूर्ण निस्तब्धता के साथ, शोकमग्न निशा, वृक्षों से उतर कर दूब पर बैठ गई थी। निकटस्थ वेत्रवती भी विचलित हो चली थी। उसकी कलकल, रक्तस्राव के अश्रव्य स्वरों से मिलकर, तीव्रतर आभासित हो रही थी। उच्च तरुवर, संवेदना से ओतप्रोत, स्तब्ध, मौन खड़े थे। गूंज रहा था संपूर्ण अरण्य में, एक हतभाग्य विधवा माँ का ह्रदय द्रावक, दारुण-करुण विलाप।

चीत्कार एवं रुदन के स्वर सुनकर, दउआ एवं जगम्मन भी वहाँ आ पहुँचे थे। अल्प तिमिर में भी उक्त दृश्य उन्हें अत्यंत भयप्रद परिलक्षित हुआ। उनका रोम-रोम स्पंदन कर उठा। क्षणमात्र को वे भी जैसे काष्ठकाय हो उठे।
तब तक बाघराज के दंभ, आक्रोश का ज्वर उतर चुका था। कदाचित घटनाक्रम का यह वीभत्स पक्ष उसकी भी कल्पना में नहीं था। उसका मुखमंडल भी अब विवर्ण हो चुका था। चक्षु, हठात म्लान हो उठे थे। पिछलते पग थरथराने लगे थे।

भयाक्रांत जगम्मन ने, इस दारुण घटनाक्रम को विस्फारित नेत्रों से निःशब्द देखते स्तंभित सोनेजू को, झकझोर कर चैतन्य किया। क्षुब्ध होकर, भूमि पर शीश थामे बैठे, शिकारी चतुर्भुज को सजग करते हुए, हतप्रभ श्याम दउआ के सहयोग से, भूमि पर बेसुध पड़े, फत्ते बारी को कंधे पर उठाया, और तब, सहमे-सहमे बाघराज की कलाई थामकर, लगभग खींचते हुए, वहाँ से अपने अश्वों की ओर तीव्रता से प्रस्थान किया।

उनमें से किसी में भी, उस दुखिया, अबला, विधवा माँ को साँत्वना देने अथवा क्षमा याचना के दो शब्द कहने का साहस नहीं था। अपराध बोध के भार ने उन्हें भीरु तथा अमानव बना दिया था।

वन प्रांतर में एक ओर राजप्रासाद की ओर लौटते अश्वों की पगध्वनि गुंजायमान थी, दूसरी ओर, एक विदीर्ण हृदय माँ का करुण क्रंदन वन प्रांतर को प्रतिध्वनित कर रहा था। रात्रि गहराती और अधिक कालिमायुक्त होती जा रही थी।

'उफ,' कांता की सिसकारी निकली। उसने सर उठा कर अपने साथियों की तरफ देखा, सबके आतंकित चेहरों पर सन्नाटा छाया हुआ था।
राजा काका किस्सा सुनाते सुनाते अचानक मौन होकर, ऊपर आकाश की ओर निगाहें टिकाये, अपलक निहारते, शायद कहानी के दृश्य में उलझे हुए थे।
गहन तंद्रावस्था से यकायक झुरझुरी लेकर, सभी, जैसे होश में आये।

'ओ गॉड, ऐसा दुष्ट राजकुमार।' श्रुति के स्वर भी काँप रहे थे।

'इसे तो मौत की सजा मिलना चाहिए। लेकिन वो कितनी सहजता से वहाँ से निकल गया।' विक्रम के मन में भी अमर्ष था।

'काका, फिर क्या हुआ।' पलाश का रोमांच सवाल कर रहा था।चिहुँक कर राजा काका ने हम सब की तरफ अपरिचय की दृष्टि से देखा। धीरे धीरे प्रकतिस्थ होने के पश्चात, वे फिर से उस कालखण्ड में, वापस घटना स्थल पर जा पहुँचे।.............(क्रमशः 6 पर)