Par-Kati Paakhi - 2 in Hindi Children Stories by Anand Vishvas books and stories PDF | पर-कटी पाखी - 2 - अपना ही प्रतिविम्ब.

Featured Books
  • द्वारावती - 73

    73नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच...

  • जंगल - भाग 10

    बात खत्म नहीं हुई थी। कौन कहता है, ज़िन्दगी कितने नुकिले सिरे...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 53

    अब आगे रूही ने रूद्र को शर्ट उतारते हुए देखा उसने अपनी नजर र...

  • बैरी पिया.... - 56

    अब तक : सीमा " पता नही मैम... । कई बार बेचारे को मारा पीटा भ...

  • साथिया - 127

    नेहा और आनंद के जाने  के बादसांझ तुरंत अपने कमरे में चली गई...

Categories
Share

पर-कटी पाखी - 2 - अपना ही प्रतिविम्ब.

2. अपना ही प्रतिविम्ब.

अपना ही प्रतिविम्ब तो दिखाई दे रहा था पाखी को, इस बेचारी, बेवश, विवश और घायल *पर-कटी चिड़िया* में। हाँ, अपना ही प्रतिविम्ब।

कुछ इसी तरह से तो, पाखी का भी एक पर कट गया था। अभी, कुछ दिन पहले ही। जब पाखी के पापा का रोड-ऐक्सीडेन्ट हो गया था। और रोड-ऐक्सीडेन्ट ही क्यों, अगर इस घटना को फुटपाथ-ऐक्सीडेन्ट कहा जाय तो ज्यादा उचित होगा।

फुटपाथ पर ही तो चल रहे थे पाखी के पापा। रोज़ की तरह ही तो गये थे वे अपने मित्र डॉक्टर गौरांग पटेल के साथ, सुबह-सुबह मॉर्निंग-वॉक पर। और तभी किसी सिरफिरे सनकी की चमचमाती हुई बे-काबू कार, फुट-पाथ की रेलिंग को तोड़ती हुई, पाखी के पापा को रोंधती हुई चली गई थी और कम्पाउन्ड-वॉल से जा टकराई थी। पाखी के पापा ने वहीं पर दम तोड़ दिया था और घटना-स्थल पर ही उनकी मौत हो गई थी।

मॉर्निंग-वॉक पर ही तो गये थे पाखी के पापा और फिर कभी भी वापस न आ सके थे वे। बस, उनकी मौत की खबर ही तो आई थी घर पर और पोस्टमार्टम् के बाद उनका पार्थिव-शरीर।

अस्पताल और डॉक्टरों को इलाज का मौका भी न मिल पाया था उनके। दो शब्द भी तो न बोल पाये थे वे, न तो अपने प्रियजनों को ही और ना ही अपनी लाड़ली बेटी पाखी को ही और ना ही अपने परिवार वालों को ही।

किसी भी बालक के माता और पिता, दो पंख ही तो होते हैं उसके। जिनकी सहायता से बालक अपनी बुलन्दियों की ऊँचे से ऊँची उड़ान भर पाता है। एक बुलन्द हौसला होतें हैं, अदम्य-शक्ति होते हैं और होते हैं एक आत्म-विश्वास, उसके लिये, उसके माता और पिता। जिनके दम पर उछल लेता है बालक। बालक की दम के पीछे माता और पिता की दम ही तो होती है।

ये सोच कर कि पापा हैं, मम्मी हैं, सब कुछ सम्हाल लेंगे वे। एक सशक्त पीठ-बल होता है उसके साथ और एक सशक्त आत्म-विश्वास होता है उसके पास। जिस आत्म-विश्वास के बल पर ही तो बालक, लम्बी से लम्बी छलांग लगा लेता है और ऊँचे से ऊँची उड़ान भी भर लेता है अपने आकाश में।

आकाश को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेने की क्षमता होती है उसमें। ऊर्जा और शक्ति के स्रोत, सूर्य को भी अपने गाल में कैद कर लेने की क्षमता और शक्ति होती है बाल-हनुमान में। अदम्य शक्ति और ऊर्जा का स्रोत सूरज भी तो मात्र खिलौना ही होता है बाल-हनुमान के लिये। क्योंकि ऊर्जा और शक्ति का अविरल स्रोत होता है उसके साथ, उसके पास, उसके माता और पिता।

शिव और शक्ति होते हैं माता और पिता, बालक के लिये। माता शक्ति होती है, चण्डी होती है, चामुण्डा होती है, साक्षात् दुर्गा भी होती है और होती है ममता की वात्सल्य-मयी मीठी-मीठी मधुर मुस्कान।

जिसके आँचल की कोमल छाया में बाल-गणेश सदैव ही सुख और चैन से मुस्कुराता रहता है और हँसते-हँसते संसार की बड़ी से बड़ी विपत्ति को, हर मुश्किल को, सहज में ही पार कर लेता है। पूर्ण-सुरक्षित और सकुशल होता है वह और उसका भविष्य, उसके माता-पिता के सशक्त और विश्वस्यनीय हाथों में।

और शिव, शिव तो शिव ही होते हैं, अतुलनीय शिव, एक मात्र शिव। जिनके आशीर्वाद और कृपा-दृष्टि की छत्र-छाया में बाल-गणेश तीनों लोकों में वन्दनीय हो जाते हैं, पूजनीय हो जाते हैं और प्रथम-वन्दन के योग्य हो जाते हैं।

शिव और शक्ति के इर्द-गिर्द ही तो परिक्रमा करते रहते हैं, बाल-गणेश।

सच तो यह है कि माता-पिता के चरणों में ही तो स्वर्ग होता है और होता है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड। और यदि बाल-गणेश अपने पूज्य माता-पिता के चरण-वन्दन और चरणों की कृपा से वंचित रह जाये, तो फिर...।

उनमें से किसी एक की अनुपस्थिति या दोनों की ही अनुपस्थिति, कितने-कितने आँसुओं को जन्म देती है और एक-एक आँसू कितनी-कितनी कहानियों को, कितनी-कितनी घटनाओं को सहेजे होता है अपने अन्तस् में। और तब, सब कुछ बिखर जाता है। हाँ, सब कुछ। खुद, बालक भी।

ऐसे में किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है बालक को, यह तो केवल वही बालक जान सकता है, जो ऐसी विषम परिस्थिति से गुजरा हो। इस अभिव्यक्ति को व्यक्त कर पाना इतना आसान भी तो नहीं होता है। यह तो अनुभूति का विषय है न कि अनुभूति को व्यक्त करने का। और कभी-कभी तो अनुभूति को व्यक्त कर पाना बेहद मुश्किल ही होता है।

जिन्दगी ही बदल जाती है, जिन्दगी के सारे समीकरण ही बदल जाते हैं, आत्मीयता के सारे पैमाने ही बदल जाते हैं और बदल जाते हैं अपने भी, अपने आत्मीय-जन भी। सब कुछ ही बदल जाता है। हाँ, सब कुछ ही।

किसी के होने या न होने से, इस संसार की गति में कोई भी फर्क नही पड़ता। ये दुनियाँ, ये सूरज, ये चाँद-तारे और ये सारा ब्रह्माण्ड, ये तो सदैव ही गतिशील रहे हैं और रहेंगे भी। ये न तो कभी रुके हैं और ना ही कभी रुकेंगे ही। ये तो आदि-काल से गतिशील रहे हैं और अनन्त-काल तक गतिशील रहेंगे भी।

पर हाँ, किसी की गति के रुक जाने से, कुछ लोगों की गति तो प्रभावित हो ही जाती है। गति की दिशा और दशा दोनों ही बदल जाती हैं। उसके आकाश की ऊँचाइयाँ भी बदल जाती हैं और बदल जाता है, हौसला, शक्ति और साहस भी। वातावरण तो प्रभाव डालता ही है।

और जब पाखी का पंख कटा था, तब पाखी भी तो कुछ इसी तरह धड़ाम से गिर पड़ी थी अपने आकाश से, अपने ऊँचे आकाश से।

आकाश को छूने के सब के सब सपने चकनाचूर हो गये थे उसके। बिखर गये थे सब के सब सपने स्वर्णिम-भविष्य के। तार-तार हो गया था उसका सुखमय फूल-सा खिलखिलाता हुआ बाल-पन और बाल-पन का स्वर्णिम-संसार।

आँसू तक भी न निकल पाये थे उसके, उसकी आँखों से। आँखें तो जैसे पथरा ही गईं थीं उसकी। कितनी असहाय और बेवश हो गई थी तब पाखी। कटे-पंख की बेवश, विवश और असहाय, बेचारी *पर-कटी चिड़िया* सी फड़फड़ा कर रह गई थी तब पाखी।

बड़े प्यार और दुलार से अपनी लाड़ली दुलारी का नाम रखा था पाखी। कितने सपने संजोये थे उसके मम्मी-पापा ने, उसके लिये। सोचा होगा कि बड़ी होकर पाखी की तरह ही अपने आकाश में ऊँचे से ऊँची ऊँचाइयों को छुयेगी और आकाश में हवा से बातें करेगी।

पर कौन जानता था कि बचपन में खिलखिलाकर हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाने वाली और अपनी निश्छल, बाल-सुलभ, बाल-लीलाओं को दिखाकर सबको लोट-पोट कर देने वाली, इस मासूम भोली लाड़ली को ये दिन भी देखने पड़ेंगे। उसकी आँखें गंगा-जमुना को भी मात दे देंगीं।

और इधर पाखी की माँ साक्षी पर तो विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा था। उसका तो कितना बुरा हाल हो गया था। उसकी आँखें तो गंगा-जमुना ही हो गईं थीं और खुद एक पत्थर का बुत। बिलकुल बेसुध, विवश और लाचार हो गईं थीं पाखी की माँ, तब।

यूँ तो पाखी की माँ, साक्षी, कॉलेज में सीनियर प्रोफेसर थी। हर रोज़ कॉलेज के ढ़ेर सारे बच्चों को अच्छी-अच्छी ज्ञान की बातें बताने वाली, समझाने वाली, उनकी समस्याओं की हर उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने वाली, ज्ञानी और विदुषी साक्षी, खुद अपने आप की, अपनी जिन्दगी की गुत्थी को ही नही सुलझा सकेगी। वह अपनी जिन्दगी की गुत्थी में ही उलझ कर रह जायेगी। बेहद जटिल और न सुलझने वाली उलझी हुई गुत्थी।

कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था उसको कि आखिर ऐसा हुआ क्यों, कैसे हुआ और अब क्या करे वह। कितनी बेवश, विवश, असहाय और लाचार हो गई थी तब साक्षी। बिन पानी के मीन-सी छटपटा कर रह गई थी साक्षी।

उसकी आँखों से निकलते आँसुओं को समेंटने, सहेजने और पोंछने वाले दो हाथ, आज उसके पास नहीं थे, उसके साथ नहीं थे।और उसकी आँखों से निकलते आँसुओं की वजह भी तो वे दो हाथ ही तो थे।

अगर आज उसके वे दो हाथ, उसके पास होते, उसके साथ होते, तो ये आँसू ही क्यों निकलते। ये सपने ही क्यों बिखरते। ये जीवन ही क्यों तार-तार हुआ होता।

आज साक्षी बिलकुल अकेली पड़ गई थी, निपट अकेली। हाँ, बिलकुल अकेली। और फिर अकेला तो अकेला ही होता है, बेवश, विवश और लाचार। शक्ति-हीन, कान्ति-हीन और आभा-हीन, एक मुर्झाया हुआ बेदम व्यक्तित्व।

अकेले तो शिव भी आधे-अधूरे ही हैं शक्ति (सती) के बिना और शक्ति (सती) भी तो आधी-अधूरी ही हैं शिव के बिना। शक्ति-हीन, कान्ति-हीन और आभा-हीन। शिव और शक्ति दोनों मिल कर ही तो अदम्य शक्ति के स्रोत बनते हैं। पर आज उसके शिव उसके साथ नहीं थे, आज वह अकेली थी। हाँ, निपट अकेली।

अकेले तो सूरज भी आज तक कुछ भी नहीं कर पाया है। सदियों से अन्धकार को मिटाने का संकल्प लिये हुये, आज तक जरा-सा भी अन्धकार नहीं मिटा सका है।

अन्धकार तो आज भी वैसा का वैसा ही है, जैसा कि पहले था। अन्धकार तब भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा ही। बेचारा कितना विवश और लाचार है, ऊर्जावान, प्रकाशवान और अदम्य शक्ति का धनी सूरज भी। केवल अकेले होने के कारण ही तो न।

काश, सूरज का साथ देने वाला, उसकी भाषा को समझने वाला, उसकी भाषा को बोलने वाला और उसके कदम से कदम मिला कर चलने वाला, उसका कोई अपना उसके साथ होता, तो येअन्धकार टिक नहीं सकता था, रुक नहीं सकता था उसके अदम्य तेज के सामने। और अन्धकार के साम्राज्य को काला-मुँह करना ही पड़ता, हर हाल में, बेवश विवश और लाचार होकर।

अन्धकार का नामोनिशान ही मिट चुका होता, अब तक। उसका अस्तित्व ही समाप्त हो चुका होता और चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होता। हाँ, स्वर्णिम प्रकाश, सुखदायी प्रकाश और होता प्रकाश का एक-छत्र साम्राज्य। पर नहीं न।

सभी की सहानुभूति और आत्मीयता तो मिसेज़ भास्कर के साथ ही थी और पुलिस का पूरा सहयोग भी था। पर सहयोग और सहानुभूति का अर्थ ही क्या है, जब आदमी ही न हो।

न्यायालय, कानून, पुलिस और समाज, न्याय तो दिला सकते हैं, पर क्या गया हुआ आदमी भी, नहीं न।

कानून, न्याय, पुलिस और ये समाज, ये सब कुछ तो कागज के काल्पनिक धरातल है, जिन्दगी के धरातल पर ये सब कुछ अर्थहीन ही है न। मन को समझाने और बहलाने के एक मात्र काल्पनिक विकल्प ही हो सकते हैं पर सत्य नहीं, सत्य तो आदमी है, गया हुआ आदमी, और वह वापस आने से रहा।

चमचमाती हुई बेकाबू कार का ड्रायवर, अपनी कार को घटना-स्थल पर ही छोड़ कर, भागने में सफल हो गया था। डॉक्टर गौरांग पटेल और घटना-स्थल के आस-पास उपस्थित कुछ लोगों ने तो उस कार-चालक पकड़ने का प्रयास भी किया था।

डॉक्टर गौरांग पटेल ने तो उस कार-चालक के हाथ की कलाई को कसकर पकड़ भी लिया था, गुत्थमगुत्था भी हुई और हाथापाई भी। पर कार-चालक ने डॉक्टर गौरांग पटेल के हाथ को अपने दाँतों से कसकर काट लिया और जोर से धक्का दे दिया। 

एक चींख-सी निकल कर रह गई थी डॉक्टर गौरांग पटेल की और वे गिर पड़े थे। इससे पहले कि डॉक्टर गौरांग पटेल अपने आप को सम्हाल पाते, तब तक तो वह कार-चालक अपना हाथ छुड़ा कर भागने में सफल हो गया।

अन्य लोगों ने चिल्लाया भी और कुछ दूर तक उसके पीछे दौड़े भी। पर सब कुछ बेकार ही रहा और वे उस तेज गति से भागते हुए अपराधी कार-चालक को पकड़ने में सफल न हो सके। उनका हर प्रयास बेकार गया। क्योंकि उसके दौड़ने की गति काफी तेज थी। शायद वह शातिर पेशेवर बदमाश ही था। देखने में भी वह शरीफ तो नहीं ही लग रहा था।

तुरन्त ही डॉक्टर गौरांग पटेल को ख्याल आया कि सिविल-लाइन्स के कैम्पस् से बाहर निकलने के लिये तीन ही तो गेट हैं और हर गेट पर पर्याप्त मात्रा में सिक्योरिटी-स्टाफ तो होता ही है। अतः मेन-गेट पर सिक्योरिटी-स्टाफ को फोन करके भागते हुए कार-चालक को पकड़ा जा  सकता है। 

बिना विलम्ब किये ही उन्होंने तुरन्त मेन-गेट पर फोन करके सिक्योरिटी-स्टाफ से कहा कि ग्रीन कलर की शर्ट और ब्लैक जीन्स पहने हुये एक आदमी यहाँ पर कार से ऐक्सीडेन्ट करके भागा है और वह गेट की ओर ही आ रहा है। उसे तुरन्त पकड़ने की कोशिश करो। हम शीघ्र ही वहाँ पहुँच रहे हैं। देखो, वह भागने न पाये। मैं डॉक्टर गौरांग पटेल बोल रहा हूँ।

अधिकतर सिक्योरिटी स्टाफ वाले डॉक्टर गौरांग पटेल से परिचित ही थे। अतः आदेश का तुरन्त ही पालन किया गया।

सिक्योरिटी स्टाफ तुरन्त हरकत में आ गया और वहाँ से शेष दोनों गेटों पर भी तुरन्त सूचना दे दी गई। लेकिन गेट नम्बर तीन का सिक्योरिटी स्टाफ जब तक हरकत में आता, तब तक तो वह कार-चालक गेट नम्बर तीन से बाहर जा चुका था।

इतना ही नहीं, वहाँ के सिक्योरिटी-स्टाफ ने उस ग्रीन कलर की शर्ट और ब्लैक जीन्स पहने हुये आदमी को एक मोटर-साइकिल पर बैठकर जाते हुये देखा भी था। पर तब तक उनके पास सूचना नहीं पहुँच पाई थी।

शायद मोटर-साइकिल वाला व्यक्ति उस कार-चालक का पहले से ही इन्तजार ही कर रहा था। ये भी सम्भव हो सकता है कि कार-चालक ने यह सब कुछ पहले से ही निश्चित कर रखा हो। इस बार भी कार-चालक भागने में सफल हो गया था और सारे के सारे प्रयास बेकार गये।

कार-चालक का इस प्रकार से ऐक्सीडेन्ट करना और फिर मोटर-साइकिल पर कुछ इस तरह से भाग जाना, निश्चित रूप से किसी प्री-प्लान्ड षढ़यन्त्र की ओर इशारा कर रहे थे। जानबूझ कर हत्या करने के उद्देश्य से किया गया ऐक्सीडेन्ट था यह। इसे सामान्य रूप से ऐक्सीडेन्ट तो नही ही कहा जा सकता था।

थोड़ी ही देर में डॉक्टर गौरांग पटेल और कुछ और लोग भी गेट नम्बर तीन पर पहुँचे। पर निराशा ही हाथ लगी।

पुलिस को अति शीघ्र सूचित किया गया और साथ ही डॉक्टर गौरांग पटेल ने मिसिज़ भास्कर और अपने घर पर भी सूचित किया और घटना-स्थल पर शीघ्र पहुँचने को कहा। घटना-स्थल पर क्रोधित भीड़ का जमावड़ा बढ़ने लगा था। सभी लोगों के मन में कार-चालक के प्रति तीब्र आक्रोश था। भीड़ को नियंत्रित करना पुलिस के लिये किसी चुनौती से कम नहीं था।

उधर पुलिस को सूचना मिलते ही वह दौड़ पड़ी थी, घटना-स्थल की ओर। आखिरकार सीबीआई के एक बड़े सीनियर   ऑफीसर का मामला जो था।

पुलिस ऑफीसर तथा अन्य पुलिस-स्टाफ ने घटना-स्थल पर पहुँच कर, वहाँ उपस्थित लोगों तथा डॉक्टर गौरांग पटेल से सभी जानकारी प्राप्त कीं और हैड-ऑफिस में सभी जानकारियों को फोन द्वारा सूचित किया। साथ ही ग्रीन कलर की शर्ट और ब्लैक जीन्स पहने हुये आदमी को पकड़ने के लिये हैड-ऑफिस में आवश्यक निर्देश भी दिये।

सभी पुलिस-स्टेशनों तथा पुलिस-चौकियों पर भी मैसिज़ कनवे कर दिया गया। शहर से बाहर जाने वाले सभी रास्तों पर चौकसी बढ़ा दी गई, ट्रेफिक-पुलिस को भी एलर्ट कर दिया गया था और शहर के चप्पे-चप्पे पर कार-चालक को पकड़ने के लिये सर्च-ऑपरेशन चालू कर दिया गया था।

ऐक्सीडेन्ट करके भागने वाले कार-चालक को पकड़ने का हर सम्भव प्रयास किया जा रहा था क्योंकि इस घटना का मुख्य आरोपी तो कार-चालक ही था।

पुलिस ऑफीसर ने भास्कर भट्ट के परिवार वालों को और सीबीआई के हैड-ऑफिस को भी सूचित किया। घटना-स्थल पर उपस्थित अनेक व्यक्तियों के निवेदन भी लिये गये, स्थितियों की सभी जानकारियाँ ली गई और पंच-नामा भी किया गया।

घटना-स्थल का बारीकी से निरीक्षण किया गया तथा फोटोग्राफ्स् भी लिये गये। कार का निरीक्षण भी किया गया। कुछ भी तो नहीं मिल सका था कार के अन्दर या बाहर, सबूतों और तथ्यों के नाम पर। जिसके माध्यम से शातिर अपराधी तक पहुँचा जा सके।

फ्लॉरेंसिक साइन्स लेबोरेटरी के फिंगर-प्रिंटस् विशेषज्ञों ने फिंगर-प्रिन्टस् तथा अन्य तथ्यों को कार के अन्दर से तथा बाहर घटना-स्थल से एकत्रित किये। साथ ही पुलिस के स्पेशल डॉग्स् को भी घटना-स्थल पर लाया गया। 

डॉक्टर गौरांग पटेल ने फ्लॉरेंसिक साइन्स लेबोरेटरी के विशेषज्ञवैज्ञानिकों से अपने हाथ के उस भाग से डीएनए का सैम्पिल लेने का सुझाव दिया, जहाँ पर कि कार-चालक ने उनके हाथ को अपने दाँतों से काट लिया था।

डॉक्टर गौरांग पटेल की सोच थी कि डीएनए टैस्ट की रिपोर्ट शायद भविष्य में कभी कुछ काम आ सकेगी। विशेषज्ञों ने भी यह सुझाव उचित समझा और सैम्पिल कलैक्ट कर लिया।

सभी कानूनी कार्यवाही पूरी कर लेने के बाद, शव को पोस्टमार्टम् के लिये सिविल-हॉस्पीटलस् में भेज दिया गया। ताकि पोस्ट-मार्टम के बाद डैड-बॉडी को परिवार वालों को सौंपा जा सके। जो कि कानूनी प्रक्रिया का ही एक भाग होती है और कार को टोइंग करके पुलिस थाने के कम्पाउण्ड में एक सुरक्षित स्थान पर रखवा दिया गया।

ऐक्सीडेन्ट करने के बाद भी कार-चालक ने न तो अपने आप को पुलिस थाने में ही सरेन्डर किया और ना ही ऐक्सीडेन्ट की सूचना पुलिस थाने में दी। स्पष्ट था कि वह इस ऐक्सीडेन्ट और घटना से अपने आप को बचाना चाहता था।

और वैसे भी, तथ्यों और सबूत के नाम पर कुछ भी तो हाथ नहीं लग सका था पुलिस को। अतः पुलिस ने अज्ञात व्यक्ति के नाम *हिट एण्ड रन* का केस बनाकर गैर इरादतन हत्या का केस दर्ज कर लिया था और केस की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास शुरू कर दिया था।

 कार की नम्बर-प्लेट, इंजन और चेसिस नम्बर के आधार पर कार के मालिक तक पहुँचने का प्रयास किया जा रहा था। कार की नम्बर-प्लेट भी नकली थी। आरटीओ के ऑफिस-रिकॉर्डस् के अनुसार यह नम्बर-प्लेट तो किसी ट्रक की थी और वह ट्रक भी आउट ऑफ यूज़ था।

तथ्यों और सबूतों के अभाव में कुछ भी तो नही कह पा रही थी पुलिस और इन्वैस्टीगेशन टीम। सी.सी.टी.वी. कैमरे के फुटेज भी बहुत कुछ सहायक नहीं हो पा रहे थे। क्योंकि आस-पास लगे हुये कुछ कैमरे तो कार्य-रत थे ही नहीं और कुछ धूल-धक्कड़ से अटे पड़े थे।

सरकारी तंत्र हैऔर इस तंत्र में सब कुछ चलता है। लापरवाही को नकारा तो नहीं जा सकता था। भला लापरवाही न हो तो कैसा सरकारी तंत्र। लापरवाही और सरकारी तंत्र एक दूसरे के पर्याय जो ठहरे।

ऐक्सीडेन्ट या हत्या, दोंनो के तारों को जोड़ने की दिशा में हर सम्भव पहलुओं पर विचार किया जा रहा था और गुत्थी को सुलझाने का प्रयास जारी था। पुलिस द्वारा अपराधी तक पहुँचने का हर सम्भव प्रयास तो किया ही जा रहा था। जिसे नकारा नहीं जा सकता था।

इधर पुलिस द्वारा भास्कर भट्ट जी के परिवार, मित्रों और ऑफिस के सहयोगियों से भी हर सम्भव सहयोग लिया जा रहा था। उनके द्वारा दिये गये परामर्शों को गम्भीरता से लिया जा रहा था और उनके द्वारा दिये गये सभी निर्देशों पर अमल भी किया जा रहा था। पुलिस द्वारा अपराधियों तक पहुँचने के हर सम्भव प्रयास किये जा रहे थे।

साथ ही डॉक्टर गौरांग पटेल, वहाँ उपस्थित अन्य लोगों तथा सिक्योरिटी स्टाफ की सहायता से कार-चालक का स्कैच भी तैयार कराया गया, जिसे शहर के स्थानीय समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित किया गया तथा साथ ही साथ स्थानीय टी.वी. चैनलस् पर भी कुछ समय के लिये दिखाया गया। ताकि अपराधी के विषय में कोई जानकारी या सुराग मिल सके और अपराधी को शीघ्र से शीघ्र गिरफ्त में लिया जा सके।

पुलिस को पता चला कि चमचमाती हुई कार, जिससे कि सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी का कार-ऐक्सीडेन्ट हुआ था, वह कार तो इसी इलाके के जाने-माने दबंग नेता लाखन सिंह के सगे साले तेजपाल सिंह के नाम पर दर्ज थी। और वह दो माह पूर्व ही चोरी हो गई थी। जिसकी रिपोर्ट भी तेजपाल सिंह के द्वारा अलकापुरी पुलिस-स्टेशन में दर्ज करा दी गई थी। अतः इस कार की तलाश तो अलकापुरी के पुलिस-थाने को भी थी।

पर हैरत की बात तो यह थी कि लाखन सिंह के ऊपर भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप लगे हुये थे। जिसकी कि जाँच सीबीआई द्वारा माननीय सुप्रिम-कोर्ट की निगरानी में की जा रही थी और उस जाँच-कमेंटी के अध्यक्ष सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी ही थे।

 यूँ तो लाखन सिंह अपने इलाके के जाने-माने दबंग, राजनीति में कुशल तिकड़मी नेता थे। पार्टी चाहे जो भी सत्ता में हो, पर लाखन सिंह, सभी सिद्धान्त और आदर्शों को ताख पर रख कर रूलिंग-पार्टी में ही अपनी जगह बना लेते थे और कोई न कोई पद या मंत्रालय को हथिया भी लेते थे। फिर उन्हें चाहे तो कोई दल-बदलू कहे तो कहता रहे। इसकी वे कभी भी लेशमात्र भी परवाह नहीं करते।

और जब जीजा जी की छत्र-छाया हो तो फिर साले साहब क्या नहीं कर सकते। उनकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में होना स्वाभाविक ही होता है और ऐसा हुआ भी। लाखन सिंह के काले-धन्धे और दो नम्बर के काम का सभी कारोबार उनके साले-श्री की ही देख-रेख में फलफूल रहा था। और अपने सालेश्री के काम करने से नेता जी सन्तुष्ट भी थे।

इधर पुलिस को यह आशंका थी कि कहीं अलकापुरी पुलिस-स्टेशन में कार के चोरी होने की एफ.आई.आर. पुलिस को गुमराह करने का प्रयास तो नहीं थी और वास्तव में नेता लाखन सिंह के सालेतेजपाल सिंह की कार चोरी हुई ही न हो।

और इस चोरी की कार का उपयोग ऐक्सीडेन्ट करके सीबीआई ऑफीसर भास्कर भट्ट को अपने रास्ते से हटाने में किया जा सके। शंका होना स्वाभाविक भी था।

पुलिस तो घटना को हर दृष्टिकोंण से देखती भी है और सोचती भी है। तभी तो वह अपराधी और अपराध की तह तक पहुँच पाती है।

इधर पुलिस को कार तो मिल गई पर कहानी में एक नया अध्याय और जुड़ गया था। मामला अगर कार की चोरी तक ही सीमित होता तब तो अध्याय कब का समाप्त हो गया होता।

पर चोरी की कार से सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट का ऐक्सीडेन्ट हो जाना और वह भी कुछ इस तरह से, एक नये अध्याय और नये रहस्य की ओर इशारा कर रहे थे। कार चुराने वाले के पास तक तो पुलिस अब तक न पहुँच पाई थी और ना ही सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट के हत्यारे तक।

चोरी की कार, बदली हुई नम्बर-प्लेट, कार के अन्दर कोई कागज़ात, आर.सी. बुक, पी.यू.सी. या अन्य कोई भी सामान का न होना, साथ ही कार के अन्दर अकेले ड्रायवर का होना और उसका भी घटना-स्थल से ऐक्सीडेन्ट करके भाग जाना। साथ ही उसके साथी बाइक-चालक का पहले से ही गेट नम्बर तीन पर मौजूद होना, ये सब कुछ कोई सोची-समझी, प्री-प्लान्ड साज़िश की ओर इशारा कर रहे थे। जिसे नकारा नहीं जा सकता था ।

आखिर ऐसा किसी ने क्यों किया होगा। क्या कारण रहा होगा, इसके पीछे। कोई किसी की हत्या यूँ ही तो नहीं करता है या करवाता है। कारण व्यक्तिगत अदावट या दुश्मनी का भी हो सकता है। पर अन्य सम्भवनाओं से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता है।

एक कर्तव्य-निष्ठ, ईमानदार, सीधे-सरल और मृदु-भाषी सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की ऐसी दुश्मनी, जो कि जान पर बन आये, गले से नहीं उतरती थी लोगों के।

तो फिर क्या भास्कर भट्ट किसी के रास्ते की रुकावट थे, जिसे कोई अपने रास्ते से हटा देना चाहता था। या उनके जीवितरहने से किसी को कोई खतरा पैदा हो सकता था, मान-सम्मान को। या फिर कुछ और।

 इधर राजनीति के गलियारे से पक्ष और विपक्ष के नेताओं में आरोप और प्रत्यारोपों का दौर, पल-पल बढ़ता हुआ मीडिया का दबाब, टेलीविज़न और समाचार-पत्रों में प्रकाशित खबरों का शैलाब और जन-आक्रोश, सभी कुछ तो पुलिस को हैरान और परेशान करने के लिये पर्याप्त थे।

अनेक राजनैतिक पार्टियाँ और विपक्ष अपनी वोट-बेंक की राजनैतिक रोटियाँ सेकने में लगे हुये थे। आम जनता में भी तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रहीं थी। जितने मुँह उतनी बातें सामने आ रहीं थीं।

विपक्ष, सुप्रिम-कोर्ट के मार्ग-दर्शन में सीबीआई की जाँच करवाने पर अड़ा था। उसे दाल में कुछ काला ही नहीं वल्कि पूरी की पूरी दाल ही काली नज़र आ रही थी।

लोगों का अनुमान था कि जिस नेता के खिलाफ भ्रष्टाचार और घोटालों के गम्भीर आरोप लगे हुये हैं, जिसकी जाँच सीबीआई द्वारा सुप्रिम-कोर्ट की निगरानी में जाँच-कमेंटी के द्वारा की जा रही है और उस जाँच-कमेंटी के अध्यक्ष सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी ही थे। उसी नेता के निकट के रिश्तेदार की कार से भास्कर भट्ट जी का ऐक्सीडेन्ट हो जाना, शंका तो उत्पन्न करता ही है।

और वैसे भी इस केस में भास्कर भट्ट जी की विशेष भूमिका भी थी। उन्हीं के अथक प्रयासों और दूर-दर्शिता के फल-स्वरूप ही सीबीआई विभाग सभी महत्व-पूर्ण पत्र, सबूत, सीडी औरअनेक कागजात एकत्रित कर सका था।

शायद यही कारण रहा होगा जो कि सीबीआई ऑफीसर भास्कर भट्ट जी असमाजिक तत्वों के लिये सिर-दर्द बन गये थे। कर्तव्य-निष्ठ और ईमानदार ऑफीसर, असमाजिक तत्वों को कैसे रास आ सकेगा और इसीलिये वे उन्हें अपने रास्ते से हटा देना चाहते थे।

दो-तीन दिनों के बाद ही कोर्ट की तारीख थी जबकि भास्कर भट्ट जी को अपनी रिपोर्ट और घोटाले से सम्बन्धित सभी दस्तावेज़, स्ट्रिंग-ऑपरेशनस् की सीडी, फोन-टेप्स, नेता जी की पर्सनल-डायरी, ढ़ेर सारे सबूत, ई-मेलस् की फोटो-कॉपी और अन्य कागज़ातों को कोर्ट में सौंपना था। ये सभी कागजात अत्यन्त महत्व-पूर्ण थे और भास्कर भट्ट जी की निगरानी में ही थे। 

अपनी सीक्रेट-रिपोर्ट और घोटाले से सम्बन्धित सभी दस्तावेज़ों को कोर्ट में सौंपने से पहले ही सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की हत्या का प्रयास किया गया और जिसमें भ्रष्टाचारी लोग सफल भी हो गये।

और एक ईमानदार सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ऐसा विपक्ष, मीडिया और अन्य लोगों का अनुमान था।

पर किसी के पास भी कोई ऐसा तथ्य या प्रमाण नहीं था जिसके आधार पर नेता लाखन सिंह या उनके साले तेजपाल सिंह के ऊपर यह गम्भीर आरोप सिद्ध किया जा सके और लाखन सिंह को कानून की गिरफ्त में लिया जा सके। शायद इसीलिये विपक्ष सीबीआई की जाँच करवाने के पक्ष में था।

संसद से लेकर सड़क तक विपक्ष की ओर से बढ़ता हुआ दबाब, सक्रिय मीडिया की दखलंदाजी, जन-आक्रोश और जनता के उग्र जन-आन्दोलन के सामने विवश थी सरकार।

और जब इस घटना के विषय में पाखी के स्कूल में पता चला तो सारा का सारा स्कूल ही उमढ़ पड़ा था पाखी के घर की ओर। स्कूल की प्रिन्सीपल मेडम, टीचिंग-स्टाफ, स्टूडेन्टस्, पाखी के सभी साथी और दूसरे स्कूलों के विद्यार्थी भी पहुँच गये थे पाखी को सांत्वना देने के लिये, अपनी पाखी के दुःख में सहभीगी होने के लिये और उसकी हर परिस्थिति में सहयोग और सहायता करने के लिये।

इतना ही नहीं, साक्षी जिस कॉलेज में प्रोफेसर थी उस कॉलेज के और अन्य सभी कॉलेजों के स्टूडेन्टस् ने तो स्ट्राइक ही कर दी थी। शहर की प्रशासन और कानून व्यवस्था के विरोध में थाने पर हल्ला बोल दिया था। जगह-जगह पर तोड़-फोड़ भी कर डाली स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों ने, वानर-सेना जो ठहरी।

और फिर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। वे क्या कर बैठें, ये तो उन्हें भी खबर नहीं होता है। ये तो भेड़-चाल होती है। पीछे चलने वाली भेड़ को कहाँ पता होता है कि आगे चलने वाली भेड़ किस दिशा में जाने वाली है। उसे तो बस, आगे वाली भेड़ का अनुकरण ही करना होता है।

विद्यार्थियों के आक्रोश और असन्तोष का सामना करना पड़ रहा था पुलिस को और व्यवस्था को। जगह-जगह पर पुलिस विरोधी वातावरण बन गया था। शहर की सभी शैक्षणिक-संस्थायें, प्राइवेट संस्थायें, बाजार और अनेक संस्थान स्वयं-भू बन्द हो गये थे।

शिक्षक-संघ तथा स्टूडेन्ट यूनियन के अनेक पदाधिकारी, पुलिस-प्रशासन और सरकार की कानून और व्यवस्था के विरोध में आमरण भूख-हड़ताल पर बैठ गये थे।

उनकी माँग थी कि भास्कर भट्ट जी के हत्यारे कार-चालक को शीघ्र से शीघ्र पकड़ा जाना चाहिये और जब तक उसे पकड़ा नहीं जायेगा तब तक यह आमरण भूख-हड़ताल चालू ही रहेगी।

शहर के व्यापारी-वर्ग, लेबर-यूनियन, ऑटोरिक्शा-चालक यूनियन तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं ने भी इस आन्दोलन का समर्थन किया।इसी बीच समाज-सेवी संस्था के एक पदाधिकारी द्वारा माननीय सुप्रिम-कोर्ट में जन-हित याचिका डाल दी गई। उस जन-हित याचिका को संज्ञान में लेते हुये माननीय सुप्रिम-कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। 

माननीय सुप्रिम-कोर्ट ने आदेश दिया कि न्यायालय की निगरानी में पुलिस द्वारा सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट की मौत की जाँच कराई जाय।

पाखी और पाखी के परिवार ने कोर्ट केइस निर्णय को अनमने मन से उचित ही समझा।

घायल पाखी और साक्षी के मन की वेदना को तो कौन जान सकता था। उनके लिये तो कैसा न्याय, कैसा कानून, कैसा अनशन और कैसा प्रदर्शन। सब कुछ तो अर्थहीन-सा ही था पाखी के लिये और पाखी की माँ साक्षी के लिये।

अगर आदमी मर जाता है तो सन्तोष किया जा सकता है और आदमी सन्तोष कर भी लेता है। पर जब निर्दोष आदमी को मार दिया जाता है तो सन्तोष नहीं हो पाता है। आदमी सन्तोष नहीं कर पाता है। और तब जन-जन के मन में विद्रोह जाग जाता है, व्यवस्था से विद्रोह। आदमी का आदमी जाग जाता है और जाग जाता है आदमी का आक्रोश और प्रतिशोध।

 और आज फिर से किसी सिर-फिरे निष्ठुर पतंगबाज ने एक निर्दोष चिड़िया के पर को काट दिया है अपनी पतंग के तेज धागे से। *पर-कटी चिड़िया* की इस कष्ट-दायक घटना ने तो पाखी के घावों को फिर से हरा कर दिया था।

उसे रह-रह कर कभी अपना और कभी अपनी *पर-कटी चिड़िया* का ख्याल आ रहा था। उसके मन में यही मंथन चल रहा था कि क्या खता थी इस बेचारी *पर-कटी चिड़िया* की और क्या खता थी मेरी और मेरे पापा की। जिसका इस निष्ठुर समाज ने कुछ इस तरह का सिला दिया है।

ये *पर-कटी चिड़िया* भी तो अपने आकाश में ही उड़ रही थी, अपने बच्चों के लिये दाना लेने ही तो आई थी और किसी निष्ठुर सिरफिरे की बेहूदी हरकत का शिकार हो गई। अब ये बेचारी मर भी तो नहीं सकती और जिन्दा तो है ही कहाँ।

 और मेरे पापा, वे भी तो निष्ठापूर्वक ही संविधान और न्यायालय के आदेशों का विधिवत् रूप से पालन कर रहे थे। अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे और वही सब कुछ तो कर रहे थे जो कुछ भी एक निष्ठावान सीबीआई अफसर को करना चाहिये था। तब क्यों किसी निष्ठुर सिरफिरे ने उनकी हत्या कर डाली। एक हँसते-खेलते सुखमय परिवार को नर्क बना डाला।

क्या मिला उसे किसी की जिन्दगी को उजाड़ कर। मात्र चाँदी के चन्द सिक्के। बस, और तो कुछ भी नहीं। चाँदी के चन्द सिक्कों में बिक गया आदमी और आदमी का ज़मीर। कितना सस्ता और हल्का हो गया है आज आदमी। वाह रे आदमी और आदमी का ज़मीर।

और क्या निष्ठा और ईमानदारी से अपने कर्तव्य-पालन करने का यही पुरस्कार होता है। ट्रान्सफर, ट्रान्सफर और ट्रान्सफर बस। एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक शहर से दूसरे शहर में  या फिर एक लोक से दूसरे लोक में।

घिनौंनी और स्वार्थ-पूर्ण घटिया राजनीति के इस गन्दे खेल में किसी भी सरकारी अफसर का *ट्रान्सफर* एक सामान्य सी बात होती है।

ये लोग तो किसी का भी, कभी भी और कहीं भी, जब चाहें तब, जहाँ चाहें वहाँ, जैसे चाहें वैसे, *ट्रान्सफर* कर सकते हैं, कर देते हैं।

अपने और *पर-कटी चिड़िया* के ऊपर हुये अन्याय के प्रति पाखी के मन में आक्रोश था, असन्तोष था और थी प्रतिशोध की प्रचण्ड ज्वाला। दोनों का ही एक-एक *पर* कटा हुआ था और दोनों ही व्याकुल थे अपनी-अपनी स्थिति में, अपनी-अपनी परिस्थिति में और अपनी-अपनी बदहाल बेवश जिन्दगी में।

*पर-कटी चिड़िया* की आँखों में पाखी को अपना ही प्रतिविम्ब तो दिखाई दे रहा था। सच में, सब कुछ तो समान था दोनों में। दोनों ही नारी जाति के थे, दोनों का ही एक-एक पंख कटा हुआ था, दोनों ही शोषित-वर्ग से थे और संयोग-वश नाम भी तो दोनों का एक ही था। और वह नाम था पाखी। हाँ, *पाखी*, *पर-कटी पाखी*। 

     फर्क बस इतना था कि एक नभ-चर प्राणी था और दूसरा थल-चर प्राणी। एक आकाश में उड़ता था और दूसरा आकाश में उड़ने के सपने देखता था। और आज एक निष्ठुर पतंग-बाज और स्वार्थी-समाज ने वह फर्क भी मिटा दिया। आज दोनों के दोनों ही धरती के प्राणी होकर रह गये हैं, धरती पर आ गये हैं। आकाश में उड़ने के अपने स्वर्णिम सपनों को सदा-सदा के लिये तिलांजली देकर।

तभी तो इस *पर-कटी चिड़िया* की आँखों में पाखी को अपना ही प्रतिविम्ब दिखाई दे रहा था।

हाँ, अपना ही प्रतिविम्ब।

***