Kalvachi-Pretni Rahashy - 70 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(७०)

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(७०)

अन्ततोगत्वा गिरिराज ने अचलराज,वत्सला,महाराज कुशाग्रसेन,सेनापति व्योमकेश एवं कालवाची को अपने पुराने राज्य के बंदीगृह में बंधक बना दिया,वें सभी एक ही बंदीगृह के अलग अलग कक्ष में बंदी थे,अभी उन्हें बंदी बनाएँ दो तीन बीत चुके थे और सभी को यही चिन्ता सता रही थी कि अब कालवाची का क्या होगा? यदि कालवाची को समय पर उसका भोजन नहीं मिला तो वो वृद्ध होती जाएगी एवं उसकी शक्तियांँ भी कार्य करना बंद कर देगीं,तब क्या होगा?
वें सभी अलग अलग कक्ष में थे इसलिए उनके मध्य कोई वार्तालाप भी नहीं हो पा रहा था,ना ही वें कोई योजना बना पा रहे थे,उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वें क्या करें,क्योंकि उनके साथियों को भी ये ज्ञात नहीं होगा कि वे गिरिराज के पहले राज्य के बंदीगृह में बंधक हैं,उन सभी को बंदीगृह से मुक्त होने के कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे,किन्तु ये सब तो महाराज कुशाग्रसेन की योजना थी क्योंकि उन्होंने स्वयं को जानबूझकर बंदी बनवाया था,उस रात जब वें उस सबके संग उस घर में रह रहे थे तो तब गिरिराज ने अपने सैनिकों के संग उस घर को घेर लिया और दहाड़ते हुए बोला.....
"कुशाग्रसेन! मुझे ज्ञात है कि तू अपने साथियों के संग यहाँ रह रहा है,अब तेरा कोई षणयन्त्र नहीं चलेगा,तुझे क्या लगा कि तू मुझे सरलता से मूर्ख बनाकर इस राज्य पर आधिपत्य पा लेगा,किन्तु मूर्ख ये तेरी भूल थी,मैं तुझे कभी ऐसा नहीं करने दूँगा"
तभी महाराज कुशाग्रसेन और सेनापति व्योमकेश दोनों ही उस घर से बाहर निकले और महाराज कुशाग्रसेन ने गिरिराज से कहा....
"तुझे क्या लगता है मूर्ख! कि मुझे ज्ञात नहीं होगा कि तेरी अगली चाल क्या होगी? ये तो मुझे उसी दिन ज्ञात हो गया था जिस रात मैं बंदीगृह से मुक्त हुआ था,इसलिए मैंने अपने अन्य साथियों को यहाँ से भाग जाने के लिए पहले ही कह दिया था,अब तू मुझे और मेरे सेनापति व्योमकेश जी को बंदी बना ले, इससे मुझे कोई आपत्ति ना होगी"
"ओह....तू तो अत्यधिक धूर्त निकला,मुझे ज्ञात होता कि तू इतने दिनों से ये षणयन्त्र रच रहा है तो मैं पहले ही तेरी हत्या करवा देता,मुझे सब ज्ञात हो चुका है कि तू उस प्रेतनी कालवाची का सहारा लेकर बंदीगृह से मुक्त हुआ है" गिरिराज बोला....
"तू समय को नष्ट कर रहा है गिरिराज!मुझे शीघ्रता से बंदी बना और ले चल अपने साथ",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
तो उस रात्रि महाराज कुशाग्रसेन और सेनापति व्योमकेश इस प्रकार बंदी बन गए,वे सभी गिरिराज के पुराने राजमहल के बंदीगृह में बंदी बनकर रह रहे थे तभी एक दिन गिरिराज उनके समक्ष आकर दीर्घ स्वर में बोला....
"मेरे प्रिय बंदियों अब मैं तुम सभी को बंदीगृह से मुक्त करना चाहता हूँ"
"तू और हमें मुक्त करेगा,ये भी तेरा कोई षणयन्त्र होगा",अचलराज बोला....
"ना पुत्र अचलराज! मुझे तेरे पिताश्री पर दया आ गई है,इसलिए मैं तुझे मुक्त कर रहा हूँ",गिरिराज बोला...
"झूठा दिलासा देने का प्रयास मत कर कपटी गिरिराज! मैं तेरी एक एक चाल से भलीभाँति परिचित हूँ",महाराज कुशाग्रसेन बोले...
"तू तो अत्यधिक बुद्धिमान है कुशाग्रसेन! तू कैसें समझ गया कि अब मैं कुछ और ही करने जा रहा हूँ",गिरिराज बोला....
"तू भूल चुका है कि मैं भी पहले राजा था,कौन कहाँ और कैसा षणयन्त्र रच रहा है,इसके लिए मुझे सावधान रहना पड़ता था,तो इतना तो मैं समझ ही सकता हूँ कि तू हमें मुक्त नहीं करने वाला,तू हम सभी के संग कुछ और ही करने वाला है",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
तब गिरिराज बोला....
"हाँ! तू ठीक समझा कुशाग्रसेन! मैंने तेरे परम मित्र मगधीरा के राजा विपल्व चन्द्र को यहाँ बुलवाया है,अब वें ही तुझे अपने संग अपने राज्य ले जाऐगें,इसके पश्चात वें तेरे संग कुछ भी करें,मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं,मैं तुम सभी को उनके संग इसलिए भेज रहा हूँ कि मुझे तुम्हारे साथियों को भी तो बंदी बनाना है,मुझे ये भलीभाँति ज्ञात है कि वे सभी तुझे खोजते हुए यहाँ अवश्य आऐगें,यदि वें सभी मेरे बंदी बन गए तो तेरा मुक्त होना असम्भव है"
"किन्तु!मगधीरा राज्य के राजा विपल्व चन्द्र तो महाराज कुशाग्रसेन के मित्र हैं,तो तू उन्हें अपना मित्र क्यों कह रहा है",सेनापति व्योमकेश बोले....
"क्योंकि दरिद्रों से कोई भी मित्रता नहीं करना चाहता,अब कुशाग्रसेन के पास है ही क्या जो राजा विपल्व चन्द्र इससे मित्रता करेगें,जिसके पास सत्ता,धन और वैभव होता है तो लोग उससे ही मित्रता करना चाहते हैं,तेरे जैसे शक्तिहीन राजा से नहीं,जो केवल नाममात्र का ही राजा है",गिरिराज बोला....
"तू ये बड़ी भूल करने जा रहा है गिरिराज! देख लेना पछताएगा",सेनापति व्योमकेश बोले....
"ये तो समय ही बताएगा",
और ऐसा कहकर गिरिराज वहाँ से चला गया,कुछ समय पश्चात वो मगधीरा के राजा विपल्व चन्द्र के संग वापस लौटा और विपल्व चन्द्र को कुशाग्रसेन के समक्ष ले जाकर बोला....
"देखिए! महाराज विपल्व ये हैं आपके भूतपूर्व मित्र! देखिए मैंने इनकी क्या दशा बना दी है",
"कोई बात नहीं महाराज गिरिराज! अब मैं इन्हें अपने राज्य ले जा रहा हूँ,कदाचित तब इनकी दशा सुधर जाएँ",विपल्व चन्द्र बोला....
"मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी विपल्व! तुम तो मेरे मित्र थे",महाराज कुशाग्रसेन बोले.....
"मित्रता की बात ना करो कुशाग्रसेन! तुम्हें तो याद ही होगा कि तुमने कभी मेरे संग कैसा व्यवहार किया था,अब उस दुर्व्यवहार का प्रतिशोध लेने का समय आ चुका है",विपल्व चन्द्र ने महाराज कुशाग्रसेन से कहा....
"किन्तु! वो उचित नहीं था",कुशाग्रसेन बोले....
"मैं तुम्हें उसके बदले में अपने राजमहल की सुन्दर से सुन्दर नर्तकी या सुन्दर से सुन्दर दासी देने का वचन दिया था",विपल्व चन्द्र बोला....
"उस समय भी तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी और अभी भी तुम्हारी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है तभी तुम ऐसी बातें कर रहे हो",महाराज कुशाग्रसेन बोले...
"मैं तब भी ठीक कह रहा था और आज भी ठीक ही कह रहा हूँ" विपल्व चन्द्र बोला....
"तुम्हारी निरर्थक बातें सुनने को मेरा जी नहीं चाहता,चले जाओ यहाँ से",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"मैं निरर्थक नहीं,अर्थपूर्ण बातें कर रहा हूँ,यदि तुम उस समय मेरी बात मान लेते तो आज मैं महाराज गिरिराज के संग नहीं तुम्हारे संग होता"विपल्व चन्द्र बोला...
"तुम्हारे कहने का तात्पर्य है कि यदि उस समय मैं अपनी रानी कुमुदिनी को तुम्हें सौंप देता तो तुम आज मेरा साथ देते",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"हाँ! गिरिराज! किन्तु! तुमने ऐसा नहीं किया था",विपल्व चन्द्र बोला....
"ये मेरे पुरुषत्व के विरूद्ध था,भला मैं अपनी स्त्री तुम्हें कैसें सौंप सकता था,वो मेरा अभिमान थी,मेरे घर की मर्यादा थी,मेरा गौरव थी,वो मेरी सर्वोपरि थी,तुम्हे अपनी मानसिक स्थिति का उपचार करवाना चाहिए, तुम्हारी स्थिति ठीक नहीं है विप्लव! तभी तुम ऐसी बातें कर रहे हो",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"तुम्हारा गौरव तुम्हारी आँखों के सामने ही नष्ट होगा कुशाग्रसेन! और तुम कुछ नहीं कर पाओगें,क्योंकि मुझे ज्ञात हो गया है कि तुम्हारे जो भागने वाले साथी हैं उनमें तुम्हारी पुत्री और पत्नी भी हैं,जिस दिन वें दोनों मुझे मिल गई तो समझों उनकी मर्यादा गईं",विपल्व चन्द्र बोला....
"तू उस दिवस तक जीवित रहेगा,तब तो कर पाएगा ऐसा बीभत्स कर्म",अचलराज चीखा....
"तू कौन है जो इतना चीख रहा है"? विपल्वचन्द्र ने अचलराज से पूछा....
"महाराज! विपल्व चन्द्र!ये व्योमकेश का पुत्र है",गिरिराज बोला.....
"ओह...तो तभी इतना स्वामिभक्त है",विपल्व चन्द्र बोला...
"परन्तु! अब इन सभी का क्या करना है",गिरिराज ने पूछा...
"इन सभी को मेरे संग शीघ्रता से भेजने की तैयारी कीजिए",विपल्व चन्द्र बोला...
"जैसा आप कहें महाराज विपल्व!" गिरिराज बोला....
एवं इसके पश्चात गिरिराज ने वत्सला,अचलराज,कालवाची,सेनापति व्योमकेश और महाराज कुशाग्रसेन को विपल्व चन्द्र के संग भेजने का प्रबन्ध कर दिया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....